आनंदमठ - भाग 7 / बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय

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इसके उपरांत शांति तीसरे कमरे में गई। उसने पूछा-यह किसका कमरा है?

गोव‌र्द्धन बोला-जीवानंद स्वामी का।

शांति-यहां कौन है? कहां, इस कमरे में तो कोई नहीं है।

गोव‌र्द्धन-कहीं गए होंगे, अभी आ जाएंगे।

शांति-यह कमरा सब कमरों से उत्तम है।

गोव‌र्द्धन-भला यह कमरा ऐसा न होगा!

शांति-क्यों?

गोव‌र्द्धन- जीवानंद स्वामी इसमें रहते हैं न!

शांति-मैं इसी में रह जाती हूं, वह कोई दूसरा कमरा खोज लेंगे।

गोव‌र्द्धन-भला ऐसा भी हो सकता है? जो इस कमरे में रहते हैं, उन्हें चाहे मालिक समझिये, या जो चाहे समझिए- जो कहते हैं, वहीं होता है।

शांति-अच्छा तुम जाओ, मुझे यदि जगह न मिलेगी तो पेड़ के नीचे पड़ी रहूंगी!

यह कहकर गोव‌र्द्धन को बिदा कर शांति उसी कमरे में घुसी! कमरे में घुसकर शांति जीवानंद का कृश्णाजिन बिछाकर और दीपक तेज कर उनकी रखी एक किताब पढ़ने लगा।

कुछ देर बाद जीवानंद उपस्थित हुए! शांति का यद्यपि पुरुष वेश था, फिर भी उन्होंने आते ही पहचान लिया, बोले-यह क्या? शांति?

शांति न धीरे-धीरे पुस्तक रखकर जीवानंद के चेहरे की तरफ देखकर कहा-महाशय! शांति कौन है?

जीवानंद भैचक्के से रह गए, अंत में बोले-शांति कौन है? क्यों, क्या तुम शांति नहीं हो?

शांति उपेक्षा के साथ बोली-शांति कौन है? क्यों, क्या तुम शांति नहीं हो?

शांति उपेक्षा के साथ बोली- मैं नवीनानंद स्वामी हूं।

यह कहकर वह फिर पुस्तक पढ़ने लगी।

जीवानंद खखाकर हंस पड़े, बोले-यह नया तमाशा बढि़या है! अच्छा श्री श्री नवीनानंद जी! क्या सोचकर यहां पहुंच गए?

शांति बोली-यह नया तमाशा बढि़या है! अच्छा भले आदमियों में रिवाज है कि पहली मुलाकात में आप-श्रीमान-महाशय आदि शब्दों से संबोधन करना चाहिए। मैं भी आपसे असम्मान-जनक रूप में बातें नहीं करता हुं। तब आप मुझे तुम-तुम क्यों कहते हैं?

जो आज्ञा-कहकर गले में कपड़ा डालकर हाथ जोड़कर जीवानंद ने कहा- अब विनीत भाव से भृत्व का निवेदन है, कि किस कारण भैरवीपुर से इस दीन-भवन में महाशय का शुभागमन हुआ है? आज्ञा किजिए!

शांति ने अति गंभीर भाव से कहा-व्यंग्य की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं भैरवीपुर को पहचानता ही नहीं। मैं संतानधर्म ग्रहण करने के लिए आज आकर दीक्षित हुआ हूं।

जीवानंद-अरे सर्वनाश! क्या सचमुच?

शांति-सर्वनाश क्यों? आप भी तो दीक्षित है!

जीवानंद-तुम तो स्त्री हो!

शांति-यह कैसे? ऐसी बात आपने कैसे सुनी?

जीवानंद-मेरा विश्वास था कि मेरी ब्राह्मणी? स्त्री है।?

शांति-ब्रह्मणी? है या नहीं?

जीवानंद-थी तो जरूर!

शांति-आपको विश्वास है कि मैं आपकी ब्राह्मणी हूं?

जीवानंद ने फिर गले में कपड़ा डालकर बड़े ही विनीत भाव से कहा-अवश्य महाशयजी!

शांति-यदि ऐसी मजाक की बात आपके मन में है, तो सही, आपका कर्तव्य क्या है?

जीवानंद-आपके शरीर के कपड़ों को बलपूर्वक हटा देने के बाद अधर-सुधापान!

शांति-यह आपकी दृष्ट-बुद्धि है, या मेरे प्रति असाधारण भक्ति का परिचय मात्र है! आपने दीक्षा के अवसर पर शपथ ली है कि स्त्री के साथ एकासन पर कभी न बैठूंगा। यदि आपका यह विश्वास हो कि मैं स्त्री हूं-ऐसा सर्प-रज्जु भ्रम अनेक को होता है- तो आपके लिए उचित यही है कि अलग आसन पर बैठें। मुझसे तो आपको बात भी नहीं करनी चाहिए!

यह कहकर शांति ने फिर पुस्तक पाठ में मन लगाया। अंत में परास्त होकर जीवानंद पृथक शय्या-रचना कर लेट गए।

