आवारा : पुनरावलोकन / राजकपूर सृजन प्रक्रिया / जयप्रकाश चौकसे
जयप्रकाश चौकसे
'आवारा' को हम कोरी उपदेशात्मक फिल्म भी नहीं कह सकते और ना ही आदर्शवादी फिल्म मान सकते हैं। इसमें साधनहीन और साधनसम्पन्न की जंग है परन्तु यह वर्ग संघर्ष की फिल्म भी नहीं है।
राजकपूर के सिनेमा और जीवन में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण घटना 14 दिसम्बर, 1951 को उनकी तीसरी फिल्म 'आवारा' का प्रदर्शन है। इसी फिल्म से उनके सिनेमा में सामाजिक प्रतिबद्धता का समावेश हुआ, उनकी निर्देशकीय शैली में आधी हकीकत, आधा फसाने का शुमार हुआ और इसी फिल्म में उन्होंने अपने पिता को प्रभावित किया इसी फिल्म के निर्माण के समय उनका स्टूडियो बना और नरगिस से उनका प्रेम गहरा हुआ।
अपने प्रदर्शन के 57 वर्ष बाद भी फिल्म दिखाई और सराही जा रही है अतः उसने क्लासिक होने की दोनों शर्तें पूरी कर ली हैं समय की परीक्षा और सार्वभौमिकता । एक विदेशी पत्रिका का आकलन है कि आवारा भारत की सबसे अधिक देखी गई फिल्म है, चाहे पर्दे पर देखी गई हो या डी.वी.डी., सैटेलाइट इत्यादि के माध्यम से। दुनियाभर के आम आदमियों के साथ ही इस फिल्म को पंडित जवाहरलाल नेहरू, निकिता खुश्चेव, माओ, अब्दुल गमाल नासर जैसे महान लोगों ने भी पसन्द किया है गोयाकि सत्तासीन लोगों से लेकर साधनहीन लोगों तक ने इसे प्यार दिया है। मनोरंजन के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि सोवियत रूस में एक विदेशी फिल्म को लगभग राष्ट्रीय गौरव प्राप्त हुआ और उस दौर में पैदा हुए अनेक बच्चों के नाम राज या रीता (नायिका) रखे गए। यह फिल्म पोर्टेबल प्रोजेक्टर पर नार्थ पोल में भी दिखाई गई जहाँ रूस के वैज्ञानिक शोध करने गए थे। अपने प्रदर्शन के चौंतीस वर्ष बाद, 1985 में दिल्ली में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव का प्रारम्भ हुआ 'फेयरवेल ग्रीन समर' से जिसमें 'आवारा' के अनेक दृश्य थे और फिल्मकार ने अपनी कृति को 'आवारा' के प्रति समर्पित अपनी आदरांजलि माना। नोबल पुरस्कार विजेता एलेक्जेंडर सोलोजनित्सीन की 'कैंसर वार्ड' में भी आवारा का जिक्र है। दूसरे विश्वयुद्ध की त्रासदी से उभरते हुए रूस को 'आवारा' के नायक से प्रेरणा मिली जो गाता है 'जख्मों से भरा सीना है मेरा, हँसती है मगर ये मस्त नजर' । आवारा एक कल्ट फिल्म है और उसकी यह स्थिति आज भी कायम है। सन् 1951 से अभी तक हर दशक में महान फिल्में बनी हैं और उनमें से अनेक सिनेमाई दृष्टि से 'आवारा' से बेहतर फिल्में हैं, परन्तु सबसे अधिक प्यार इसी फिल्म को मिला। राजकपूर ने इस फिल्म को भावना की तीव्रता के साथ बनाया और हर फ्रेम उनके प्यार की तड़प की साक्षी नजर आती है।
'आवारा' को किस वर्ग की फिल्म माना जाना चाहिए? क्या यह प्रेम-कथा है? फिल्म कां बहुत-सा हिस्सा कोर्ट में है और अपराध की दुनिया फिल्म पर छाई है।
प्रेम दृश्यों से अधिक हिस्सा अन्य प्रसंगों को समर्पित है। प्रेम कथा की परिभाषा से परे है यह फिल्म। आवारा को अपराध कथा भी नहीं माना जा सकता और यह अमेरिका के नोए सिनेमा की तरह महज अँधेरे की कथा भी नहीं है। 'आवारा' को हम कोर्ट रूम ड्रामा भी नहीं कह सकते क्योंकि लगभग दर्जन भर गीत हैं।
'आवारा' को 'स्लाइस ऑफ लाइफ' यथार्थवादी फिल्म भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसमें अस्वाभाविक संयोगों की भरमार है और जबरदस्त अतिनाटकीयता भी है। इसे कला फिल्म भी नहीं कह सकते और महज व्यावसायिक फिल्म कहने से भी इसके साथ न्याय नहीं होता। इस फिल्म के दो नारी पात्र अत्यन्त सशक्त हैं और उन्होंने निर्दोष होते हुए भी बहुत यन्त्रणा सही हैं फिर भी इसे स्त्री प्रधान फिल्म नहीं कहा जा सकता। मजे की बात यह है कि केन्द्रीय पात्र जज रघुनाथ भी अपराधी है, क्योंकि उन्हें भ्रान्ति है कि शरीफ का बेटा शरीफ और अपराधी का बेटा अपराधी होता है। फिल्म का खलनायक जरायम पेशा अपराधी नहीं है, उसे डाकू का बेटा होने के कारण दंडित किया गया है और वह इसी अन्याय का बदला ले रहा है। वह एक जज की पत्नी का अपहरण करता है, परन्तु यह ज्ञात होते ही कि वह गर्भवती है, उसे स्वतन्त्र कर देता है। क्या पारम्परिक खलनायक ऐसा होता है?
