आत्म-कथ्य : हृदयेश / पृष्ठ 1
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हृदयेश ग्यारह बजे के आसपास बाहर आ गए थे, सड़क पर, डाक की प्रतीक्षा में. ऐसा वह रोज करते थे. इस आदत की लत से आदत लत की होती है- वह कभी-कभी अवकाश के दिन भी सड़क पर आ जाते थे. किन्तु फिर ध्यान आ जाने पर कि अरे, आज तो डाक बंटना नहीं है, वह अपनी बेवकूफ़ी पर हंसते, लज्जाते, अकसर झुंझलाते भी हुए हट आते थे. डाक उनको बहुत-कुछ साहित्य की अपनी दुनिया के करीब लाती थी, उससे उन्हें जोड़ती थी. पिछले तीन दिन से कोई डाक आई नहीं थी. प्रतीक्षा इसलिए भूखी थी.
पोस्टमैन आ गया था. उनकी डाक भी थी उनके पास.
वह डाक लेकर अन्दर आ गए. डाक में एक पत्रिका थी, मोड़े मुखड़े और दुर्बल काया वाली. उन्होंने उसे एक ओर डाल दिया. एक कार्ड था. किसी अपरिचित पत्रिका के संपादक ने रचनात्मक सहयोग के रूप में कहानी की मांग की थी. पत्र इसी आशय का किसी नामचीन पत्रिका से भी आया होता तब भी वह उससे नहीं जुड़ते. जो उन्होंने तय कर रखा था कि अब उनको उपन्यास ही लिखना है, उस पर वह अडिग थे. कहानी या अन्य कुछ लिखने का मतलब होगा कि उपन्यास के प्रति अपनी चाहत या प्यास को कम कर देना. कुछ छोटा थाम लेना बड़े लक्ष्य की प्राप्ति से विचलित हो जाना क्या नहीं है? साहित्य और कला में पैशन यानी जुनून ही कुछ अति महत्वपूर्ण करा लेता है.
एक लिफ़ाफ़ा था. उसमें रायल्टी का स्टेटमेण्ट था. साथ ही यह सूचना कि विगत वित्तीय वर्ष में विक्रित पाँच पुस्तकों की देय रायल्टी राशि 35 रुपये धनादेश द्वारा भेजी जा रही है. सात-आठ वर्ष पूर्व इस प्रकाशक ने उनका एक कहानी-संग्रह साया किया था. दो-तीन वर्षों से प्रकाशक बस एक दिन की साग-सब्जी लायक रायल्टी एक बार आ जाती थी. दहाई के अंकों में सिकुड़ जाने वाले रुपयों को राशि बताना ‘राशि’ की सरासर फजीहत करना है. एक पत्र और भी था, अंतर्देशीय. बाहर प्रेषक का नाम नहीं था. अन्दर जो नाम था उसने एकदम उत्कंठा जगा दी. जगा नहीं दी, भड़का दी. एक मुद्दत से वह चेतन वसिष्ठ नामक इस व्यक्ति के पत्र की बाट जोह रहे थे. पूरा पत्र पढ़ डाला. पत्र में जो अनुकूल सूचना होनी चाहिए थी, जिसकी उनको विश्वासगर्भित आशा थी, वह न होकर प्रतिकूल सूचना थी. सूचना प्रतिकूल थी, इसीलिए उसे कारणों के बेलन से फैलाया गया था. फैलाना प्रतिकूलता को नरम करना होता है.
सात-आठ माह पहले तीसरे पहर घंटी की आवाज से खिंचे हुए जब वह दरवाजे पर पँहुचे थे, तीस-पैंतीस वर्ष के एक व्यक्ति को उन्होंने मुस्कुराहट की रेशमी चमक के साथ उपस्थित पाया था. उस व्यक्ति के गोल साँवले चेहरे पर ठुड्डी तक सीमित दाढ़ी थी, व्यक्तित्व को पैनापन देती हुई. वह जींस के साथ रंगीन खादी का अधबांहा कुर्ता पहने था. कंधे पर शनील का झोला था. उसने यह पुष्टि कर कि वह इच्छित जन के ही सामने है उनको दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया था. वह चेतन वसिष्ठ नामक इस युवक को अन्दर ले आए थे.