भगवान की अनुकंपा से 76 वें बंगाब्द का अकाल समाप्त हो गया। बंगाल प्रदेश के छ: आना मनुष्यों को-नहीं कह सकते, कितने कोटि-यमपुरी को भेजकर वह दुर्वत्सर स्वयं काल के गाल में समा गया। 77वें वर्ष में ईश्वर प्रसन्न हुए। सुवृष्टि हुई, पृथ्वी शस्यश्यामला हुई; जो लोग बचे थे, उन्होंने पेट भरकर भोजन किया। अनेक अनाहार या अल्पाहार से बीमार पड़ गए थे, पूरा आहार सह नहीं सके। बहुतेरे इसी में मरे। पृथ्वी तो शस्यश्यामलिनि हुई, लेकिन जनशून्या हो गयी। बंगाल प्रदेश जंगलों से भर गया। जहां हंसती हुई हरियाली भूमि थी, जहां असंख्या गो-महिषों की चरने की भूमि थी, जो गांव की भूमि युवक-युवतियों की प्रमोद-भूमि थी-वह सब महारण्य में परिणत होने लगी। इसी तरह एक वर्ष गया, दो वर्ष गए, तीन वर्ष गए। जंगल बढ़ते ही जाते थे। जो मनुष्यों के सुख के स्थान थे, वहां हिंसक शेर आदि पशु आकर हरिणों पर धावा बोलने लगे। दल बांधकर जहां सुंदरियां आलता-रंजित चरणों से पायजेब आदि पशु आकर हरिणों पर धावा बोलने लगे। दल बांधकर जहां सुंदरियां आलता-रंजित चरणों से पायजेब आदि की झनकार करती हुई, वृद्धाओं के साथ व्यंग करती हुई, हंसती हुई गुजरा करती थी, वहीं अब भालुओं ने अपने बच्चों को लालन-पालन शुरू किया है। जहां छोटी उम्र के बालक सांयकाल के समय जुटकर, फूले हुए पुष्प जैसा हृदय लेकर मनमोहक हंसी से स्थान गुंजया करते थे, अब वहां श्रृंगालों के विवर हैं। नाट्यमंदिरों में दिन के समय सर्पराजों की भयंकर फुफकार सुनाई पड़ती है। अब बंगाल में अन्न होता है; लेकिन कोई खाने वाला नहीं है। बिक्री के लिए पैदा करते है, लेकिन कोई खरीददार नहीं है। कृषक अनाज पैदा करते है, पर पैसे नहीं मिलते। जमींदार को वे लगान दे नहीं सकते। राजा के जमींदारी छीन लेने पर जमींदार सर्वहृत होकर दरिद्र हो गए। वसुमती के बहु-प्रसविनी होने पर भी जनता कंगाल हो गयी। चोर-डाकुओं ने माथा उठाया और साधु पुरुषों ने घर में मुंह छिपाया।

इधर संतान-संप्रदाय नित्य चंदन-तुलसी से विष्णु-पादपद्यों की पूजा करने लगा। जिनके घर में पिस्तौल-बंदूकें थी, संतानगण उससे वह छीन लाए। भवानंद ने सहयोग्यिों से कह दिया था-भाई! यदि किसी घर में मणि-माणिक्य गंजा हो और एक टूटी हुई बंदूक भी हो, तो बंदूक ले आना, धन-रत्‍‌न छोड़ देना।

इसके बाद ये लोग गांव-गांव में अपने गुप्तचर भेजने लगे। पर लोग जहां हिंदू होते थे, कहते थे भाई! विष्णु-पुजा करोगे! इसी तरह बीस-पचीस संतान किसी मुसलमान बसती में पहुंच जाते और उनके घर में आग लगा देते थे; उनका सर्वस्व लूटकर हिंदू विष्णु-पुजकों में उसे वितरित कर देते थे। लूट का भाग पाने पर लोगों के प्रसन्न होने पर उन्हें संतानगण मंदिर में लाकर विष्णुचरणों पर शपथ खिलाकर संतान बना लेते थे। लोगों ने देखा कि संतान होने में बड़ा लाभ है। विशेषत: मुसलमानों राजत्वकाल में उनकी अराजकता और कुशासन से लोग ऊब उठे थे। हिंदू धर्म की विलोपावस्था के समय अनेक हिंदू अपने देश में हिंदुत्व-स्थापन के लिए व्यग्र हो रहे थे। अत: दिन-प्रतिदिन संतानों की संख्या बढ़ने लगी। प्रतिदिन सौ-सौ, मास में हजार-हजार की संख्या में ग्रामीण लोग संतान बनाकर उनकी संख्या वृद्धि कर मुसलमानों को शासन से विरत करने लगे। जीवानंद और भवानंद के पदपद्मों में प्रणाम कर संतानों की संख्या अनंत होने लगी। जहां वे लोग राजपुरुषों को पाते थे, अच्छी तरह मरम्मत करते थे, मुसलमानों के गांव भस्म कर राख बनाए जाने लगे। स्थानीय मुसलमान नवाब यह सुनकर दल-के-दल सैनिकों को इनके दमन के लिए भेजते थे; लेकिन उस समय तक संतान गण दलबद्ध, शस्त्रयुक्त और महादंभशाली हो गए थे। उनके तेज के आगे मुसलिम फौज अग्रसर हो न पाती थी; यदि आगे बढ़ती थी तो अमित संख्या में संतान-सैन्य उस पर आक्रमण कर उनको धुनकी हुई रुई की तरह उड़ा देती थी। कभी कोई दल यदि परास्त होता या, तो तुरंत दूसरा बड़ा दल आकर उस मुस्लिम फौज का सर उड़ा देता था और मत होकर हरिनाम का जयघोष करता, नाचता गायब हो जाता था। उस समय लब्धप्रतिष्ठ अंगरेज कुल के प्रात: सूर्य वारेन हेस्टिंग्स भारतवर्ष के गवर्नर-जनरल थे। कलकत्ते में बैठे हुए वे राजनीतिक श्रृंखला की कडि़यां गिन रहे थे कि इसी से वे समूचे भारत को बांध लेंगे। एक दिन भगवान ने भी सिंहासन पर बैठकर नि:संदेह कहा था- तथास्तु! लेकिन वह दिन अभी दूर था। आजकल तो संतानों की दिगंत-व्यापिनी हरिध्वनि से वारेन हेस्टिंग्स भी कांप उठे थे।

हेस्टिंग्स साहब ने पहले तो देशी फौज से विद्रोह दबाने की चेष्टा की थी। लेकिन उन देशी सिपाहियों की यह दशा हुई कि वे लोग एक बुड्ढी औरत के मुंह से भी यदि हरिनाम सुन पाते थे, तो भागते थे, अंत में निरूपाया होकर वारेन हेस्टिंग्स ने कप्तान टॉमस नामक एक सुदक्ष सेनापति के अधिनायकत्व में थोड़ी गोरी फौज भेजकर विद्रोह-दमन का यत्‍‌न किया।