'आवारा' को हम कोरी उपदेशात्मक फिल्म भी नहीं कह सकते और ना ही आदर्शवादी फिल्म मान सकते हैं। इसमें साधनहीन और साधन सम्पन्न की जंग है परन्तु यह वर्ग संघर्ष की फिल्म भी नहीं है। फिल्म का नायक परिस्थितियों का शिकार है और अपराध के दलदल से उबरने का प्रयत्न करता है। उसने इरादतन कत्ल नहीं किया है, स्वयं के बचाव में अपराधी को मारा है, परन्तु वह जज रघुनाथ के कत्ल का प्रयास भी करता है। क्या पारम्परिक नायक ऐसा होता है? केन्द्रीय पात्र जज रघुनाथ जमींदार का पढ़ा-लिखा आधुनिक युवा बेटा है जो क्रान्तिकारी ढंग से एक युवा विधवा से विवाह करता है। जमींदारी प्रथा समाप्त हो चुकी है परन्तु जज के पद के कारण वह राजा से कम नहीं है। सामन्तवाद आजाद भारत के हर दशक में किसी-न-किसी रूप में मौजूद रहा है। इतना क्रान्तिकारी और आधुनिक युवा केवल अपनी बूढ़ी परम्परावादी बुआ के कहने पर अपनी गर्भवती पत्नी को घर से बाहर निकाल देता है, क्योंकि एक डाकू ने उसका अपहरण किया था। उसका पौरुषीय दम्भ अघकुचले साँप की तरह उसकी सोच में लहराता रहता है। राजकपूर ने पूरी फिल्म में रामायण के मियक का निर्वाह किया है। केन्द्रीय पात्र का नाम भी इसीलिए रघुनाथ रखा गया है। पत्नी के परित्याग के दृश्य के समय पार्श्व में बज रहे गीत से भी रामायण के मिथक को रेखांकित किया गया है-
पतिव्रता सीता माई को तूने दिया वनवास, क्यों न फटा धरती का कलेजा, क्यों न फटा आकाश ।
राम की प्यारी, फिरै मारी मारी!
जुलम सहे भारी देखो, जनक दुलारी॥
गगन महल का राजा देखो, कैसे खेल दिखाए
सीप में मोती, गन्दे जल में सुन्दर कमल खिलाए।
अजब तेरी लीला है गिरधारी।
जुलम सहे भारी माई जनक दुलारी॥
प्रथम प्रदर्शन के आज तक फिल्म के किसी भी रिकॉर्ड में यह गीत नहीं है, क्योंकि उस दौर में मैगनेटिक टेप नहीं होते थे और हर गीत फिल्म के लिए रिकॉर्ड होने के तुरन्त बाद रिकॉर्ड बनानेवाली कम्पनी के लिए पुनः रिकॉर्ड किए जाते थे। शायद राजकपूर ने इस गीत को संवाद का एक हिस्सा माना और रिकॉर्डिंग कम्पनी को नहीं दिया। बहरहाल जज रघुनाथ ने कभी अपनी पत्नी की तलाश नहीं की और न ही यह जानना चाहा कि बच्चे का क्या हुआ। अदालत के परिसर में अपनी गाड़ी से टकराकर घायल होनेवाली महिला से मिलने वे अस्पताल जाते हैं। महिला के चेहरे पर इतनी चोटें हैं कि वे अपनी परित्यक्ता को पहचान नहीं पाते, परन्तु उसका नाम भी नहीं पूछते। ताउम्र वे इस दकियानूसी विचार को सही मानते हैं कि गुण अवगुण केवल आनुवंशिक होते हैं। उन्होंने अपने मित्र की अनाथ पुत्री को पाल पोसकर बड़ा किया है, परन्तु उसकी पसन्द के युवा से केवल इसलिए विवाह नहीं होने देना चाहते हैं कि वह गरीब है और उसके पिता का नाम उसे नहीं मालूम। उनके चरित्र में कितने विरोधाभास और विसंगतियाँ हैं और क्या पारम्परिक केन्द्रीय पात्र ऐसे होते हैं?
