आजाद-कथा / भाग 2 / खंड 106 / रतननाथ सरशार

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आजाद सुरैया बेगम की तलाश में निकले तो क्या देखते हैं कि एक बाग में कुछ लोग एक रईस की सोहबत में बैठे गपें उड़ा रहे हैं। आजाद ने समझा, शायद इन लोगों से सुरैया बेगम के नवाब साहब का कुछ पता चले। आहिस्ता-आहिस्ता उनके करीब गए। आजाद को देखते ही वह रईस चौंक कर खड़ा हो गया और उनकी तरफ देख कर बोला - वल्लाह, आपसे मिलने का बहुत शौक था। शुक्र है कि घर बैठे मुराद पूरी हुई। फर्माइए, आपकी क्या खिदमत करूँ?

मुसाहब - हुजूर, जंडैल साहब को कोई ऐस चीज पिलाइए कि रूह तक ताजा हो जाय।

खाँ साहब - मुझे पारसाल सबलवायु का मरज हो गया था। दो महीने डाक्टर का इलाज हुआ। खाक फायदा न हुआ। बीस दिन तक हकीम साहब ने नुस्खे पिलाए, मरज और भी बढ़ गया। पड़ोस में एक बैदराज रहते हैं उन्होंने कहा मैं दो दिन में अच्छा कर दूँगा। दस दिन तक उनका इलाज रहा, मगर कुछ फायदा न हुआ। आखिर एक दोस्त ने कहा - भाई, तुम सबकी दवा छोड़ दो, जो हम कहें वह करो। बस हुजूर, दो बार बरांडी पिलाई। दो छटाँक शाम को, दो छटाँक सुबह को, उसका यह असर हुआ कि चौथे दिन में बिलकुल चंगा हो गया।

रईस - बरांडी के बड़े-बड़े फायदे लिखे हैं।

दीवान - सरकार, पेशाब के मरज में तो बरांडी अकसीर है। जितनी देते जाइए उतना ही फायदा करती है!

खाँ साहब - हुजूर, आँखों देखी कहता हूँ। एक सवार को मिर्गी आती थी, सैकड़ों इलाज किए, कुछ असर न हुआ, आखिर एक आदमी ने कहा, हुजूर हुक्म दें तो एक दवा बताऊँ। दावा करके कहता हूँ कि कल ही मिर्गी न रहे। खुदावंद, दो छटाँक शराब लीजिए और उसमें उसका दूना पानी मिलाइए, अगर एक दिन में फायदा न हो तो जो चोर की सजा वह मेरी सजा।

नवाब - यह सिफत है इसमें!

मुसाहब - हुजूर, गँवारों ने इसे झूठ-मूठ बदनाम कर दिया है। क्यों जंडैल साहब, आपको कभी इत्तफाक हुआ है?

आजाद - वाह, क्या मैं मुसलमान नहीं हूँ।

नवाब - क्या खूब जवाब दिया है, सुभान-अल्लाह!

इतने में मुसाहब जिनको औरों ने सिखा-पढ़ा कर भेजा था, चुगा पहने और अमाम बाँधे आ पहुँचे। लोगों ने बड़े तपाक से उनकी ताजीम की और बुला कर बैठाया।

नवाब - कैसे मिजाज है मौलाना साहब?

मौलाना - खुदा का शुक्र है।

मुसाहब - क्यों मौलाना साहब, आपके खयाल में शराब हलाल है या हराम?

मौलाना - अगर तुम्हारा दिल साफ नहीं तो हजार बार हज करो कोई फायदा नहीं। हर एक चीज नीयत के लिहाज से हलाल या हराम होती है।

आजाद - जनाब, हमने हर किस्म के आदमी देखे। किसी सोहबत से परहेज नहीं किया, आप लोग शौक से पिएँ, मेरा कुछ खयाल न करें।

नवाब - नीयत की सफाई इसी को कहते हैं। हजरत आजाद, आपकी जितनी तारीफ सुनी थी, उससे कहीं बढ़ कर पाया।

एक साहब नीचे से शराब, सोडा की बोतलें और बर्फ लाए और दौर चलने लगे। जब सरूर जमा तो गपें उड़ने लगीं -

