आनंदमठ - भाग 8 / बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय
मठ में जाकर और फिर भवानन्द जंगल में घुस गए। उस जंगल में एक जगह प्राचीन अट्टालिका का भग्नावशेष है। उस ढूहे पर घास-पात आदि जम आई है। वहां असंख्य सर्पो का वास है। ढूहे की जमीन अपेक्षाकृत साफ और ऊंची थी। भवानन्द उसी पर जाकर बैठे और चिंता में मग्न हो गए।
भयानक अंधेरी रात थी। उस पर वह जंगल अति विस्तृत, एकदम सूना जंगल वृक्ष-लताओं से घना और दुर्भेद्य, गमनागमन में दुष्कर है। आवाज आती भी है तो भूखे शेर की हुंकार, अन्यान्य पशुओं के भागने या बोलने का शब्द, कभी पक्षियों के पर फटफटाने की आवाज, तो कभी भागते हुए पशुओं के पैर की खरखराहट। ऐसे निर्जन स्थान में उस ढूहे पर अकेले भगवान बैठे हुए हैं। उनके लिए इस समय पृथ्वी है ही नहीं, या केवल उपादान मात्र है। भवानन्द निश्चल थे, श्वास-प्रश्वास अति सूक्ष्म, अपने में ही विलीन, माथे पर हाथ रखे बैठे थे। मन में सोचते थे-जोहोना होना है, अवश्य होगा। भागीरथी की जल-तरंगों के बीच क्षुद्र हाथी की तरह इंद्रिय-स्रोत में डूब गया, यही दु:ख है। एक क्षण में इंद्रियों का घ्वंस हो सकता है, शरीर-निपात कर देने से। मैं इसी इंद्रिय के वश में हो गया? मेरा मरना ही अच्छा है। धर्मत्यागी! छि :! छि :! मैं अवश्य मरूंगा। इसी समय माथे पर पेचक ने भयानक शब्द किया। भवानन्द अब खुलकर बड़बड़ाने लगे- यह कैसा शब्द? कान में ऐसा सुनाई पड़ा, मानो भय का आह्वान हो। मैं नहीं जानता, मुझे कौन बुलाता-यह किसका शब्द है? किसने राह बतायी, किसने मरने के लिए कहा? पुण्यमय अनन्त! तुम शब्द-शब्दमय हो; लेकिन तुम्हारे शब्द का अर्थ तो मैं समझ नहीं पाता हूं।
इसी समय भीषण जंगल में से मधुर साथ ही गंभीर, प्रेम भरा मनुष्य-कष्ठ सुनाई दिया-आशीर्वाद देता हूं, धर्म में तुम्हारी मति अवश्य होगी!
भवानन्द के शरीर के रोंगटे खड़े हो गये-यह क्या? यह तो गुरुदेव की आवाज है-
महाराज! आप कहां है? इस समय सेवक को दर्शन दीजिये।
लेकिन किसी ने भी दर्शन न दिया, किसी ने भी उत्तर न दिया। भवानन्द ने बार-बार बुलाया, लेकिन कोई उतर न मिला। इधर-उधर खोजा, कहीं कोई न था।
रात बीतने पर जब जंगल में प्रभात का सूर्य उदय हुआ-जंगल में प्रभात का सूर्य उदय हुआ-जंगल में पत्तों की हरियाली जब चमक उठी, तब भवानन्द मठ में वापस आ गए। उनके कानों में आवाज पहुंची- हरे मुरारे! हरे मुरारे! पहचान गए कि यह सत्यानन्द की आवाज है। समझ गए कि प्रभु वापस आ गए!
जीवानन्द के कुटी से बाहर चले जाने पर शान्ति देवी फिर सारंगी लेकर मृदु स्वर में गाने लगी-प्रलयपयोधिजले धृतवानसि वेदं
विहित वहित्र चरित्रमखेदं,
केशवधूत मीन शरीर,
जय जगदीश हरे!
गोस्वामी विरचित स्तोत्र को जिस समय सारंगी की मधुर ध्वनि पर कोमल स्वर से शांति गाने लगी, उस समय वह स्वर-लहरी वायुमण्डल पर इस तरह तंरगित हो उठी, जिस तरह जल में अवगाहन करने पर स्रोत वाहिनी नदी में धार कुण्डलाकार होकर लहराने लगती है। शांति गाने लगी!
निन्दसि यज्ञविधेरह: श्रृतिजात
सदस्य हृदय दर्शित पशुघातम,
केशव धुत बुद्ध शरीर
जय जगदीश हरे!
इसी समय किसी ने बाहर से गंभीर स्वर में-मेघगर्जन के समान गंभीर स्वर में गाया!
म्लेच्छ निवहनिधने कलपयसि करवालम्
धूमकेतुमिति किमपि करालम्
केशवधृत कल्कि शरीर
जय जगदीश हरे।
शांति ने भक्ति-भाव से प्रणत होकर सत्यानन्द के पैरों की धूलि ग्रहण की और बोली-
प्रभो! मेरा ऐसा कौन-सा भाग्य है कि श्री पादपद्मों का यहां दर्शन मिला। आज्ञा दीजिये, मुझे क्या करना होगा? यह कहकर शांति ने फिर स्वर-लहरी छेड़ी!