फिल्मों के पारम्परिक वर्गीकरण के तहत इसे किसी वर्ग में नहीं रखा जा सकता। अस्वाभाविक संयोग, अस्थिर चरित्र चित्रण और अतिनाटकीयता के बावजूद फिल्म का समग्र प्रभाव ऐसा है कि दर्शक इसे मन्त्रमुग्ध होकर देख रहे हैं। आखिर 'आवारा' के समग्र प्रभाव का रहस्य क्या है? ज्ञातव्य है कि लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास ने अपनी पटकथा शिखर फिल्मकार मेहबूब खान को सुनाई थी। 'अन्दाज' की भारी सफलता के बाद मेहबूब खान 'आवारा' पृथ्वीराज कपूर और दिलीप कुमार के साथ बनाना चाहते थे, परन्तु अब्बास साहब का विचार था कि यथार्थ के पिता पुत्र फिल्म को अतिरिक्त धार प्रदान करेंगे। शायद नरगिस से यह बात राजकपूर को पता चली और उसी क्षण वे अब्बास साहब से मिले। पटकथा सुनते ही उन्होंने इसे बनाने का निर्णय किया। यथार्थ के रिश्तों ने फिल्म में अन्तर्निहित द्वन्द्व को गजब की धार दी। उस समय तक राजकपूर और नरगिस का प्यार भी गहरा हो चुका था। गौरतलब यह है कि दर्शक के अवचेतन में यथार्थ के रिश्ते हमेशा मौजूद होते हैं और पर्दे पर पात्रों की टकराहट उन्हें विशेष उत्तेजना प्रदान करती है। फिल्म के हर निर्णायक मोड़ पर पिता-पुत्र के बीच सीधी टकराहट के आधा दर्जन दृश्य हैं। बानगी देखिए-जज रघुनाथ राज को धन देकर रीता का पीछा छोड़ने को कहते हैं। राज कहता है कि अभी तक मैं अपने आपको बुरा आदमी समझता था, परन्तु आप तो मेरे भी बाप निकले। इस दृश्य तक दोनों को अपना रिश्ता नहीं मालूम था ।
दरअसल यथार्थ के रिश्तों की बात छोड़ भी दें तो सारे कलाकारों ने कमाल का अभिनय किया है। फिल्म में यदि पृथ्वीराज कपूर कमान की तरह हैं तो राजकपूर प्रत्यंचा पर थरथराते तीर की तरह हैं। नरगिस निशाने की तरह द्वन्द्व की मूक गवाह हैं।
वृत्ताकार पटकथा फिल्म को रोचक बनाती है। अगर सरल सीधी रेखा में कथा कही जाती तो युवा नायक राजकपूर 45 मिनट बाद पर्दे पर आता, परन्तु अदालत से शुरू पटकथा फ्लैशबैक के सहारे घटनाक्रम उजागर करते हुए बार-बार अदालत लौट आती है। अपनी तीसरी ही फिल्म में राजकपूर ने निर्देशन का शिखर प्राप्त किया है जहाँ उन्होंने भावना के साथ उत्तेजना की लहर प्रस्तुत की है। उन्होंने हर दृश्य में नक्काशी की है और तमाम बारीकियों पर खूब ध्यान दिया है। मसलन पूरी फिल्म में पृथ्वीराज को इस तरह प्रस्तुत किया है कि उनका कद असल से बड़ा लगे-लार्जर देन लाइफ और अन्त में जब उन्हें अपनी गलती का अहसास हो जाता है तब उन्हें अपने कद से छोटा दिखाया गया है। जज रघुनाथ के घर के सैट पर जगह-जगह पोर्सलीन की ग्रीक मूर्तियाँ लगाई गई हैं, क्योंकि वे ग्रीक त्रासदी के पात्र हैं जिसे एक भूल तबाह कर देती हैं।
