जागते रहो : पुनरावलोकन / राजकपूर सृजन प्रक्रिया / जयप्रकाश चौकसे

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जागते रहो : पुनरावलोकन
जयप्रकाश चौकसे

फिल्म में दिखाई गई इमारत भारत का प्रतीक है। पूरा देश आर्थिक व सामाजिक खाँचों में बँटा हुआ है। गरीब लोग निचले भाग में रहते हैं या अमीरों के आलीशान फ्लैटों में नौकर हैं। मंजिल दर मंजिल, फ्लैट दर फ्लैट, उपाख्यान दर उपाख्यान फिल्म भारतीय समाज के वर्गों की निर्मम शल्यक्रिया प्रस्तुत करती है।

आजादी के आठ वर्ष बाद ही आजादी के पहले देखे सुन्दर भविष्य के सपने आँखों में टूटे काँच की मानिन्द गढ़ने लगे थे। आजादी का यूफोरिया नष्ट हो चुका था, भ्रष्टाचार और अपराध की जंगल घास फैलने लगी थी। राजनीतिक स्वतन्त्रता, आर्थिक अभाव और असमानता के दौर में कोई अर्थ नहीं रखती और सांस्कृतिक चेतना के बिना वह लगभग निर्जीव होती है।

राजनीतिक स्वतन्त्रता को भारत में कुछ लोगों ने अराजकता समझा और छुटभैया नेतागिरी के टापुओं में मुल्क बँट गया। भीड़ और संख्या के जाले में स्वतन्त्रता का अर्थ उलझ गया। शिक्षा संस्थानों की संख्या बढ़ती गई जो केवल अक्षर और आँकड़े सिखाने के काम में डूब गई। नैतिक मूल्यों के बिना शिक्षा किसी को सुसंस्कृत नहीं बनाती।

आजादी भारत में नव निर्माण की लहर के बदले एक नशे की तरह आई, गाफिल करनेवाले नशे के रूप में। सांस्कृतिक पतन के गर्त में डूबते हुए उर्नींद देश की पलकों पर अनैतिकता का भार था। सदियों की गुलामी से आजाद होने के सिर्फ 7 वर्ष बाद स्वतन्त्रता के नशे में देश सोने लगा। चार रचनाधर्मी लोगों ने देश को जगाने के लिए एक फिल्म की रचना की, नाम था 'जागते रहो' और रचनाधर्मी थे राजकपूर, मित्रा बन्धु और के.ए. अब्बास। फिल्म 'जागते रहो' का असली अर्थ सांस्कृतिक चेतना जगाना और गाफिल देश को सावधान करना ही है। यह फिल्म सन् 1955 में बनाना प्रारम्भ हुई और 1956 में प्रदर्शित हुई जब भारत को आजाद हुए केवल आठ वर्ष हुए थे। अगर यह अर्थ अभीष्ट नहीं होता तो फिल्म को चोर या बहुमंजिला भी कहा जा सकता था या बंगाली संस्करण की तरह 'एक दिन रात' पुकारा जा सकता था। एक फिल्मकार के रूप में राजकपूर को यही बात दूसरे फिल्मकारों से अलग करती है कि उन्होंने अपने अधिकांश फिल्मों में सामाजिक सन्दर्भ को महत्त्व दिया और इसी कारण वे भारत के प्रतिनिधि फिल्मकार कहलाते हैं।