भवचरणप्रणता वयमिति भावय
कुरु कुशल प्रणतेषु।
सत्यानन्द ने कहा- तुम्हें मैं पहचानता न था, बेटी! रस्सी की मजबूती न जानकर मैंने उसे खींचा था। तुम मेरी अपेक्षा ज्ञानी हो। इसका उपाय तुम्ही कहो। जीवानन्द से न कहना कि मैं सब कुछ जानता हूं। तुम्हारे प्रलोभन से वे अपनी जीवन-रक्षा कर सकेंगे-इतने दिनों से कर ही रहे हैं ऐसा होने से मेरा कार्योद्धार हो जाएगा।
शांति के उन विशाल लोल कटाक्षों में निदाघ-कादम्बिनी में विराजित बिजली के सामान घोर रोष प्रकट हुआ। उसने कहा-
यह क्या कहते हैं महाराज! मैं और मेरे पति एक आत्मा हैं। मरना होगा तो वे मरेंगे ही, इसमें मेरा नुकसान ही क्या है। मैं भी तो साथ मरूंगी! उन्हें स्वर्ग मिलेगा तो क्या मुझे स्वर्ग न मिलेगा?
ब्रह्मचारी ने कहा-देवी! मैं कभी हारा न था, आज तुमसे तर्क में हार मानता है। मां ! मैं तुम्हारा पुत्र हैं-संतान पर स्नेह रखो। जीवानन्द के प्राणों की रक्षा करो। इसी से मेरा कार्योद्धार होगा।
बिजली हंसी। शांति ने कहा-मेरे स्वामी धर्म मेरे स्वामी के ही हाथ है। मैं उन्हें धर्म से विरत करनेवाली कौन हूं? इहलोक में स्त्री का देवता पति है : किंतु परकाल में सबका पिता धर्म होता है। मेरे समीप मेरे पति बड़े हैं उनकी अपेक्षा मेरा धर्म बड़ा है-उससे भी बढ़कर मेरे लिए पति का धर्म है। मैं अपने धर्म को जिस दिन चाहूं जलांजलि दे सकती हूं, लेकिन क्या स्वामी के धर्म को जलांजलि दे सकती हूं? महाराज! तुम्हारी आज्ञा पर मरना होगा तो मेरे स्वामी मरेंगे, मैं मना नहीं कर सकती।
इस पर ब्रह्मचारी ने ठंडी सांस भरकर कहा-मां! इस घोर व्रत में बलिदान ही है। हम सबको बलिदान चढ़ाना पड़ेगा। मैं मरूंगा जीवानन्द, भवानन्द-सभी मरेंगे, शायद तुम भी मरोगी। किन्तु देखो, कार्य पूरा करके ही मरना होगा, बिना कार्य के मरना किस काम का? मैंने केवल जन्मभूमि को ही मां माना था और किसी को भी मां नहीं कहा, क्योंकि सुजला-सुफला माता के अतिरिक्त मेरी और कोई माता नहीं। अब तुम्हें भी मां कहकर पुकारा है। तुम माता होकर हम संतानों का कार्य सिद्ध करो। जिससे हमारा कार्योद्धार हो वहीं करो-जीवानन्द की प्राण-रक्षा करना, अपनी रक्षा करना!
यही कहकर सत्यानन्द-हरे मुरारे, मधुकैटभारे? गाते हुए चले गये।
इसके बाद तो दस हजार सन्तान सैन्य वन्देमातरम् गाती हुई, अपने भाले आगे कर तीर की तरह तापाें पर जा पड़ी। यद्यपि वे लोग गोले और गोलियों की बौछार से क्षत-विक्षत हो चुके थे, लेकिन पलटे नहीं, भागे नहीं घनघोर युद्ध शुरू हो गया। लेकिन इसी समय रण-कुशल टॉमस की आज्ञा से एक सेना बन्दूकों पर संगीनें चढ़ाकर पीछे से निकलकर संतानों के दाहिने बाजू पर गिरी। अब जीवानन्द ने कहा-भवानन्द! तुम्हारी ही बात ठीक थी। अब सन्तान-सैन्य को नाश करने की जरूरत नहीं लौटाओ इन्हें।
भवानन्द -अब कैसे लौट सकते है? अब तो जो पीछे पलटेगा, वही मारा जाएगा।
जीवानन्द - सामने और दाहिने से आक्रमण हो रहा है। आओ, धीरे-धीरे बाएं होकर निकल चलें।
भवानन्द -बाएं घूमकर कहां जाओगे? बाएं नदी है - वर्षा से भरी हुई नदी। इधर गोले से बचोगे, तो नदी में डूबकर मरोगे।
जीवानन्द -मुझे याद है, नदी पर एक पुल है।
भवानन्द - लेकिन इतनी संख्या में सन्तान जब पुल पर एकत्र हो जाएंगे, तो एक ही तोप उनका समूल नाश कर देगी।
जीवानन्द - तब एक काम करो। आज तुमने जो शौर्य दिखाया है, उससे तुम सब कुछ कर सकते हो। थोड़ी सेना के साथ तुम सामना करो। मैं अवशिष्ट सेना को बाएं घुमाकर निकाल ले जाता हूं। तुम्हारे साथ की सेना तो अवश्य ही विनष्ट होगी, लेकिन अवशिष्ट सन्तान सेना नष्ट होने से बच जाएगी।