पटकथा के अनुसार शूटिंग और सम्पादन के बाद राजकपूर को महसूस हुआ कि नायक के अन्तर्द्वन्द्व और सुधार के कुछ दृश्य सूखे उपदेशात्मक हो गए हैं। उनके पूँजी निवेशक और यूनिट के सभी सदस्यों को फिल्म सम्पूर्ण और अच्छी लगी, यहाँ तक कि प्रदर्शन की तिथि पर विचार हो रहा था। राजकपूर ने अजीब-सी बेचैनी महसूस की और सारा कामकाज रोक दिया। उन्हें एक अद्भुत विचार सूझा कि नायक के अन्तर्द्वन्द्व को नृत्य और गीत में स्वप्न दृश्य के माध्यम से प्रस्तुत किया जाए और सूखे उपदेशात्मक हिस्से को हटा दें। उन्होंने शंकर जयकिशन और शैलेन्द्र, हसरत को विस्तार से स्वप्न दृश्य सुनाया और अद्भुत प्रेरणा की तरंग पर सवार इन युवा लोगों ने कालजयी स्वप्न दृश्य रचा। गीत रिकॉर्डिंग से शूटिंग और सम्पादन तक के कार्य में चार महीने लगे और 12 लाख में बनी पूरी फिल्म के बाद स्वप्न दृश्य पर आठ लाख रुपए लगे। हिन्दुस्तानी सिनेमा में आवारा के पहले और आवारा के बाद भी इस तरह का अभिनव स्वप्न दृश्य नहीं आया। सृजन की इस प्रक्रिया में राजकपूर के प्रस्तुतीकरण में आधी हकीकत, आधा फसाने की शैली स्थायी बन गई। दरअसल यह स्वप्न दृश्य नायक का नाइटमेयर है। कैमरामैन राधू करमरकर ने प्रकाश से पेंटिंग की है।
आजादी के बाद छोटे शहरों और ग्रामीण अंचल में विकास नहीं होने के कारण अवसर की तलाश में लोगों ने महानगरों की ओर पलायन किया। राजकपूर की आवारा, श्री 420 और जागते रहो के नायक पलायन करके आए हैं। अपनी जड़ों से दूर इन लोगों की करुणा को गहरी संवेदना के साथ प्रस्तुत किया है और यह करुणा ही मनुष्य का सार है। आम आदमी के प्रति यह चिन्ता ही राजकपूर को जनप्रिय फिल्मकार बनाती है। उनकी यह चिन्ता और मनुष्य मात्र के प्रति प्रेम सीधे देशप्रेम से जुड़ जाता है और इसकी एक बानगी प्रस्तुत है। 'आवारा' का नायक अदालत में कहता है 'मैं कातिल और आवारा हूँ आप मुझे फाँसी दे सकते हैं, लेकिन मुझे फाँसी देने से पाप, क्रोध और हिंसा का जो जहर हमारे समाज में तेजी से फैल रहा है, वह नहीं रुकेगा। अपराध के कीड़े जनम से मेरे खून में नहीं थे। ये अपराध के कीड़े मुझे उस गन्दी गटर से मिले जो हमारी चाल के पास से बहती हैं। आप मेरी फिक्र न करें, अपने बच्चों को अपराध और हिंसा के कीड़ों से बचा लीजिए...'
इस लम्बे संवाद के समय कैमरा अदालत में बैठे गरीब बच्चों के चेहरे से होते हुए अमीर और ताकतवर पिताओं की ओर जाता है। आजादी के मात्र चार वर्ष बाद ही राजकपूर ने भविष्य का भय महसूस कर लिया था। जज रघुनाथ की भव्य हवेली देखकर नायक कहता है कि जज साहब को ऊपर की आमदनी है। भ्रष्टाचार के विकराल रूप लेने के पहले ही राजकपूर ने आवारा, श्री 420 और जागते रहो में इसकी भयावहता उजागर कर दी थी। सामाजिक व्याधियों के प्रस्तुतीकरण में कहीं भी उन्होंने मानवीय मजबूरी और सच्चाई को लोप नहीं होने दिया और इन बातों को रेखांकित करनेवाले तमाम दृश्यों में लहजा हँसने-हँसाने का है, मसलन जेल में नायक रोटी पाकर कहता है, 'हवलदार साहब, ये रोटी बड़ी बेवफा चीज है, अगर जेल के बाहर मिल जाती तो मैं अन्दर क्यों आता? बारह साल से इस जालिम रोटी के चक्कर में जेल के अन्दर आता रहा हूँ।'
तर्क के परे यह अजीब-सा सच है कि जब भी हम आवारा बड़े पर्दे पर या टेलीविजन पर देखते हैं तब यह मोहब्बत और अनुभूति की तीव्रता जिसके साथ राजकपूर ने इसे बनाया था, हम तक पहुँच जाती है और अभिव्यक्ति की इस अभिनव कोशिश या तिलिस्म जिसने 'आवारा' को कालजयी कृति बनाया है।