अफसोस इस बात का है कि जिन लोगों पर देश को जगाने की जिम्मेदारी थी, वही लोग सत्ता के नशे में चूर और उनींदे हो गए, इसलिए फिल्म के पहले ही मिनट में चौकीदार लोग जागते रहो का रस्मी नारा लगाकर सो जाते हैं। फिल्म के पहले ही मिनट का जिक्र आया है तो यह बताना आवश्यक है कि दुनिया में 'जागते रहो' ही एकमात्र फिल्म है जिसकी अवधि और फिल्म में प्रस्तुत घटनाक्रम की अवधि लगभग एक ही है। आम तौर पर फिल्मों में कई वर्षों का वर्णन होता है और एक ही दिन या एक ही रात की कहानी कई फिल्मों में कही है, परन्तु ढाई घंटों में ही प्रस्तुत करनेवाली एकमात्र फिल्म है-जागते रहो। पहले शॉट में रोशनी की बाँहों में सोए हुए शहर को दिखाया गया है और दूसरे शॉट में टॉवर पर एक घड़ी में रात के 12 बजकर 45 मिनट का समय दिखाया गया है और फिल्म अलसभोर की बेला में समाप्त होती है।

भारत की आजादी के बाद लोग गाँवों से शहर की ओर जाने लगे। रोजी-रोटी की तलाश में इस पलायन से बहुत से सामाजिक परिवर्तन हुए। महानगरों में झोंपड़पट्टी के रूप में विकृत गाँवों की रचना हुई और गाँवों में संयुक्त परिवार की व्यवस्था टूटी जिससे नैतिक मूल्यों में गिरावट आई और अलगाव के भाव पैदा हुए।

इस सामाजिक, तथ्य को राजकपूर ने अपनी तीन फिल्मों में प्रस्तुत किया 'आवारा', 'श्री 420' और 'जागते रहो'। तीनों ही के नायक रोजगार की तलाश में महानगर आते हैं और भटक जाते हैं। गाँव से आया हुआ युवक प्यासा है और एक बहुमन्जिला इमारत के कम्पाउंड में पानी पीने जाता है जहाँ उसे चोर समझकर पीछा किया जाता है और इस भागमभाग में पूरी इमारत में छुपे हुए सम्भ्रान्त चोरों की पोल खुल जाती है। पूरी फिल्म में नायक कमोबेश खामोश दर्शक है परन्तु अन्त में वह कहता है, "मैं गाँव से आया हुआ किसान का बेटा हूँ। पानी पीने आपके आँगन में आया था और मुझे चोर समझकर आप लोग मेरे शिकार पर निकले जैसे मैं आदमी नहीं कुत्ता हूँ। आपने मुझे क्या सिखाया? बड़ा आदमी बनने के लिए नकली नोट छापो, शराब बेचो, रेस खेलों... अपराध किए बिना धनवान नहीं बन सकते... दूसरों की गर्दनों पर पैर रखकर आगे बढ़ो। यही शिक्षा दी आपने किसान के बेटे को।'

राजकपूर की फिल्मों में प्रायः नायक अन्तिम दृश्य में भाषण देता है जो कथा का नैतिक सार होता है। नाटकों से ग्रहण की हुई इस परम्परा को राजकपूर सिनेमा में बखूबी निभा ले जाते हैं। 1951 में प्रदर्शित आवारा में भी उन्होंने भारत में पनपने वाले भ्रष्टाचार और अपराध का पूर्वानुमान प्रस्तुत किया था। अपराध के द्वारा रातों रात अमीर होने की अनैतिक प्रवृत्ति को 'जागते रहो' में भी रेखांकित किया गया है।

'व्यंग्य'

