आषाढ़ का एक दिन / अंक 1 / मोहन राकेश

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पात्र परिचय

अंबिका : ग्राम की एक वृद्धा

मल्लिका : वृद्धा की पुत्री

कालिदास : कवि

दंतुल : राजपुरुष

मातुल : कवि मातुल

निक्षेप : ग्राम-पुरुष

विलोम : ग्राम-पुरुष

रंगिणी : नागरी

संगिनी : नागरी

अनुस्वार : अधिकारी

अनुनासिक: अधिकारी

प्रियंगुमंजरी: राज कन्या -- कवि-पत्नी


अंक एक

परदा उठने से पूर्व हलका-हलका मेघ-गर्जन और वर्षा का शब्द, जो परदा उठने के अनंतर भी कुछ क्षण चलता रहता है। फिर धीरे-धीरे धीमा पड़ कर विलीन हो जाता है।

परदा धीरे-धीरे उठता है।

एक साधारण प्रकोष्ठ। दीवारें लकड़ी की हैं, परंतु निचले भाग में चिकनी मिट्टी से पोती गई हैं। बीच-बीच में गेरू से स्वस्तिक-चिह्न बने हैं। सामने का द्वार अँधेरी ड्योढ़ी में खुलता है। उसके दोनों ओर छोटे-छोटे ताक हैं जिनमें मिट्टी के बुझे हुए दीए रखे हैं। बाईं ओर का द्वार दूसरे प्रकोष्ठ में जाने के लिए है। द्वार खुला होने पर उस प्रकोष्ठ में बिछे तल्प का एक कोना ही दिखाई देता है। द्वारों के किवाड़ भी मिट्टी से पोते गए हैं और उन पर गेरू एवं हल्दी से कमल तथा शंख बनाए गए हैं। दाईं ओर बड़ा-सा झरोखा है, जहाँ से बीच-बीच में बिजली कौंधती दिखाई देती है।

प्रकोष्ठ में एक ओर चूल्हा है। आस-पास मिट्टी और काँसे के बरतन सहेज कर रखे हैं। दूसरी ओर , झरोखे से कुछ हट कर तीन-चार बड़े-बड़े कुंभ रखे हैं जिन पर कालिख और काई जमी है। उन्हें कुशा से ढक कर ऊपर पत्थर रख दिए गए हैं।

झरोखे से सटा एक लकड़ी का आसन है , जिस पर बाघ-छाल बिछी है। चूल्हे के निकट दो चौकियाँ हैं। उन्हीं में से एक पर बैठी अंबिका छाज में धान फटक रही है। एक बार झरोखे की ओर देख कर वह लंबी साँस लेती है फिर व्यस्त हो जाती है।

सामने का द्वार खुलता है और मल्लिका गीले वस्त्रों में काँपती-सिमटती अंदर आती है। अंबिका आँखें झुकाए व्यस्त रहती है। मल्लिका क्षण-भर ठिठकती है , फिर अंबिका के पास आ जाती है।

मल्लिका : आषाढ़ का पहला दिन और ऐसी वर्षा, माँ !...ऐसी धारासार वर्षा ! दूर-दूर तक की उपत्यकाएँ भीग गईं।...और मैं भी तो ! देखो न माँ, कैसी भीग गई हूँ !

अंबिका उस पर सिर से पैर तक एक दृष्टि डाल कर फिर व्यस्त हो जाती है। मल्लिका घुटनों के बल बैठ कर उसके कंधे पर सिर रख देती है।

गई थी कि दक्षिण से उड़ कर आती बकुल-पंक्तियों को देखूँगी, और देखो सब वस्त्र भिगो आई हूँ।

उसके केशों को चूम कर खड़ी होती हुई ठंड से सिहर जाती है।

सूखे वस्त्र कहाँ हैं माँ ? इस तरह खड़ी रही तो जुड़ा जाऊँगी।...तुम बोलतीं क्यों नहीं ?

अंबिका आक्रोश की दृष्टि से उसे देखती है।

अंबिका : सूखे वस्त्र अंदर तल्प पर हैं।

मल्लिका : तुमने पहले से ही निकाल कर रख दिए ?

अंदर को चल देती है।

तुम्हें पता था मैं भीग जाऊँगी। और मैं जानती थी तुम चिंतित होगी। परंतु माँ...

द्वार के पास मुड़ कर अंबिका की ओर देखती है।

...मुझे भीगने का तनिक खेद नहीं। भीगती नहीं तो आज मैं वंचित रह जाती।

द्वार से टेक लगा लेती है।

चारों ओर धुआँरे मेघ घिर आए थे। मैं जानती थी वर्षा होगी। फिर भी मैं घाटी की पगडंडी पर नीचे-नीचे उतरती गई। एक बार मेरा अंशुक भी हवा ने उड़ा दिया। फिर बूँदें पड़ने लगीं।

अंबिका से आँखें मिल जाती हैं।

वस्त्र बदल लूँ, फिर आ कर तुम्हें बताती हूँ। वह बहुत अद्भुत अनुभव था माँ, बहुत अद्भुत।

अंदर चली जाती है। अंबिका उठ कर फटके हुए धान को एक कुंभ में डाल देती है और दूसरे कुंभ से नया धान निकाल लेती है। अंदर के प्रकोष्ठ से मल्लिका के शब्द सुनाई देते रहते हैं। बीच-बीच में उसकी झलक भी दिखाई दे जाती है।

नील कमल की तरह कोमल और आद्र्र, वायु की तरह हल्का और स्वप्न की तरह चित्रमय ! मैं चाहती थी उसे अपने में भर लूँ और आँखें मूँद लूँ।...मेरा तो शरीर भी निचुड़ रहा है माँ ! कितना पानी इन वस्त्रों ने पिया है ! ओह !

शीत की चुभन के बाद उष्णता का यह स्पर्श !

गुनगुनाने लगती है।

कुवलयदलनीलैरुन्नतैस्तोयनम्रै:...गीले वस्त्र कहाँ डाल दूँ माँ ? यहीं रहने दूँ ?

