आषाढ़ का एक दिन / अंक 2 / मोहन राकेश
कुछ वर्षों के अनंतर
वही प्रकोष्ठ।
प्रकोष्ठ की स्थिति में पहले से कहीं अंतर आ गया है। लिपाई कई स्थानों से उखड़ रही है। गेरू से बने स्वस्तिक, शंख और कमल अब बुझे-बुझे-से हैं। चूल्हे के पास पहले से बहुत कम बरतन हैं। कुंभ केवल दो हैं और उन पर ऊपर तक काई जमी है। आसन पर कुछ भोजपत्र बिखरे हैं, कुछ एक रेशमी वस्त्र में बँधे हैं। आसन के निकट एक टूटा मोढ़ा है, जिस पर भोजपत्र सी कर बनाया एक ग्रंथ रखा है।
चूल्हे के निकट कोने में रस्सी बँधी है जिस पर कुछ वस्त्र सूखने के लिए फैलाए गए हैं। अधिकांश वस्त्र फटे हैं और उन पर जगह-जगह टाँकियाँ लगी हैं।
एक टूटा मोढ़ा ड्योढ़ी के द्वार के पास रखा है। चौकी एक ही है जिस पर बैठी मल्लिका खरल में औषध पीस रही है। अंदर बिछे तल्प का कोना उसी तरह दिखाई देता है। अंबिका तल्प पर लेटी है। बीच-बीच में वह करवट बदल लेती है। निक्षेप बाहर से आता है। मल्लिका अपना अंशुक ठीक करती है।
निक्षेप : अब कैसा है अंबिका का स्वास्थ्य ?
मल्लिका : वैसे ही ज्वर आता है अभी।
निक्षेप : पहले से कुछ भी अंतर नहीं पड़ा ?
मल्लिका : लगता तो नहीं।
निक्षेप : दो वर्ष से निरंतर एक-सा ज्वर !
मल्लिका ठंडी साँस भर कर पीसी हुई औषध पत्थर से कटोरे में डालने लगती है। निक्षेप मोढ़ा खींच कर उसके पास आ बैठता है।
वास्तव में अंबिका बहुत चिंता करती है।
मल्लिका : औषध भी ठीक से नहीं खाती।
औषध में दूध और शहद मिला कर हिलाने लगती है। निक्षेप अपनी उँगलियाँ उलझाए उसे देखता रहता है।
निक्षेप : तुम्हारा स्वास्थ्य कैसा है ?
मल्लिका : ठीक है।
निक्षेप : दुबली होती जा रही हो।...बहुत दिनों से राजधानी की ओर से कोई व्यक्ति नहीं आया।
मल्लिका आँखें बचाती हुई अधिक व्यक्त भाव से औषध हिलाती रहती है।
कभी-कभी सोचता हूँ, एक बार उज्जयिनी जा कर उनसे मिल आऊँ।
मल्लिका : क्यों ?
निक्षेप : कई बातें करना चाहता हूँ। कई बार लगता है कि दोष मेरा ही है।
मल्लिका गंभीर भाव से उसकी ओर देखती है।
मल्लिका : किस बात का ?
निक्षेप लंबी साँस लेता है।
निक्षेप : बात तुम जानती हो।...मैंने आशा नहीं की थी कि उज्जयिनी जा कर कालिदास इस तरह वहाँ के हो जाएँगे।
मल्लिका : और मुझे प्रसन्नता है कि वे वहाँ रह कर इतने व्यस्त हैं। यहाँ उन्होंने केवल 'ऋतु-संहार' की रचना की थी। वहाँ उन्होंने कई नए काव्यों की रचना की है। दो वर्ष पहले जो व्यवसायी आए थे, उन्होंने 'कुमारसंभव' और 'मेघदूत' की प्रतियाँ मुझे ला दी थीं। बता रहे थे, उनके एक और बड़े काव्य की बहुत चर्चा है, परंतु उसकी प्रति उन्हें नहीं मिल पाई।
निक्षेप : यूँ तो सुना है, उन्होंने कुछ नाटकों की भी रचना की है जो उज्जयिनी की रंगशालाओं में खेले गए हैं। फिर भी...।
मल्लिका : फिर भी क्या ?
निक्षेप : मुझे कहते दुख होता है। उन्हीं व्यवसायियों के मुँह से और भी तो कई बातें सुनी थीं...।
मल्लिका : व्यक्ति उन्नति करता है, तो उसके नाम के साथ कई तरह के अपवाद जुड़ने लगते हैं।
निक्षेप : मैं अपवाद की बात नहीं कर रहा।
उठ कर टहलने लगता है।
सुना यह भी तो था न कि गुप्त वंश की राज-दुहिता से उनका विवाह हो गया।
मल्लिका : तो इसमें बुरा क्या है ?
निक्षेप : एक तरह से देखें, तो बुरा नहीं भी है। परंतु यहाँ रहते उनका जो आग्रह था कि जीवन भर विवाह नहीं करेंगे ?
रुक कर उसकी ओर देखता है।
उस आग्रह का क्या हुआ ? उन्होंने यह नहीं सोचा कि उनके इसी आग्रह की रक्षा के लिए तुमने...?
अंबिका : उनके प्रसंग में मेरी बात कहीं नहीं आती। मैं अनेकानेक साधारण व्यक्तियों में से हूँ। वे असाधारण हैं। उन्हें जीवन में असाधारण का ही साथ चाहिए था।...सुना है राज-दुहिता बहुत विदुषी हैं।
निक्षेप : हाँ, सुना है। बहुत शास्त्र-दर्शन पढ़ी हैं। मैंने कहा है न कि एक तरह से देखें, तो इसमें कुछ बुरा नहीं है। परंतु दूसरी तरह से देखने पर बहुत ग्लानि होती है।
मल्लिका : इसके विपरीत मुझे अपने से ग्लानि होती है, कि यह, ऐसी मैं, उनकी प्रगति में बाधा भी बन सकती थी। आपके कहने से मैं उन्हें जाने के लिए प्रेरित न करती, तो कितनी बड़ी क्षति होती ?
निक्षेप : यह तो दुख है कि मेरे कहने से तुम ऐसा न करतीं, तो आज तुम्हारे जीवन का रूप यह न होता।
मल्लिका : मेरे जीवन में पहले से क्या अंतर आया है ? पहले माँ काम करती थी। अब वे अस्वस्थ हैं, मैं काम करती हूँ।
निक्षेप : बाहर से तो इतना ही अंतर लगता है।
मल्लिका : केवल इतना ही अंतर है।
औषध लिए उठ खड़ी होती है।
माँ को औषध दे दूँ, अभी आती हूँ।
अंदर चली जाती है और अंबिका को सहारे से उठा कर औषध पिलाती है। अंबिका पी कर सिर हिलाती है। निक्षेप टहलता हुआ झरोखे के पास चला जाता है। बाहर घोड़े की टापों का शब्द सुनाई देता है जो पास आ कर दूर चला जाता है। निक्षेप झरोखे से सटा देखता रहता है। अंबिका औषध पी कर लेट जाती है। मल्लिका बाहर आ जाती है, और किवाड़ के पास रुक कर अंबिका की ओर देखती है।
मल्लिका : माँ, ठंड लगती हो तो किवाड़ बंद कर दूँ ?
अंबिका सिर हिलाती है। मल्लिका किवाड़ बंद कर देती है। निक्षेप झरोखे के पास से हट आता है।
निक्षेप : लगता है आज फिर कुछ लोग बाहर से आए हैं।
मल्लिका : कौन लोग ?
निक्षेप : संभवत: राज्य के कर्मचारी हैं। दो वैसी ही आकृतियाँ मैंने देखी हैं, जैसी तब देखी थीं, जब आचार्य कालिदास को लेने आए थे।
मल्लिका थोड़ा सिहर जाती है।
मल्लिका : वैसी आकृतियाँ ?
अपने भाव को दबा कर हँसने का प्रयत्न करती है।
जानते हैं, माँ इस संबंध में क्या कहती हैं ? कहती हैं कि जब भी ये आकृतियाँ दिखाई देती हैं, कोई न कोई अनिष्ट होता है। कभी युद्ध, कभी महामारी !...