भवानन्द -अच्छा, मैं ऐसा ही करूंगा।
इस तरह दो हजार सैनिकों के साथ भवानन्द के सामने से फिर गोलन्दाजों पर आक्रमण किया।
उनमें अपूर्व उत्साह था। घोरतर युद्ध होने लगा। गोलन्दाज सेना उनके विनाश में और तोप-रक्षा में संलग्न हुई। सैकड़ों सन्तान कट-कटकर गिरने लगे। लेकिन प्रत्येक सन्तान अपना बदला लेकर मरता था।
इधर अवसर पाकर जीवानन्द अवशिष्ट सेना के साथ बाएं मुड़कर जंगल के किनारे से आगे बढ़े। कप्तान टॉमस के सहकारी लेफ्टिनेंट वाटसन ने देखा कि सन्तानों का बहुत बड़ा दल भागने की चेष्टा में बाएं घूमकर जाना चाहता है। इस पर उन्होंने देशी सिपाहियों की सेना लेकर उनका पीछा किया।
कप्तान टॉमस ने भी यह देखा। सन्तान-सेना का प्रधान भाग इस तरह गति बदल रहा है- यह देखकर उन्होंने सहकारी से कहा - मै दो-चार सौ सिपाहियों के साथ सामने की सेना को मारता हूं, तुम शेष सेना के साथ उन पर धावा करो। बाएं से वाटॅसन जाते हैं, दाहिने से तुम जाओ। और देखो, आगे जाकर पुल का मुंह बन्द कर देना। इस तरह वे सब तरह से घिर जाएंगे। तब उन्हें फंसी चिडि़या की तरह मार गिराओ। देखना, देशी फौज भागने में बड़ी तेज होती है, अत: सहज ही उन्हें फंसा न पाओगे। अश्वारोही सेना को व न सके अन्दर से छिपकर पहले पुल के मुंह पर पहुंच जाने को कहो, तब वे फंस सकेंगे।?
कप्तान टॉमस ने, जो कुशल सेनापति था, अपने अहंकार के वश होकर यहीं भूल की। उसने सामने की सेना को तृणवत समझ लिया था। उसने केवल दो सौ पदतिक सैनिकों को अपने पास रहने दिया और शेष सबको भेज दिया। चतुर भवानन्द ने जब देखा कि तोप के साथ समूची सेना उधर चली गयी और सामने की छोटी सेना सहज ही वध्य है, तो उन्होंने अपनी सेना को जोश दिलाया - क्या देखते हो, सामने मुट्ठी भर अंगरेज हैं, मारो! इस पर वह संतान सेना टॉमस की सेना पर टूट पड़ी। उस आक्रमण को थोड़े-से अंगरेज सह न सक; मूली की तरह वे कटने लगे। भवानन्द ने स्वयं जाकर कप्तान टॉमस को पकड़ लिया। कप्तान अंत तक युद्ध करता रहा। भवानन्द ने कहा - कप्तान साहेब! मैं तुम्हें मारुंगा नहीं, अंगरेज हमारे शत्रु नहीं है। क्यों तुम मुसलमानों की सहायता करने आये? तुम्हें प्राणदान तो देता हूं, लेकिन अभी तुम बन्दी अवश्य रहोगे। अंगरेजों की जय हो, तुम हमारे मित्र हो।
कप्तान ने भवानन्द को मारने के लिए संगीन उठायी, लेकिन भवानन्द से शेर की तरह जकड़े हुए थे, वह हिल न सका। तब भवानन्द रासने अपने सैनिकों से कहा -बांधो इन्हें। दो-तीन सन्तानों ने टॉमस को बांध लिया। भवानन्द ने कहा - इन्हें घोड़े पर बैठाकर ले चलो। हम लोग जीवानन्द की सहायता को जाते हैं।
इसी तरह वह अल्पसंख्यक सन्तान-सेना कप्तान टॉमस को कैदी बनाकर घोड़े पर चढ़ भवानन्द के साथ जीवानन्द की सहायता के लिए आगे बढ़ी।
जीवानन्द की सेना का उत्साह टूट चुका था, वह भागने को तैयार थी। लेकिन जीवानन्द और धीरानंद ने उन्हें समझाकर किसी तरह ठहराया। परन्तु सब सेना को जीवानन्द और धीरानंद पुल की तरफ ले गये। वहां पहुंचते ही एक तरफ से हेनरी ने और दूसरी तरफ से वाटसन ने उन्हें घेर लिया। अब सिवा युद्ध के परित्राण न था। इधर सेना भग्नोत्साह थी।
रण-विजय के उपरान्त नदी तट पर सत्यानंद को घेरकर विजयी सेना विभिन्न उत्सवों में मत्त हो गयी। केवल सत्यानन्द दु:खी थे, भवानन्द के लिए।