कप्तान टॉमस विद्रोह- निवारण के लिए बहुत ही उत्तम उपाय करने लगे। उन्होंने अपनी गोरी पल्टन के साथ नवाब की सेना और जमींदारों के आदमी मिलाकर एक अत्यंत बलिष्ठ सेना तैयार कर ली। इसके बाद उस सम्मिलित सैन्य के टुकड़े-टुकड़े कर उपयुक्त नायकों के हाथ में उन्होंने सौंप दिया। साथ ही उन लोगों को छोटे-छोटे निश्चित अंचलों में विभक्त कर दिया; कह दिया कि जहां संतानों को पाओ, पशु की तरह मारो और हंकाओ। गोरी सैन्य दम्भ की बोतल छान संगीन चढ़ाकर हुई। लेकिन टॉमस की सेना, जैसे खेती काटी जाती है, वैसे ही काटी जाने लगी। हरिध्वनि से टॉमस के कान बहरे हो गए; क्योंकि उस समय संतान असंख्य थे और प्रदेश भर में फैले हुए थे।

कप्तान जरा मन में आगा-पीछा कर रहे थे कि गोली मारें या न मारें; इसी समय विद्युत वेग से संन्यासी ने आक्रमण कर उनकी बन्दूक छीन ली। संन्यासी ने अपना वक्षावरण चर्म खोलकर फेंक दिया। एक झटके में जटा अलग हो गयी। कप्तान टॉमस ने देखा कि उसके सामने अपूर्व स्त्री-मूर्ति है। सुन्दरी ने हंसते-हंसते कहा- साहब! हम लोग नारी है, किसी को चोट नहीं पहुंचाती। मैं तुमसे एक बात पूछना चाहती हूं कि जब हिन्दू- मुसलमानों में लड़ाई हो रही है, तो इस बीच में तुम लोग क्यों बोलते हो? अपने घर लौट जाओ!

साहब- कौन हो तुम?

शान्ति-देखते तो हो, संन्यासिनी हूं-जिन लोगों से लड़ने आये हो, मैं उन्हीं में से एक स्त्री हूं।

साहब- टुम हमाड़ा घड़ में रहेगा?

शान्ति-क्या तुम्हारी उपपत्नी बनकर?

साहब-इसी माफक रहने सकता; शादी नहीं करेगा।

शान्ति- मुझे भी एक बात पूछनी है, हमारे घर में एक सुन्दर बन्दर था,वह हाल में ही मर गया है- उसकी जगह खाली पड़ी है। कमरे में सिकड़ी डाल दूंगी। तुम उस दरबे में रहोगे? हमारे बगीचे में खूब केला होता है।

साहब- तुम बड़ी स्प्रिीटेड वूमेन है। टुमारी करेज पर हाम खुशी है। टुम हमाड़ा घड़ में चलो। टुमाड़ा आदमी लड़ाई में मड़ेगा,टब टुम क्या कड़ेगा?

शान्ति- तब हमारी एक शर्त हो जाए। युद्ध तो दो-चार दिन में होगा ही। अगर तुम जीतोगे, तो मै तुम्हारी उपपत्नी होकर रहूंगी। अगर हम लोग जीतेंगे, तो तुम हमारे घर में उसी दरबे में बन्दर बनकर रहना और केला खाना।

साहब-केला बहुत अच्छा चीज । अभी तुम्हारे पास है?

शान्ति- ले अपनी बन्दूक ले! ऐसे बेवकूफों के साथ कौन बात करे!

यह कहकर शान्ति बन्दूक फेंककर हंसती हुई भाग गयी।

साहब के पास से भागकर शान्ति जंगल में गायब हो गयी। थोड़ी ही देर बाद साहब ने मधुर स्त्री-कण्ठ से गाना सुना-

ए यौवन-जल तरंग रोघिबे के

हरे मुरारे! हरे मुरारे!

इसके साथ ही सारंगी पर वही मधुर झनकार उठी- ए यौवन-जल तरंग रोघिबे के?

हरे मुरारे! हरे मुरारे!

इसके साथ ही पुरुष कण्ठ के साथ फिर गाना हुआ-ए यौवन-जल तरंग रोघिबे को?

हरे मुरारे! हरे मुरारे!

तीन स्वरों की मिलित झनकार ने जंगल की समूची लताओं को कंपा दिया। शान्ति गाती हुई गीत के पूरे चरण गाने लगी-

ए यौवन जल- तरंग रोघिबे के?
हरे मुरारे! हरे मुरारे!
ए यौवन जल- तरंग रोघिबे के?
हरे मुरारे! हरे मुरारे!
जलते तूफान होये छे
आमार नूतन तरी मसिलो सुखे,
माझीते हाल धरे छे,
हरे मुरारे! हरे मुरारे!
मेंगे बालिरे बांध, पुराई मनेर साध,
जोरदार गांगे जल छूटे छे, राखिबे के?
हरे मुरारे ! हरे मुरारे!
सारंगी भी बज रही थी-
जोरदार गांगेजल छूटे छे, राखिबे के ?
हरे मुरारे! हरे मुरारे।

जहां बहुत ही घना जंगल है- भीतर क्या है, बाहर से यह दिखाई नहीं देता, शांति उसी के अंदर प्रवेश कर गयी थी। वहीं उन्हीं शाखा- पल्लवों में छिपी हुई एक छोटी कुटी है। डालियों के ही बन्धन और पत्तों का छाजन है। काठ की जमीन, उस पर मिट्टी पटी हुई है। लताद्वार खोलकर उसी के अंदर शांति प्रवेश कर गयी। वहां जीवानंद बैठे सारंगी बजा रहे थे।

जीवानंद ने शांति को देखकर पूछा- इतने दिनों के बाद गंगा में ज्वार का जल बढ़ा है क्या?

शांति ने हंसते हुए उत्तर दिया- ज्वार का बढ़ा हुआ गंगा जल ही क्या तालों को डुबाता है?

जीवानंद ने दु:खी होकर कहा- देखो, शांति! एक दिन तो व्रत भंग होने के कारण प्राण उत्सर्ग करूंगा ही; जो पाप हुआ है, उसका प्रायश्चित करना ही पड़ेगा। अब तक प्रायश्चित कर चुका होता, किन्तु केवल तुम्हारे अनुरोध के कारण कर न सका। लेकिन अब किसी दिन यह भी सम्भव हो जाएगा, विलम्ब नहीं है। उसी युद्ध में मुझे प्रायश्चित करना पड़ेगा। इस प्राण का परित्याग करना ही होगा। मेरे मरने के दिन.....