अन्याय, अत्याचार और भ्रष्टाचार के जमाने में व्यंग्य की विधा अपने पूरे उभार पर होती है। जागते रहो में भी व्यंग्य की धार बहुत पैनी है। पहले ही दृश्य में भूखा, प्यासा और हताश नायक फुटपाथ पर दीवार के सहारे बैठता है जहाँ लिखा है; 'निवेदन करने पर गरीब की लाश की अन्तिम क्रिया के लिए सहायता दी जाती है, मिलने का समय सुबह 8.00 से 2.00 बजे...' नायक अपना रूखा-सूखा भोजन कुत्ते के साथ बाँटता है। आवारा और श्री 420 की तरह ही जागते रहो में भी कुत्ता और समाज के अंडरडॉग का प्रतीक है। सड़क पर ही एक अमीर शराबी का गीत है 'जिन्दगी ख्वाब है, ख्वाब में सच है क्या और झूठ है क्या? सब सच है।' एक तरह से फिल्मकार दर्शक को तैयार कर रहा है कि वह जो कुछ देखनेवाला है, सभी सच है। अन्तर्निहित व्यंग्य यह है कि शराब के नशे में धुत आदमी जिन्दगी के ख्वाब में सच्चाई की बात कर रहा है। बहुमंजिला इमारतों की कतार सपने की तरह है और यथार्थ की सड़क पर लड़खड़ाते कदमों के तीन क्लोज शॉट भी निर्देशक के मन्तव्य को स्पष्ट करते हैं। अमीर शराबी का बटुआ लौटाने के दृश्य को हृषिकेश ने 'अनाड़ी' में दोहराया था और अभिनेता भी मोतीलाल और राजकपूर ही थे। मोतीलाल राजकपूर से कहते हैं कि तुम शराब नहीं पीते, रेस नहीं खेलते, वेश्या के पास नहीं जाते तुम जैसे अजूबे को मैं अपनी पत्नी से मिलाना चाहता हूँ। भारत में सारे व्यसन आधुनिकता के समानार्थी की तरह ही प्रयोग किए जाते हैं, जबकि आधुनिकता एक वैज्ञानिक विचार है। फिल्म में जगह-जगह व्यंग्य है मसलन जब पति-पत्नी एक-दूसरे पर बर्तन फेंकते हैं तो पीछे लिखा है कि पत्नी लक्ष्मी स्वरूप है और पति देवता स्वरूप। एक दृश्य में एक तथाकथित बहादुर सबको आगे बढ़ने को कहता हुआ स्वयं पीछे सुरक्षित जगह पर खिसक जाता है। मनुष्य स्वभाव की सारी कमजोरियों को प्रस्तुत किया गया है। राजकपूर के सिनेमा में वीर बहादुर सत्यवादी लोगों की दास्तान नहीं होती, वह आम आदमियों की कमजोरियों का गायक है, जीवन संग्राम में निहत्थे और हारे हुए सैनिकों की दास्तां बयान करनेवाला फिल्मकार है।

उपाख्यानात्मक रचना

आवारा की पटकथा वृत्ताकार है परन्तु 'जागते रहो की पटकथा एपिसोडिक है। पूरा घटनाक्रम बहुमंजिला इमारत में घटित होता है और पटकथा की रचना भी मंजिल दर मंजिल है। सड़क पर नायक की भेंट अमीर शराबी से होती है। भवन में प्रवेश के बाद नायक का पहला अनुभव उन युवा प्रेमियों के साथ जो प्रेम के क्षण में जन्म-जन्मान्तर की बात करते हैं, परन्तु संकट की घड़ी में उनका स्वार्थ और आत्म प्रेम प्रगट होता है। इस पूरे प्रकरण में हास्य और व्यंग्य की अद्भुत परिस्थितियाँ हैं प्रेमियों का राजदार होने के कारण नायक पकड़े जाने से बच जाता है। इसी प्रकरण में गाँव से नौकरी करने आया एक बेजुबान-सा गुलाम इसलिए पिंट जाता है कि उसे अपने मालिक का फ्लेट नम्बर नहीं पता। भारतीय समाज में खामोश बेजुबान से आदमी की बेवजह पिटाई होती रहती है।