अब तक संतानों के पास कोई रण-वाद्य नहीं था। अब न मालूम कहां से हजारों नगाड़े, ढोल, भेरी, शहनाई, तुरी, रामसिंघा, दमामा आ गये। तुमुल ध्वनि से नदी, तटभूमि और जंगल कांप उठा। इस प्रकार संतानों ने बहुत देर तक विजय का उत्सव मनाया। उत्सव के उपरांत सत्यानन्द स्वामी ने कहा-आज भगवान सदय हुए हैं; संतानों की विजय हुई है; धर्म की जय हुई है। लेकिन अभी एक बात बाकी है। जो हमलोगों के साथ इस उत्सव में शरीक न हो सके, जिन्होंने हमारे उत्सव के लिए प्राण उत्सर्ग किए किए हैं, उन्हें हम लोगों को भूलना न चाहिए-विशेषत: उस वीराग्रगण्य भवानन्द को, जिसके अदम्य रण-कौशल से आज हमारी विजय हुई है। चलो, उसके प्रति हमलोग अपना अन्तिम कर्त्तव्य कर आएं।
यह सुनते ही संतानगण बड़े समारोह से वन्देमातरम आदि जय-ध्वनि करते हुए रणक्षेत्र में पहुंचे। वहां उन लोगों ने चंदन-चिता सजा कर आदरपूर्वक भवानन्द की लाश सुलाई और आग लगा दी। इसके बाद वे लोग उस वीर की प्रदक्षिणा करते हुए वन्देमातरम् का गीत गाते रहे। संतान-सम्प्रदाय विष्णुभक्त हैं, वैष्णव सम्प्रदाय नहीं। अत: इनके शव जलाए ही जाते थे।
इसके उपरांत उस कानन में केवल सत्यानन्द, जीवानन्द, महेंद्र, नवीनानन्द और धीरानन्द रह गए। यह पांचों जन परामर्श के लिए बैठ गए। सत्यानन्द ने कहा-इतने दिनों से हम लोगों ने अपने सर्वकर्म, सर्वसुख त्याग रखे थे, आज यह व्रत सफल हुआ है। अब इस प्रदेश में यवन सेना नहीं रह गयी है। जो थोड़ी-बहुत बच गयी है, वह एक क्षण भी हमारे सामने टिक नहीं सकती। अब तुम लोग क्या परामर्श देते हो?
जीवानन्द ने कहा-चलिये, इसी समय चलकर राजधानी पर अधिकार करें।
सत्यानन्द-मेरा भी ऐसा मत है।
धीरानन्द-सेना कहां है?
जीवानन्द-क्यों, यही सेना!
धीरानन्द-यही सेना है कहां? किसी को देख रहे हैं?
जीवानन्द-स्थान-स्थान पर ये लोग विश्राम कर रहें होंगे; डंके पर चोट पड़ते ही इकट्ठे हो जाएंगे।
धीरानन्द-एक आदमी भी न पा सकेंगे।
सत्यानन्द-क्यों?
धीरानन्द-सब इस समय लूट-पाट में व्यस्त हैं। इस समय सारे गांव आरक्षित है। मुसलमानों के गांव और रेशम की कोठी लुटने के बाद ही वे लोग घर लौटेंगे। अभी किसी को न पाएंगे, मैं देख आया हूं।
सत्यानन्द दुखी हुए बोले-जो भी हो, इस समय यह समूचा प्रदेश हमारे अधिकार में आ गया है। अब यहां कोई हमारा प्रतिद्वन्द्वी नहीं है। अतएव इस वीरेन्द्र भूमि में तुम लोग अपना सन्तान-राज्य प्रतिष्ठित करो। प्रजा से कर वसूल करो और सैन्य-संग्रह करो। हिन्दुओं का राज्य हो गया है, यह सुनकर बहुतेरी संतान-सैन्य तुम्हारे झण्डे के नीचे आ जाएगी।
इस पर जीवानन्द आदि ने सत्यानन्द को प्रणाम किया और कहा-यदि आज्ञा हो महाराजाधिराज! तो हम लोग इसी जंगल में आपका सिंहासन स्थापित कर सकते हैं।
सत्यानन्द ने अपने जीवन में यह प्रथम बार क्रोध प्रकट किया बोले-क्या कहा? क्या मुझे केवल कच्चा घड़ा ही समझ लिया है? हमलोग कोई राजा नहीं है, हम केवल संन्यासी हैं। इस प्रदेश के राजा स्वयं बैकुण्ठनाथ है, जहां प्रजातन्त्र-राज्य स्थापित होगा। नगर अधिकारी के बाद तुम्ही लोग कार्यकर्ता होगे। मैं तो ब्रह्मचर्य-शक्ति के अतिरिक्त और कुछ भी स्वीकार न करूंगा। अब तुम लोग अपने-अपने काम में लगो।
इसी समय टॉमस की तोपें पास आ पहुंची। अब सन्तानों का दल छिन्न-भिन्न होने लगा। उन्हें प्राण-रक्षा की कोई आशा न रही। जिसे जिधर राह मिली, भागने लगा। जीवानन्द और धीरानन्द ने उन्हें बहुत संयत करने की चेष्टा की, लेकिन कोई फल न हुआ, संतानों का दल तितर-बितर होने लगा। इसी समय ऊंची आवाज में सुनाई दिया - पुल पर जाओ, पुल पर जाओ! उस पार चले जाओ, अन्यथा नदी में डूब मरोगे। अंगरेजों की सेना की तरफ मुंह किये हुए पुल पर चले जाओ!