परंतु पिछली बार तो ऐसा कुछ नहीं हुआ।
निक्षेप : नहीं हुआ ?
मल्लिका आँखें बचाती हुई गीले वस्त्रों को देखने में व्यस्त हो जाती है।
मल्लिका : क्या हुआ ?...और जो हुआ, वह तो अच्छा ही था।
दो-एक वस्त्रों को उतार कर फिर रस्सी पर फैला देती है।
हवा में आजकल इतनी नमी रहती है, कि वस्त्र घंटों नहीं सूखते।
फिर टापों का शब्द सुनाई देता है। निक्षेप फिर झरोखे के पास चला जाता है। सहसा उसके मुँह से आश्चर्य की ध्वनि निकल पड़ती है।
निक्षेप : हैं हैं ?...नहीं ?...परंतु नहीं कैसे ?
टापों का शब्द दूर चला जाता है। निक्षेप उत्तेजित-सा झरोखे के पास से हट कर आता है।
मल्लिका : सहसा उत्तेजित क्यों हो उठे, आर्य निक्षेप ?
निक्षेप : मैंने अभी एक और आकृति को घोड़े पर जाते देखा है।
मल्लिका : तो क्या हुआ ? आपको भी माँ की तरह अनिष्ट की आशंका हो रही है ?
निक्षेप : वह एक बहुत परिचित आकृति है, मल्लिका !
मल्लिका : परिचित आकृति ?
निक्षेप : मुझे विश्वास है, वे स्वयं कालिदास हैं।
मल्लिका हाथ के वस्त्र को पकड़े स्तंभित-सी हो रहती है।
मल्लिका : कालिदास ?...यह कैसे संभव है ?
निक्षेप : मैंने अपनी आँखों से देखा है। वे घोड़ा दौड़ाते पर्वत-शिखर की ओर गए हैं। इस राजसी वेशभूषा में और कोई उन्हें न पहचान पाए, निक्षेप की आँखें पहचानने में भूल नहीं कर सकतीं।...मैं अभी जा कर देखता हूँ। राज्य-कर्मचारी भी अवश्य उन्हीं के साथ आए होंगे।
उसी उत्तेजना में चला जाता है।
मल्लिका : वे आए हैं और पर्वत-शिखर की ओर गए हैं ?
अपनी उँगली को दाँत से काटती है और पीड़ा का अनुभव होने पर यंत्र-चालित-सी झरोखे के पास चली आती है। ड्योढ़ी से रंगिणी और संगिनी अंदर आती हैं। मल्लिका आश्चर्य से उनकी ओर देखती है रंगिणी संगिनी को आगे करती है।
रंगिणी : इससे पूछ, हम अंदर आ सकती हैं ?
संगिनी उसे आगे कर के स्वयं पीछे हट जाती है।
संगिनी : तू पूछ।
मल्लिका उनके पास आ जाती है।
रंगिणी : अच्छा, मैं पूछती हूँ।...सुनो, यह तुम्हारा घर है ?
मल्लिका : हाँ हाँ। आइए...आप मेरे यहाँ आए हैं ?
रंगिणी और संगिनी अंदर आ जाती हैं और खोजती दृष्टि से इधर-उधर देखती हैं।
रंगिणी : हम विशेष रूप से किसी के यहाँ नहीं आईं। समझ लो कि यूँ ही आई हैं-ग्राम-प्रदेश में घूमती हुई।
संगिनी : हम यहाँ के घर देखना चाहती हैं।
रंगिणी : और यहाँ के जीवन का अध्ययन करना चाहती हैं।
संगिनी : पहले मैं परिचय दे दूँ। यह है रंगिणी। उज्जयिनी के नाटय केंद्र में नृत्य का अभ्यास करती है। नाटक लिखने में भी इसकी रुचि है।
रंगिणी : और यह संगिनी-उसी केंद्र में मृदंग और वीणा-वादन सीखती है। बहुत सुंदर प्रणय-गीत लिखती है। अब गद्य की ओर आ रही है। और तुम्हारा परिचय ?
मल्लिका कुछ भी उत्तर न दे कर आश्चर्य से उनकी ओर देखती रहती है।
संगिनी : तुमने अपना परिचय नहीं दिया।
मल्लिका : मेरा परिचय कुछ भी नहीं है। आइए, यहाँ आसन पर बैठिए।
संगिनी : हम बैठने के लिए नहीं, अध्ययन करने के लिए आई हैं। इस स्थान को आप लोग क्या कहते हैं ?
मल्लिका : किस स्थान को ?
रंगिणी : इसका अभिप्राय इस सारे स्थान से है जहाँ इस समय हम हैं। उज्जयिनी में हम इसे प्रकोष्ठ कहते हैं। यहाँ तुम लोग क्या कहते हो ?
मल्लिका : प्रकोष्ठ।
रंगिणी : प्रकोष्ठ को तुम लोग भी प्रकोष्ठ कहते हो ? और...
कुंभों के निकट जा कर एक कुंभ को छूती है।
इसे ?
मल्लिका : कुंभ।
रंगिणी : कुंभ ? प्रकोष्ठ को प्रकोष्ठ और कुंभ को कुंभ ?
निराशा से कंधे हिलाती है।
संगिनी : देखो, यहाँ के कुछ स्थानीय शब्द नहीं हैं ?
मल्लिका हतप्रभ-सी उनकी ओर देखती रहती है।
मल्लिका : स्थानीय शब्द ?
संगिनी : हाँ, आंचलिक शब्द। जैसे पतंजलि ने लिखा है न कि यद्वा को कुछ लोग यर्वा बोलते हैं और तद्वा को तर्वा। यर्वाणस्तर्वाण: ऋषयो बभूवु:।
मल्लिका : मुझे इतना ज्ञान नहीं है।
संगिनी कुछ निराश-सी आसन पर बैठ जाती है। रंगिणी घूम कर प्रकोष्ठ की एक-एक वस्तु का निरीक्षण करती है। मल्लिका संगिनी के पास चली जाती है।
संगिनी : देखो, हम कुछ ऐसी बातें जानना चाहती हैं जिनका संबंध यहाँ के और केवल यहाँ के जीवन से हो। तुम्हारे घर और वस्त्र तो लगभग हमारे जैसे हैं। यहाँ के जीवन की अपनी विशेषता क्या है ?
मल्लिका : यहाँ के जीवन की अपनी विशेषता ?
पल-भर झरोखे की ओर देखती रहती है।
मैं नहीं जानती। हमारा जीवन हर दृष्टि से बहुत साधारण है।
संगिनी : यह मैं नहीं मान सकती। इस प्रदेश ने कालिदास जैसी असाधारण प्रतिभा को जन्म दिया है। यहाँ की तो प्रत्येक वस्तु असाधारण होनी चाहिए।
रंगिणी चूल्हे के आसपास की सब वस्तुओं को अच्छी तरह देख कर तथा एक बार अंदर झाँक कर उसके पास आ जाती है।
रंगिणी : देखो, मैं तुम्हें समझाती हूँ। बात यह है कि राजकीय नियोजन से हम दोनों कवि कालिदास के जीवन की पृष्ठभूमि का अध्ययन कर रही हैं। तुम समझ सकती हो कि यह कितना बड़ा और महत्वपूर्ण कार्य है। परंतु यहाँ घूम कर हम तो लगभग निराश हो चुकी हैं, यहाँ कुछ सामग्री है ही नहीं।
संगिनी : अच्छा, यहाँ के कुछ वनस्पतियों के नाम बताइए।
मल्लिका : कैसे वनस्पति ?
संगिनी : कैसे वनस्पति ?
सोचने लगती है।
जैसे कालिदास ने 'कुमारसंभव' में लिखा है-
'भास्वन्नि रत्नाति महौषधींश्च।' ये प्रकाश देनेवाली ओषधियाँ कौन-सी हैं ?
