आजाद-कथा / भाग 2 / खंड 83 / रतननाथ सरशार
शाहजादा हुमायूँ फर भी शादी की तैयारियाँ करने लगे। सौदागरों की कोठियों में जा-जा कर सामान खरीदना शुरू किया। एक दिन एक नवाब साहब से मुलाकात हो गई। बोले - क्यों हजरत, यह तैयारियाँ!
शाहजादा - आपके मारे कोई सौदा न खरीदे?
नवाब - जनाब, चितवनों से ताड़ जाना कोई हमसे सीख जाय।
शाहजादा - आपको यकीन ही न आए तो क्या इलाज?
नवाब - खैर, अब यह फरमाइए, हैदर को पटने से बुलवाइएगा या नहीं? भला दो हफ्ते तक धमा-चौकड़ी रहे। मगर उस्ताद, तायफे नोक के हों। रद्दी कलावंत होंगे तो हम न आएँगे। बस यह इंतजाम किया जाय कि दो महफिलें हों। एक रईसों के लिए और एक कदरदानों के लिए।
इधर तो यह तैयारियाँ हो रही थीं, उधर बड़ी बेगम के यहाँ यह खत पहुँचा कि शाहजादा हुमायूँ फर को गुर्दे के दर्द की बीमारी है और दमा भी आता है। कई बार वह जुए की इल्लत में सजा पा चुका है। उसको किसी नशे से परहेज नहीं।
बड़ी बेगम ने यह खत पढ़वा कर सुना तो बहुत घबराईं। मगर हुस्नआरा ने कहा, यह किसी दुश्मन का काम है। आज तक कभी तो सुनते कि हुमायूँ फर जुए की इल्लत में पकड़े गए। बड़ी बेगम ने कहा - अच्छा, अभी जल्द न करो। आज डोमिनियाँ न आएँ। कल परसों देखा जायगा।
दूसरे दिन अब्बासी यह खत ले कर शाहजादा हुमायूँ फर के पास गई। शाहजादा ने खत पढ़ा तो चेहरा सुर्ख हो गया। कुछ देर तक सोचते रहे। तब अपने संदूक से एक खत निकाल कर दोनों की लिखावट मिलाई।
अब्बासी - हुजूर ने दस्तखत पहचान लिया न?
शाहजादा - हाँ, खूब पहचाना, पर यह बदमाश अपनी शरारत से बाज नहीं आता। अगर हाथ लगा तो ऐसा ठीक बनाऊँगा कि उम्र भर याद करेगा। लो, तुम यह खत भी बेगम साहब को दिखा देना और दोनों खत वापस ले आना।
यह वही खत था जो शाहजादे की कोठी में आग लगने के बाद आया था।
रात भर शाहजादे को नींद नहीं आई, तरह-तरह के खयाल दिल में आते थे। अभी चारपाई से उठने भी न पाए थे कि भाँड़ों का गोल आ पहुँचा। लाला कालीचरन ने जो डयोढ़ी का हिसाब लिखते थे, खिड़की से गरदन निकाल कर कहा - अरे भाई, आज क्य...
इतना कहना था कि भाँड़ों ने उन्हें आड़े हाथों लिया। एक बोला - हमें तो सूम मालूम होता है। दूसरे ने कहा - लखनऊ के कुम्हारों के हाथ चूम लेने के काबिल हैं। सचमुच का बनमानुस बना कर खड़ा कर दिया। तीसरे ने कहा - उस्ताद, दुम की कसर रह गई। चौथा बोला - फिर खुदा और इनसान के काम में इतना फर्क भी न रहे! लाला साहब झल्लाए तो इन लोगों ने और भी बनाना शुरू किया। चोट करता है, जरा सँभले हुए। अब उठा ही चाहता है। एक बोला - भला बताओ तो, यह बनमानुस यहाँ क्यों कर आया? किसी ने कहा - चिड़ीमार लाया है। किसी ने कहा - रास्ता भूल कर बस्ती की तरफ निकल आया है। आखिर एक अशर्फी दे कर भाँड़ों से नजात मिली।
दूसरे दिन शाहजादा सुबह के वक्त उठे तो देखा कि एक खत सिरहाने रखा है। खत पढ़ा तो दंग हो गए।
'सुनो जी, तुम बादशाह के लड़के हो और हम भी रईस के बेटे हैं। हमारे रास्ते में न पड़ो, नहीं तो बुरा होगा! एक दिन आग लगा चुका हूँ, अगर सिपहआरा के साथ तुम्हारी शादी हुई तो जान ले लूँगा। जिस रोज से मैंने यह खबर सुनी है, यही जी चाह रहा है कि छुरी ले कर पहुँचूँ और दम के दम में काम तमाम कर दूँ। याद रखो कि मैं बेचोट किए न रहूँगा।'