जीवानन्द ने देखा कि कहनेवाले भवानंद सामने हैं। भवानन्द ने कहा,-जीवानन्द, तुम सेना को पुल पर ले जाओ। दूसरे प्रकार से रक्षा नहीं है। यह सुनते ही संतान-सेना क्रमश: पुल पर पहुंचने लगी। थोड़ी ही देर में समूची संतान-सेना पुल पर जा पहुंची। भवानन्द, जीवानन्द धीरानन्द सब एकत्र थे। भवानन्द ने जो कुछ कहा था, वही हुआ। अंगरेजों की तोपें पुल के मुंह पर लगी थी और वे गोले उगलने लगीं। भयानक संतान-क्षय होने लगा। यह देखकर भवानन्द ने कहा - जीवानन्द! यह एक तोप हमारा नाश कर डालेगी! क्या देखते हो, जाओ हम तीनों उस पर टूटकर अधिकार लें।
भवानंद के यह कहते ही जय नाद उठा -वन्देमातरम! और उसी समय तीन तलवारें पुन: सिरों पर घूम उठीं। तोपची तमाशा ही देखते रह गये। हेनरे और वासटन दूर खड़े अहंकार और प्रसन्नता में इसे खिलवाड़ और मूर्खता समझते रहे। किन्तु इसी समय रण का पास पलट गया। पलक मारते ही तीनों सन्तान-नायक तोपचियों पर जा पड़े। तोपचियों के सिर धड़ से कब जुदा हुए कुछ पता नहीं। उनकी मोह-निद्र टूटी तब, जब बिजली की तरह तलवार चमकाते हुए भवानन्द स्वयं तोप पर खड़े हो गये और बोल -वन्देमातरम्! सहस्त्रों कंठों से निकला -वन्देमातरम्! उसी समय जीवानन्द ने तोप का मुंह अंगरेजी सेना की तरफ कर दिया और तोप प्रति-क्षण आग उगलने लगी। अब भवानंद ने कहा - जीवानंद भाई! यह क्षणिक जीत है, अब तुम संतानों को लेकर सकुशल पार चले जाओ। केवल बीस तोप भरनेवाले और मृत्यु का वरण करनेवाले संतानों को तोप की रक्षा के लिए छोड़ दो।
ऐसा ही हुआ। बीस संतान तोप के इर्द-गिर्द आ डटे। शेष समूची सेना जीवानन्द और धीरानन्द के साथ पार पहुंचने लगी। उस समय भवानंद क्रुद्ध गजराज हो रहे थे। पुल की संकरी जगह पर तोप लगाकर वे लगे गोरी वाहिनी का नाश करने। दल-के-दल तोप छीनने के लिए आगे बढ़ते थे और मरकर ढेर बन जाते थे। उस समय वे बीस युवक अजेय थे। ये लोग शीघ्रता इसलिए कर रहे थे कि अंगरेजों की शेष तोपें पहुंचने के पहले तक ही यह सारी अजेय लीला है। लेकिन भगवान को तो कुछ और ही करना था। एकाएक जंगल के अन्दर से बहुत-सी तोपों का गर्जन सुनाई पड़ने लगा। दोनों ही दल अवाक-रिस्पन्द होकर देखने लगे कि ये किसकी तोपें हैं?
थोड़ी ही देर में लोगों ने देखा कि जंगल के अन्दर से महेन्द्र की सत्रह तोपें, तीन तरफ से घेरा, बांधे हुए आग उगलती चली आ रही हैं। अंगरेजों की उस देशी फौज में महामारी आ गयी- दल-के-दल साफ होने लगे। यह देख शेष यवन-सिपाही भागने लगे। उधर जीवानंद और धीरानन्द ने भी जैसे ही वातावरण समझा, तैसे ही उनका सारा क्रोध पलट पड़ा और पलट पड़ी सन्तान-सेना। वे भागती हुई यवन-सेना को घेरने और मारने लगे। अवशिष्ट रह गये यही कोई तीस-चालीस गोरे। वह वीर जाति वैसे ही डटी रही। अब भवानन्द ने उन पर धावा बोलने के लिए हाथ उठाया ही था कि जीवानन्द ने कहा - भवानन्द! महेन्द्र की कृपा से पूर्ण रण-विजय हुई है; अब व्यर्थ इन्हें मारने से क्या फायदा? चलो लौट चलें।
भवानन्द ने कहा - कभी नहीं,जीवानंद! तुम खड़े होकर तमाशा देखो। एक के भी जिंदा रहते भवानन्द वापस नहीं हो सकता। जीवानन्द! तुम्हें कसम है, खड़े होकर चुपचाप देखो। मैं अकेले इन सबको मारुंगा।
अभी तक कप्तान टॉमस घोड़े पर बंधे हुए थे। भवानन्द ने आक्रमण के समय कहा - उस अंगरेज को मेरे सामने रखो; पहले यह मरेगा, फिर मै मरुंगा।
टॉमस हिन्दी समझता था। उसने अपने सिपाहियों को आज्ञा दी- वीरों! मै तो मरे के समान हूं। इंगलैण्ड की मान-रक्षा करना, तुम्हें मातृभूमि की कसम है! पहले मुझे मारो, इसके बाद प्रत्येक अंगरेज मारकर अपनी जगह मरे।
धांय एक शब्द हुआ और तुरन्त कप्तान टॉमस मस्तक में गोली लगने से मरकर गिर पड़ा। यह गोली उसी के एक सिपाही द्वारा चलायी गयी थी। इसके बाद उन सबने आक्रमण किया। अब भवानन्द ने कहा -आओ भाई! अब कौन ऐसा है जो भीम, नकुल, सहदेव बनकर मेरे साथ मरने को तैयार है?