चेतन वसिष्ठ दिल्ली का रहने वाला था. यों वह यू.टी.आई में सेवारत था, किन्तु उसे साहित्य में अच्छी खासी रुचि थी. उसने पत्रकारिता में डिप्लोमा कोर्स भी कर रखा था. उसका एक मित्र यहाँ जनरल इंश्योरेंस में ब्रांच मैनेजर था. मित्र एक सड़क दुर्घटना में घायल हो गया था. उसकी पत्नी भी थी. वह उन दोनों को देखने आया था. हाथ और पसलियों में जो फ्रैक्चर हुआ था, वह गंभीर किस्म का नहीं था. पंकज को जब पता चला कि वह शाहजहाँपुर जा रहा है तो बोले कि वह हृदयेश जी से जरूर मिलकर आए. अवसर का भी सदुपयोग होता है और वह सदुपयोग इस अवसर का भी होना चाहिए. वह हृदयेश जी का साक्षात्कार लेकर आए.
वसिष्ठ से लगभग दो माह पूर्व एक अन्य व्यक्ति उनका साक्षात्कार लेने विराजा था. वह अन्य व्यक्ति हलद्वानी का था और यहाँ अपने एक निकट संबंधी की बेटी की शादी में शिरकत करने आया था. हलद्वानी से निकल रही साहित्यिक पत्रिका ‘आधारशिला’ के लिए उसके उनका साक्षात्कार चाहिए था. वह व्यक्ति पी.टी. अध्यापक था और गीत, ग़ज़ल लिखता था. पत्रिका के संपादक भट्ट जी के साथ उसका उठना बैठना था. भट्ट जी ने उससे साक्षात्कार लेने के वास्ते कहा था. उन्होंने उस व्यक्ति से जानना चाहा कि उसने उनकी कौन-कौन सी पुस्तक पढ़ी है. जब उसने उनकी एक भी पुस्तक न पढ़ने की बात स्वीकार की और कहा कि कुछ समय पहले उसने भट्ट जी के यहाँ ‘कथादेश’ में कहानी के साथ उनका फोटो देखा था और यह कि उस कहानी की बहुत प्रशंसा सुनकर उसने बाद में उसे पढ़ना चाहा था, पर पत्रिका किसी और के पास चली जाने पर वह उसको मिल नहीं पायी थी, उन्होंने साक्षात्कार देने से क्षमा मांग ली थी, ‘आप मेरी रचना धर्मिता से अवगत होते तो मुझे भी उस पर बात करना अच्छा लगता. निरर्थकता कोशिश करने पर भी सार्थकता बन नहीं पाती है. औपचारिकता से मुझे गुरेज़ है.’
नारायण बाबू ने पता लगने पर उनकी इस इन्कारी को सही नहीं ठहराया था. हाथ आया अवसर गंवा दिया.
‘यार, उसने मेरा लिखा एक भी शब्द नहीं पढ़ा था. एकदम खाली डिब्बा था.’ ‘मानता हूँ कि अपने को पूरा खाली डिब्बा न साबित करने के लिए वह चालू किस्म के ही सवाल करता कि आपने लिखना कब प्रारम्भ किया, लिखने की प्रेरणा आपको कहाँ से प्राप्त हुई, परिवार में वैसा वातावरण था या नहीं, नए लिखने वालों के लिए आपका क्या संदेश है? ये और इन जैसे दो-चार और सवाल. लेकिन इनके आप जो भी उत्तर देते, उन उत्तरों के बहाने आपका प्रचार तो होता ही. प्रचार की सार्थकता, भाई साहब, न जाने आप क्यों बिसार देते हैं?’
नारायण बाबू ने यह कहने के तुरन्त बाद पूछा था, ‘आपने उन महानुभाव को खाली डिब्बा पाकर सूखा ही टरका दिया था या चाय, नाश्ता से तरमातर कर विदा किया?’
‘सो आपकी भाभी जी ने मेरे बिना कहे ही सत्कार में मिठाई, नमकीन और चाय रख गयी थीं.’
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