शांति ने बात काट कर कहा- मैं तुम्हारी धर्मपत्‍‌नी हूं, सधर्मिणी हूं-धर्म में सहायक हूं। तुमने अतिशय गुरु धर्म ग्रहण किया है, उसी धर्म की सहायता के लिए मैं आई हूं। हम दोनों ही एक साथ रहकर उस धर्म में सहायक होंगे, इसलिए घर त्याग कर आयी हूं। मैं तुम्हारे घर में वृद्धि ही करूंगी। विवाह इहकाल के लिए भी होता है और परकाल के लिए भी होता है। इहकाल के लिए जो विवाह होता है, मन में समझ लो कि हमने वह किया ही नहीं। हमलोगों का विवाह केवल परकाल के लिए हुआ है। परकाल में इसका दूसरा फल होगा, लेकिन प्रायश्चित की बात क्यों? तुमने कौन सा पाप किया है? तुम्हारी प्रतिज्ञा है कि स्त्री के साथ एकासन पर न बैठेंगे? कौन कहता है तुम किसी दिन भी एकासन पर बैठे हो? फिर प्रायश्चित क्यों? हाय प्रभु तुम मेरे गुरू हो, क्या मैं तुम्हें धर्म सिखाऊं? तुम वीर हो, लेकिन क्या मैं तुम्हें वीर-धर्म सिखाऊं?

जीवानंद ने आह्लाद से गदगद होकर कहा-प्रिये! सिखाओ तो सही!

शांति प्रसन्नचित से कहने लगी-और भी देखो गोस्वामी जी! इहकाल में ही क्या हमारा विवाह निष्फल है? तुम मुझसे प्रेम करते हो, मैं तुमसे प्रेम करती हूं- इससे बढ़कर इहकाल में और कौन-सा फल हो सकता है? बोलो-वन्देमातरम्!

इसके बाद ही दोनों ने एक स्वर से वन्देमातरम् गीत गाया।

कल्याणी ने स्थिर भाव से उत्तर दिया-मेरे जीवन को किसी ने विषमय नहीं बनाया : जीवन स्वयं विषमय है-मेरा जीवन विषमय है; आपका जीवन विषमय है : सभी का जीवन विषमय है।

भवानन्द-सच है, कल्याणी! मेरा जीवन तो अवश्य विषमय है।...उसी दिन से तुम्हारा व्याकरण समाप्त हो गया है?

कल्याणी-नहीं?

भवानन्द-फिर क्या बात है?

कल्याणी-अच्छा नहीं मालूम होता।

भवानन्द-विद्या-अर्जन में तुम्हारी कुछ प्रवृत्ति देखी थी। अब ऐसी अश्रद्धा क्यों?

कल्याणी-आप जैसे पण्डित जब महापापिष्ठ हैं, तो न पढ़ना-लिखना ही अच्छा है। मेरे पतिदेव की क्या खबर है, प्रभु?

भवानन्द-बारंबार यह संवाद क्यों पूछती हो? वो तो तुम्हारे लिए मृत समान है।

कल्याणी-मैं उनके लिए मृत हूं; वे मेरे लिए नहीं।

भवानन्द-वह तुम्हारे लिये मृतवत् होंगे, यही समझकर तो तुमने विष खाया था? बार-बार यह बात क्यों कल्याणी?

कल्याणी-मर जाने से क्या संबंध मिट जाता है! वह कैसे है?

भवानन्द-अच्छे है।

कल्याणी-कहां है? पदचिन्ह में?

भवानन्द-हां, वहीं हैं!

कल्याणी-क्या कर रहे हैं?

भवानन्द-जो कर रहे थे-दुर्ग-निर्माण, अस्त्र-निर्माण; उन्हीं के द्वारा निर्मित अस्त्र-शस्त्रों से सहस्त्रों सन्तान सज्जित हो रहे हैं। उन्हीं की कृपा से अब हम लोगों को तोप, बन्दूक, गोला-गोली, बारूद आदि की कमी नहीं है। सन्तान गण में वही श्रेष्ठ हैं। वे हम लोगों को महत् उपकार कर रहे है; वे हम लोगों के दाहिने हाथ हैं।

कल्याणी-मैं प्राण-त्याग न करती, तो इतना होता! जिसकी छाती पर छेदही कलसी बंधी हो, वह क्या कभी भवसागर पार कर सकता है! जिसके पैरों में लौह सीकड़ पड़े हों, वह क्या कभी दौड़ सकता है! क्यों संन्यासी! तुमने अपना क्षार जीवन क्यों बचा रखा था?

भवानन्द-स्त्री सहधर्मिणी होती है, धर्म में सहायक होती है।

कल्याणी-छोटे-छोटे धर्मो में। बड़े धर्मो के अनुसरण में कण्टक! मैंने विष-कटक द्वारा उनके अधर्म या कष्ट का उद्धार किया था। छि:, दुराचारी पामर ब्रह्मचारी! तुमने मेरे प्राण क्यों लौटाये?

भवानन्द-अच्छा, न तो मैंने जो किया है, उसे मुझे वापस कर दो। मैंने जो प्राण-दान किया है, क्या तुम उसे वापस कर सकती हो।

कल्याणी-क्या आपको पता है, मेरी सुकुमारी कैसी है?

भवानन्द-बहुत दिनों से उसकी खबर नहीं लगी। जीवानन्द बहुत दिनों से उधर गये ही नहीं।

कल्याणी-उसकी खबर क्या मुझे ला नहीं दे सकते? स्वामी मेरे लिए त्याज्य है; लेकिन जब जिन्दा रह गई हूं तो कन्या को क्यों त्याग दूं! अब तो सुकुमारी के पास जाने से ही जीवन में कुछ सुख मिल सकता है। लेकिन मेरे लिए इतना आप क्यों करेंगे।

भवानन्द-करूंगा कल्याणी! तुम्हारे लिए कन्या ला दूंगा; लेकिन इसके बाद?