इतना कहते ही जीवानंद, धीरानंद और लगभग पचीस जवान आ पहुंचे। घोर युद्ध हो रहा था। तलवारें रही थीं। धीरानंद, भवानंद के पास थे। धीरानंद ने कहा-भवानंद! क्यों? क्या मरने का किसी का ठेका है क्या? यह कहते हुए धीरानंद ने एक गोरे को आहत किया।
भवानंद-यह बात नहीं? लेकिन मरने पर तो तुम स्त्री-पुत्र का मुंह देखकर दिन बिता न पाओगे!
धीरानंद-दिल की बात कहते हो? अभी भी नहीं समझे? (धीरानंद ने आहत गोरे का वध किया)।
भवानंद-नहीं(इसी समय एक गोरे के आघात से भवानंद का बायां हाथ कट गया।)
धीरानंद-मेरी क्या मजाल थी कि तुम जैसे पवित्रात्मा से यह बातें मैं कहता? मैं सत्यानंद का गुप्तचर हो कर तुम्हारे पास गया था?
भवानंद उस समय केवल एक हाथ से युद्ध कर रहे थे। बोले-यह क्या? महाराज का मेरे प्रति अविश्वास?
धीरानंद ने उनकी रक्षा करते हुए कहा-कल्याणी के साथ तुम्हारी जितनी बातें हुई थी,सब उन्होंने स्वयं अपने कानों से सुनी।
भवानंद-यह कैसे?
धीरानंद-वे स्वयं वहां उपस्थित थे। सावधान बचो!(भवानंद ने एक गोरे द्वारा आहत होकर उसे आहत किया) वे कल्याणी को गीता पढ़ा रहे थे, उसी समय तुम आ गए। सावधान!(लेकिन इसी समय भवानंद का दाहिना हाथ भी कट गया।)
भवानंद-मेरी मृत्यु का समाचार उन्हें देना। कहना- मैं अविश्वासी नहीं हूं।
धीरानंद आंखों से आंसू भरे हुए युद्ध कर रहे थे। बोले-यह वे जानते हैं। उन्होंने मुझसे कह दिया है कि भवानंद के पास रहना, आज वह मरेगा। मृत्यु के समय उससे कहना कि मैं आशीर्वाद देता हूं, परलोक में तुम्हें बैकुण्ठ प्राप्त होगा।
भवानंद ने कहा-संतानों की जय हो! मुझे एक बार मरते समय वन्देमातरम् गीत तो सुनाओ।
इस पर धीरानंद की आज्ञा पाकर समस्त उन्मत्त संतानों ने एक साथ वन्देमातरम् गीत गाया। इससे उनकी भुजाओं में दूना बल आ गया। इतनी देर में अवशिष्ट गोरों का वध हो चुका था। रणक्षेत्र में एक भी शत्रु न रह गया।
हा! रमणी के रूप-लावण्य! ..इस संसार में तुझे ही धिक्कार है!
क्रमश: सन्तान समप्रदाय में समाचार प्रचारित हुआ कि सत्यानन्द आ गये हैं और सन्तानों से कुछ कहना चाहते हैं। अत: उन्होंने सबको बुलवाया है। यह सुनकर दल-के-दल सन्तान लोग आकर उपस्थित होने लगे। चांदनी रात में नदी-तट पर देवदारु के वृहत् जंगल में आम, पनस, ताड़, वट, पीपल, बेल, शाल्मली आदि पेड़ों के नीचे करीब दस सहस्त्र सन्तान आ उपस्थित हुए। सब आपस में सत्यानन्द के लौट आने का समाचार सुनकर महाकोलाहल करने लगे। सत्यानन्द किसलिए वहां गये थे- यह साधारण लोग जानते न थे। अफवाह थी कि वे सन्तानों की मंगलकामना से प्रेरित होकर हिमालय पर्वत पर तपस्या करने ासगये थे। सब आपस में कानाफूसी करने लगे-
महाराज की तपस्या सिद्ध हो गयी है- अब हम लोगों का राज्य होगा। इस पर बड़ा कोलाहल होने लगा। कोई चीत्कार करने लगा-मारो-मारो, पापियों को मारो। कोई कहता-जय-जय! महाराज की जय! कोई गाने लगा- हरे मुरारे मधुकैटभारे ! किसी ने वंदेमारम गाना गाया। कोई कहता-भाई! ऐसा कौन दिन होगा कि तुच्छ बंगाली होकर भी मैं रणक्षेत्र में शरीर उत्सर्ग करूंगा। कोई कहता-- भाई ! ऐसा कौन दिन होगा कि अपना ही धर्म हम स्वयं भोग करेंगे। इस तरह दस सहस्त्र मनुष्यों के कण्ठ-स्वर से निकली गगनभेदी ध्वनि जंगल, प्रान्त, नदी, वृक्ष, पहाड़ सब कांप उठे।