मृदुपवनविधूतैर्मंदमंदं चलद्भि:...अपहृतमिव चेतस्तोयदै: सेंद्रचापै:... पथिकजनवधूनां तद्वियोगाकुलानाम।

बाहर आ जाती है।

माँ, आज के वे क्षण मैं कभी नहीं भूल सकती। सौंदर्य का ऐसा साक्षात्कार मैंने कभी नहीं किया। जैसे वह सौंदर्य अस्पृश्य होते हुए भी मांसल हो। मैं उसे छू सकती थी, देख सकती थी, पी सकती थी। तभी मुझे अनुभव हुआ कि वह क्या है जो भावना को कविता का रूप देता है। मैं जीवन में पहली बार समझ पाई कि क्यों कोई पर्वत-शिखरों को सहलाती मेघ-मालाओं में खो जाता है, क्यों किसी को अपने तन-मन की अपेक्षा आकाश में बनते-मिटते चित्रों का इतना मोह हो रहता है।...क्या बात है माँ ? इस तरह चुप क्यों हो ?

अंबिका : देख रही हो मैं काम कर रही हूँ।

मल्लिका : काम तो तुम हर समय करती हो। परंतु हर समय इस तरह चुप नहीं रहतीं।

अंबिका के पास आ बैठती है। अंबिका चुपचाप धान फटकती रहती है। मल्लिका उसके हाथ से छाज ले लेती है।

मैं तुम्हें काम नहीं करने दूँगी।...मुझसे बात करो।

अंबिका : क्या बात करूँ ?

मल्लिका : कुछ भी कहो। मुझे डाँटो कि भीग कर क्यों आई हूँ। या कहो कि तुम थक गई हो, इसलिए शेष धान मैं फटक दूँ। या कहो कि तुम घर में अकेली थीं, इसलिए तुम्हें अच्छा नहीं लग रहा था।

अंबिका : मुझे सब अच्छा लगता है।

छाज उससे ले लेती है।

और मैं घर में दुकेली कब होती हूँ ? तुम्हारे यहाँ रहते मैं अकेली नहीं होती ?

मल्लिका : मैं तुम्हें काम नहीं करने दूँगी।

फिर छाज उसके हाथ से ले लेती है और कुंभों के पास रख आती है।

मेरे घर में रहते भी तुम अकेली होती हो ?...कभी तो मेरी भर्त्सना करती हो कि मैं घर में रह कर तुम्हारे सब कामों में बाधा डालती हूँ, और कभी कहती हो...

पीठ के पीछे से उसके गले में बाँहें डाल देती है।

मुझे बताओ तुम इतनी गंभीर क्यों हो ?

अंबिका : दूध औटा दिया है। शर्करा मिला लो और पी लो...।

मल्लिका : नहीं, तुम पहले बताओ।

अंबिका : और जा कर थोड़ी देर तल्प पर विश्राम कर लो। मुझे अभी...।

मल्लिका : नहीं माँ, मुझे विश्राम नहीं करना है। थकी कहाँ हूँ जो विश्राम करूँ ? मुझे तो अब भी अपने में बरसती बूँदों के पुलक का अनुभव हो रहा है। रोम अभी तक सीज रहे हैं।...तुम बताती क्यों नहीं हो ? ऐसे करोगी तो मैं भी तुमसे बात नहीं करूँगी।

अंबिका कुछ न कह कर आँचल से आँखें पोंछती है और उसे पीछे से हटा कर पास की चौकी पर बैठा देती है। मल्लिका क्षण भर चुपचाप उसकी ओर देखती रहती है।

क्या हुआ है, माँ ! तुम रो क्यों रही हो ?

अंबिका : कुछ नहीं मल्लिका ! कभी बैठे-बैठे मन उदास हो जाता है।

मल्लिका : बैठे-बैठे मन उदास हो जाता है, परंतु बैठे-बैठे रोया तो नहीं जाता।...तुम्हें मेरी सौगंध है माँ, जो मुझे नहीं बताओ।

दूर कुछ कोलाहल और घोड़ों की टापों का शब्द सुनाई देता है। अंबिका उठ कर झरोखे के पास चली जाती है। मल्लिका क्षण-भर बैठी रहती है , फिर वह भी जा कर झरोखे से देखने लगती है। टापों का शब्द पास आ कर दूर चला जाता है।

मल्लिका : ये कौन लोग हैं माँ ?

अंबिका : संभवत: राज्य के कर्मचारी हैं।

मल्लिका : ये यहाँ क्या कर रहे हैं ?

अंबिका : जाने क्या कर रहे हैं !...कभी वर्षों में ये आकृतियाँ यहाँ दिखाई देती हैं। और जब भी दिखाई देती हैं, कोई न कोई अनिष्ट होता है। कभी युद्ध की सूचना आती है कभी महामारी की।

लंबी साँस लेती है।

पिछली महामारी में जब तुम्हारे पिता की मृत्यु हुई, तब भी मैंने ये आकृतियाँ यहाँ देखी थीं।

मल्लिका सिर से पैर तक सिहर जाती है।

मल्लिका : परंतु आज ये लोग यहाँ किसलिए आए हैं ?

अंबिका : न जाने किसलिए आए हैं।

अंबिका फिर छाज उठाने लगती है , परंतु मल्लिका उसे बाँह से पकड़ कर रोक लेती है।

मल्लिका : माँ, तुमने बात नहीं बताई।

अंबिका पल-भर उसे स्थिर दृष्टि से देखती रहती है। उसकी आँखें झुक जाती हैं।

अंबिका : अग्निमित्र आज लौट आया है।

छाज उठा कर अपने स्थान पर चली जाती है। मल्लिका वहीं खड़ी रहती है।

मल्लिका : लौट आया है ? कहाँ से ?

अंबिका : जहाँ मैंने उसे भेजा था।

मल्लिका : तुमने भेजा था ?

होंठ फड़फड़ाने लगते हैं। वह बढ़ कर अंबिका के पास आ जाती है।

किंतु मैंने तुमसे कहा था, अग्निमित्र को कहीं भेजने की आवश्यकता नहीं है।

क्रमश: स्वर में और उत्तेजना आ जाती है।

तुम जानती हो मैं विवाह नहीं करना चाहती, फिर उसके लिए प्रयत्न क्यों करती हो ? तुम समझती हो मैं निरर्थक प्रलाप करती हूँ ?

अंबिका धान को मुट्ठी में ले-ले कर जैसे मसलती हुई छाज में गिराने लगती है।

अंबिका : मैं देख रही हूँ तुम्हारी बात ही सच होने जा रही है। अग्निमित्र संदेश लाया है कि वे लोग इस संबंध के लिए प्रस्तुत नहीं हैं। कहते हैं...

