आजाद-कथा / भाग 2 / खंड 84 / रतननाथ सरशार

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इधर बड़ी बेगम के यहाँ शादी की तैयारियाँ हो रही थीं, डोमिनियों का गाना हो रहा था। उधर शाहजादा हुमायूँ फर एक दिन दरिया की सैर करने गए। घटा छाई हुई थी। हवा जोरों के साथ चल रही थी। शाम होते-होते आँधी आ गई और किश्ती दरिया में चक्कर खा कर डूब गई। मल्लाह ने किश्ती के बचाने की बहुत कोशिश की, मगर मौत से किसी का क्या बस चलता है। घर पर यह खबर आई तो कुहराम मच गया। अभी कल की बात है कि दरवाज पर भाँड़ मुबारकबाद गा रहे थे, आज बैन हो रहा है, कल हुमायूँ फर जामे में फूले नहीं समाते थे कि दूल्हा बनेंगे, आज दरिया में गोते खाते हैं। किसी तरफ से आवाज आती है - हाय मेरे बच्चे! कोई कहता है - हैं, मेरे लाला को क्या हुआ! रोने वाला घर भर और समझाने वाला कोई नहीं। हुमायूँ फर की माँ रो-रोक कर कहती थीं, हाय! मैं दुखिया इसी दिन के लिए अब तक जीती रही कि अपने बच्चे की मय्यत देखूँ। अभी तो मसें भी नहीं भीगने पाई थीं कि तमाम बदन दरिया में भीग गया। बहन रोती थी, मेरे भैया, जरी आँख तो खोलो। हाय, जिन हाथों से मैंने मेहँदी रची थी उनसे अब सिर और छाती पीटती हूँ। कल समझते थे कि परसों बरात सजेगी, खुशियाँ मनाएँगे और आज मातम कर रहे हैं। उठो, अम्माँजान तुम्हारे सिरहाने खड़ी रो रही हैं।

यहाँ तो रोना-पीटना मचा हुआ था, वहाँ बड़ी बेगम ने ज्यों ही खबर पाई आँखों से आँसू जारी हो गए। अब्बासी से कहा - जा कर लड़कियों से कह दे कि नीचे बाग में टहलें। कोठे पर न जायँ। अब्बासी ने जा कर यह बात कुछ इस तरह कही कि चारों बहनों में कोई न समझ सकीं। मगर जहाँनारा ताड़ गई। उठ कर अंदर गई तो बड़ी बेगम को रोते देखा। बोली - अम्माँजान, साफ-साफ बताओ।

बड़ी बेगम - क्या बताऊँ बेटी, हुमायँ फर चल बसे।

जहाँनारा - अरे!

बड़ी बेगम - चुप-चुप, सिपहआरा न सुनने पाए। मैंने गाड़ी तैयार होने का हुक्म दिया है, चलो बाग को चलें, तुम जरा भी जिक्र न करना।

जहाँनारा - हाय अम्मीजान, यह क्या हुआ?

बड़ी बेगम - खुदा के वास्ते बेटी, चुप रहो, बड़ा बुरा वक्त जाता है।

जहाँनारा - उफ, जी घबराता है, हमको न ले चलिए, नहीं सिपहआरा समझ जायँगी। हमसे रोना जब्त न हो सकेगा। कहा मानिए, हमको न ले चलिए।

बड़ी बेगम - यहाँ इतने बड़े मकान में अकेली कैसी रहोगी?

जहाँनारा - यह मंजूर है, मगर जब्त मुमकिन नहीं।

सब की सब दिल में खुश थीं कि बाग की सैर करेंगे; मगर यह खबर ही न थी कि बड़ी बेगम किस सबब से बाग लिए जाती हैं। चारों बहनें पालकी गाड़ी पर सवार हुई और आपस में मजे-मजे की बातें करती हुई चलीं। मगर अब्बासी और जहाँनारा के दिल पर बिजलियाँ गिरती थीं। बाग में पहुँच कर जहाँनारा ने सिर-दर्द का बहाना किया और लेट रहीं, चारों बहनें चमन की सैर करने लगीं। सिपहआरा ने मौका पा कर कहा - अब्बासी, एक दिन हम और शहजादे इस बाग में टहल रहे होंगे। निकाह हुआ और हम उनको बाग में ले आए। हम पाँच रोज यहाँ ही रहेंगे। अब्बासी की आँखो में बेअख्तियार आँसू निकल पड़े। दिल में कहने लगी, किधर खयाल है, कैसा निकाह और कैसी शादी? वहाँ जनाजे और कफन की तैयारियाँ हो रही होंगी।