एकाएक शब्द हुआ- वन्देमातरम और लोगों ने देखा कि ब्रह्मचारी सत्यानन्द सन्तानों के मध्य आकर खड़े हो गये। इस समय दस सहस्त्र-मस्तक उसी चांदनी में वनभूमि पर प्रणत हो गये। बहुत ही ऊंचे स्वर में, जलद गंभीर शब्दों में सत्यानन्द ने दोनों हाथ उठाकर कहा- शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी, वनमाली बैकुण्ठनाथ जो केशिमथन मधु-मुर-नरकमर्दन, लोक-पालक है वे तुम लोगों के बाहुओं में बल प्रदान करें, मन में भक्ति दें, धर्म में शक्ति दें! तुम सब लोग मिलकर एक बार उनका गुणगान करो।
इस पर दस सहस्त्र कण्ठों से एक साथ गान होने लगा।
जय जगदीश हरे।
प्रलयपयोधि जले धृतवानसि वेदं
विदित विहिवमखेदम
जय जगदीश हरे।
इसके उपरान्त सत्यानन्द महाराज उन लोगों को पुन: आशीर्वाद प्रदान कर बोले-
संतानों! तुम लोगों से आज मुझे कुछ विशेष बात कहनी है। टॉमस नाम के एक विधर्मी दुराचारी ने अनेक संतानों का नाश किया है। आज रात हम लोग उसका ससैन्य वध करेंगे! जगदीश्वर की ऐसी ही आज्ञा है। तुम लोग क्या चाहते हो?
भयानक हर्षध्वनि से जंगल विदीर्ण उठा- अभी मारेंगे! बताओ, चलो, उन सबको दिखा दो। मारो! मारो! शत्रुओं का नाश करो? इसी तरह के शब्द दूर के पहाड़ों से टकराकर प्रतिध्वनित होने लगे। इस पर सत्यानन्द फिर कहने लगे- उसके लिए हम हम लोगों को जरा धैर्य धारण करना पड़ेगा। शत्रुओं के पास तोप है; बिना तोप के उनके साथ युद्ध हो नहीं सकता। विशेषत: वे सब वीर-जाति के हैं। हमारे पदचिन्ह दुर्ग से 17 तोपें आ रही हैं। तोपों के पहुंचते ही हम लोग युद्ध आरंभ करेंगे। यह देखो, प्रभात हुआ चाहता है। ब्रह्ममुहूर्त के 4 बजते ही..लेकिन यह क्या--
गुड्डम-गुड्डम-गुम! अकस्मात् चारों तरफ विशाल जंगल में तोपों की आवाज होने लगी। यह तोप अंगरेजों की थी। जाल में पड़ी हुई मछली की तरह कप्तान टॉमस ने सन्तानों को इस जंगल में घेरकर वध करने का उद्योग किया था।
गुड्डम गुड्डम गुम! -- अंगरेजों की तोपें गर्जन करने लगीं। वह शब्द समूचे जंगल में प्रतिध्वनित होकर सुनाई पड़ने लगा। वह ध्वनि नदी के बांध से टकराकर सुनाई पड़ी। सत्यानन्द ने तुरंत आवाज दी- देखो, किसकी तोपें हैं? कई सन्तान तुरंत घोड़े पर चढ़कर देखने के लिए चल पड़े। लेकिन उन लोगों के जंगल से निकलते ही उन पर सावन की बरसात के समान गोले आकर पड़े। अश्वसहित उन सबने वहीं अपना प्राण त्याग किया। दूर से सत्यानन्द ने देखा, बोल - पेड़ पर चढ़कर देखो! उनके कहने के साथ जीवानन्द ने एक पेड़ पर ऊंचे चढ़कर बताया-अंगरेजों की तोपें! सत्यानन्द ने पूछा -अश्वारोही सैन्य हैं या पदातिक?
जीवानन्द -दोनों हैं?
सत्यानन्द - कितने हैं?
जीवानन्द -अन्दाज नहीं लग सकता। वे सब जंगल की आड़ से बाहर आ रहे हैं?
सत्यानन्द -गोरे हैं या केवल देशी फौज?
जीवानन्द - गोरे हैं।
अब सत्यानन्द ने कहा - तुम पेड़ से उतर आओ। जीवानन्द पेड़ से उतर आये।
सत्यानन्द ने कहा - तुम दस हजार सन्तान यहां उपस्थित हो। देखना है, क्या कर सकते हो! जीवानन्द ! आज के सेनापति तुम हो।
जीवानन्द हर्षोत्फुल्ल होकर एक छलांग में घोड़े पर सवार हो गये। उन्होंने एक बार नवीनानन्द की तरफ ताककर इशारे में ही कुछ कहा-कोई उसे समझ न सका। नवीनानन्द ने भी इशारे में ही उत्तर दिया। केवल वे दोनों ही आपस में समझ गये कि शायद इस जीवन में यह आखिरी मुलाकात है; पर नवीनानन्द ने दाहिनी भुजा उठाकर लोगों से कहा-भाइयों! समय है, गाओ -- जय जगदीश हरे! दस सहस्त्र सन्तानों के मिलित कण्ठ ने आकाश, भूमि, वन-प्रांत को कंपा दिया। तोप का शब्द उस भीषण हुंकार में डूब गया। दस सहस्त्र सन्तानों ने भुजा उठाकर गाया--
जय जगदीश हरे!