मल्लिका : ओषधियाँ प्रकाश नहीं देतीं।
संगिनी उठ खड़ी होती है।
संगिनी : ओषधियाँ प्रकाश नहीं देतीं ? तुम्हारा अभिप्राय है कि कालिदास ने जो लिखा है, वह झूठ है ?
मल्लिका : उन्होंने कुछ भी झूठ नहीं लिखा। उनहोंने तो लिखा है कि...
रंगिणी : रहने दे संगिनी ! यह यहाँ के संबंध में विशेष कुछ नहीं जानती।
संगिनी भी निराशा से मुँह बिचका कर उठ खड़ी होती है।
संगिनी : अच्छा, तुम्हारा बहुत समय नष्ट किया। क्षमा करना। चल, रंगिणी !
दोनों चली जाती हैं। मल्लिका ड्योढ़ी का किवाड़ बंद कर देती है। आसन के पास जा कर नीचे बैठ जाती है और बिखरे पृष्ठों पर सिर टिका देती है। उसकी आँखें मुँद जाती हैं।
मल्लिका : आज वर्षों के बाद तुम लौट कर आए हो ! सोचती थी तुम आओगे तो उसी तरह मेघ घिरे होंगे, वैसा ही अँधेरा-सा दिन होगा, वैसे ही एक बार वर्षा में भीगूँगी और तुमसे कहूँगी कि देखो मैंने तुम्हारी सब रचनाएँ पढ़ी हैं...
कुछ पृष्ठ हाथ में ले लेती है।
उज्जयिनी की ओर जानेवाले व्यवसायियों से कितना-कितना कह कर मैंने तुम्हारी रचनाएँ मँगवाई हैं।...सोचती थी तुम्हें 'मेघदूत' की पंक्तियाँ गा-गा कर सुनाऊँगी। पर्वत-शिखर से घंटा-ध्वनियाँ गूँज उठेंगी और मैं अपनी यह भेंट तुम्हारे हाथों में रख दूँगी...
मोढ़े पर रखा ग्रंथ उठा लेती है।
कहूँगी कि देखो, ये तुम्हारी नई रचना के लिए हैं। ये कोरे पृष्ठ मैंने अपने हाथों से बना कर सिए हैं। इन पर तुम जब जो भी लिखोगे, उसमें मुझे अनुभव होगा कि मैं भी कहीं हूँ, मेरा भी कुछ है।
नि:श्वास छोड़ कर ग्रंथ रख देती है।
परंतु आज तुम आए हो, तो सारा वातावरण ही और है। और...और नहीं सोच पा रही कि तुम भी वही हो या...?
कोई किवाड़ खटखटाता है। वह अपने को झटक कर उठ खड़ी होती है और जा कर किवाड़ खोल देती है। ड्योढ़ी में अनुस्वार और अनुनासिक साथ-साथ खड़े दिखाई देते हैं। मल्लिका उन्हें देख कर असमंजस में पड़ जाती है।
अनुस्वार : मुझे विश्वास है मैं इस समय देवी मल्लिका के सामने खड़ा हूँ।
मल्लिका : कहिए।
अनुस्वार : देव मातृगुप्त के अनुचरों का अभिवादन स्वीकार कीजिए।
दोनों झुक कर अभिवादन करते हैं। मल्लिका भौचक्की-सी उन्हें देखती रहती है।
मल्लिका : देव मातृगुप्त ? देव मातृगुप्त कौन हैं ?
अनुस्वार : 'ऋतुसंहार', 'कुमारसंभव', 'मेघदूत' एवं 'रघुवंश' के प्रणेता कवींद्र, राजनीति-निष्णात आचार्य तथा काश्मीर के भावी शासक। देव मातृगुप्त की राजमहिषी गुप्तवंश-दुहिता परम विदुषी देवी प्रियंगुमंजरी आपके साक्षात्कार के लिए उत्सुक हैं और शीघ्र ही यहाँ आना चाहती हैं। हम उनके अनुचर आपको इसकी पूर्वसूचना देने के लिए उपस्थित हैं।
मल्लिका : 'ऋतुसंहार' और 'मेघदूत' आदि के प्रणेता तो कालिदास हैं और आप कह रहे हैं कि...।
अनुस्वार : वे गुप्त राज्य की ओर से काश्मीर का शासन सँभालने जा रहे हैं। मातृगुप्त उन्हीं का नया नाम है।
मल्लिका : वे काश्मीर का शासन सँभालने जा रहे हैं ? और...और उनकी राजमहिषी मुझसे मिलने के लिए आ रही हैं ?
अनुस्वार : मुझे विश्वास है कि इस गौरवपूर्ण अवसर पर आप अपने उपवेश-गृह के वस्तु-विन्यास में कुछ परिवर्तन आवश्यक समझेंगी। इसे आपका आदेश समझते हुए हम यह कार्य अभी अपने हाथों संपन्न किए देते हैं। आओ, अनुनासिक।
दोनों प्रकोष्ठ में आ कर निरीक्षण करने की दृष्टि से सब वस्तुओं को देखने लगते हैं। मल्लिका एक ओर हट जाती है। अनुनासिक आसन के पास चला जाता है।
अनुनासिक : मैं समझता हूँ यह आसन द्वार के निकट होना चाहिए।
अनुस्वार : देवी द्वार से प्रवेश करेंगी और आसन द्वार के निकट होगा ?
अनुनासिक : उस स्थिति में इसे इसकी वर्तमान स्थिति से सात अंगुल दक्षिण की ओर हटा देना चाहिए।
अनुस्वार : दक्षिण की ओर ?
नकारात्मक भाव से सिर हिलाता है।
मैं समझता हूँ इसकी स्थिति पाँच अंगुल उत्तर की ओर होनी चाहिए। गवाक्ष से सूर्य की किरणें सीधी इस पर पड़ती हैं।
अनुनासिक : मैं तुमसे सहमत नहीं हूँ।
अनुस्वार : मैं तुमसे सहमत नहीं हूँ।
अनुनासिक : तो ?
अनुस्वार : तो विवादास्पद विषय होने से आसन को यहीं रहने दिया जाए।
अनुनासिक : अच्छी बात है। इसे यहीं रहने दिया जाए। और ये कुंभ ?
कुंभों के पास चला जाता है।
अनुस्वार : मैं समझता हूँ एक कुंभ इस कोने में और दूसरा उस कोने में होना चाहिए।
अनुनासिक : पर मैं समझता हूँ कि कुंभ यहाँ होने ही नहीं चाहिए।
अनुस्वार : क्यों ?
अनुनासिक : क्यों का कोई उत्तर नहीं।
अनुस्वार : मैं तुमसे सहमत नहीं हूँ।
अनुनासिक : मैं तुमसे सहमत नहीं हूँ।
अनुस्वार : तो ?
अनुनासिक : तो कुंभों को भी यहीं रहने दिया जाए।
दोनों उधर जाते हैं जिधर रस्सी पर वस्त्र सूखने के लिए फैलाए गए हैं। मल्लिका आसन के पास जा कर बिखरे पन्नों को समेटती है और उन्हें मोढ़े पर रख कर चुपचाप अंदर चली जाती है। अनुस्वार गीले वस्त्रों को छूता है।
अनुस्वार : ये वस्त्र ?
अनुनासिक : वस्त्र अभी गीले हैं, इसलिए इन्हें नहीं हटाना चाहिए।
अनुस्वार : क्यों ?
अनुनासिक : शास्त्रीय प्रमाण ऐसा है।
अनुस्वार : कौन-सा प्रमाण है ?
अनुनासिक : यह तो मुझे याद नहीं।
अनुस्वार : यह याद है कि ऐसा प्रमाण है ?
अनुनासिक : हाँ।
अनुस्वार : तो ?