एकाएक सिपहआरा ने कहा - बहन, हिचकियाँ आने लगीं।

हुस्नआरा - कोई याद कर रहा होगा।

अब सुनिए कि उसी बाग के पास एक शाह साहब का तकिया था जिसमें कई शाहजादों और रईसों की कबरें थीं। हुमायूँ फर का जनाजा भी उसी तकिए में गया, हजारों आदमी साथ थे। बाग के एक बुर्ज से बहनों ने इस जनाजे को देखा तो सिपहआरा बोली - बाजीजान, किससे पूछें कि यह किस बेचारे का जनाजा है। खुदा उसको बख्शे।

हुस्नआरा - ओफ ओह! सारा शहर साथ है। अल्लाह, यह कौन मर गया, किससे पूछें?

अब्बासी - हुजूर, जाने भी दें, रात के वक्त लाश न देखें।

हुस्नआरा - नहीं, गुलाब माली से कहो, अभी-अभी पूछे।

अब्बासी थरथर काँपने लगी। गुलाब माली के कान में कुछ कहा। वह बाग का फाटक खोल कर बाहर गया, लोगों से पूछा। फिर दोनों में कानाफूसी हुई। इसके बाद अब्बासी ने ऊपर जा कर कहा। हुजूर, कोई रईस थे। बहुत दिनों से बीमार थे। यहाँ कजा आ पहुँची।

गेतीआरा - कुछ ठिकाना है! आदमियों का कहाँ से कहाँ तक ताँता लगा हुआ है।

सिपहआरा - खुदा जाने, जवान था या बूढ़ा?

अब्बासी ने बड़ी बेगम से जा कर जनाजे का हाल कहा तो उन्होंने सिर पीट कर कहा - तुम्हें हमारी कसम है जो उलटे पाँव न चल जाओ।

हुस्नआरा - अम्माँजान, आप नाहक घबराती हैं, आखिर यहाँ खड़े रहने में क्या डर हैं?

बड़ी बेगम - अच्छा, तुमको इससे क्या मतलब।

सिपहआरा - किसी का जनाजा जाता है। लाखों आदमी साथ हैं।

हुस्नआरा - खुदा जाने, कौन था बेचारा।

बड़ी बेगम - अल्लाह के वास्ते चली जाओ!

जहाँनारा - इतनी कसमें देती जाती हैं और कोई सुनता ही नहीं।

सिपहआरा - बाजी, सुनिए, कैसी दर्दनाक गजल है! खुदा जाने कौन गा रहा है।

शबे फिराक है और आँधियाँ हैं आहों की; चिराग को मेरे जुलमत कहे में बार नहीं। जमीन प्यार से मुझको गले लगाती है; अजाब है यह दिला गोर में फिशार नहीं। पस अज फिना भी किसी तोर से करार नहीं; मिला बहिश्त तो कहता हँ कूय यार नहीं।

अब्बासी - कोई बूढ़ा आदमी था।

सिपहआरा - तो फिर क्या गम!

बड़ी बेगम - तो फिर जितने बूढ़े मर्द और बूढ़ी औरतें हों, सबको मर जाना चाहिए?

सिपहआरा - ऐसी बातें न कहिए, अम्माँजान!

हुस्नआरा - बूढ़े और जवान सबको मरना है एक दिन।

बड़ी बेगम और सिपहआरा नीचे चली गईं। हुस्नआरा भी जा रही थीं कि कबरिस्तान से आवाज आई - हाय हुमायूँ फर, तुमसे इस दगा की उम्मेद न थी।

हुस्नआरा - ऐं अब्बासी, यह किसका नाम लिया?

अब्बासी - हुजूर, बहादुर मिरजा कहा, कोई बहादुर मिरजा होंगे।

हुस्नआरा - हाँ, हमीं को धोखा हुआ। पाँव-तले से जमीन निकल गई।

जब तीनों बहनें नीचे पहुँच गईं, तो बड़ी बेगम ने कहा- आखिर तुम्हारे मिजाज में इतनी जिद क्यों है?