मल्लिका : क्या कहते हैं ? क्या अधिकार है उन्हें कुछ भी कहने का ? मल्लिका का जीवन उसकी अपनी संपत्ति है। वह उसे नष्ट करना चाहती है तो किसी को उस पर आलोचना करने का क्या अधिकार है ?

अंबिका : मैं कब कहती हूँ मुझे अधिकार है ?

मल्लिका सिर झटक कर अपनी उत्तेजना को दबाने का प्रयत्न करती है।

मल्लिका : मैं तुम्हारे अधिकार की बात नहीं कह रही।

अंबिका : तुम न कहो, मैं कह रही हूँ। आज तुम्हारा जीवन तुम्हारी संपत्ति है। मेरा तुम पर कोई अधिकार नहीं है।

मल्लिका पास की चौकी पर बैठ कर उसके कंधे पर हाथ रख देती है।

मल्लिका : ऐसा क्यों नहीं कहती हो ?...तुम मुझे समझने का प्रयत्न क्यों नहीं करती ?

अंबिका उसका हाथ कंधे से हटा देती है।

अंबिका : मैं जानती हूँ तुम पर आज अपना अधिकार भी नहीं है। किंतु...इतना बड़ा अपवाद मुझसे नहीं सहा जाता है।

मल्लिका बाँहें घुटनों पर रख कर उन पर सिर टिका लेती है।

मल्लिका : मैं जानती हूँ माँ, अपवाद होता है। तुम्हारे दु:ख की बात भी जानती हूँ। फिर भी मुझे अपराध का अनुभव नहीं होता। मैंने भावना में एक भाव का वरण किया है। मेरे लिए वह संबंध और सब संबंधों से बड़ा है। मैं वास्तव में अपनी भावना से प्रेम करती हूँ जो पवित्र है, कोमल है, अनश्वर है...।

अंबिका के चेहरे पर रेखाएँ खिंच जाती हैं।

अंबिका : और मुझे ऐसी भावना से वितृष्णा होती है। पवित्र, कोमल और अनश्वर ! हँ !

मल्लिका : माँ, तुम मुझ पर विश्वास कयों नहीं करती ?

अंबिका : तुम जिसे भावना कहती हो वह केवल छलना और आत्म-प्रवंचना है।...भावना में भाव का वरण किया है !...मैं पूछती हूँ भावना में भाव का वरण क्या होता है ? उससे जीवन की आवश्यकताएँ किस तरह पूरी होती हैं ?...भावना में भाव का वरण ! हँ !

मल्लिका क्षण भर छत की ओर देखती रहती है !

मल्लिका : जीवन की स्थूल आवश्यकताएँ ही तो सब कुछ नहीं हैं, माँ ! उनके अतिरिक्त भी तो बहुत कुछ है।

अंबिका फिर धान फटकने लगती है।

अंबिका : होगा, मैं नहीं जानती।

मल्लिका कुछ क्षण अंबिका की ओर देखती रहती है।

मल्लिका : सच तो यह है माँ, कि ग्राम के अन्य व्यक्तियों की तरह तुम भी उन्हें संदेह और वितृष्णा की दृष्टि से देखती हो।

अंबिका : ग्राम के अन्य लोग उसे उतना नहीं जानते जितना में जानती हूँ।

क्षण भर दोनों की आँखें मिली रहती हैं।

मैं उससे घृणा करती हूँ।

मल्लिका के चेहरे पर व्यथा , आवेश तथा विवशता की रेखाएँ एक साथ खिंच जाती हैं।

मल्लिका : माँ !

अंबिका : अन्य लोगों को उससे क्या प्रयोजन है ! परंत मुझे है। उसके प्रभाव से मेरा घर नष्ट हो रहा है।

ड्योढ़ी की ओर से कालिदास के शब्द सुनाई देने लगते हैं। अंबिका के माथे की रेखाएँ गहरी हो जाती हैं। वह छाज लिए उठ खड़ी होती है। क्षण भर ड्योढ़ी की ओर देखती रहती है , फिर अंदर को चल देती है।

मल्लिका : ठहरो माँ, तुम चल क्यों दीं ?

अंबिका : माँ का जीवन भावना नहीं, कर्म है। उसे घर में बहुत कुछ करना है।

चली जाती है। कालिदास एक हरिण-शावक को बाँहों में लिए पुचकारता हुआ आता है। हरिण शावक के शरीर से लहू टपक रहा है।

कालिदास : हम जिएँगे, हरिणशावक! जिएँगे न ? एक बाण से आहत हो कर हम प्राण नहीं देंगे। हमारा शरीर कोमल है, तो क्या हुआ ? हम पीड़ा सह सकते हैं। एक बाण प्राण ले सकता है, तो उँगलियों का कोमल स्पर्श प्राण दे भी सकता है। हमें नए प्राण मिल जाएँगे। हम कोमल आस्तरण पर विश्राम करेंगे। हमारे अंगों पर घृत का लेप होगा। कल हम फिर वनस्थली में घूमेंगे। कोमल दूर्वा खाएँगे। खाएँगे न ?

मल्लिका अपने को सहेज कर द्वार की ओर जाती है।

मल्लिका : यह आहत हरिणशावक ?...यहाँ ऐसा कौन व्यक्ति है जिसने इसे आहत किया ? क्या दक्षिण की तरह यहाँ भी... ?

कालिदास : आज ग्राम-प्रदेश में कई नई आकृतियाँ देख रहा हूँ।

झरोखे के पास जा कर आसन पर बैठ जाता है।

राज्य के कुछ कर्मचारी आए हैं।

हरिणशावक को वक्ष से सटा कर थपथपाने लगता है।

हम सोएँगे ? हाँ, हम थोड़ी देर सो लेंगे तो हमारी पीड़ा दूर हो जाएगी। परंतु उससे पहले हमें थोड़ा दूध पी लेना है।...मल्लिका, थोड़ा दूध हो तो किसी भाजन में ले आओ।

मल्लिका : माँ ने दूध औटा कर रखा है। देखती हूँ।

चूल्हे के निकट रखे बरतनों के पास जा कर देखने लगती है।

अभी-अभी दो-तीन राज-कर्मचारियों को हमने घोड़ों पर जाते देखा है। माँ कहती हैं कि जब भी ये लोग आते हैं, कोई न कोई अनिष्ट होता है। वर्षा के रोमांच के बाद...मुझे यह सब बहुत विचित्र लगा।