अनुनासिक : तो संदिग्ध विषय है।
अनुस्वार : हाँ, तब तो अवश्य संदिग्ध विषय है।
अनुनासिक : संदिग्ध विषय होने से वस्त्रों को भी रहने दिया जाए।
अनुस्वार : अच्छी बात है। वस्त्रों को भी रहने दिया जाए।
अनुनासिक : परंतु यह चूल्हा अवश्य यहाँ से हटा देना चाहिए।
अनुस्वार : चूल्हा हटाने का अर्थ होगा आस-पास की सब वस्तुओं को हटाया जाए। इसके लिए बहुत समय चाहिए।
अनुनासिक : समय के अतिरिक्त बहुत धैर्य चाहिए।
अनुस्वार : धैर्य के अतिरिक्त बहुत परिश्रम चाहिए।
अनुनासिक : मैं समझता हूँ कि भाजनों को हाथ लगाना हमारी स्थिति के अनुकूल नहीं है।
अनुस्वार : मैं भी यही समझता हूँ |
अनुनासिक : तो इस बात में हम दोनों सहमत हैं कि चूल्हे को न हटाया जाए ?
अनुस्वार : मैं समझता हूँ हम दोनों सहमत हैं।
अनुनासिक चारों ओर देखता है।
अनुनासिक : और तो कुछ शेष नहीं ?
अनुस्वार भी चारों ओर देखता है।
अनुस्वार : मेरे विचार में कुछ भी शेष नहीं।
अनुनासिक : नहीं, अभी शेष है।
अनुस्वार : क्या ?
अनुनासिक : यह चौकी यहाँ रास्ते में पड़ी है। इसे यहाँ से हटा देना चाहिए।
अनुस्वार : मैं इससे सहमत हूँ।
अनुनासिक : तो ?
अनुस्वार : तो ?
अनुनासिक : तो इसे हटा देना चाहिए।
अनुस्वार : हाँ, अवश्य हटा देना चाहिए।
अनुनासिक : तो ?
अनुस्वार : तो ?
अनुनासिक : हटा दो।
अनुस्वार : मैं ?
अनुनासिक : हाँ।
अनुस्वार : तुम नहीं ?
अनुनासिक : नहीं।
अनुस्वार : क्यों ?
अनुनासिक : क्यों का कोई उत्तर नहीं।
अनुस्वार : फिर भी ?
अनुनासिक : पहले मैंने तुमसे कहा है।
अनुस्वार : परंतु चौकी देखी पहले तुमने है।
अनुनासिक : तो ?
अनुस्वार : तो ?
अनुनासिक : हटा दो।
अनुस्वार : तुम हटा दो।
अनुनासिक : तो रहने दो।
अनुस्वार : रहने दो।
अनुनासिक : अब ?
अनुस्वार : हाँ, अब ?
अनुनासिक : चारों ओर एक दृष्टि और डाल लें।
अनुस्वार : हाँ, चारों ओर एक दृष्टि और डाल लें।
मातुल उत्तेजित-सा बाहर से आता है।
मातुल : अधिकारी-वर्ग, आपका कार्य यहाँ पूरा हो गया।
अनुनासिक : क्यों अनुस्वार ?
अनुस्वार : हाँ, पूरा हो गया। हो गया न ? क्यों अनुनासिक ?
अनुनासिक : हाँ, हो गया। केवल एक दृष्टि डालना शेष है।
अनुस्वार : हाँ, केवल एक दृष्टि डालना शेष है।
मातुल : तो वह दृष्टि अब रहने दीजिए। देवी प्रियंगुमंजरी बाहर पहुँच गई हैं।
अनुनासिक : देवी बाहर पहुँच गई हैं ! तो चलो अनुस्वार।
अनुस्वार : चलो।
दोनों साथ-साथ बाहर चले जाते हैं। मातुल भी पीछे-पीछे चला जाता है और कुछ क्षण बाद प्रियंगुमंजरी को मार्ग दिखलाता वापस आता है।
मातुल : वह इस सारे प्रदेश में सबसे सुशील, सबसे विनीत और सबसे भोली लड़की है...।
मल्लिका अंदर से आती है।
आओ-आओ, मल्लिका ! मैं देवी से तुम्हारी ही प्रशंसा कर रहा था।
चाटुकारिता की हँसी हँसता है।
देवी जब से आई हैं, तुम्हारे ही संबंध में पूछ रही हैं।...तो यही है हमारी मल्लिका, इस प्रदेश की राजहंसिनी...अ...अ...मल्लिका, देवी के लिए कौन-सा आसन निश्चित किया गया है ?
मल्लिका प्रियंगुमंजरी को अभिवादन करती है। प्रियंगुमंजरी मुस्करा कर अभिवादन की स्वीकृति देती है।
प्रियंगु : आर्य मातुल, आप अब जा कर विश्राम करें। अनुचर मेरे लौटने तक बाहर प्रतीक्षा करेंगे।
मातुल : परंतु आपके लिए आसन...?
प्रियंगु : उसकी चिंता न करें। मुझे असुविधा नहीं होगी।
मातुल : असुविधा तो होगी। आप असुविधा को असुविधा न मानें, यह दूसरी बात है। और वास्तव में कुलीनता कहते इसी को हैं। बड़े कुल की विशेषता ही यह होती है कि...
प्रियंगु : आप विश्राम करें। मैंने पहले ही आपको बहुत थकाया है।
मातुल : मुझे थकाया है ? आपने ?
फिर चाटुकारिता की हँसी हँसता है।
आपके कारण मैं थकूँगा ? मुझे आप दिन-भर पर्वत-शिखर से खाई में और खाई से पर्वत-शिखर पर जाने को कहती रहें, तो भी मैं नहीं थकूँगा। मातुल का शरीर लोहे का बना है, लोहे का। आत्म-श्लाघा नहीं करता, परंतु हमारे वंश में केवल प्रतिभा ही नहीं, शरीर-शक्ति भी बहुत है। मैं पशुओं के पीछे दिन में दस-दस योजन घूमा हूँ। मैं कहता हूँ संसार में सबसे कठिन काम कोई है तो पशु-पालन का। एक भी पशु मार्ग से भटक जाए, तो...।
प्रियंगु : देखिए, आज भी आपके पशु भटक रहे होंगे। जा कर एक बार उन्हें देख लीजिए।
मातुल : अब मैं पशु को देखता हूँ ? गुप्त वंश के साथ संबंध, और पशुओं की देख-रेख? मैं ने तो अपने सब पशु वर्षों पहले ही बेच दिए। और सच कहूँ, तो उसमें भी मुझे लाभ ही रहा क्योंकि...
प्रियंगु की दृष्टि मल्लिका से मिल जाती है। वह बढ़ कर मल्लिका के हाथ अपने हाथों में ले लेती है।
प्रियंगु : सचमुच वैसी ही हो जैसी मैंने कल्पना की थी।
मल्लिका कुछ अव्यवस्थित हो कर उसे देखती रहती है।
मातुल : क्योंकि...अ...अ...अच्छा, तो मुझे अनुमति दीजिए। घर में कईं कुछ बिखरा पड़ा है। कई तरह की व्यवस्था करनी है। तो अनुचर, आपकी प्रतीक्षा करेंगे।...फिर भी मेरे लिए कोई आदेश हो, तो कहला दीजिएगा...मल्लिका, देवी के बैठने की कुछ तो व्यवस्था कर दो। नहीं, ये तो ऐसे ही खड़ी रहेंगी। अच्छा, मैं चल रहा हूँ। कोई आदेश हो तो कहला दीजिएगा।
प्रियंगु : आप चलें। यहाँ के लिए चिंता करने की आवश्यकता नहीं।
मातुल : अच्छा-अच्छा...!
चल देता है।
मुझे चिंता करने की क्या आवश्यकता है ? चिंता करने के लिए यहाँ मल्लिका है, अंबिका है।...फिर भी कोई काम हो, तो कहला दीजिएगा...।
चला जाता है। प्रियंगुमंजरी क्षण-भर मल्लिका को देखती रहती है। फिर उसकी ठोड़ी को हाथ से छू लेती है।
प्रियंगु : सचमुच बहुत सुंदर हो। जानती हो, अपरिचित होते हुए भी तुम मुझे परिचित नहीं लग रहीं ?