कल्याणी-इसके बाद क्या गोस्वामी?

भवानन्द-स्वामी

कल्याणी-उन्हें तो इच्छापूर्वक त्यागा है।

भवानन्द-यदि उनका व्रत पूर्ण हो जाए तो?

कल्याणी-तो मैं उनकी हूंगी। मैं जो बच गई हूं, क्या वे यह जानते हैं?

भवानन्द-नहीं।

कल्याणी-आपसे क्या उनकी मुलाकात नहीं होती?

भवानन्द-होती है।

कल्याणी-मेरी बात कभी नहीं करते?

भवानन्द-नहीं! जो स्त्री मर गयी, उससे फिर पति का क्या सम्बन्ध!

कल्याणी-क्या कहा?

भवानन्द-तुम फिर विवाह कर सकती हो, तुम्हारे पुनर्जन्म हुआ है।

कल्याणी-मेरी कन्या ला दो!

भवानन्द-ला दूंगा! तुम फिर विवाह कर सकती हो?

कल्याणी-तुम्हारे साथ न?

भवानन्द-विवाह करोगी?

कल्याणी-तुम्हारे साथ

भवानन्द-यही मान लो।

कल्याणी-सन्तान धर्म कहां रहेगा?

भवानन्द-अतल जल में।

कल्याणी-यह तुम्हारा महाव्रत है?

भवानन्द-अतल जल में गया?

कल्याणी-किसलिए सब अतल जल में डुबाते हो?

भवानन्द-तुम्हारे लिए! देखो, मनुष्य हो, ऋषि हो, सिद्ध हो, देवता हो, सबका चित्त अवश्य होता है। सन्तान-धर्म मेरा प्राण है, लेकिन आज पहले-पहल करता हूं, तुम प्राणों से भी बढ़कर प्राण हो। जिस दिन तुम्हें प्राण-दान किया, उसी दिन से मैं तुम्हारे पैरों पर गिर गया। मैं नहीं जानता था कि संसार में ऐसा रूप भी है। ऐसी रूपराशि जीवन में कभी देखूंगा, यदि यह जानता तो कभी सन्तान-धर्म ग्रहण न करता। यह धर्म इस अग्नि में जलकर क्षार हो जाता है। धर्म जल गया है-प्राण है। आज चार वर्षो से प्राण भी जल रहा है, बचना नहीं चाहता। दाह! कल्याणी! दाह! ज्वाला! लेकिन जलने वाला, ईधन अब बच नहीं गया है। प्राण जा रहा है। चार बरस से सह रहा हूं; अब सहा नहीं जाता। क्या तुम मेरी होगी?

कल्याणी-तुम्हारे ही मुंह से सुना है कि सन्तान-धर्म का एक यह भी नियम है कि जिसकी इन्द्रिय परवश हो जाए, उसका प्रायश्चित मृत्यु है। क्या यह सच है?

भवानन्द-यह सच है।

कल्याणी-तो तुम्हारे लिए भी वही प्रायश्चित मृत्यु है?

भवानन्द-मेरे लिए एकमात्र प्रायश्चित मृत्यु है।

कल्याणी-तुम्हारी मनोकामना पूरी होने पर मरोगे?

भवानन्द-निश्चय मरूंगा!

कल्याणी-और यदि मैं मनोकामना पूरी न करूं?

भवानन्द-तब भी मृत्यु निश्चय है। कारण, मेरी इन्द्रियां परवश हो चुकी हैं। आगामी युद्ध में...

कल्याणी-तुम अब विदा हो! मेरी कन्या भिजवा दोगे?

भवानन्द ने आंसू भरी आंखों से कहा-भिजवा दूंगा। क्या मेरे जाने पर भी मुझे हृदय में याद रखोगी?

कल्याणी-याद रखूंगी-व्रमच्युत विधर्मी के रूप में याद रखूंगी।

भवानन्द विदा हुए। कल्याणी पुस्तक पढ़ने लगी।

भवानंद स्वामी एक दिन नगर में जा पहुंचे। उन्होंने प्रशस्थ राजपथ त्यागकर एक गली में प्रवेश किया। गली के दोनों बाजू ऊंची अट्टालिकाएं हैं, केवल दोपहर के समय एक बार वहां भगवान सूर्य झांक लेते हैं, इसके बाद अंधकार ही अंधकार। गली में घुसकर पास के ही एक दो-मंजिले मकान में भवानंद ने प्रवेश किया। नीचे की मंजिल में जहां एक अर्धवयस्का स्त्री रसोई बना रही थी, वहीं जाकर भवानंद स्वामी ने दर्शन दिया। वह स्त्री अर्धवयस्क, मोटी-झोटी, काली-कलूटी, मैली धोती पहने माथे के बाल ठीक खोपड़ी पर बांधे हुए, दाल की बटलोही में कलछी डालकर ठन-ठन बजाती हुई बाएं हाथ से मुंह पर लटकानेवाले बालों को हटाली, कुछ मुंह से बड़बड़ाती, रसोई करती हुई सुशोभित हो रही थी। ऐसे ही समय भवानंद महाप्रभु ने घर में प्रवेश कर कहा-भाभी! राम-राम!

भाभी भवानंद को देखकर अवाक होकर अपने हटे हुए कपड़े ठीक करने लगी। इच्छा हुई कि सिर का मोहन जूड़ा खोल डाले, लेकिन खोल न सकी- हाथ में कलछी थी। हाय हाय! उस जूड़े के जंजाल में उसने एक बकुल पुष्प खोंस रखा था। वस्त्रांचल से उसे ढंकने की कोशिश की, लेकिन यह क्या? आज तो एक पांच हाथ का टुकड़ा मात्र पहन रखा था। अत: अंग ढंक न सकी। वह पांच हाथ का कपड़ा ऊपर उठाती थी तो छाती खुलती थी, छाती ढांकती थे तो पीठ खुलती थी, लाचार बेचारी परेशान हो गई। किसी तरह उसने एक कोना खींचकर कान के पास तक लाकर आधा चेहरा ढांकने का भाव कर प्रतिज्ञा की कि दूसरी एक धोती खरीदूंगी और तब इसे कभी न पहनूंगी। इस तरह व्यस्त होने के बाद बोली-कौन, गोसाई ठाकुर! आओ-आओ! लेकिन भाई! यह हमें राम-राम के साथ प्रणाम क्यों?