दूध का बरतन उठा कर दूध खुले बरतन में उँड़ेलने लगती है।

माँ आज बहुत रुष्ट हैं।

कालिदास हरिणशावक को बाँहों में झुलाने लगता है।

कालिदास : हम पहले से सुखी हैं। हमारी पीड़ा धीरे-धीरे दूर हो रही है। हम स्वस्थ हो रहे हैं।...न जाने इसके रूई जैसे कोमल शरीर पर उससे बाण छोड़ते बना कैसे ? यह कुलाँच भरता मेरी गोद में आ गया। मैंने कहा, तुझे वहाँ ले चलता हूँ जहाँ तुझे अपनी माँ की-सी आँखें और उसका-सा ही स्नेह मिलेगा।

मल्लिका की ओर देखता है। मल्लिका दूध लिए पास आ जाती है।

मल्लिका : सच, माँ आज बहुत रुष्ट हैं। माँ को अनुमान हो गया होगा कि वर्षा में मैं तुम्हारे साथ थी, नहीं तो इस तरह भीग कर न आती। माँ को अपवाद की बहुत चिंता रहती है...।

कालिदास : दूध मुझे दे दो और इसे बाँहों में ले लो।

दूध का भाजन उसके हाथ से ले लेता है। मल्लिका हरिणशावक को बाँहों में ले कर उसका मुँह दूध के निकट ले जाती है। कालिदास भाजन को उसके और निकट कर देता है।

हम दूध नहीं पिएँगे ? नहीं हम ऐसा हठ नहीं करेंगे ! हम दूध अवश्य पिएँगे।

राजपुरुष दंतुल ड्योढ़ी से आ कर द्वार के पास रुक जाता है। क्षण-भर वह उन्हें देखता रहता है। कालिदास हरिण का मुँह दूध से मिला देता है।

ऐसे...ऐसे।

दंतुल बढ़ कर उनके निकट आता है।

दंतुल : दूध पिला कर इसके माँस को और कोमल कर लेना चाहते हो ?

कालिदास और मल्लिका चौंक कर उसे देखते हैं। मल्लिका हरिणशावक को लिए थोड़ा पीछे हट जाती है। कालिदास दूध का भाजन आसन पर रख देता है।

कालिदास : जहाँ तक मैं जानता हूँ, हम लोग परिचित नहीं हैं। तुम्हारा एक अपरिचित घर में आने का साहस कैसे हुआ ?

दंतुल एक बार मल्लिका की ओर देखता है , फिर कालिदास की ओर।

दंतुल : कैसी आकस्मिक बात है कि ऐसा ही प्रश्न मैं तुमसे पूछना चाहता था। हमारा कभी का परिचय नहीं, फिर भी मेरे बाण से आहत हरिण को उठा ले आने में तुम्हें संकोच नहीं हुआ ? यह तो कहो कि द्वार तक रक्त-बिंदुओं के चिह्न बने हैं, अन्यथा इन बादलों से घिरे दिन में मैं तुम्हारा अनुसरण कर पाता ?

कालिदास : देख रहा हूँ कि तुम इस प्रदेश के निवासी नहीं हो।

दंतुल व्यंग्यात्मक हँसी हँसता है।

दंतुल : मैं तुम्हारी दृष्टि की प्रशंसा करता हूँ। मेरी वेशभूषा ही इस बात का परिचय देती है कि मैं यहाँ का निवासी नहीं हूँ।

कालिदास : मैं तुम्हारी वेशभूषा को देख कर नहीं कह रहा।

दंतुल : तो क्या मेरे ललाट की रेखाओं को देख कर ? जान पड़ता है चोरी के अतिरिक्त सामुद्रिक का भी अभ्यास करते हो।

मल्लिका चोट खाई-सी कुछ आगे आती है।

मल्लिका : तुम्हें ऐसा लांछन लगाते लज्जा नहीं आती ?

दंतुल : क्षमा चाहता हूँ, देवि। परंतु यह हरिणशावक, जिसे बाँहों में लिए हैं, मेरे बाण से आहत हुआ है। इसलिए यह मेरी संपत्ति है। मेरी संपत्ति मुझे लौटा तो देंगी ?

कालिदास : इस प्रदेश में हरिणों का आखेट नहीं होता राजपुरुष ! तुम बाहर से आए हो, इसलिए इतना ही पर्याप्त है कि हम इसके लिए तुम्हें अपराधी न मानें।

दंतुल : तो राजपुरुष के अपराध का निर्णय ग्रामवासी करेंगे ! ग्रामीण युवक, अपराध और न्याय का शब्दार्थ भी जानते हो !

कालिदास : शब्द और अर्थ राजपुरुषों की संपत्ति है, जान कर आश्चर्य हुआ।

दंतुल : समझदार व्यक्ति जान पड़ते हो। फिर भी यह नहीं जानते हो कि राजपुरुषों के अधिकार बहुत दूर तक जाते हैं। मुझे देर हो रही है। यह हरिणशावक मुझे दे दो।

कालिदास : यह हरिणशावक इस पार्वत्य-भूमि की संपत्ति है, राजपुरुष ! और इसी पार्वत्य-भूमि के निवासी हम इसके सजातीय हैं। तुम यह सोच कर भूल कर रहे हो कि हम इसे तुम्हारे हाथ में सौंप देंगे।...मल्लिका, इसे अंदर ले जा कर तल्प पर या किसी आस्तरण पर...

अंबिका सहसा अंदर से आती है।

अंबिका : इस घर के तल्प और आस्तरण हरिणशावकों के लिए नहीं हैं।

मल्लिका : तुम देख रही हो माँ... !

अंबिका : हाँ, देख रही हूँ। इसीलिए तो कह रही हूँ। तल्प और आस्तरण मनुष्यों के सोने के लिए हैं, पशुओं के लिए नहीं।

कालिदास : इसे मुझे दे दो, मल्लिका !

दूध का भाजन नीचे रख देता है और बढ़ कर हरिणशावक को अपनी बाँहों में ले लेता है।

इसके लिए मेरी बाँहों का आस्तरण ही पर्याप्त होगा। मैं इसे घर ले जाऊँगा।

द्वार की ओर चल देता है।

दंतुल : और राजपुरुष दंतुल तुम्हें ले जाते देखता रहेगा !