हुस्नआरा - अम्माँजान, वहाँ बड़ी ठंडी हवा थी।

बड़ी बेगम - मुरदा वहाँ आया हुआ है और इस वक्त, भला सोचो तो।

सिपहआरा - फिर इससे क्या होता है?

बड़ी बेगम - चलो बैठो, होता क्या है!

तीनों बहनें लेटीं तो सिपहआरा को नींद आ गई, मगर हुस्नआरा और गेतीआरा की आँख न लगी। बातें करने लगीं!

हुस्नआरा - क्या जाने, कौन बेचारा था?

गेतीआरा - कोई उसके घरवालों के दिल से पूछे।

हुस्नआरा - कोई बड़ा शाहजादा था!

गेतीआरा - हमें तो इस वक्त चारों तरफ मौत की शक्ल नजर आती हैं।

हुस्नआरा - क्या जाने, अकेले थे या लड़के-वाले भी थे।

गेतीआरा - खुदा जाने, मगर था अभी जवान।

हुस्नआरा - देखो बहन, सैकड़ों आदमी जमा हैं, मगर कैसा सन्नाटा है! जो हैं, ठंडी साँसे भरता है!

इतने में सिपहआरा भी जाग पड़ीं! बोलीं - कुछ मालूम हुआ बाजीजान, इस बेचारे की शादी हुई थी कि नहीं? जो शादी हुई होगी तो सितम है।

हुस्नआरा - खुदा न करे कि किसी पर ऐसी मुसीबत आए।

सिपहआरा - बेचारी बेवा अपने दिल में न जाने क्या सोचती होगी?

हुस्नआरा - इसके सिवा और क्या सोचती होगी कि मर मिटे!

रात को सिपहआरा ने ख्वाब में देखा कि हुमायूँ फर बैठे उनसे बातें कर रहे हैं।

हुमायूँ - खुदा का हजार शुक्र है कि आज यह दिन दिखाया, याद है, हम तुमसे गले मिले थे?

सिपहआरा - बहुरूपिये के भी कान काटे!

हुमायूँ - याद है, जब हमने महताबी पर कनकौआ ढाया था?

सिपहआरा - एक ही जात शरीफ हैं आप।

हुमायूँ - अच्छा, तुम यह बताओ कि दुनिया में सबसे ज्यादा खुशनसीब कौन है?

सिपहआरा - हम!

हुमायूँ - और जो मैं मर जाऊँ तो तुम क्या करो?

इतना कहते-कहते हुमायूँ फर के चेहरे पर जर्दी छा गई और आँखें उलट गईं। सिपहआरा एक चीख मार कर रोने लगीं। बड़ी बेगम और हुस्नआरा चीख सुनते ही घबराई हुई सिपहआरा के पास आईं। बड़ी बेगम ने पूछा - क्या है बेटी, तुम चिल्लाई क्यों?

अब्बासी - ऐ हुजूर, जरी आँख खोलिए।

बड़ी बेगम - बेटा, आँख खोल दो।

बड़ी मुश्किल से सिपहआरा की आँखें खुलीं। मगर अभी कुछ कहने भी न पाई थीं कि किसी ने बागीचे की दीवार के पास रो कर कहा - हाय शाहजादा हुमायूँ फर!

सिपहआरा ने रो कर कहा - अम्मीजान, यह क्या हो गया! मेरा तो कलेजा उलटा जाता है।

दीवार के पास से फिर आवाज आई - हाय हुमायूँ फर! क्या मौत को तुम पर जरा भी रहम न आया?

सिपहआरा - अरे, क्या यह मेरे हुमायूँ फर हैं!! या खुदा, यह क्या हुआ अम्मीजान!

बड़ी बेगम - बेटी सब्र करो, खुदा के वास्ते सब्र करो।

सिपहआरा - हाय, कोई हमें प्यारे शाहजादे की लाश दिखा दो।

बड़ी बेगम - बेटा मैं तुम्हें समझाऊँ कि इस दिन में तुम पर यह मुसीबत पड़ी और तुम मुझे समझाओ कि इस बुढ़ापे में यह दिन देखना पड़ा।

सिपहआरा - हाय, हमें शाहजादे की लाश दिखा ओ। अम्मीजान, अब सब्र की ताकत नहीं रही, मुझे जाने दो, खुदा के लिए मत रोको, अब शर्म कैसी और हिजाब किसके लिए?