भवानंद-तुम मेरी भाभी जो हो!

गौरी-अच्छा, आदर से कहते हो तो कह लो। प्रणाम किया ही है, तो खुश रहो! फिर तुम्हें प्रणाम करना ही चाहिए, मैं उम्र में बड़ी जो हूं। लेकिन आखिर हो तो गोसाई ठाकुर देवता ही!

भवानंद स्वामी से गौरी की उम्र काफी बड़ी-करीब पचीस वर्ष बड़ी है। लेकिन चतुर भवानंद ने उत्तर दिया-भाभी! अरे तुम्हें रसीली देखकर भाभी कहता हूं। नहीं तो हिसाब जब किया गया था, तो तुम मुझसे छ: वर्ष छोटी निकली थीं। क्या याद नहीं है? हम लोगों में सब तरह के वैष्णव हैं न। इच्छा है कि एक मठधारी ब्रह्मचारी के साथ तुम्हारी सगाई करा दूं, यही कहने आया हूं।?

गौरी-यह कैसी बात? अरे राम-राम! ऐसी बात भला कही जाती? मैं ठहरी विधवा औरत!

भवानंद-तो सगाई न होगी?

गौरी-तो भाई! जैसा समझो वैसा करो। तुम लोग पंडित आदमी ठहरे। हम लोग तो और हैं, क्या समझें? तो कब होगी सगाई?

भवानंद ने बड़ी मुश्किल से हंसी रोककर कहा-बास एक बार उस ब्रह्मचारी से मुलाकात होते ही पक्की हो जाएगी सगाई?

गौरी जल गई। मन में संदेह हुआ कि शायद सगाई की बात मजाक है। बोली-है, जैसी, है वैसी है!

भवानंद-तुम जरा जाकर एक बार देख आओ। कह देना कि मैं आया हू- एक बार मिलना चाहता हूं।

इस पर गौरी भात-दाल छोड़कर हाथ धोकर छमछम करती हुई सीढि़यां तोड़ती ऊपर चढ़ने लगी। एक कमरे में जमीन पर चटाई बिछाकर एक अपूर्व सुन्दरी बैठी हुई हँै। लेकिन सौंदर्य पर एक घोर छाया है। मध्यान्ह के समय कलकलवाहिनी प्रसन्नसलिला, विपुल-जल-श्रोतवती नदी के ऊपर मेघ आने जैसी यह कैसी छाया है!

नदी-हृदय पर तरंगे उछल रही हैं, तटवर्ती कुसुमवृक्ष वायु के झोंके में मस्त झूम रहे हैं, पुष्प-भार से दबे जा रहे हैं, उनसे अट्टालिका-श्रेणी सुशोभित है। तरणी-श्रेणी के ताड़न से जल आंदोलित हो रहा है। यह भी वैसे ही पहले की तरह चारु, चिकने, चंचल, गुंथे केश, पहले का वैसा ही तेजपुंज ललाट और उस पर पतली तूलिका से खिंची हुई भौंहें, वही पहले जैसे चंचल मृग-नयन- लेकिन वैसे कटाक्षमय नहीं, वैसी लोलता नहीं, कुछ नम्र! अधरों पर वही दाडि़म लालिमा, वैसे ही सुधारसपूर्ण, वैसे ही वनलता-दुष्प्राप्य कोमलतायुक्त बाहु। लेकिन आज वह दीप्ति नहीं, वह उ”वलता नहीं, वह प्रखरता नहीं, वह चंचलता नहीं, वह रस नहीं है-शायद वह यौवन भी नहीं है। केवल सौन्दर्य और माधुर्यमात्र, नयी बात आ गयी है-गाम्भीर्य। इसे पहले देखने से जान पड़ता था कि मनुष्य-लोक की अतुलनीय सुन्दरी है अब देखने से जान पड़ता है कि कोई स्वर्ग की शापग्रस्त देवी है। उसके चारों तरफ दो-चार पुस्तकें पड़ी हुई हैं। दीवार पर खूंटी के सहारे तुलसी की माला लटक रही है। दीवारों पर जगन्नाथ, बलराम, सुभद्रा, कालीयदमन, गोवर्धन-धारण आदि के चित्र टंगे हुए हैं। वे चित्र उसके स्वयं बनाये हुए हैं, उनके नीचे लिखा हुआ है-चित्र या विचित्र! ऐसे ही कमरे में भवानन्द ने प्रवेश किया।

भवानन्द ने पूछा-क्यों कल्याणी! शारीरिक कुशल तो है?

कल्याणी-यह प्रश्रन् करना आप न छोड़ेंगे? मेरे शारीरिक कुशल से आपका क्या मतलब?

भवानन्द-जो वृक्ष लगाता है, उसमें नित्य जल देता है-वृक्ष के बढ़ते से ही उसे सुख होता है। तुम्हारे मृत शरीर में मैंने नवजीवन दिया है। वह बढ़ रहा है या नहीं, मैं क्यों न पूछूंगा?

कल्याणी-विक्ष-वृक्ष का क्या कभी कोई दाम होता है?

भवानन्द-जीवन क्या विष है?

कल्याणी-न होता तो अमृत ढालकर में उसे ध्वंस करने को क्यों तैयार होती?

भवानन्द-बहुत दिनों से सोच रहा था-पूछूंगा, लेकिन पूछ नहीं सका। किसने तुम्हारे जीवन को विषमय बना दिया था?

भवानन्द विचार-सागर में गोते लगाते हुए मठ की तरफ चले। वे राह में अकेले चले आ रहे थे। वन में भी अकेले ही उन्होंने प्रवेश किया। अब उन्होंने देखा कि वन में उनके आगे-आगे एक आदमी चला जा रहा है। भवानन्द ने पूछा-कौन हो भाई?