कालिदास : यह राजपुरुष की रुचि पर निर्भर करता है।

बिना उसकी ओर देखे ड्योढ़ी में चला जाता है।

दंतुल : राजपुरुष की रुचि-अरुचि क्या होती है, संभवत: इसका परिचय तुम्हें देना आवश्यक होगा।

कालिदास बाहर चला जाता है। केवल उसका शब्द ही सुनाई देता है।

कालिदास : संभवत:।

दंतुल : संभवत: ?

तलवार की मूठ पर हाथ रखे उसके पीछे जाना चाहता है। मल्लिका शीघ्रता से द्वार के सामने खड़ी हो जाती है।

मल्लिका : ठहरो, राजपुरुष ! हरिणशावक के लिए हठ मत करो। तुम्हारे लिए प्रश्न अधिकार का है, उनके लिए संवेदना का, कालिदास नि:शस्त्र होते हुए भी तुम्हारे शस्त्र की चिंता नहीं करेंगे।

दंतुल : कालिदास ?...तुम्हारा अर्थ है कि मैं जिनसे हरिणशावक के लिए तर्क कर रहा था, वे कवि कालिदास हैं ?

मल्लिका : हाँ, हाँ। परंतु तुम कैसे जानते हो कि कालिदास कवि हैं ?

दंतुल : कैसे जानता हूँ ! उज्जयिनी की राज्य-सभा का प्रत्येक व्यक्ति 'ऋतु-संहार' के लेखक कवि कालिदास को जानता है।

मल्लिका : उज्जयिनी की राज्य-सभा का प्रत्येक व्यक्ति उन्हें जानता है ?

दंतुल : सम्राट ने स्वयं 'ऋतु-संहार' पढ़ा और उसकी प्रशंसा की है। इसलिए आज उज्जयिनी का राज्य 'ऋतु-संहार' के लेखक का सम्मान करना और उन्हें राजकवि का आसन देना चाहता है। आचार्य वररुचि इसी उद्देश्य से उज्जयिनी से यहाँ आए हैं।

मल्लिका सुन कर स्तंभित-सी हो रहती है।

मल्लिका : उज्जयिनी का राज्य उन्हें सम्मान देना चाहता है ? राजकवि का आसन... ?

दंतुल : मुझे खेद है मैंने उनके साथ अशिष्टता का व्यवहार किया। मुझे जा कर उनसे क्षमा माँगनी चाहिए।

चला जाता है। मल्लिका कुछ क्षण उसी तरह खड़ी रहती है। फिर सहसा जैसे उसकी चेतना लौट आती है। अंबिका इस बीच दूध का भाजन उठा कर कोने में रख देती है। जिस पात्र में पहले दूध रखा था , उसे देखती है। उसमें जो दूध शेष है , उसे एक छोटे पात्र में डाल कर शक्कर मिलाने लगती है। हाथ ऐसे अस्थिर हैं जैसे वह अंदर ही अंदर बहुत उत्तेजित हो। मल्लिका निचला होंठ दाँतों में दबाए दौड़ कर उसके निकट आती है।

मल्लिका : तुमने सुना, माँ...राज्य उन्हें राजकवि का आसन देना चाहता है ?

अंबिका हाथ से गिरते दूध के पात्र को किसी तरह सँभाल लेती है।

अंबिका : गीले वस्त्र मैंने सूखने के लिए फैला दिए हैं। थोड़ा-सा दूध शेष है, इसमें शर्करा मिला दी है।

मल्लिका : तुमने सुना नहीं माँ, राजपुरुष क्या कह रहा था ?

अंबिका : दूध पी लो। आशा करती हूँ कि अब यहाँ किसी और का आतिथ्य नहीं होना है।

मल्लिका : आतिथ्य ?...मैं चाहती हूँ आज इस घर में सारे संसार का आतिथ्य कर सकूँ।

दूध का पात्र अंबिका के हाथ से ले लेती है।

तुम्हें इस दूध से नहला दूँ, माँ ?

पात्र ऊँचा उठा देती है। अंबिका पात्र उसके हाथ से ले लेती है।

अंबिका : मैं दूध से बहुत नहा चुकी हूँ।

मल्लिका : तुम कितनी निष्ठुर हो, माँ ! तुमने सुना नहीं, राज्य उन्हें सम्मान दे रहा है? फिर भी तुम...।

अंबिका : दूध पी लो। और फिर से वर्षा में भीगने का मोह न हो, तो मैं तुम्हारे लिए आस्तरण बिछा दूँ।...मैं जैसी निष्ठुर हूँ, रहने दो।

मल्लिका उसके गले में बाँहें डाल देती है।

मल्लिका : नहीं, तुम निष्ठुर नहीं हो। मैंने कब कहा है तुम निष्ठुर हो ?

अंबिका : नहीं, तुमने नहीं कहा। दूध पी लो।

मल्लिका दूध का पात्र उसके हाथ से ले कर एक घूँट में दूध पी जाती है और पात्र कोने में रख देती है। फिर अंबिका का हाथ खींच कर उसे बिठा देती है और स्वयं उसकी गोदी में लेट जाती है।

मल्लिका : माँ, तुम सोच सकती हो आज मैं कितनी प्रसन्न हूँ ?

अंबिका : मेरे पास कुछ भी सोचने की शक्ति नहीं है। अब उठ जाने दो, मुझे बहुत काम करना है।

उठने का प्रयत्न करती है मल्लिका उसे रोके रहती है।

मल्लिका : नहीं, उठो नहीं। इसी तरह बैठी रहो...राज्य उन्हें सम्मान दे रहा है, माँ ! उन्हें राजकवि का आसन प्राप्त होगा...

सहसा अंबिका की गोदी से हट कर बैठ जाती है।

...उस व्यक्ति को, जिसे उसके निकट के लोगों ने आज तक समझने का प्रयत्न नहीं किया। जिसे घर में और घर से बाहर केवल लांछना और प्रताड़ना ही मिली है।...अब तो तुम विश्वास करती हो माँ, कि मेरी भावना निराधार नहीं है।

अंबिका उठ खड़ी होती है।

अंबिका : मैं कह चुकी हूँ, मेरी सोचने-समझने की शक्ति जड़ हो चुकी है।

मल्लिका : क्यों माँ ? क्यों तुम्हें इतना पूर्वाग्रह है ? क्यों तुम उनके संबंध में उदारतापूर्वक नहीं सोच सकती ?