दूसरा उपाख्यान-खेतान बाबू का है जो घुड़दौड़ के लतियड़ है और अपनी बीवी के गहने चोरी करना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें एक पोंगा पंडित ने रेस का विजयी घोड़ा बताया है। तीसरे उपाख्यान में अमीर शराबी और उसकी आदर्श पत्नी की गाथा है। लगभग 10 मिनट का यह एपिसोड बिमल मित्र की छोटी बहू की याद ताजा करता है। मोतीलाल बहुत अमीर है, शायद जमींदार भी है और आदतन वैश्यागामी और शराबी है। उसकी पत्नी सुमित्रा अत्यन्त सुन्दर और गुणवान है परन्तु तथाकथित आधुनिकता के नाम पर उसे क्लब जाने वाली और फेशनेबल पत्नी की कामना है। जब वह गौर से अपनी पत्नी को देखता है तब एक क्षण में उसे अपनी भूल समझ में आती है, परन्तु निरन्तर शराब पीने और वेश्यागमन से अब वह किसी भी स्तर पर इस काबिल नहीं है कि पत्नी से प्यार कर सके। एक ही क्षण में उसे रीयलाइजेशन और रिमोर्स होता है यह क्षण मुखौटा गिरने का क्षण है जिसे केवल मोतीलाल जैसा निष्णात कलाकार एक्सप्रेशन की इस इकॉनमी में अदा करता है। दूसरे ही क्षण वह मुखौटा लगा लेता है और अपनी सुन्दर पत्नी से विमुख हो जाता है। विमुखता से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है यह विवशता कि उसने जीवन व्यर्थ गँवाया। यह ठरकी जमींदारनुमा पात्र आजाद भारत के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है जिसने आधुनिकता को ठीक से समझा ही नहीं। इस एपीसोड में सुमित्रा की करुणा बिमल मित्र की छोटी बहू के समकक्ष है। यह अजीब बात है कि अपने प्रथम प्रदर्शन के समय भी इस उपाख्यान के असली अर्थ पर कहीं कुछ नहीं लिखा गया।

आज 'चोली' जैसे शरारतपूर्ण गीत के जमाने में सुमित्रा का असल सेक्सी गीत बहुत महत्त्वपूर्ण लगता है। शालीनता, संगीत और साहित्य की त्रिवेणी में एक कुँआरी सी पत्नी का प्रेम निवेदन चुनौतीपूर्ण था और धन्य हैं शैलेन्द्र जिन्होंने इसे लिखा-

'ठंडी-ठंडी सावन की फुहार

पिया आज खिड़की खुली मत छोड़ो

आवे झोंके से पगली बयार

पिया आज बाती जली मत छोड़ो

दीये की ज्योति अंखियों में लागे

पलकों पे निन्दिया सवार पिया

आज बाती जली मत छोड़ो पपीहे ने मन की अग्नि बुझा ली

प्यासा रहा मेरा प्यार पिया आज बाती जली मत छोड़ो' है।

गीत का हर शब्द खुला निमन्त्रण है जिसमें अस्वीकृत निमन्त्रण की वेदना भी इस उपाख्यान के अन्त में मोतीलाल इमारत के गलियारों में यह कहता हुआ भटकता है कि उसकी पत्नी कहीं खो गई है। दरअसल आधुनिकता और अय्याशी के तिलिस्म में वह स्वयं खो गया है। चौथा उपाख्यान गलियारे में हैं जहाँ दो प्रतिद्वन्द्वी व्यापारी सपरिवार एक पीपे के लिए लड़ते हैं। मानव स्वभाव की विसंगति पर फिल्मकार का तीखा व्यंग्य शरद जोशी और हरिशंकर परसाई के समकक्ष है।

इन उपाख्यानों के साथ-साथ चल रहा है किस्सा उन बेकार नवयुवकों का जो सेवा दल बनाने के नाम पर चन्दा उगा रहे हैं और चोर पकड़ने के नाम पर ताँक-झाँक की छूट का मजा ले रहे हैं ये 'बहादुर' अँधेरे कमरे में रखे आईने में अपनी छवि देखकर डर जाते हैं। बहुमंजिला इमारत के गलियारों में फिल्मकार कई पात्रों की झलक प्रस्तुत करता है। भगदड़ के वातावरण में एक डरपोक दारू बनानेवाले से गोली चल जाती है और पुलिस का आगमन होता है। तलाशी में कई सम्भ्रान्त व्यक्ति काले धन्धे करते हुए पकड़े जाते हैं।