खाँ साहब - खुदावंद, एक बार नेपाल की तराई में जाने का इत्तफाक हुआ। चौदह आदमी साथ थे, वहाँ जंगल में शहद कसरत से है और शहद की मक्खियों की अजब खासियत है कि बदन पर जहाँ कहीं बैठती हैं, दर्द होने लगता है। मैंने वहाँ के बाशिंदों से पूछा, क्यों भाई, इसकी कुछ दवा है? कहा, इसकी दवा शराब है। हमारे साथियों में कई ब्राह्मण भी थे वह शराब को छू न सकते थे। हमने दवा के तौर पर पी, हमारा दर्द तो जाता रहा और वह सब अभी तक झींक रहे हैं।

नवाब - वल्लाह, इसके फायदे बड़े-बड़े हैं, मगर हराम है, अगर हलाल होती तो क्या कहना था।

मुसाहब - खुदावंद, अब तो सब हलाल है।

खाँ साहब - खुदावंद, हैजे की दवा, पेचिस की दवा, बवासीर की दवा, दम की दवा, यहाँ तक कि मौत की भी दवा।

दीवान - ओ-हो-हो, मौत की दवा!

नवाब - खबरदार, सब के सब खामोश, बस कह दिया।

दीवान - खामोश! खामोश!

खाँ साहब - तप की दवा, सिर-दर्द की दवा, बुढ़ापे की दवा।

नवाब - यह तुम लोग बहकते क्यों हो? हमने भी तो पी है। हजरत, मुझे एक औरत ने नसीहत की थी। तबसे क्या मजाल कि मेरी जबान से एक बेहूदा बात भी निकले। (चपरासी को बुला कर) रमजानी, तुम खाँ साहब और दीवान जी को यहाँ से ले जाओ।

दीवान - इल्म की कसम, अगर इतनी गुस्ताखी हमारी शान में करोगे तो हमसे जूती-पैजार हो जायगी।

नवाब - कोई है? जो लोग बहक रहे हों उन्हें दरबार से निकाल दो और फिर भूल के भी न आने देना।

लाला - अभी निकाल दो सबको!

यह कह कर लाला साहब ने रमजान खाँ पर टीप जमाई। वह पठान आदमी, टीप पड़ते ही आग हो गया। लाला साहब के पट्टे पकड़ कर दो-चार धपें जोर-जोर से लगा बैठा। इस पर दो-चार आदमी और इधर-उधर से उठे। लप्पा-डुग्गी होने लगी। आजाद ने नवाब साहब से कहा - मैं तो रुखसत होता हूँ। नवाब साहब ने आजाद का हाथ पकड़ लिया और बाग में ला कर बोले - हजरत, मैं बहुत शर्मिंदा हूँ कि न पाजियों की वजह से आपको तकलीफ हुई। क्या कहें, उस औरत ने हमें वह नसीहत की थी कि अगर हम आदमी होते तो सारी उम्र आराम के साथ बसर करते। मगर इन मुसाहबों से खुदा समझे; हमें फिर घेर-घारके फंदे में फाँस लिया।

आजाद - तो जनाब, ऐसे अदना नौकरों को इतना मुँह चढ़ाना हरगिज मुनासिब नहीं।

नवाब - भाई साहब, यही बातें उस औरत ने भी समझाई थीं।

आजाद - आखिर वह औरत कौन थी और आपसे उससे क्या ताल्लुक था?

नवाब - हजरत, अर्ज किया न कि एक दिन दोस्तों के साथ एक बाग में बैठा था कि एक औरत सफेद दुलाई ओढ़े निकली। दो चार बिगड़े दिलों ने उसे चकमा दे कर बुलाया। वह बेतकल्लुफी के साथ आ कर बैठी तो मुझसे बातचीत होने लगी। उसका नाम अलारक्खी था।

अलारक्खी का नाम सुनते ही आजाद ने ऐसा मुँह बना लिया गोया कुछ जानते ही नहीं, मगर दिल में सोचे कि वाह री अलारक्खी, जहाँ जाओ, उसके जानने वाले निकल ही आते हैं। कुछ देर बाद नवाब नशे में चूर हो ही गए और आजाद बाहर निकले तो पुराने जान-पहचान के आदमी से मुलाकात हो गई। आजाद ने पूछा - कहिए हजरत, आजकल आप कहाँ हैं?