अंबिका : मेरी वह अवस्था बीत चुकी है जब यथार्थ से आँखें मूँद कर जिया जाता है।

अंदर जाने लगती है। मल्लिका उठ कर खड़ी हो जाती है।

मल्लिका : और तुम्हारी यथार्थ दृष्टि केवल दोष ही दोष देखती है ?

अंबिका मुड़ कर पल भर उसे देखती रहती है।

अंबिका : जहाँ दोष है, वहाँ अवश्य वह दोष देखती है।

मल्लिका : उनमें तुम्हें क्या दोष दिखाई देता है ?

अंबिका : वह व्यक्ति आत्म-सीमित है। संसार में अपने सिवा उसे और किसी से मोह नहीं है।

मल्लिका : इसीलिए कि वे मातुल की गौएँ न हाँक कर बादलों में खो रहते हैं ?

अंबिका : मुझे मातुल से और उसकी गौओं से प्रयोजन नहीं है। मैं केवल अपने घर को देख कर कहती हूँ।

मल्लिका : बैठ जाओ, माँ !

अंबिका को हाथ से पकड़ कर झरोखे के पास आसन पर ले जाती है।

मैं तुम्हारी बात समझना चाहती हूँ।

अंबिका : मैं भी चाहती हूँ तुम आज समझ लो।...तुम कहती हो तुम्हारा उससे भावना का संबंध है। वह भावना क्या है ?

मल्लिका : मैं उसे कोई नाम नहीं देती।

अंबिका के पैरों के पास बैठ जाती है।

अंबिका : परंतु लोग उसे नाम देते हैं।...यदि वास्तव में उसका तुमसे भावना का संबंध है, तो वह क्यों तुमसे विवाह नहीं करना चाहता ?

मल्लिका : तुम उनके प्रति सदा अनुदार रही हो, माँ ! तुम जानती हो, उनका जीवन परिस्थितियों की कैसी विडंबना में बीता है। मातुल के घर में उनकी क्या दशा रही है। उस साधन-हीन और अभाव-ग्रस्त जीवन में विवाह की कल्पना ही कैसे की जा सकती थी ?

अंबिका : और अब जबकि उसका जीवन साधनहीन और अभावग्रस्त नहीं रहेगा ?

मल्लिका कुछ क्षण चुप रह कर अपने पैरों को देखती रहती है।

किसी संबंध से बचने के लिए अभाव जितना बड़ा कारण होता है, अभाव की पूर्ति उससे बड़ा कारण बन जाती है।

मल्लिका : यह तुम्हारी नहीं, विलोम की भाषा है।

अंबिका : मैं ऐसे व्यक्ति को अच्छी तरह समझती हूँ। तुम्हारे साथ उसका इतना ही संबंध है कि तुम एक उपादान हो, जिसके आश्रय से वह अपने से प्रेम कर सकता है, अपने पर गर्व कर सकता है। परंतु तुम क्या सजीव व्यक्ति नहीं हो ? तुम्हारे प्रति उनका या तुम्हारा कोई कर्तव्य नहीं है ? कल तुम्हारी माँ का शरीर नहीं रहेगा, और घर में एक समय के भोजन की व्यवस्था भी नहीं होगी, तो जो प्रश्न तुम्हारे सामने उपस्थित होगा, उसका तुम क्या उत्तर दोगी। तुम्हारी भावना उस प्रश्न का समाधान कर देगी ? फिर कह दो कि यह मेरी नहीं, विलोम की भाषा है।

मल्लिका सिर झुकाए कुछ क्षण चुप बैठी रहती है। फिर अंबिका की ओर देखती है।

मल्लिका : माँ, आज तक का जीवन किसी तरह बीता ही है। आगे का भी बीत जाएगा। आज जब उनका जीवन एक नई दिशा ग्रहण कर रहा है, मैं उनके सामने अपने स्वार्थ की घोषणा नहीं करना चाहती।

बाहर से मातुल के शब्द सुनाई देने लगते हैं।

मातुल : अंबिका !...अंबिका !...घर में हो कि नहीं ?

अंबिका और मल्लिका ड्योढ़ी की ओर देखती हैं। मातुल अस्त-व्यस्त-सा आता है।

मातुल : हो, हो, हो घर में ही हो ! मैं आज सारे ग्राम में घोषणा करने जा रहा हूँ कि मेरा इस कालिदास नामधारी जीव से कोई संबंध नहीं है।

मल्लिका : क्या हुआ है, आर्य मातुल ?

मातुल : मैंने इसे पाला-पोसा, बड़ा किया। क्या इसी दिन के लिए कि यह इस तरह कुलद्रोही बने ?

मल्लिका : परंतु उन्हें तो सुना है, राज्य की ओर से सम्मानित किया जा रहा है। उज्जयिनी से कोई आचार्य आए हैं।

मातुल : यही तो कह रहा हूँ। उज्जयिनी से कोई आचार्य आए हैं।

मल्लिका : परंतु आप तो कह रहे हैं।

मातुल : मैं ठीक कह रहा हूँ। आचार्य कल ही इसे अपने साथ उज्जयिनी ले जाना चाहते हैं।

मल्लिका : किंतु...।

मातुल : दो रथ, दो रथवाह और चार अश्वारोही उनके साथ हैं। मैं तुमसे नहीं कहता था अंबिका, कि हमारे प्रपितामह के एक दौहित्र का पुत्र गुप्त राज्य की ओर से शकों से युद्ध कर चुका है ?

अंबिका : तुम अपने भागिनेय की बात कर रहे थे।

मातुल : उसी की बात कर रहा हूँ, अंबिका ! तुम समझो कि एक तरह से राज्य की ओर से हमारे वंश का सम्मान किया जा रहा है। और वे वंशावतंस कहते हैं, 'मुझे यह सम्मान नहीं चाहिए...।'

मल्लिका सहसा उठ कर खड़ी हो जाती है।

'मैं राजकीय मुद्राओं से क्रीत होने के लिए नहीं हूँ।'

उत्तेजना में एक कोने से दूसरे कोने तक टहलने लगता है। मल्लिका कुछ क्षण विस्मृत-सी खड़ी रहती है।

मल्लिका : वे राजकीय सम्मान को स्वीकार नहीं करना चाहते ?

मातुल : मेरी समझ में नहीं आता कि इसमें क्रय-विक्रय की क्या बात है। सम्मान मिलता है, ग्रहण करो। नहीं, कविता का मूल्य ही क्या है ?