मल्लिका : आप बैठ जाइए न।
प्रियंगु : नहीं, बैठना नहीं चाहती। तुम्हें और तुम्हारे घर को देखना चाहती हूँ। उन्होंने बहुत बार इस घर की और तुम्हारी चर्चा की है। जिन दिनों 'मेघदूत' लिख रहे थे, उन दिनों प्राय: यहाँ का स्मरण किया करते थे।
दृष्टि चारों ओर घूम कर फिर मल्लिका के चेहरे पर स्थिर हो जाती है।
आज इस भूमि का आकर्षण ही हमें यहाँ ले आया है। अन्यथा दूसरे मार्ग से जाने में हमें अधिक सुविधा थी।
मल्लिका : मैं समझ नहीं पा रही किस रूप में आपका आतिथ्य करूँ। आप आसन ले लें, तो मैं आपके लिए...।
प्रियंगु : आतिथ्य की बात मत सोचो। मैं तुम्हारे यहाँ अतिथि के रूप में नहीं आई हूँ।...संभव था ये न भी आते, परंतु मैं ही विशेष आग्रह के साथ इन्हें लाई हूँ। मैं स्वयं एक बार इस प्रदेश को देखना चाहती थी। इसके अतिरिक्त...
गले से हलका विदग्धतापूर्ण स्वर निकल पड़ता है।
इसके अतिरिक्त एक और भी कारण था। चाहती थी कि इस प्रदेश का कुछ वातावरण साथ ले जाऊँ।
मल्लिका : इस प्रदेश का वातावरण ?
प्रियंगुमंजरी मुस्करा कर उसे देखती है। फिर टहलती हुई झरोखे के पास चली जाती है।
प्रियंगु : यहाँ से बहुत दूर तक की पर्वत-शृंखलाएँ दिखाई देती हैं।...कितनी निर्व्याज सुंदरता है। मुझे यहाँ आ कर तुमसे स्पर्द्धा हो रही है।
मल्लिका दो-एक पग उस ओर को बढ़ आती है।
मल्लिका : हमारा सौभाग्य होगा कि आप कुछ दिन इस प्रदेश में रह जाएँ। यहाँ आपको असुविधा तो होगी, परंतु...।
प्रियंगुमंजरी फिर विदग्ध भाव से उसे देखती है।
प्रियंगु : इस सौंदर्य के सामने जीवन की सब सुविधाएँ हेय हैं। इसे आँखों में व्याप्त करने के लिए जीवन भर का समय भी पर्याप्त नहीं।
झरोखे के पास से हट आती है।
परंतु इतना अवकाश कहाँ है ? काश्मीर की राजनीति इतनी अस्थिर है कि हमारा एक-एक दिन वहाँ से दूर रहना कई-कई समस्याओं को जन्म दे सकता है।...एक प्रदेश का शासन बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है। हम पर तो और भी बड़ा उत्तरदायित्व है क्योंकि काश्मीर की स्थिति इस समय बहुत संकटपूर्ण है। यूँ वहाँ के सौंदर्य की ही इतनी चर्चा है, परंतु हमें उसे देखने का अवकाश कहाँ रहेगा ?
बाँहें पीछे टिकाए आसन पर बैठ जाती है।
इसलिए तुमसे स्पर्धा होती है। सौंदर्य का यह सहज उपभोग हमारे लिए केवल एक सपना है।...बैठ जाओ।
आसन पर अपने सामने बैठने के लिए संकेत करती है। मल्लिका नीचे बैठने लगती है , तो वह उसे रोक देती है।
यहाँ मेरे पास बैठो।
मल्लिका : मैं दूसरा आसन ले लेती हूँ।
कोने से मोढ़ा उठा कर आसन के पास रख लेती है और उस पर रखे भोजपत्र आदि गोदी में रख कर बैठ जाती है।
प्रियंगु : लगता है यहाँ ग्राम-प्रदेश में रह कर भी तुम्हें साहित्य से अनुराग है।
मल्लिका की आँखें झुक जाती हैं।
किसकी रचनाएँ हैं ये ?
मल्लिका : कालिदास की।
प्रियंगु की भौंहें कुछ संकुचित हो जाती हैं।
प्रियंगु : अब वे मातृगुप्त के नाम से जाने जाते हैं। यहाँ भी उनकी रचनाएँ मिल जाती हैं?
मल्लिका : ये प्रतियाँ मैंने उज्जयिनी से आनेवाले व्यवसायियों से प्राप्त की हैं।
प्रियंगुमंजरी के होंठों पर हलकी व्यंग्यात्मक मुस्कराहट प्रकट होती है।
प्रियंगु : मैं समझ सकती हूँ। उनसे जान चुकी हूँ कि तुम बचपन से उनकी संगिनी रही हो। उनकी रचनाओं के प्रति तुम्हारा मोह स्वाभाविक है।
जैसे कुछ सोचती-सी छत की ओर देखने लगती है।
वे भी जब-तब यहाँ के जीवन की चर्चा करते हुए आत्म-विस्मृत हो जाते हैं। इसीलिए राजनीतिक कार्यों से कई बार उनका मन उखड़ने लगता है।
फिर उसकी आँखें मल्लिका के मुख पर स्थिर हो जाती हैं।
ऐसे अवसरों पर उनके मन को संतुलित रखने के लिए बहुत प्रयत्न करना पड़ता है। राजनीति साहित्य नहीं है। उसमें एक-एक क्षण का महत्त्व है। कभी एक क्षण के लिए भी चूक जाएँ, तो बहुत बड़ा अनिष्ट हो सकता है। राजनीतिक जीवन की धुरी में बने रहने के लिए व्यक्ति को बहुत जागरूक रहना पड़ता है।...साहित्य उनके जीवन का पहला चरण था। अब वे दूसरे चरण में पहुँच चुके हैं। मेरा अधिक समय इसी आयास में बीतता है कि उनका बढ़ा हुआ चरण पीछे न हट जाए।...बहुत परिश्रम करना पड़ता है इसमें।
मुस्कराने का प्रयत्न करती है।
तुम ऐसा नहीं समझतीं ?
मल्लिका : मैं राजनीतिक जीवन के संबंध में कुछ भी नहीं जानती।
प्रियंगु : क्योंकि तुम ग्राम-प्रदेश में ही रही हो।
उठ खड़ी होती है। मल्लिका भी उठने लगती है , तो कंधे पर हाथ रख कर वह उसे बिठा देती है।
बैठी रहो।
निचले होंठ को थोड़ा चबाती हुई टहलने लगती है।
मैंने तुमसे कहा था कि मैं यहाँ का कुछ वातावरण साथ ले जाना चाहती हूँ। यह इसलिए कि उन्हें अभाव का अनुभव न हो। उससे कई बार बहुत क्षति होती है। वे व्यर्थ में धैर्य खो देते हैं, जिसमें समय भी जाता है, शक्ति भी। उनके समय का बहुत मूल्य है। मैं चाहती हूँ उनका समय उस तरह नष्ट न हुआ करे।
मल्लिका के सामने आ कर रुक जाती है।
इसीलिए मैं यहाँ से कई कुछ अपने साथ ले जा रही हूँ। कुछ हरिणशावक जाएँगे, जिनका हम अपने उद्यान में पालन करेंगे। यहाँ की ओषधियाँ उद्यान के क्रीड़ा-शैल पर तथा आसपास के प्रदेश में लगवा दी जाएँगी। हम यहाँ के-से कुछ घरों का भी वहाँ निर्माण करेंगे। मातुल और उनका परिवार भी साथ जाएगा। यहाँ से कुछ अनाथ बच्चों को वहाँ ले जा कर हम शिक्षा देंगे। मैं समझती हूँ इससे अंतर पड़ेगा।
फिर टहलती हुई प्रकोष्ठ के दूसरे भाग में चली जाती है।
देख रही हूँ तुम्हारा घर बहुत जर्जर स्थिति में है। इसका परिसंस्कार आवश्यक है। चाहो, तो मैं इस कार्य के लिए आदेश दे जाऊँगी। उज्जयिनी के दो कुशल स्थपति हमारे साथ आए हैं। क्यों?