अग्रगामी व्यक्ति ने कहा-जानना चाहते हो? उत्तर देता हूं-एक पथिक

भावानन्द-वन्दे-

वह आदमी बोला-मातरम्।

भवानन्द-मैं भवानन्द स्वामी हूं।

अगग्रामी-मैं धीरानंद।

भवानन्द-धीरानंद! कहां गये थे?

धीरानंद-आपकी ही खोज में।

भवानन्द-क्यों?

धीरानंद-एक बात कहने।

भवानन्द-कौन-सी बात?

धीरानंद-अकेले में कहने की है।

भवानन्द-यहीं बताओ न, यह तो निर्जन स्थान है।

धीरानंद- आप नगर में गए थे

भवानंद- हाँ।

धीरानंद- गौरी के घर?

भवानंद- तुम भी नगर में गए थे क्या?

धीरानंद- वहां एक परम सुंदरी रहती है?

भवानंद- कुछ विस्मित भी हुए डरे भी। बोले- यह सब कैसी बातें हैं?

धीरानंद- आप उसके साथ मुलाकात की थी?

भवानंद- हसके बाद?

धीरानंद- आप उस कामिनी के प्रति अति अनुरक्त हैं?

भवानंद- (कुछ विचारकर) धीरानंद! तुमने क्यों इतनी खोज-बीन की। देखो धीरानंद! तुम जो कुछ कह रहे हो, सब सच है। लेकिन तुम्हारे अतिरिक्त कितने लोग यह बात जानते है?

धीरानंद- और कोई नहीं।

भवानंद- तब तुम्हारा बध करने से ही मैं मुक्त हो सकता हूँ।

धीरानंद- कर सकते हो?

भवनांद- तब आओ, इस निर्जन स्थान में ही युद्ध करे। हो सकता तो मैं तुम्हारा बध कर कलंक से बचूं या तुम मेरा बध कर दो, ताकि सारी ज्वालाओं में मेरी मुक्ति हो जाए। बोलो, पास में अस्त्र है?

धीरानंद- है! खाली हाथ किसकी मजाल है कि तुम्हारे सामने यह बातें करे। यदि युद्ध की ही तुम्हारी इच्छा है तो वही सही, पर संतान-संतान में विरोध निषिद्ध है किन्तु आत्महत्या के लिए किसी के साथ भी युद्ध करने में हर्ज नहीं। जो बात कहने के लिए मैं तुम्हें खोज रहा था, क्या वह सब सुन लेने पर युद्ध करना अच्छा न होगा?

भवानंद- हर्ज क्यों है कहो!

भवानंद ने तलवार निकाल कर धीरानंद के कंधे पर रख दी। धीरानंद भागे नहीं।

धीरानंद- मैं यह कह रहा था कि तुम कल्याणी से विवाह कर लो।

भवानंद- कल्याणी यह! भी जानते हो?

धीरानंद- विवाह क्यों नहीं कर लेते?

भवानंद- उसके तो पति जीवित हैं

धीरानंद- वैष्णों का ऐसा विवाह होता है।

भवानंद- यह नीच वैरागियों की बात है-संतानों में नहीं। संतान की शादी नहीं होती।

धीरानंद- संतान-धर्म क्या अपरिहार्य है? तुम्हारे तो प्राण जा रहे हैं। छि:! छि:! मेरा कंधा न कट गया। (वस्तुत: धीरानंद के कंधे से रक्त निकल रहा था।)

भवानंद- तुम किसलिए मुझे यह अधर्म-मति देने आए हो? अवश्य ही तुम्हारा कोई स्वार्थ है!

धीरानंद- वह भी कहने की इच्छा है। तलवार न धंसना, बताता हूं। इस संतान-धर्म ने मेरी हड्डियों को जर्जर कर दिया है। मैं इसका परित्याग कर स्त्री-पुत्र का मुंह देखकर दिन बिताने के लिए उतावला हो रहा हूं। मैं इस संतान-धर्म का परित्याग करूंगा। लेकिन क्या मेरे लिए घर जाकर बैठने का अवसर है। विद्रोही के रूप में अनेक लोग मुझे पहचानते हैं। घर जाकर बैठते ही शायद राजपुरुष सर उतार ले जाएंगे। अथवा सन्तान लोग ही विश्वासघात समझकर मार डालेंगे। इसीलिए तुम्हें भी अपना साथी बना लेना चाहता है। भवानन्द-क्यों, मुझे क्यों?

धीरानन्द- यही असली बात है। सन्तान गण तुम्हारे अधीन हैं। सत्यानन्द अभी यहां हैं नहीं; इनके नायक हो तुम। इस सेना को लेकर युद्ध करो, तुम्हारी विजय होगी, इसका मुझे विश्वास है। युद्ध में विजय प्राप्त कर क्यों नहीं तुम अपने नाम से एक राज्य स्थापित करते? सेना तो तुम्हारी आज्ञाकारिणी है। तुम राजा हो, कल्याणी तुम्हारी मन्दोदरी हो, मैं भी तुम्हारा अनुचर बनकर स्त्री-पुत्र का मुंह देखकर दिन बिताऊं और आशीर्वाद करूं। सन्तान-धर्म को अलग जल में डुबो दो!

भवानन्द ने धीरानन्द के कंधे पर से तलवार हटा ली; बोले-धीरानन्द! युद्ध करो! मैं तुम्हारा वध करूंगा। मैं इन्द्रिय-परवश हो सकता है, लेकिन विश्वासघातक नहीं। तुमने मुझे विश्वासघाती होने का परामर्श दिया है-स्वयं भी विश्वासघातक हो। तुम्हें सामने मारने से ब्रह्महत्या भी न होगी। मैं तुम्हारा वध करूंगा!