मल्लिका : कविता का कुछ मूल्य है आर्य मातुल, तभी तो सम्मान का भी मूल्य है।...मैं समझती हूँ कि उनके हृदय में यह सम्मान कहाँ चुभता है।

अंबिका कुछ सोचती-सी अपने अंशुक को उँगलियों में मसलने लगती है।

अंबिका : मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूँ मातुल, कि वह उज्जयिनी अवश्य जाएगा।

मातुल उसी तरह टहलता रहता है।

मातुल : अवश्य जाएगा ! वे लोग इसके अनुचर हैं जो अभिस्तुति कर के इसे ले जाएँगे !

अंबिका : सम्मान प्राप्त होने पर सम्मान के प्रति प्रकट की गई उदासीनता व्यक्ति के महत्त्व को बढ़ा देती है। तुम्हें प्रसन्न होना चाहिए कि तुम्हारा भागिनेय लोकनीति में भी निष्णात है।

मातुल सहसा रुक जाता है।

मातुल : यह लोकनीति है, तो मैं कहूँगा कि लोकनीति और मूर्खनीति दोनों का एक ही अर्थ है।

फिर टहलने लगता है।

जो व्यक्ति कुछ देता है, धन हो या सम्मान हो, वह अपना मन बदल भी सकता है और मन बदल गया तो बदल गया।

फिर रुक जाता है।

तुम सोचो कि सम्राट रुष्ट भी तो हो सकते हैं कि एक साधारण कवि ने उनका सम्मान स्वीकार नहीं किया।

निक्षेप बाहर ले आता है।

निक्षेप : मातुल, आप अभी तक यहाँ हैं, और आचार्य आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

मातुल : और तुम यहाँ क्या कर रहे हो ? मैंने तुमसे नहीं कहा था कि जब तक मैं लौट कर न आऊँ, तुम आचार्य के पास रहना ?

निक्षेप : परंतु यह भी तो कहा था कि आचार्य विश्राम कर चुकें तो तुरंत आपको सूचना दे दूँ।

मातुल : यह भी कहा था। किंतु वह भी तो कहा था। यह कहा तुम्हारी समझ में आ गया, वह नहीं आया ?

निक्षेप : किंतु मातुल...।

मातुल : किंतु क्या ? मातुल मूर्ख है ? बताओ तुम मुझे मूर्ख समझते हो ?

निक्षेप : नहीं मातुल...।

मातुल : मैं मूर्ख नहीं, तो निश्चय ही तुम मूर्ख हो।...आचार्य ने क्या कहा है ?

निक्षेप : उन्होंने कहा है कि वे आपके साथ इस सारे ग्राम-प्रदेश में घूमना चाहते हैं...

मातुल के मुख पर गर्व की रेखाएँ प्रकट होती हैं।

...जिस प्रदेश ने कालिदास की कविता को जन्म दिया है।

मातुल के मुख की रेखाएँ वितृष्णा की रेखाओं में बदल जाती हैं।

मातुल : कालिदास की कविता !

फिर टहलने लगता है।

न जाने इतने बड़े आचार्य को इसकी कविता में क्या विशेषता दिखाई देती है !

रुक कर अंबिका की ओर देखता है।

इस व्यक्ति को सामान्य लोक-व्यवहार तक का तो ज्ञान नहीं, और तुम लोकनीति की बात कहती हो।...आप एक हरिणशावक को गोदी में लिए घर की ओर आ रहे थे। सौभाग्यवश मैंने बाहर ही देख लिया। मैंने प्रार्थना की कि कविकुलगुरु, यह समय इस रूप में घर में जाने का नहीं है। उज्जयिनी से एक बहुत बड़े आचार्य आए हैं। आप सुनते ही लौट पड़े। जैसे रास्ते में साँप देख लिया हो।

मल्लिका अंबिका के पास आसन पर बैठ जाती है। मातुल फिर टहलने लगता है।

अंबिका : मल्लिका, मातुल के लिए अंदर से आसान ला दो।

मल्लिका उठने लगती है , परंतु मातुल उसे रोक देता है।

मातुल : नहीं, मुझे आसन नहीं चाहिए। आचार्य मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

निक्षेप अंबिका की ओर देख कर मुस्कराता है। मातुल कोने तक जा कर लौटता है।

मैंने कहा, 'कविवर्य, आचार्य आपको साथ उज्जयिनी ले जाने के लिए आए हैं। राज्य की ओर से आपका सम्मान होगा।'

रुक जाता है।

सुन कर रुके। रुक कर जलते अंगारे की-सी दृष्टि से मुझे देखा।-'मैं राजकीय मुद्राओं से क्रीत होने के लिए नहीं हूँ।'-ऐसे कहा जैसे राजकीय मुद्राएँ आपके विरह में घुली जा रही हों, और चल दिए।...मेरे लिए धर्म-संकट खड़ा हो गया कि अनुनय करता हुआ आपके पीछे-पीछे जाऊँ, या अभ्यागतों को देखूँ। अब इस निक्षेप से आचार्य के पास बैठने को कह कर आया था, और यह धुरीहीन चक्र की तरह मेरे पीछे-पीछे चला आया है।

निक्षेप : किंतु मातुल, मैं तो समाचार देने आया था कि...।

मातुल : और मैं समाचार के लिए तुमसे धन्यवाद कहता हूँ। बहुत अच्छा किया ! अभ्यागत वहाँ बैठे हैं और आप समाचार देने यहाँ चले आए हैं !...अब इतना कीजिए कि वे कविकुल-शिरोमणि जहाँ भी हों, उन्हें ढूँढ़ कर ले आइए।

बाहर की ओर चल देता है।

मेरा कर्तव्य कहता है, जैसे भी हो उसे आचार्य के सामने प्रस्तुत करूँ।...और मन कहता है कि उसे जहाँ देखूँ वहीं चोटी से पकड़ कर...।

चला जाता है।

निक्षेप : मातुल का तीसरा नेत्र हर समय खुला रहता है।

मल्लिका : परंतु कालिदास इस समय हैं कहाँ ?

निक्षेप : कालिदास इस समय जगदंबा के मंदिर में हैं।

मल्लिका : आपने उन्हें देखा है ?

निक्षेप : देखा है।

मल्लिका : परंतु आपने मातुल से नहीं कहा ?

निक्षेप : मैं नहीं चाहता था कि मातुल इस समय वहाँ जाएँ ?

