आधे-अधूरे / मोहन राकेश / पृष्ठ 9

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पुरुष चार : महेंद्रनाथ के बारे में, हाँ। और जान कर ही कहता हूँ कि तुमने इस तरह शिकंजे में कस रखा है उसे कि वह अब अपने दो पैरों पर चल सकने लायक भी नहीं रहा।

स्त्री : अपने दो पैरों पर ! अपने दो पैर कभी थे भी उसके पास ?

पुरुष चार : कभी बात क्यों करती हो ? जब तुमने उसे जाना, तब से दस साल पहले से मैं उसे जानता हूँ।

स्त्री : इसीलिए शायद जब मैंने जाना, तब तक अपने दो पैर रहे नहीं थे उसके पास।

पुरुष चार : मैं जानता हूँ सावित्री, कि तुम मेरे बारे में क्या-क्या सोचती और कहती हो...।

स्त्री : जरूर जानते होंगे...लेकिन फिर भी कितना कुछ है जो सावित्री कभी किसी के सामने नहीं कहती।

पुरुष चार : जैसे ?

स्त्री : जैसे...पर बात तो आप करने आए हैं।

पुरुष चार : नहीं। पहले तुम बात कर लो (बड़ी लड़की से) तू बेटे, जरा उधर चली जा थोड़ी देर।

बड़ी लड़की चुपचाप जाने लगती है।

स्त्री : सुन लेने दीजिए इसे भी, अगर मुझे बात करनी है तो।

पुरुष चार : ठीक है यहीं रह तू, बिन्नी !

बड़ी लड़की : पर मैं सोचती हूँ कि...।

स्त्री : मैं चाहती हूँ तू यहाँ रहे, तो किसी वजह से ही चाहती हूँ।

बड़ी लड़की आहिस्ता से आँखें झपका कर उन दोनों से थोड़ी दूर डायनिंग टेबल कि कुरसी पर जा बैठती है।

पुरुष चार : (स्त्री से) बैठ जाओ तुम भी।

कटता हुआ खुद सोफे पर बैठ जाता है। स्त्री एक मोढ़ा ले लेती है।

कह डालो अब जो भी कहना है तुम्हें।

स्त्री : कहने से पहले एक बात पूछनी है आप से। आदमी किस हालत में सचमुच एक आदमी होता है ?

पुरुष चार : पूछो कुछ नहीं। जो कहना है, कह डालो।

स्त्री : यूँ तो जो कोई भी एक आदमी की तरह चलता-फिरता, बात करता हैं, वह आदमी ही होता है...। पर असल में आदमी होने के लिए क्या जरूरी नहीं कि उसमें अपना एक माद्दा, अपनी एक शख्सियत हो ?

पुरुष चार : महेंद्र को सामने रख कर यह तुम इसलिए कह रही हो कि...

स्त्री : इसलिए कह रही हूँ कि जब से मैंने उसे जाना है, मैंने हमेशा हर चीज के लिए किसी-न-किसी का सहारा ढूँढ़ते पाया है। खास तौर से आपका। यह करना चाहिए या नहीं - जुनेजा से राय ले लूँ। कोई छोटी-से-छोटी चीज खरीदनी है, तो भी जुनेजा की पसंद से। कोई बड़े-से-बड़ा खतरा उठाता है - तो भी जुनेजा की सलाह से। यहाँ तक कि मुझसे ब्याह करने का फैसला भी कैसे किया उसने ? जुनेजा के हामी भरने से।

पुरुष चार : मैं दोस्त हूँ उसका। उसे भरोसा रहा है मुझ पर।

स्त्री : और उस भरोसे का नतीजा ?... कि अपने-आप पर उसे कभी किसी चीज के लिए भरोसा नहीं रहा। जिंदगी में हर चीज कि कसौटी - जुनेजा। जो जुनेजा सोचता है, जो जुनेजा चाहता है, जो जुनेजा करता है, वही उसे भी सोचना है, वही उसे भी चाहना है, वही उसे भी करना है। क्योंकि जुनेजा तो खुद एक पूरे आदमी का आधा-चौथाई भी नहीं हैं।

पुरुष चार : तुम इस नजर से देख सकती हो इस चीज को; पर असलियत इसकी यह है कि...

स्त्री : (खड़ी होती) मुझे उस असलियत की बात करने दीजिए जिसे मैं जानती हूँ।...एक आदमी है। घर बसाता है। क्यों बसाता है ? एक जरूरत पूरी करने के लिए। कौन-सी जरूरतें ? अपने अंदर से किसी उसको...एक अधूरापन कह दीजिए उसे...उसको भर सकने की। इस तरह उसे अपने लिए...अपने में पूरा होना होता है । किन्हीं दूसरों के पूरा करते रहने में ही जिंदगी नहीं काटनी होती। पर आपके महेंद्र के लिए जिंदगी का मतलब रहा है...जैसे सिर्फ दूसरों के खाली खाने भरने की ही चीज है वह। जो कुछ वे दूसरे उससे चाहते हैं, उम्मीद करतें हैं...या जिस तरह वे सोचते हैं उनकी जिंदगी में उसका इस्तेमाल हो सकता है।

पुरुष चार : इस्तेमाल हो सकता है?