आदमी - आजकल तो नवाब वाजिद हुसैन की खिदमत में हूँ। हुजूर तो खैरियत से रहे। हुजूर का नाम तो सारी दुनिया में रोशन हो गया।

आजाद - भाई, जब जानें कि एक बार सुरैया बेगम से दो-दो बातें करा दो।

आदमी - कोशिश करूँगा हुजूर, किसी न किसी हीले से वहाँ तक आपका पैगाम पहुँचा दूँगा।

यह मामला ठीक-ठाक करके आजाद होटल में गए तो देखा कि खोजी बड़ी शान से बैठे गपें उड़ा रहे हें और दोनों परियाँ उनकी बातें सुन-सुन कर खिलखिला रही हैं।

क्लारिसा - तुम अपनी बीवी से मिले, बड़ी खुश हुई होंगी।

खोजी - जी हाँ, महल्ले में पहुँचते ही मारे खुशी के लोगों ने तालियाँ बजाईं। लौंडों ने ढेले मार-मार कर गुल मचाया कि आए-आए। अब कोई गले मिलता है, कोई मारे मुहब्बत के उठाके दे मारता है। सारा महल्ला कह रहा है तुमने तो रूम में वह काम किया कि झंडे गाड़ दिए। घर में जो खबर हुई तो लौंडी ने आ कर सलाम किया। हुजूर आइए, बेगम साहब बड़ी देर से इंतजार कर रही हैं। मैंने कहा, क्योंकर चलूँ? जब यह इतने भूत छोड़ें भी। कोई इधर घसीट रहा है, कोई उधर और यहाँ जान अजाब में है।

मीडा - घर का हाल बयान करो। वहाँ क्या बातें हुई?

खोजी - दालान तक बीबी नंगे पाँव इस तरह दौड़ी आईं कि हाँफ गईं।

मीडा - नंगे पाँव क्यों? क्या तुम लोगों में जूता नहीं पहनते?

खोजी - पहनते क्यों नहीं; मगर जूता तो हाथ में था।

मीडा - हाथ से और जूते से क्या वास्ता?

खोजी - आप इन बातों को क्या समझें।

मीडा - तो आखिर कुछ कहोगे भी?

खोजी - इसका मतलब यह है कि मियाँ अंदर कदम रखें और हम खोपड़ी सुहला दें।

मीडा - क्या यह भी कोई रस्म है?

खोजी - यह सब अदाएँ हमने सिखाई हैं। इधर हम घर में घुसे, उधर बेगम साहब ने जूतियाँ लगाईं। अब हम छिपें तो कहाँ छिपें, कोई छोटा-मोटा आदमी हो तो इधर-उधर छिप रहे, हम यह डील-डौल लेके कहाँ जायँ?

क्लारिसा - सच तो है, कद क्या है ताड़ है!

मीडा - क्या तुम्हारी बीवी भी तुम्हारी ही तरह ऊँचे कद की हैं?

खोजी - जनाब, मुझसे पूरे दो हाथ ऊँची हैं। आ कर बोलीं, इतने दिनों के बाद आए तो क्या लाए हो? मैंने तमगा दिखा दिया तो खिल गईं। कहा, हमारे पास आजकल बाट न थे अब इससे तरकारी तौला करूँगी।

मीडा - क्या पत्थर का तमगा है? क्या खूब कदर की है।

क्लारिसा - और तुम्हें तमगा कब मिला?

खोजी - कहीं ऐसा कहना भी नहीं।

इतने में आजाद पाशा चुपके से आगे बढ़े और कहा - आदाब अर्ज है। आज तो आप खासे रईस बने हुए हैं?

खोजी - भाईजान, वह रंग जमाया कि अब खोजी ही खोजी हैं।

आजाद - भई, इस वक्त एक बड़ी फिक्र में हूँ। अलारक्खी का हाल तो जानते ही हो। आजकल वह नवाब वाजिद हुसैन के महल में है। उससे एक बार मिलने की धुन सवार है। बतलाओ, क्या तदबीर करूँ?

खोजी - अजी, यह लटके हमसे पूछो। यहाँ सारी जिंदगी यही किया किए हैं। किसी चूड़ीवाली को कुछ दे-दिला कर राजी कर लो।

आजाद के दिल में भी यह बात जम गई। जा कर एक चूड़ीवाली को बुला लाए।

आजाद - क्यों भलेमानस, तुम्हारी पैठ तो बड़े-बड़े घरों में होगी। अब यह बताओ कि हमारे भी काम आओगी? अगर कोई काम निकले तो कहें, वरना बेकार है।

चूड़ीवाली - अरे, तो कुछ मुँह से कहिएगा भी? आदमी का काम आदमी ही से तो निकलता है।

आजाद - नवाब वाजिद हुसैन को जानती हो?