मल्लिका उठ कर उसकी ओर आती है।
मल्लिका : आप बहुत उदार हैं। परंतु हमें ऐसे ही घर में रहने का अभ्यास है, इसलिए असुविधा नहीं होती।
प्रियंगु : फिर भी चाहूँगी कि इस घर का परिसंस्कार हो जाए। उनके जीवन के आरंभिक वर्षों का इस घर के साथ भी संबंध रहा है। मातुल के घर के स्थान पर मैंने नए भवन के निर्माण का आदेश दिया है। स्थपतियों से कहा है कि वे उज्जयिनी से श्लक्ष्ण शिलाएँ ला कर कार्य आरंभ करें। खेद है कि कार्य के निरीक्षण के लिए मैं स्वयं यहाँ नहीं रह पाऊँगी। कल ही हमें आगे की यात्रा आरंभ कर देनी होगी।...तुम भी हमारे साथ क्यों नहीं चलती ?
मल्लिका विमूढ़-सी उसकी ओर देखती रहती है।
मल्लिका : मैं ?
प्रियंगु पास आ कर उसके कंधे पर हाथ रख देती है।
प्रियंगु : हाँ ! इसमें बाधा क्या है ? यहाँ तुम किसी ऐसे सूत्र से तो बँधी नहीं हो कि...
मल्लिका : मेरी माँ यहाँ है।
प्रियंगु : यह कोई बाधा नहीं है। तुम्हारी माँ के भी साथ चलने की व्यवस्था हो सकती है। हमारे स्थपति इस घर का परिसंस्कार करते रहेंगे, तुम वहाँ मेरे साथ मेरी संगिनी के रूप में रहोगी।
मल्लिका के चेहरे पर आहत अभिमान की रेखाएँ प्रकट होती हैं। परंतु वह अपने को दबाए रखती है।
मल्लिका : क्षमा चाहती हूँ। मैं अपने को ऐसे गौरव की अधिकारिणी नहीं समझती।
प्रियंगु : परंतु मैं तुम्हें इससे कहीं अधिक की अधिकारिणी समझती हूँ।...मेरे आने से पहले राज्य के दो अधिकारी यहाँ आए थे।
होंठों पर फिर विदग्ध मुस्कान आ जाती है।
मैंने उन्हें औपचारिकता के लिए ही नहीं भेजा था।
मल्लिका उसका अर्थ समझने का प्रयत्न करती हुई अनिश्चित-सी उसकी ओर देखती रहती है।
मल्लिका : देखा है।
प्रियंगु : तुम उनमें से जिसे भी अपने योग्य समझो, उसी के साथ तुम्हारे विवाह का प्रबंध किया जा सकता है। दोनों योग्य अधिकारी हैं।
मल्लिका : देवि !
भोजपत्रों को वक्ष से सटाए कुछ पग आसन की ओर हट जाती। प्रियंगुमंजरी उसे सीधी दृष्टि से देखती हुई धीरे-धीरे उसके पास चली जाती है।
प्रियंगु : संभवत: तुम दोनों में से किसी को भी अपने योग्य नहीं समझती। परंतु राज्य में ये दो ही नहीं, और भी अनेक अधिकारी हैं। मेरे साथ चलो। तुम जिससे भी चाहोगी...
मल्लिका आसन पर बैठ जाती है और रुँधे आवेश से अपना होंठ काट लेती है।
मल्लिका : इस विषय की चर्चा छोड़ दीजिए।
गला रुँध जाने से शब्द स्पष्ट ध्वनित नहीं होते। अंदर का द्वार खुलता है और अंबिका रोग और आवेश के कारण शिथिल और काँपती-सी बाहर आ कर जैसे अपने को सहेजने के लिए रुकती है।
प्रियंगु : क्यों ? तुम्हारे मन में कल्पना नहीं है कि तुम्हारा अपना घर-परिवार हो ?
अंबिका धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ती है।
अंबिका : नहीं। इसके मन में यह कल्पना नहीं है।
प्रियंगु घूम कर उसकी ओर देखती है। मल्लिका अव्यवस्थित भाव से उठ खड़ी होती है।
मल्लिका : माँ !
अंबिका : इसके मन में यह कल्पना नहीं है क्योंकि यह भावना के स्तर पर जीती है। इसके लिए जीवन में...
साँस फूल जाने से शब्द गले में अटक जाते हैं। मल्लिका हाथ के पृष्ठ आसन पर रख देती है और पास जा कर अंबिका को पीठ से सहारा देती है।
मल्लिका : तुम उठ क्यों आईं, माँ ? तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक नहीं है। चलो, चल कर लेट रहो।
उसे वापस अंदर ले जाना चाहती है , परंतु अंबिका उसका हाथ अपनी पीठ से हटा देती है।
अंबिका : मैं किसी आनेवाले से बात भी नहीं कर सकती ? दिन, मास, वर्ष मुझे घुटते हुए बीत गए हैं। मेरे लिए यह घर घर नहीं, एक काल-गुफा है जिसमें मैं हर समय बंद रहती हूँ। और तुम चाहती हो, मैं किसी से बात भी न करूँ।
चलने की चेष्टा में गिरने को हो जाती है। उसे सँभाल लेती है।
मल्लिका : परंतु माँ, तुम स्वस्थ नहीं हो।
अंबिका : तुम्हारी अपेक्षा मैं फिर भी अधिक स्वस्थ हूँ।
प्रियंगु के पास जा कर उसे सिर से पैर तक देखती है।
यह घर सदा से इस स्थिति में नहीं है, राजवधू ! मेरे हाथ चलते थे, तो मैं प्रतिदिन इसे लीपती-बुहारती थी। यहाँ की हर वस्तु इस तरह गिरी-टूटी नहीं थी। परंतु आज तो हम दोनों माँ-बेटी भी यहाँ टूटी-सी पड़ी रहती हैं। यह सब इसलिए कि...।
फिर साँस फूल जाने से आगे नहीं बोल पाती प्रियंगुमंजरी प्रकोष्ठ पर दृष्टि डालने के बहाने उसके पास से हट जाती है।
प्रियंगु : मैं देख रही हूँ घर की स्थिति अच्छी नहीं है। मल्लिका मेरे साथ चल सकती, तो समस्या वैसे ही सुलझ जाती। परंतु अब...
होंठ काटती हुई जैसे सोचने के लिए क्षण भर रुकती है।
अब भी जो कुछ संभव है, मैं कर जाऊँगी। स्थपतियों को आदेश दे जाऊँगी कि इस घर को गिरा कर इसके स्थान पर...
मल्लिका चिहुँक जाती है।
मल्लिका : ऐसा मत कीजिए। इस घर को गिराने का आदेश मत दीजिए।
प्रियंगुमंजरी फिर सीधी दृष्टि से उसे देखती है।
प्रियंगु : मैं तुम्हारी सुविधा के लिए ही कह रही थी। तुम्हें इसमें असुविधा है, तो...ठीक है। मैं ऐसा आदेश नहीं दूँगी। फिर भी चाहती हूँ कि तुम्हारे लिए कुछ न कुछ कर सकूँ...। इस समय और नहीं रुक सकती। कल की यात्रा से पहले कई आवश्यक कार्य पूरे करने हैं। यूँ तो इस समय भी अवकाश नहीं था। पर मैंने आना आवश्यक समझा। वे पर्वत-शिखर की ओर घूमने गए थे। मैं उस बीच इधर चली आई। अच्छा...!
मल्लिका की उँगलियाँ उलझ जाती हैं और आँखें झुक जाती हैं। अंबिका अपने आवेश में दो-एक पग प्रियंगु की ओर बढ़ जाती है।
अंबिका : मैं तुमसे कुछ कहना चाहती थी, राजवधू ! तुम्हें बताना चाहती थी कि हम लोग...हम लोग...।
खाँसने लगती है और शब्द खाँसी में डूब जाते हैं। प्रियंगुमंजरी द्वार के पास से मुड़ कर उसकी ओर देखती है।
प्रियंगु : मैं आपका कष्ट समझ रही हूँ। जो भी सहायता मुझसे बन पड़ेगी, अवश्य करूँगी। इस समय अनुचर प्रतीक्षा कर रहे हैं, इसलिए...