शाहजादा हुमायूँ फर उसी वक्त साहब-जिला की कोठी पर गए और सारा किस्सा कहा। साहब ने खुफिया पुलिस के एक अफसर को इस मामले की तहकीकात करने का हुक्म दिया।
साहब से रुखसत हो कर वह घर आए तो देखा कि उनके पुराने दोस्त हाजी साहब बैठे हुए हैं। यह हजरत एक ही घाघ थे, आलिमों से भी मुलाकात थी, बाँकों से भी मिलते-जुलते रहते थे। शाहजादा ने उनसे भी इस खत का जिक्र किया। हाजी साहब ने वादा किया कि हम इस बदमाश का जरूर पता लगाएँगे।
शहसवार ने इधर तो हुमायूँ फर को कत्ल करने की धमकी दी, उधर एक तहसीलदार साहब के नाम सरकारी परवाना भेजा। आदमी ने जा कर दस बजे रात को तहसीलदार को जगाया और यह परवाना दिया -
'आपको कलमी होता है मुबलिग पाँच हजार रुपया अपनी तहसील के खजाने से ले कर, आज रात को कालीडीह के मुकाम पर हाजिर हो। अगर आपको फुरसत न हो तो पेशकार को भेजिए, ताकीद जानिए।'
तहसीलदार ने खजानची को बुलाया, रुपया लिया, गाड़ी पर रुपया लदवाया और चार चपरासियों को साथ ले कर कालीडीह चले। यह गाँव यहाँ से दो कोस पर था। रास्ते में एक घना जंगल पड़ता था। बस्ती का कहीं नाम नहीं। जब उस मुकाम पर पहुँचे तो एक छोलदारी मिली। वहाँ जा कर पूछा - क्या साहब सोते हैं?
सिपाही - साहब ने अभी चाय पी है। आज रात भर लिखेंगे। किसी से मिल नहीं सकते।
तहसीलदार - तुम इतना कह दो कि तहसीलदार रुपया ले कर हाजिर है।
चपरासी ने छोलदारी में जा कर इत्तला की। साहब ने कहा, बुलाओ। तहसीलदार साहब अंदर गए तो एक आदमी ने उनका मुँह जोर से दबा दिया और कई आदमी उन पर टूट पड़े। सामने एक आदमी अंगरेजी कपड़े पहने बैठा था। तहसीलदार खूब जकड़ दिए गए तो वह मुसकिरा कर बोला - वेल तहसीलदार! तुम रुपया लाया, अब मत बोलना। तुम बोला और मैंने गोली मारी। तुम हमको अपना साहब समझो।
तहसीलदार - हुजूर को अपने साहब से बढ़ कर समझता हूँ, वह अगर नाराज होंगे तो दरजा घटा देंगे। आप तो छुरी से बात करेंगे।
शहसवार ने तहसीलदार को चकमा दे कर रुखसत किया और अपने साथियों में डींग मारने लगा - देखा, इस तरह यार लोग चकमा देते हैं। साथी लोग हाँ में हाँ मिला रहे थे कि इतने में एक गंधी तेल की कुप्पियाँ और बोतलें लटकाए छोलदारी के पास आया और बोला, हुजूर, सलाम करता हूँ। आज सौदा बेचने जरा दूर निकल गया था, लौटने में देर हो गई। आगे घना जंगल है, अगर हुक्म हो तो यहीं रह जाऊँ?
शहसवार - किस-किसी चीज का इत्र है? जरा मोतिए का तो दिखाओ।
गंधी - हुजूर, अव्वल नंबर का मोतिया है, ऐसा शहर में मिलेगा नहीं।
शहसवार ने ज्यों ही इत्र लेने के लिए हाथ बढ़ाया, गंधी ने सीटी बजाई और सीटी की आवाज सुनते ही पचास-साठ कांस्टेबिल इधर-उधर से निकल पड़े और शहसवार को गिरफ्तार कर लिया। यह गंधी न था, इंस्पेक्टर था, जिसे हाकिमजिला ने शहसवार का पता लगाने के लिए तैनात किया था।
मियाँ शहसवार, जब इंस्पेक्टर के साथ चले तो रास्ते में उन्हें ललकारने लगे। अच्छा बचा, देखो तो सही, जाते कहाँ हो।
इंस्पेक्टर - हिस्स! चोर के पाँव कितने, चौदह बरस को जाओगे।
शहसवार - सुनो मियाँ, हमारे काटे का मंत्र नहीं, जरा जबान को लगाम दो, वरना आज के दसवें दिन तुम्हारा पता न होगा।
इंस्पेक्टर - पहले अपनी फिक्र तो करो।
शहसवार - हम कह देंगे कि इस इंस्पेक्टर की हमसे अदावत है।
इंस्पेक्टर - अजी, कुढ़-कुढ़ कर जेलखाने में मरोगे।