चूड़ीवाली - अपना मतलब कहिए।

आजाद - बस उन्हीं के महल में एक पैगाम भेजना है।

चूड़ीवाली - आपका तो वहाँ गुजर नहीं हो सकता। हाँ, आपका पैगाम वहाँ तक पहुँचा दूँगी। मामला जोखिम का है, मगर आपके खातिर कर दूँगी।

आजाद - तुम सुरैया बेगम से इतना कह दो कि आजाद ने आपको सलाम कहा है।

चूड़ीवाली - आजाद आपका नाम है या किसी और का?

आजाद - किसी और के नाम या पैगाम से हमें क्या वास्ता। मेरी यह तसवीर ले लो, मौका मिले तो दिखा देना।

चूड़ीवाली ने तसवीर टोकरे में रखी और नवाब वाजिद हुसैन के घर चली। सुरैया बेगम कोठे पर बैठी दरिया की सैर कर रही थीं। चूड़ीवाली ने जा कर सलाम किया।

सुरैया - कोई अच्छी चीज लाई हो या खाली-खूली आई हो?

चूड़ीवाली - हुजूर, वह चीज लाई हूँ कि देख कर खुश हो जाइएगा; मगर इनाम भरपूर लूँगी।

सुरैया - क्या है, जरा देखूँ तो?

चूड़ीवाली ने बेगम साहब के हाथों में तसवीर रख दी। देखते ही चौंक के बोलीं - सच बताना कहाँ पाई?

चूड़ीवाली - पहले यह बतलाइए कि यह कौन साहब हैं और आपसे कभी की जान-पहचान है कि नहीं?

सुरैया - बस यह न पूछो, यह बतलाओ कि तसवीर कहाँ पाई?

चूड़ीवाली - जिनकी यह तसवीर है, उनको आपको सामने लाऊँ तो क्या इनाम पाऊँ?

सुरैया - इस बारे में मैं कोई बातचीत करना नहीं चाहती। अगर वह खैरियत से लौट आए हैं तो खुश रहें और उनके दिल की मुरादें पूरी हों।

चूड़ीवाली - हुजूर, यह तसवीर उन्होंने मुझको दी। कहा, अगर मौका हो तो हम भी एक नजर देख लें।

सुरैया - कह देना कि आजाद, तुम्हारे लिए दिल से दुआ निकलती है, मगर पिछली बातों को जाने दो, हम पराए बस में हैं और मिलने में बदनामी है। हमारा दिल कितना ही साफ हो, मगर दुनिया को तो नहीं मालूम है, नवाब साहब को मालूम हो गया, तो उनका दिल कितना दुखेगा।

चूड़ीवाली - हुजूर, एक दफा मुखड़ा तो दिखा दीजिए; इन आँखों की कसम, बहुत तरस रहे हैं।

सुरैया - चाहे जो हो, जो बा खुदा को मंजूर थी, वह हुई और उसी में अब हमारी बेहतरी है। यह तसवीर यहीं छोड़ जाओ, मैं इसे छिपा कर रखूँगी।

चूड़ीवाली - तो हुजूर, क्या कह दूँ। साफ टका सा जवाब?

सुरैया - नहीं, तुम समझा कर कह देना कि तुम्हारे आने से जितनी खुशी हुई, उसका हाल खुदा ही जानता है। मगर अब तुम यहाँ नहीं आ सकते और न मैं ही कहीं जा सकती हूँ; और फिर अगर चोरी-छिपे एक दूसरे को देख भी लिया तो क्या फायदा। पिछली बातों को अब भूल जाना ही मुनासिब है। मेरे दिल में तुम्हारी बड़ी इज्जत है। पहल मैं तुमसे गरज की मुहब्बत करती थी, अब तुम्हारी पाक मुहब्बत करती हूँ। खुदा ने चाहा तो शादी के दिन हुस्नआरा बेगम के यहाँ मुलाकात होगी।

यह वही अलारक्खी हैं जो सराय में चमकती हुई निकलती थीं। आज उन्हें परदे और हया का इतना खयाल है। चूड़ीवाली ने जा कर यहाँ की सारी दास्तान आजाद को सुनाई। आजाद बेगम की पाकदामनी की घंटों तारीफ करते रहे। यह सुन कर उन्हें बड़ी तस्कीन हुई कि शादी के दिन वह हुस्नआरा बेगम के यहाँ जरूर आएँगी।