बड़ी बेगम - बेटी, जरा दिल को मजबूत रखो, खुदा की मर्जी में इनसान को क्या दखल!

सिपहआरा - क्या कहती हैं आप अम्मीजान, दिल कहाँ है, दिल का तो कहीं पता ही नहीं। यहाँ तो रूह तक पिघल गई।

बड़ी बेगम - बेटी खूब खुल कर रो लो। मैं नसीबों-जली यही दिन देखने के लिए बैठी थी!

सिपहआरा - आँसू नहीं है अम्मीजान, रोऊँ कैसे? बदन में जान ही नहीं रही, बाजीजान को बुला दी। इस वक्त वह भी मुझे छोड़ कर चल दीं?

हुस्नआरा अलग जा कर रो रही थीं। आईं, मगर खामोश। न रोई, न सिर पीटा, आ कर बहन के पलंग के पास बैठ गईं।

सिपहआरा - बाजी, चुप क्यों हो! हमें तकसीन तक नहीं देतीं; वाह!

हुस्नआरा खामोश बैठी रहीं हाँ, सिर उठा कर सिपहआरा पर नजर डाली।

सिपहआरा - बाजी, बोलिए, आखिर चुप कब तक रहिएगा?

इतने में रूहअफजा भी आ गई, उन्होंने मारे गम के दीवार पर सिर पटक दिया था। सिपहआरा ने पूछा - बहन, यह पट्टी कैसी बँधी है?

रुहअफजा - कुछ नहीं, यों ही।

सिपहआरा - कहीं सिर-विर तो नहीं फोड़ा? अम्माँजान, अब दिल नहीं मानता, खुदा के लिए हमें लाश दिखा दो। क्यों अम्माँजान; शाहजादे की माँ की हालत क्या होगी?

बड़ी बेगम - क्या बताऊँ बेटी -

औलाद किसी की न जुदा होवे किसी से;

बेटी, कोई इस दाग को पूछे मेरे जी से!

इतने में एक आदमी ने आ कर कहा कि हुमायूँ फर की माँ रो रही हैं और कहती हैं कि दुलहिन को लाश के करीब लाओ। हुमायूँ फर की रूह खुश होगी।

बड़ी बेगम ने कहा - सोच लो, ऐसा कभी हुआ नहीं है; ऐसा न हो कि मेरी बेटी डर जाय, उसका तो और दिल बहलाना चाहिए, न कि लाश दिखाना। और लोगों से पूछो, उनकी क्या राय है। मेरे तोओ हाथ-पाँव फूल गए हैं।