गंभीर मुस्कराहट के साथ मल्लिका को देख कर सिर हिलाती है और चली जाती है। अंबिका आवेश से शिथिल उस ओर देखती रहती है। फिर गिरती-सी आसन पर बैठ जाती है और कुछ पन्ने उठा कर मल्लिका की ओर बढ़ा देती है।
अंबिका : लो, 'मेघदूत' की पंक्तियाँ पढ़ो। इन्हीं में न कहती थीं उसके अंतर की कोमलता साकार हो उठी है ? आज इस कोमलता का और भी साकार रूप देख लिया ?
मल्लिका ठगी-सी उसकी ओर देखती रहती है।
आज वह तुम्हें तुम्हारी भावना का मूल्य देना चाहता है, तो क्यों नहीं स्वीकार कर लेती? घर की भित्तियों का परिसंस्कार हो जाएगा और तुम उनके यहाँ परिचारिका बन कर रह सकोगी। इससे बड़ा और क्या सौभाग्य तुम्हें चाहिए ?
मल्लिका : राजकन्या की अपनी जीवन-दृष्टि है माँ ! उसके लिए और कोई कैसे उत्तरदायी है ?
अंबिका : परंतु राजकन्या के यहाँ आने के लिए कौन उत्तरदायी है ? नि:संदेह वह किसी की इच्छा के बिना यहाँ नहीं आई। राज्य के स्थपति से घर की भित्तियों का परिसंस्कार कर देंगे ! आज वह शासक है, उसके पास संपत्ति है। उस शासन और संपत्ति का परिचय देने के लिए इससे अच्छा और क्या उपाय हो सकता था ?
मल्लिका : परंतु माँ...।
अंबिका : माँ कुछ नहीं जानती। कुछ नहीं समझती। माँ भावना की गहराई तक नहीं जाती। माँ...।
फिर खाँसी उठ आने से आगे नहीं बोल पाती। विलोम बाहर से आता है।
विलोम : इस तरह क्षुब्ध क्यों हो, अंबिका ...? आज तो सारा ग्राम तुम्हारे सौभाग्य पर तुमसे स्पर्द्धा कर रहा है।
अर्थपूर्ण दृष्टि से मल्लिका की ओर देखता है। मल्लिका आँखें बचा कर दूसरी ओर हट जाती है।
राजकीय पगधूलि घर में पड़ती है, तो लोग गौरव का अनुभव करते हैं। ऐसा अवसर हर किसी के जीवन में कहाँ आता है ?
अंबिका : यह अवसर देखने के लिए ही तो मैंने आज तक का जीवन जिया है ! इतना बड़ा सौभाग्य हमारे क्षुद्र जीवन में कहाँ समा सकता है !
उठ खड़ी होती है।
चलो, मैं स्वयं चल कर सारे ग्राम में इस सौभाग्य की घोषणा करूँगी। हमारे वर्षों के अभाव और दुख कितना बड़ा फल लाए हैं कि राज्य के स्थपति हमारे घर की भित्तियों का परिसंस्कार कर देंगे !
विलोम : बैठ जाओ, अंबिका ! आज ग्राम के पास तुम्हारी बात सुनने का अवकाश नहीं है।
टहलता हुआ झरोखे के पास चला जाता है।
ग्राम के लोग आज व्यस्त हैं। उन्हें बाहर से आए अतिथियों के लिए कई तरह की सामग्री जुटानी है। अतिथि आज यहाँ के पत्थर तक बटोर कर ले जाना चाहते हैं।
मल्लिका : यहाँ के पत्थर पहले भी मूलयवान थे, आर्य विलोम ! यह और बात है कि पहले किसी ने उनका मूल्य समझा नहीं।
अंबिका आवेश में कई पग उसकी ओर बढ़ जाती है।
अंबिका : तो जा कर तुम भी बटोर क्यों नहीं लेती ? संभव है फिर लोग यहाँ कोई पत्थर शेष न रहने दें और तुम्हारी भावना के लिए कोई आधार ही न रह जाए !
मल्लिका : बैठ जाओ, माँ, तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक नहीं है।
उसे बाँह से पकड़ कर आसन पर बिठा देती है।
विलोम : ग्राम में चारों ओर बहुत उत्साह है। यह दिन इस प्रदेश के जीवन का सबसे बड़ा उत्सव है। लोग आज अपने पशुओं की चिंता नहीं कर रहे। वे अतिथियों के लिए भोजन और पान की सामग्री जुटाने में व्यस्त हैं। उस सामग्री में कुछ हरिणशावक भी होंगे जो राजकन्या के विशेष आदेश पर एकत्रित किए जा रहे हैं।
मल्लिका : यह सच नहीं है।
विलोम : सच नहीं है ? इंद्र वर्मा और विष्णुदत्त को राजकन्या ने स्वयं आदेश दिया है कि...।
मल्लिका : उस आदेश का कुछ और अर्थ भी हो सकता है।
विलोम : और अर्थ ? क्या और अर्थ हो सकता है ? क्या राजकन्या हरिणशावकों से खेला करेंगी ? या उज्जयिनी के कलाकार उनकी अनुकृतियाँ बनाएँगे ? यह भी एक मनोरंजक विषय है कि राज-परिवार के साथ आए राजधानी के कलाकार आज यहाँ की हर वस्तु की अनुकृतियाँ बनाते घूम रहे हैं। यहाँ का कोई पेड़, पत्ता, तिनका शेष नहीं रहेगा जिनकी वे अनुकृति बना कर नहीं ले जाएँगे।
मल्लिका : इसका भी कुछ दूसरा अर्थ हो सकता है।
विलोम झरोखे के पास से हट कर उसकी ओर आता है।
विलोम : मैं कब कहता हूँ कि दूसरा अर्थ नहीं है ? अर्थ बहुत स्पष्ट है। वे यहाँ की हर वस्तु को विचित्र के रूप में देखते हैं और उस वैचित्र्य को यहाँ से जा कर दूसरों को दिखाना चाहते हैं। तुम, मैं, यह घर, ये पर्वत, सब उनके लिए विचित्र के उदाहरण हैं। मैं तो उनकी सूक्ष्म और समर्थ दृष्टि की प्रशंसा करता हूँ जो यहाँ वैचित्र्य नहीं, वहाँ भी वैचित्र्य देख लेती है। एक कलाकार को मैंने यहाँ की धूप में अपनी छाया की अनुकृति बनाते देखा है।
अंबिका : यहाँ की धूप में उन्हें अपनी छायाएँ अवश्य और-सी लगती होंगी !...वह कौन राक्षसी थी जो जिस किसी जीव को उसकी छाया से पकड़ लेती थी ?
बोलते-बोलते फिर हाँफने लगती है।
मैं चाहती हूँ मैं ही वह राक्षसी होती जिससे आज मैं...आज मैं...।
खाँसी उठ आने से शब्द डूब जाते हैं। मल्लिका पास जा कर उसके कंधों को सहारा देती है।
मल्लिका : तुमसे कहा है माँ, तुम विश्राम करो। बात मत करो।...आर्य विलोम, माँ का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। इन्हें इस समय विश्राम करने दीजिए।
विलोम : हाँ, अंबिका को तुम अंदर ले जाओ। ग्राम का उत्सव-कोलाहल अंबिका के मन को और अशांत करेगा। मैं तो केवल उत्सव की सूचना देने आया था।...आश्चर्य है कि कालिदास ने यहाँ आना उचित नहीं समझा। कल तो सुनते हैं वे लोग चले भी जाएँगे।
अंबिका : उसने आना उचित नहीं समझा, क्योंकि वह जानता है अंबिका अभी जीवित है।
विलोम : परंतु मैं समझता हूँ वह एक बार आएगा अवश्य। उसे आना चाहिए। व्यक्ति किसी संबंध को ऐसे नहीं तोड़ता।
फिर टहलता हुआ झरोखे के पास चला जाता है।
और विशेष रूप से वह, जिसे एक कवि का कोमल हृदय प्राप्त हो। तुम क्या सोचती हो, मल्लिका ? उसे एक बार आना नहीं चाहिए ?