प्रेम धवन द्वारा लिखे गए भंगड़े के माध्यम से भी फिल्मकार सामाजिक और धार्मिक पाखंड पर गहरा व्यंग्य करता है-

हक दूजे दा मार-मार कर बनदे लोग अमीर मैं एनूं कंहदां चोरी, दुनिया कंहदी तकदीर देखे पंडित ज्ञानी ध्यानी दया धरम दे बंदे राम नाम जपदे ते, खान्दे गौशाला दे चंदे

दरअसल यह पंजाब का पारम्परिक गीत है और इसमें अनेक कवि समय-समय पर नए छन्द जोड़ देते हैं। गलियारों में वर्णित घटनाओं को हम स्वतन्त्र उपाख्यान का नाम नहीं दे रहे हैं।

पाँचवाँ महत्त्वपूर्ण उपाख्यान है अस्पताल का। इमारत में चन्द धनाढ्य व्यक्तियों के चन्दे से अस्पताल चलता है जिसका उद्देश्य गरीबों का इलाज नहीं है, वरन् पुलिस के आने पर नकली नोट और अन्य अवैध सामान को मरीज या मुर्दे के नाम पर इमारत से 'सुरक्षित' बाहर ले जाना है।

नकली नोट बनानेवाले ने भूल से चोर पकड़नेवाले के लिए दो तोले का सोने का मैडल घोषित किया है और परिणामस्वरूप फ्लैट दर फ्लैट तलाशी शुरू होती है अर्थात् सेठजी का शस्त्र उन्हीं को आकर लगता है। अब अस्पताल में मुर्दे के नकली नोट की मशीनें और नोट इमारत से बाहर भेजने हैं। अस्पताल का डॉक्टर प्रशिक्षित नहीं है, वह भी नोटों की तरह नकली है। इसी प्रकरण के तहत फिल्म का सबसे मर्मस्पर्शी दृश्य है। नकली नोटों सहित नायक को इमारत पर लटकाया जाता है और नीचे खड़ी भीड़ उसे पत्थर मारती है। एक पत्थर शीशा तोड़ता है और रक्तरंजित क्राइस्ट की छवि नजर आती है। किसी पत्थर के कारण नोटों की गड्डी नीचे गिरती है और चोर को दंड देनेवाले स्वयंभू जज बने हुए लोग नोटों पर यों टूट पड़ते हैं जैसे भूखे भेड़िए। नायक सारे नोट हवा में उछाल देता है ताकि लोग उसे पत्थर मारना छोड़कर धन लूटने में लग जाएँ। एक अद्भुत दृश्य की रचना है जिसमें नोटों की बरसात है और निर्धनों द्वारा खुली लूट है और सफेदपोश अपराधी खिड़की में खड़ा सारा दृश्य देख रहा है। यह एक दृश्य जागते रहो को विश्व सिनेमा में उच्च स्थान दिलाने के लिए

पर्याप्त है। क्या यह दृश्य हमें धरमवीर भारती की कविता प्रमथ्यु गाथा की याद नहीं दिलाता ? प्रमथ्यु जिन लोगों की भलाई के लिए ज्ञान की रोशनी लाया था वे ही लोग तमाशबीन बनकर उसकी यन्त्रणा पर ताली बजाते हैं।

हम सब तमाशबीन हैं। हम सबके माथे पर दाग हम सबकी आत्मा में झूठ हम सैनिक अपराजेय पर हाथों में तलवारों की मूठ।