म्लेछ निवहनिधने कलयसि करवालम्
इसी समय अंगरेजों की गोली-दृष्टि जंगल का भेदन करती हुई सन्तानाें पर आकर पड़ने लगी। कोई गाता-गाता छिन्नमस्तक छिन्न-बाहु छिन्न-हृतपिण्ड होकर जमीन पर गिरने लगा। लेकिन गाना बन्द न हुआ, वे सब गाते ही रहे - जय जगदीश हरे!
गाना समाप्त होते ही सब निस्तब्ध हो गये। वह सारा वातावरण - नदी, जंगल, पहाड़ - एकदम निस्तब्ध हो गया। केवल तोपों का गर्जन गोरों के अस्त्रों की झंकार और पद-ध्वनि दूर से सुनाई पड़ने लगी।
उस निस्तब्धता को भंग करते हुए सत्यानन्द ने कहा - भगवान तुम्हारी रक्षा करेंगे। तोप कितनी दूरी पर है?
ऊपर से आवाज दी इसी जंगल के समीप एक छोटा मठ है, उसी के पास।
सत्यानन्द -तुम कौन हो?
ऊपर से आवाज आयी -मैं नवीनानन्द।
अब सत्यानन्द ने कहा - तुम लोग दस हजार हो , तुम्हारी विजय होगी! क्या देखते हो छीन लो तोपें!
यह सुनते ही अश्वारोही जीवानन्द ने आवाज दी - आओ भाइयों,मारो।
इस पर दस सहस्त्र सन्तान सेना, अश्वारोही और पदतिक, तीर की तरह धावा बोलती आगे बढ़ी। पदातिकों के कन्धे पर बन्दूक, कमर में तलवार और हाथ में भाले थे। बहुत-से सन्तानों ने बिना युद्ध किये ही गिरकर प्राण-त्याग किया। एक ने जीवानन्द से कहा - जीवानन्द! अनर्थक प्राणि-हत्या से क्या फायदा है?
जीवानन्द ने मुड़कर देखा, कहने वाले भवानन्द थे। जीवानन्द ने पूछा - तब क्या करने को कहते हो?
भवानन्द -वन के अन्दर रहकर वृक्षों का आश्रय लेकर अपनी प्राण-रक्षा करें। तोपों के सामने खुले मैदान में बिना तोप की सन्तानसेना एक क्षण भी टिक न सकेगी। लेकिन जंगल में पेड़ों की आड़ लेकर हम लोग बहुत देर तक युद्ध कर सकते हैं।
जीवानन्द -तुम ठीक कहते हो! लेकिन प्रभु की आज्ञा है कि तोप छीन जाए। अत: हम लोग तोप छीनके ही जाएंगे।
भवानन्द - किसकी हिम्मत है कि तोप छीन सके। लेकिन यदि जाना ही है, तो तुम ठहरो, मै जाता हूं।
जीवानन्द - यह न होगा, भवानन्द! आज मेरे मरने का दिन है।
भवानन्द -आज मेरे मरने का दिन है।
जीवानन्द - मुझे प्रायश्चित करना होगा।
भवानन्द -तुम निष्पाप हो, तुम्हें प्रायश्चित की जरूरत नहीं। मेरा चरित्र कलुषित है; मुझे ही मरना होगा। तुम ठहरो, मैं जाता हूं।
जीवानन्द --भवानन्द, तुमसे क्या पाप हुआ है, मै नहीं जानता; लेकिन तुम्हारे रहने से सन्तानों का उद्धार होगा। मैं जाता हूं।
भवानन्द ने चुप होकर फिर कहा --मरना होगा तो आज ही मरेंगे, जिस दिन जरूरत होगी,उसी दिन मरेंगे। मृत्यु के लिए मुझे समय-काल की जरूरत नहीं।
जीवानन्द - तब आओ!
इस बात पर भवानन्द सबके आगे हुए। दल-के-दल, एक-एक-कर सन्तान गोले खाकर मरकर गिरने लगे। सन्तान-सैन्य बिखरने लगी। तीर की तरह आगे बढ़ते हुए सन्तान गोला खाकर कटे वृक्ष की तरह नीचे गिरते थे। सैकड़ों लाशें पट गयीं। इसी समय भवानन्द ने चिल्लाकर कहा -आज इस तरंग में संतानों को कूदना है कौन आता है भाई?
इस पर सहस्त्र-सहस्त्र कण्ठों से आवाज आयी-वन्देमातरम्! दनादन गोले आ रहे थे। तीर गिर रहे थे, लेकिन संतान सैन्य तीर की तरह आगे बढ़ती ही जाती थी। सबका लक्ष्य तोप छीनना था।