मल्लिका : मैंने आपसे अनुरोध किया है आर्य विलोम, कि इस समय माँ को विश्राम करने दीजिए। आपकी बातों से माँ का मन विक्षुब्ध होता है।
विलोम : मेरी बातों से अंबिका का मन विक्षुब्ध होता है ? मैं समझता हूँ उसके कारण दूसरे हैं। अंबिका जानती है किन कारणों से उसका मन विक्षुब्ध होता है।
झरोखे से बाहर देखने लगता है।
मैं भी उन कारणों को समझता हूँ। इसलिए बहुत-सी बातें, जो अंबिका के मन में रहती हैं, मैं मुँह से कह देता हूँ।
मुड़ कर मल्लिका की ओर देखता है।
तुम्हें मेरा यहाँ होना अखर रहा है, मैं जानता हूँ। यह कोई नई बात नहीं। परंतु मैं कुछ ही देर और यहाँ रहना चाहता हूँ।
फिर बाहर देखने लगता है।
पर्वत-शिखर की ओर से एक अश्वारोही को आते देख रहा हूँ। संभव है इस बार कुछ क्षणों के लिए वह यहाँ रुकना चाहे ! उस स्थिति में मैं भी उससे कुशल-क्षेम पूछ लूँगा। मेरी उससे पुरानी मित्रता है।
मल्लिका जैसे आपे से बाहर होने लगती है।
मल्लिका : आर्य विलोम, उस स्थिति में आपका यहाँ होना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। आप उनसे मिलना चाहें, तो उसके लिए यही एक स्थान नहीं है।
विलोम उसी तरह बाहर देखता रहता है।
विलोम : परंतु यही स्थान क्या बुरा है ? उसके जाने के दिन भी हम यहीं पर मिले थे। वर्षों के बाद उसी स्थान पर मिलने से अंतराल का अनुभव नहीं होगा।
मल्लिका विलोम के पास चली जाती है और उसे बाँह से पकड़ कर झरोखे से हटा देना चाहती है।
मल्लिका : मैं अनुरोध करती हूँ आप इस समय यहाँ ठहरने का हठ न करें।
विलोम अपने स्थान से नहीं हिलता। दूर से घोड़े की टापों का शब्द सुनाई देने लगता है।
...मैं कह रही हूँ आप चले जाएँ। यह मेरा घर है। मैं नहीं चाहती, आप इस समय मेरे घर में हों।
विलोम फिर भी उसी तरह खड़ा रहता है। टापों का शब्द पास आता जाता है। मल्लिका उधर से हट कर अंबिका के पास आ जाती है।
माँ, इनसे कहो यहाँ से चले जाएँ। मैं नहीं चाहती इस समय यहाँ कोई अयाचित स्थिति उत्पन्न हो। तुम स्वस्थ नहीं हो, और मैं नहीं चाहती कि कोई भी ऐसी बात हो जिसका तुम्हारे स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़े।
अंबिका उसके हिलाने से इस तरह हिलती है जैसे वह जड़ हो गई हो। उसके माथे पर त्योरियाँ पड़ी हैं और आँखें बिना पलक झपके सामने देख रही हैं। टापों का शब्द बहुत पास आ जाता है। मल्लिका फिर विलोम के पास चली जाती है।
मल्लिका : आर्य विलोम, मैंने आपसे कहा है आप यहाँ से चले जाएँ। आप नहीं जानते कि...।
टापों का शब्द पास आ कर दूर जाने लगता है। मल्लिका ऐसे स्तब्ध हो रहती है जैसे उसे काठ मार गया हो। विलोम धीरे से मुड़ कर उसकी ओर देखता है।
विलोम : चला जाता हूँ।
कंठ से हल्का व्यंग्यात्मक स्वर निकलता है।
मैं नहीं चाहता मेरे कारण यहाँ कोई अयाचित स्थिति उत्पन्न हो। परंतु क्या अयाचित स्थिति उत्पन्न हो सकती है, जान सकता हूँ ?
झरोखे से हट कर प्रकोष्ठ के बीच में आ जाता है।
क्यों अंबिका, मेरे यहाँ रहने से क्या अयाचित स्थिति उत्पन्न हो सकती है ?
अंबिका : मैं जानती थी। आज नहीं, तब से ही जानती थी। वह आता, तो मुझे आश्चर्य होता। अब मुझे आश्चर्य नहीं है।
स्वर ऊँचा उठता जाता है। मल्लिका जैसे सारी शक्ति खो कर , धीरे-धीरे आसन पर बैठ जाती है।
कोई आश्चर्य नहीं है। प्रसन्नता है कि मैं उसके संबंध में ठीक सोचती थी। जीवन एक भावना है ! कोमल भावना ! बहुत-बहुत कोमल भावना !
विलोम : परंतु मुझे खेद है। वर्षों से इस दिन की प्रतीक्षा थी। अपनी मित्रता पर भरोसा भी था...!
अर्थपूर्ण दृष्टि से मल्लिका की ओर देखता है।
परंतु अब भरोसा नहीं रहा। संभवत: यह मित्रता एक ओर से ही थी। उसने कभी हमें अपनी मित्रता के योग्य नहीं समझा। फिर समान की समान से मित्रता होती है...।
मल्लिका सहसा उठ खड़ी होती है। उसकी आँखों से हताशा की कठोरता झलक रही है।
मल्लिका : आर्य विलोम !
विलोम ऐसी दृष्टि से उसे देखता है , जैसे किसी बच्चे से खेल रहा हो।
मैं फिर कह रही हूँ आप चले जाएँ। अन्यथा वास्तव में ही यहाँ एक अयाचित स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।
विलोम : ऐसा ?...
मुस्करा कर अंबिका की ओर देखता है।
तब तो मुझे अवश्य चले जाना चाहिए।...अच्छा अंबिका ! तुम्हारे स्वास्थ्य की मुझे बहुत चिंता रहती है। जहाँ तक संभव हो, घृत और मधु का सेवन करो। मैंने अभी-अभी नया मधु निकाला है। आवश्यकता हो, तो मैं तुम्हारे लिए...
मल्लिका : हमें मधु की आवश्यकता नहीं है। हमारे घर में मधु पर्याप्त मात्रा में है।
विलोम : ऐसा ?...अच्छा, अंबिका !
क्षण भर दोनों की ओर देखता रहता है , फिर चल देता है। द्वार के पास पहुँच कर फिर रुक जाता है।
...पर कभी मधु की आवश्यकता पड़ ही जाए, तो संकोच मत करना।
फिर चला जाता है। मल्लिका क्षण-भर सिर झुकाए दबी-सी खड़ी रहती है। फिर अपने को सँभाल पाने में असमर्थ , अंदर को चल देती है। अंबिका का भाव आवेश में हताशा और हताशा से करुणा में बदल जाता है।
अंबिका : मल्लिका !
मल्लिका रुक जाती है। पर कुछ भी उत्तर न दे कर मुँह हाथों में छिपा लेती है। अंबिका उठ कर धीरे-धीरे उसके पास आ जाती है और उसे बाँहों में ले लेती है। मल्लिका अंबिका के वक्ष में मुँह छिपा लेती है। सारा शरीर रुलाई से काँपता रहता है , पर गले से स्वर नहीं निकलता। अंबिका की आँखें भर आती हैं और वह उसके काँपते शरीर को अपने से सटाए उसकी पीठ पर हाथ फेरती रहती है। फिर होंठों और गालों से उसके सिर को दुलारने लगती है।
अंबिका : अब भी रोती हो ? उसके लिए ? उस व्यक्ति के लिए जिसने...?
मल्लिका : उनके संबंध में कुछ मत कहो माँ, कुछ मत कहो...।
सिसकने लगती है। अंबिका उसे सहारे से वहीं बिठा लेती है और उसकी सिसकती पीठ पर झुक जाती है।