बात समाप्त होते-न-होते धीरानन्द दम भरकर भागे। भगवान ने पीछा न किया। भगवान कुछ अनमने से थे; उन्होंने अब देखा, धीरानन्द का कहीं पता न था।

कम्पनी की उस समय अनेक कोठियां थी। ऐसी ही एक कोठी शिवग्राम में थी। डांनीवर्थ साहब इस कोठी के अध्यक्ष थे। उस समय रेशम-कोठी की रक्षा का बहुत ही अच्छा प्रबन्ध हुआ करता था।

डॉनीवर्थ ने इसी वजह से किसी तरह अपनी प्राणरक्षा की। लेकिन अपनी स्त्री-कन्या को कलकत्ता भेज देने के लिए उन्हें बाध्य होना पड़ा था; कारण-डॉनीवर्थ सन्तानों द्वारा बहुत ही पीडि़त हुए थे। उसी समय टॅामस साहब थोड़ी फौज लेकर उस अंचल में पहुंच गये। उस समय कितने ही डोम,चमार,लंगड़े-लूले भी पराया धन लूटने के लिए उत्साहित हो गये थे। उन सबों ने जाकर कप्तान टॉमस की रसद पर आक्रमण किया। कप्तान साहब बहुत अधिक मात्रा में खाद्य-सामग्री- घी, मैदा, सूजी, चावल गाडि़यों पर लदवाकर ले आ रहे थे। इसे देखकर डोम-चमारों का दल अपना लोभ संवरण कर न सका- उन सबने जाकर गाड़ी पर आक्रमण किया; लेकिन सिपाहियों की दो-चार संगीनें खाकर सब भागे।

कप्तान टॉमस ने उसी समय कलकत्ते रिपोर्ट भेजी कि आज कुल 157 (एक सौ संतावन )सिपाहियों को लेकर मैंने 14730 विद्रोहियों को परास्त किया है। विद्रोहियों के 2153 (इक्कीस सौ तिरेपन) व्यक्ति मरे, 1223 घायल हुए और 7 व्यक्ति बन्दी हुए। केवल अन्तिम संख्या सत्य थी। कप्तान टॉमस ने द्वितीय ब्लेनहम या रसवाक का युद्ध जीता- यह सोचते हुए वे अपनी मूछों पर ताव देते हुए इधर-उधर ठाट से घूमने लगे। उन्होंने डॉनीवर्थ से कहा- अब क्या डरते हो? बस, विद्रोहियों का दमन हो गया! अब अपनी स्त्री-कन्या का कलकत्ते से बुला लो।

इस पर डॉनीवर्थ ने उत्तर दिया- ऐसा ही होगा! आप दस दिन यहां ठहरिये, देश को जरा और शांत होने दीजिये, फिर बुला लेंगे।

डॉनीवर्थ के पास पल्टन की मुर्गियॉं पली हुई थी और उनके यहां का पानी भी बहुत अच्छा था। विभिन्न वन्यपक्षी उनके टेबुल की शोभा बढ़ाते थे। दाढ़ीवाला बावर्ची मानो द्वितीय द्रौपदी था। अत: बिना कुछ बोले-चाले कप्तान टॉमस वहीं डटे रहने लगे।

इधर भवानंद मन ही मन व्यस्त है कि कब इस कप्तान का सर काटकर द्वितीय शम्बरारि की उपाधि धारण करूं । अंग्रेज इस समय भारतोद्वार के लिए(?) आये हैं, ये संतानगण तब तक समझ न सके थे। कैसे समझते? कप्तान टॉमस के सम-सामयिक भी उस समय यह न समझ सके थे कि भारतवर्ष पर हमारा राज्य स्थापित हो सकेगा। उस समय भविष्य तो विधाता ही जानते थे! भवानंद मन में सोचते थे कि इस असुर- वंश का एक दिन में निपात करूंगा; सब एकचित हो जाएं और जरा असतर्क सन्तान लोग अलग रहे। यही विचारक सब अलग रहे। उधर कप्तान टॉमस द्रौपदी गुण-ग्रहण में संलग्न थे।

साहब बहादुर शिकार के बड़े शौकीन थे। वे कभी-कभी शिवग्राम के निकट के जंगल में शिकार खेलने निकल जाते थे। एक दिन डॉनीवर्थ के साथ अनेक शिकारियों को लेकर टॉमस शिकार के लिए निकल पड़े। कहना ही क्या है! टॉमस बड़े ही साहसी व्यक्ति हैं, बल-वीर्य में अंगरेजों में अतुलनीय है। इस जंगल में शेर, भालू आदि हिंसक जन्तुओं का बाहुल्य है। बहुत दूर निकल जानेपर साथ के शिकारियों ने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया कि निविड़ जंगल में हम न घुसेंगे; वे बोले- अब भीतर राह नहीं है, आगे जा न सकेंगे। डानीवर्थ भी ऐसे भयानक शेर के सामने पड़ चुके थे कि वे भी घुसने से मुकर गये। सब लोग लौटना चाहते थे। कप्तान टॉमस ने कहा- तुम लोग लौट जाओ, मैं न लौटूंगा। यह कहकर कप्तान साहब ने भयानक जंगल में प्रवेश किया। वस्तुत: उस जंगल में राह न थी। घोड़ा आगे बढ़ न सकता था: लेकिन साहब ने अपना घोड़ा भी छोड़ दिया और कन्धे पर बन्दूक रखकर पांव पैदल आगे बढ़े। घने जंगल में प्रवेश कर इधर उधर शेर की खोज करने लगे; पर शेर कहीं न था। फिर देखा क्या- एक बड़े पेड़ के नीचे, खिले पुष्पों की लता अपने शरीर से लपेटे हुए कौन बैठा हुआ था? एक नवीन संन्यासी बैठा अपने रूप से जंगल में उजाला किये हुए है। प्रस्फुटित पुष्प मानों उस शरीर का सानिध्य पाकर कुछ अधिक सुगन्धित हो गये है। कप्तान टॉमस को पहले तो विस्मय हुआ, फिर क्रोध आया। कप्तान साहब थोड़ी बहुत हिन्दी बोल लेते थे,बोले-टुम कौन?

संन्यासी ने कहा- मैं संन्यासी हूं।

कप्तान ने कहा - टुम रिबेल है?

संन्यासी- वह क्या?

कप्तान-हम टुमको गुली करके माड़ेगा।

सन्यासी-मारो।