स्त्री : नहीं ? इस काम के लिए और कोई नहीं जा सकता, महेंद्र चला जाएगा। इस बोझ को और कोई नहीं ढो सकता, महेंद्रनाथ ढो लेगा। प्रेस खुला, तो भी। फैक्टरी शुरू हुई, तो भी। खाली खाने भरने की जगह पर महेंद्रनाथ अपना हिस्सा पहले ही ले चुका है, पहले ही खा चुका है। और उसका हिस्सा ? (कमरे के एक-एक सामान की तरफ इशारा करती) ये ये ये ये ये दूसरे-तीसरे-चौथे दरजे की घटिया चीजें जिनसे वह सोचता था, उसका घर बन रहा है ?

पुरुष चार : महेंद्रनाथ बहुत जल्दबाजी बरतता था इस मामले में, मैं जानता हूँ। मगर वजह इसकी...

स्त्री : वजह इसकी मैं थी-यही कहना चाहते हैं न ? वह मुझे खुश रखने के लिए ह यह लोहा-लकड़ी जल्दी-से-जल्दी घर में भर कर हर बार अपनी बरबादी की नींव खोद लेता था। पर असल में उसकी बरबादी की नींव क्या चीज खोद रही थी...क्या चीज और कौन आदमी...अपने दिल में तो आप भी जानते होंगे।

पुरुष चार : कहती रहो तुम। मैं बुरा नहीं मान रहा। आखिर तुम महेंद्र की पत्नी हो और...

स्त्री : (आवेश में उसकी तरफ मुड़ती) मत कहिए मुझे महेंद्र की पत्नी। महेंद्र भी एक आदमी है, जिसके अपना घर-बार है, पत्नी है, यह बात महेंद्र को अपना कहनेवालों को शुरू से ही रास नहीं आई। महेंद्र ने ब्याह क्या किया, आप लोगों की नजर में आपका ही कुछ आपसे छीन लिया। महेंद्र अब पहले की तरह हँसता नहीं। महेंद्र अब दोस्तों में बैठ कर पहले की तरह खिलता नहीं ! महेंद्र अब पहलेवाला महेंद्र रह ही नहीं गया ! और महेंद्र ने जी-जान से कोशिश की, वह वही बना रहे किसी तरह। कोई यह न कह सके जिससे कि वह पहलेवाला महेंद्र रह ही नहीं गया। और इसके लिए महेंद्र घर के अंदर रात-दिन छटपटाता है। दीवारों से सिर पटकता है। बच्चों को पीटता है। बीवी के घुटने तोड़ता है। दोस्तों को अपना फुरसत का वक्त काटने के लिए उसकी जरूरी है। महेंद्र के बगैर कोई पार्टी जमती नहीं ! महेंद्र के बगैर किसी पिकनिक का मजा नहीं आता था ! दोस्तों के लिए जो फुरसत काटने का वसीला है, वही महेंद्र के लिए उसका मुख्य काम है जिंदगी में। और उसका ही नहीं, उसके घर के लोगों का भी वही मुख्य काम होना चाहिए। तुम फलाँ जगह चलने से इन्कार कैसे कर सकती हो ? फलाँ से तुम ठीक तरह से बात क्यों नहीं करतीं ? तुम अपने को पढ़ी-लिखी कहती हो ?...तुम्हें तो लोगों के बीच उठने-बैठने की तमीज नहीं। एक औरत को इस तरह चलना चाहिए, इस तरह बात करनी चाहिए, इस तरह मुस्कराना चाहिए। क्यों तुम लोगों के बीच हमेशा मेरी पोजीशन खराब करती हो? और वही महेन्द्र जो दोस्तों के बीच दब्बू-सा बना हलके-हलके मुस्कराता है, घर आ कर एक दारिंदा बन जाता है। पता नहीं, कब किसे नोच लेगा, कब किसे फाड़ खाएगा ! आज वह ताव में अपनी कमीज को आग लगा लेता है। कल वह सावित्री की छाती पर बैठ कर उसका सिर जमीन से रगड़ने लगता है। बोल, बोल, बोल, चलेगी उस तरह कि नहीं जैसे मैं चाहता हूँ ? मानेगी वह सब कि नहीं जो मैं कहता हूँ ? पर सावित्री फिर भी नही चलती। वह सब नहीं मानती। वह नफरत करती है इस सबसे - इस आदमी के ऐसा होने से। वह एक पूरा आदमी चाहती है अपने लिए एक...पूरा...आदमी। गला फाड़ कर वह यह बात कहती है। कभी इस आदमी को ही यह आदमी बना सकने की कोशिश करती है। कभी तड़प कर अपने को इससे अलग कर लेना चाहती है। पर अगर उसकी कोशिशों से थोड़ा फर्क पड़ने लगता है इस आदमी में, तो दोस्तों में इनका गम मनाया जाने लगता है। सावित्री महेन्द्र की नाक में नकेल डाल कर उसे अपने ढंग से चला रही है। सावित्री बेचारे महेन्द्र की रीढ़ तोड़ कर उसे किसी लायक नहीं रहने दे रही है ! जैसे कि आदमी न हो कर बिना हाड़-मांस का टुकड़ा हो वह एक - बेचारा महेन्द्र!