इस दृश्य में फिल्मकार जनता की तमाशबीन प्रवृत्ति पर करारा व्यंग्य करता है। छठवाँ उपाख्यान इमारत की छत पर है। फिल्म का प्रारम्भ सड़क की घटना से हुआ था। मन्जिल दर मन्जिल उपाख्यानों का चित्रण है और फिल्म का क्लाइमैक्स बहुमंजिल इमारत की छत पर है। फिल्म का उपसंहार मन्दिर के प्रांगण में है जहाँ नायक को पीने का पानी मिलता है। क्लाइमैक्स और उपसंहार के बीच एक मासूम बच्ची की बातचीत है नायक के साथ। फिल्म में जो भी व्यक्ति गाँव के नायक को देखता है, वह बेहोश हो जाता है क्योंकि चोर उसके मन में है जबकि मासूम बच्ची उसे आत्म विश्वास दिलाती है। इसी दृश्य के अन्त से कोरस शुरू होता है और फिल्म का सारगर्भित गीत प्रारम्भ होता है-

जग उजियारा छाए मन का अन्धेरा जाए किरणों की रानी गाए जागो हे मोहन प्यारे जागरे जागरे जाग कलियाँ जागीं नगर नगर सब गलियाँ जागीं नवयुग चूमे नयन तिहारे जागो जागो मोहन प्यारे।

गीत की उपर्युक्त पंक्तियाँ ही इस बात का प्रमाण हैं कि यह महान फिल्म सिर्फ जागते रहने की नहीं है, वरन् फिल्मकार सांस्कृतिक चेतना के जागने की बात कर रहा है। इसी तरह यह भी सत्य है कि नायक की प्यास महज पानी की प्यास नहीं है, क्योंकि गीत की पंक्ति है 'किरण परी गगरी छलकाए, ज्योत का प्यासा प्यास बुझाए।'

यह प्यास नव जागृति की प्यास है जो भारत के स्वतन्त्र होने के बाद भी नहीं मिटी और आज भी देश प्यासा है। समाज की संरचना में व्यावसायिकता, भ्रष्टाचार और झूठ का समावेश इतनी तेजी से हुआ कि अब तो देश की आत्मा में उतरे हुए लोहे पर समय की जंग लग चुकी है। नैतिक विनाश की भयावह प्रक्रिया बहुत पहले ही प्रारम्भ हो चुकी थी, परन्तु स्वतन्त्रता के यूफोरिया में वर्षों लोगों का ध्यान नहीं गया, परन्तु राजकपूर ने अपनी तीन फिल्मों में (आवारा, श्री 420, जागते रहो) इस भयावह प्रक्रिया को प्रस्तुत किया था।

फिल्म में दिखाई गई इमारत भारत का प्रतीक है। पूरा देश आर्थिक व सामाजिक खाँचों में बँटा हुआ है। गरीब लोग निचले भाग में रहते हैं या अमीरों के आलीशान फ्लैटों में नौकर हैं। मंजिल दर मंजिल, फ्लैट दर फ्लैट, उपाख्यान दर उपाख्यान फिल्म भारतीय समाज के वर्गों की निर्मम शल्यक्रिया प्रस्तुत करती है। सेन्सर ने फिल्म पर आपत्ति प्रकट की थी कि यह फिल्म वर्ग संघर्ष को बढ़ावा देती है। बाद में सेन्सर ने निर्माता का पक्ष सुना और सेन्सर सर्टिफिकेट जारी किया।

फिल्म के क्लाइमैक्स में नायक कहता है कि आपने मुझ गरीब को यह शिक्षा दी कि अपराध किए बिना बड़ा आदमी नहीं बना जा सकता। नायक के हाथ में डंडा है दरअसल आज का नायक वहाँ से शुरू होता है जहाँ 'जागते रहो' का नायक अपनी बात खत्म करता है। अब उसके हाथ में हथियार है और वह बड़ा आदमी बन चुका है। इससे भी खतरनाक बात यह है कि अब हिन्दी फिल्म का नायक स्वयं हथियार में परिवर्तित हो गया है और यह हथियार देश की आत्मा में मूँठ तक धँस गया है।

'जागते रहो' पाँचवें दशक का 'रागदरबारी' है जो कागज के बदले सेल्युलाइड पर लिखा गया है।