आखिर यह राय तय पाई कि दुलहिन लाश पर जरूर जायँ।

सिपहआरा चलने को तैयार हो गईं।

बड़ी बेगम - बेटा, अब मैं क्या कहूँ, तुम्हारी जो मर्जी हो वह करो।

सिपहआरा - बस हमें लाश दिखा दो, फिर हम कोई तकलीफ न देंगे।

बड़ी बेगम - अच्छा जाओ, मगर इतना याद रखना कि जो मरा वह जिंदा नहीं हो सकता।

सिपहआरा ने अब्बासी को हुक्म दिया कि जा कर संदूक लाओ। संदूक आया तो सिपहआरा ने अपना कीमती जोड़ा निकाला, सुहाग का इत्र मला, कीमती दुपट्टा ओढ़ा जिसमें मोतियों की बेल लगी हुई थी। सिर पर जड़ाऊ छपका, जड़ाऊ टीका, चोटी में सीसफूल, नाक में नथ, जिसके मोतियों की कीमत अच्छे-अच्छे जौहरी न लगा सकें, कानों में पत्ते, बालियाँ, बिजलियाँ, करनफूल, गले में मोतियों की माला, तौक, चंदनहार, चंपाकली, हाथों में कंगन, चूड़ियाँ, पोर-पोर छल्ले, पाँव में पायजेब, छागल। इस तरह सोलहों सिंगार करकने वह बड़ी बेगम और अब्बास के साथ पालकी गाड़ी में सवार हुई। शहर में धूम मच गई कि दुलहिन दूल्हा की लाश पर जाती हैं। शाहजादे की माँ को इत्तला दी गई कि दुलहिन आती हैं। जरा देर में गाड़ी पहुँच गई। हजारों आदमियों ने छाती पीटना शुरू किया। सिपहआरा ने गाड़ी से उतरते ही लाश को छाती से लगाया और उसके सिरहाने बैठ कर ऊँची आवाज से कहा - प्यारे शाहजादे, जरी आँख खोल कर मुस्करा दो। बस, दो दिन हँसा कर उम्र भर रुलाओगे? जरी अपनी दुलहिन को तो आँख-भरके देख लो। क्यों जी, यही मुहब्बत थी, इसी दिन के लिए दिल मिलाया था?

शाहजादे की माँ ने सिपहआरा को छाती से लगा कर कहा - बेटी हुमायूँ फर तुम्हारे बड़े दुश्मन निकले। हाय, यह अंधेर भी कहीं होता है कि दुलहिन लाश पर आए। निकाह के वक्त वकील और गवाह तो दूर रहे, दूसरा मुकदमा छिड़ गया।

सिपहआरा ने अपनी माँ की तरफ देख कर कहा - अम्माँजान, आपने हमारे साथ बड़ी दुश्मनी की पहले ही शादी कर देंती तो यों नामुराद तो न जाती।

इधर तो यह कुहराम मचा हुआ था, उधर शहर के बेफिक्रे अपनी खिचड़ी अलग ही पकाते थे।

एक औरत - आज जब घर से निकली थी तो काने आदमी का मुँह देखा था। इधर डोली में पाँव गया और उधर पट से छींक पड़ी।

दूसरा आदमी - अजी बीबी, न कुछ छींक से होता है, न किसी से, 'करम-लेख नहिं मिटै करै कोई लाखन चतुराई।' किस्मत के लिखे को कोई भी आज तक मिटा सका है? देखिए,करोड़ों रुपए घर में भरे हैं, मगर किस काम के!

मौलवी - मियाँ, दुनिया के यही कारखाने हैं, इनसान को चाहिए कि किसी से न झगड़े, न किसी से फसाद करे, बस, खुदा की याद करता रहे।

एक बुढ़िया - सुनते हैं कि दो-तीन दिन से रात को बुरे-बुरे ख्वाब देखते थे।

मौलवी - हम इसके कायल नहीं, ख्वाब क्या चीज है!

सिपहआरा को इस वक्त वह दिन याद आया, जब शाहजादा हुमायँ फर अपनी बहन बन कर उनसे गले मिलने गए। एक वह दिन था और एक आज का दिन है। हमने उस हुमायूँ फर को बुरा-भला क्यों कहा था?

बड़ी बेगम ने कहा - बेटी, अब जरी बैठ जाओ, दम ले लो।

अब्बासी - हुजूर, इस मर्ज का तो इलाज ही नहीं है।

सिपहआरा - दवा हर मर्ज की है! इस मर्ज की दवा भी सब्र ही है। सब्र ही ने हमें इस काबिल किया कि हुमायूँ फर की लाश अपनी आँखों देख रहे हैं!

जब लोगों ने देखा कि सिपहआरा की हालत खराब होती जाती है तो उन्हें लाश के पास से हटा ले गए। गाड़ी पर सवार किया और घर ले गए।

गाड़ी में बैठ कर सिपहआरा रोने लगीं और बड़ी बेगम से बोलीं - अम्माँजान, अब हमें कहाँ लिए चलती हो?

बड़ी बेगम - बेटी, मैं क्या करूँ, हाय!

सिपहआरा - अम्माँजान, करोगी क्या, मैंने क्या कर लिया?

अब्बासी - हमारी किस्मत फूट गई, शादी का दिन देखना नसीब में लिखा ही न था। आज के दिन और हम मातम करें!

सिपहआरा - अम्माँजान, इस वक्त बेचारा कहाँ होगा?

बड़ी बेगम - बेटी, खुदा के कारखाने में किसी को दखल है?