हाँफती हुई चुप कर जाती है। बड़ी लड़की कुहनियाँ मेज पर रखे और मुट्ठियों पर चहेरा टिकाए पथराई आँखों से चुपचाप दोनों को देखती है।

पुरुष चार : (उठता हुआ) बिना हड़-मांस का पुतला, या जो भी कह लो तुम उसे - पर मेरी नजर में वह हर आदमी जैसे एक आदमी है-सिर्फ इतनी ही कमी है उसमें।

स्त्री : यह आप मुझे बता रहे हैं ? जिसने बाईस साल साथ जी कर जाना है उस आदमी को ?

पुरुष चार : जिया जरूर है तुमने उसके साथ...जाना भी है उसे कुछ हद तक...लेकिन...

स्त्री : (हताशा से सिर हिलती है) ओफ्फ़ोह! ओफ्फ़ोह! ओफ्फ़ोह !

पुरुष चार : जो-जो बातें तुमने कही हैं अभी, वे गलत नहीं हैं अपने में। लेकिन बाईस साल जी कर जानी हुई बातें वे नहीं हैं। आज से बाईस साल पहले भी एक बार लगभग ऐसी ही बातें मैं तम्हारे मुँह से सुन चुका हूँ - तुम्हें याद हैं ?

स्त्री : आप आज ही की बात नहीं कर सकते ? बाईस साल पहले पता नहीं किस जिंदगी की बात हैं वह ?

पुरुष चार : मेरे घर हुई थी वह बात। तुम बात करने के लिए खास आई थीं वहाँ, और मेरे कंधे पर सिर रखे देर तक रोती रही थीं। तब तुमने कहा था कि...

स्त्री : देखिए, उन दिनों की बात अगर छेड़ना ही चाहते हैं आप, तो मैं चाहूँगी कि यह लड़की...

पुरुष चार : क्या हर्ज है अगर यह यहीं रहे तो ? जब आधी बात उसके सामने हुई है, तो बाक़ी आधी भी इसके सामने ही हो जानी चाहिए।

बड़ी लड़की : (उठने को हो कर) लेकिन अंकल... !

पुरुष चार : (स्त्री से) तुम समझती हो कि इसके सामने मुझे नहीं करनी चाहिए यह बात ?

स्त्री : मैं अपनी खयाल से नहीं कह रही थी।...ठीक है। आप कीजिए बात।

कहती हुई एक कुरसी पर बैठ जाती है।

(स्त्री से) उस दिन पहली बार मैंने तुम्हें उस तरह ढुलते देखा था। तब तुमने कहा था कि...।

स्त्री : मैं बिलकुल बच्ची थी तब तक, अभी और...।

पुरुष चार : बच्ची थीं या जो भी थीं, पर बात बिलकुल इसी तरह करती थीं जैसे आज करती हो। उस दिन भी बिलकुल इसी तरह तुमने महेन्द्र को मेरे सामने उधेड़ा था। कहा था कि वह बहुत लिजलिजा और चिपचिपा-सा आदमी है। पर उसे वैसा बनानेवालों में नाम तब दूसरों के थे। एक नाम था उसकी माँ का और दूसरा उसके पिता का...।

स्त्री : ठीक है। उन लोगों की भी कुछ कम देन नहीं रही उसे ऐसा बनाने में।

पुरुष चार : पर जुनेजा का नाम तब नहीं था ऐसा लोगों में। क्यों नहीं था, कह दूँ न यह भी ?

स्त्री : देखिए...।

पुरुष चार : बहुत पुरानी बात है। कह देने में कोई हर्ज नहीं है। मेरा नाम इसलिए नहीं था कि...

स्त्री : मैं इज्जत करती थी आपकी...बस, इतनी-सी बात थी।

पुरुष चार : तुम इज्जत कह सकती हो उसे...पर वह इज्जत किसलिए करती थीं ? इसलिए नहीं कि एक आदमी के तौर पर मैं महेन्द्र से कुछ बेहतर था तुम्हारी नजर में; बल्कि सिर्फ इसलिए कि...

स्त्री : कि आपके पास बहुत पैसा था? और आपका दबदबा था इन लोगों के बीच?

पुरुष चार : नहीं। सिर्फ इसलिए कि मैं जैसा भी था जो भी था-महेन्द्र नहीं था।

स्त्री : (एकाएक उठती है) तो आप कहना चाहते हैं कि...?

पुरुष चार : उतावली क्यों होती हो ? मुझे बात कह लेने दो। मुझसे उस वक्त तुम क्या चाहती थीं, मैं ठीक-ठीक नहीं जानता। लेकिन तुम्हारी बात से इतना जरूर जाहिर था कि महेन्द्र को तुम तब भी वह आदमी नहीं समझती थीं जिसके साथ तुम जिंदगी काट सकतीं...।

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