मल्लिका : क्यों ? क्या आप भी नहीं चाहते कि कालिदास... ?

निक्षेप : मैं चाहता हूँ कि कालिदास उज्जयिनी अवश्य जाएँ। इसीलिए मैंने मातुल का इस समय उनके पास जाना उचित नहीं समझा।...मातुल को अपने मुँह के शब्द सुनने में ऐसा रस प्राप्त होता है कि वे बोलते ही जाते हैं, परिस्थिति को समझना नहीं चाहते।...कालिदास हठ कर रहे हैं कि जब तक उज्जयिनी से आए अतिथि लौट नहीं जाते, वे जगदंबा के मंदिर में ही रहेंगे, घर नहीं जाएँगे।

अंबिका : कैसी विचक्षणता है !

निक्षेप : विचक्षणता ?

अंबिका : विचक्षणता ही तो है।

निक्षेप : इसमें विचक्षणता क्या है, अंबिका !

अंबिका तीखी दृष्टि से निक्षेप को देखती है।

अंबिका : राज्य कवि का सम्मान करना चाहता है। कवि सम्मान के प्रति उदासीन जगदंबा के मंदिर में साधनानिरत है। राज्य के प्रतिनिधि मंदिर में आ कर कवि की अभ्यर्थना करते हैं। कवि धीरे-धीरे आँखें खोलता है।...इतना बड़ा नाटक करना विचक्षणता नहीं है ?

निक्षेप : कालिदास नाटक नहीं कर रहे, अंबिका ! मुझे विश्वास है कि उन्हें राजकीय सम्मान का मोह नहीं है। वे सचमुच इस पर्वत-भूमि को छोड़ कर नहीं जाना चाहते।

अंबिका अपने स्थान से उठ कर उस ओर जाती है जिधर बरतन आदि पड़े हैं।

अंबिका : नहीं चाहता !...हूँ !

एक थाली ला कर कुंभ से उसमें चावल निकालने लगती है।

निक्षेप : मातुल का या किसी का भी आग्रह उनका हठ नहीं छुड़ा सकता।

मल्लिका को अर्थपूर्ण दृष्टि से देखता है। मल्लिका की आँखें झुक जाती हैं।

केवल एक व्यक्ति है , जिसके अनुरोध से संभव है वे यह हठ छोड़ दें।

अंबिका निक्षेप की अर्थपूर्ण दृष्टि को और फिर मल्लिका को देखती है।

अंबिका : हमारे घर में किसी को उसके हठ छोड़ने या न छोड़ने से कोई प्रयोजन नहीं है।

थाली लिए चूल्हे के निकट चली जाती है और उन दोनों की ओर पीठ किए अपने को व्यस्त रखने का प्रयत्न करती है।

निक्षेप : कालिदास अपनी भावुकता में भूल रहे हैं कि इस अवसर का तिरस्कार कर के वे बहुत कुछ खो बैठेंगे। योग्यता एक-चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष पूर्ति प्रतिष्ठा द्वारा होती है। कालिदास को राजधानी अवश्य जाना चाहिए।

अंबिका व्यस्त रहने का प्रयत्न करती हुई भी व्यस्त नहीं हो पाती।

अंबिका : तो उसमें बाधा क्या है ?

निक्षेप : मैंने अनुभव किया है कि उनके हठ के मूल में कहीं गहरी कटुता की रेखा है।

मल्लिका : मैं जानती हूँ, वह रेखा कहाँ है।...कुछ समय पहले एक राजपुरुष से उनका सामना हो चुका है।

निक्षेप : उस कटुता को केवल तुम्हीं दूर कर सकती हो, मल्लिका ! अवसर किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। कालिदास यहाँ से नहीं जाते हैं, तो राज्य की कोई हानि नहीं होगी। राजकवि का आसन रिक्त नहीं रहेगा। परंतु कालिदास जो आज हैं, जीवन-भर वही रहेंगे - एक स्थानीय कवि ! जो लोग आज 'ऋतुसंहार' की प्रशंसा कर रहे हैं, वे भी कुछ दिनों में उन्हें भूल जाएँगे।

मल्लिका अपने में खोई-सी उठ खड़ी होती है।

मल्लिका : नहीं, उन्हें इस सम्मान का तिरस्कार नहीं करना चाहिए। यह सम्मान उनके व्यक्तित्व का है। उन्हें अपने व्यक्तित्व को उसके अधिकार से वंचित नहीं करना चाहिए। चलिए, मैं आपके साथ जगदंबा के मंदिर में चलती हूँ।

अंबिका सहसा खड़ी हो जाती है।

अंबिका : मल्लिका !

मल्लिका स्थिर दृष्टि से अंबिका को देखती है।

मल्लिका : माँ !

अंबिका : मुझे एक बाहर के व्यक्ति के सामने कहना होगा कि मैं इस समय तुम्हारे वहाँ जाने के पक्ष में नहीं हूँ ?

निक्षेप : निक्षेप बाहर का व्यक्ति नहीं है, अंबिका !

मल्लिका : यह एक महत्त्वपूर्ण क्षण है, माँ ! मुझे इस समय अवश्य जाना चाहिए। आइए, आर्य निक्षेप !

बिना अंबिका की ओर देखे बाहर को चल देती है। अंबिका की आँखों में क्रोध की लहर उठती है , जो पराजय के भाव में बदल जाती है। निक्षेप अंबिका के भाव को लक्ष्य करता क्षण भर रुका रहता है।

निक्षेप : क्षमा चाहता हूँ, अंबिका !

मल्लिका के पीछे चला जाता है। अंबिका कुछ क्षण आँखें मूँदे खड़ी रहती है। फिर घर की वस्तुओं को एक-एक कर के देखती है ,और जैसे टूटी-सी , चौकी पर बैठ कर थाली के चावलों को मसलने लगती है। आँखों से आँसू उमड़ आते हैं , जिन्हें वह आँचल में पोंछ लेती है। प्रकाश कम हो जाता है। अंबिका के कंठ से रुँधा-सा स्वर निकलता है :

अंबिका : भावना !...ओह !

आँचल में मुँह छिपा लेती है। प्रकाश कुछ और क्षीण हो जाता है। तभी ड्योढ़ी के अँधेरे में अग्निकाष्ठ की लौ चमक उठती है। विलोम अग्निकाष्ठ हाथ में लिए बाहर से आता है। अंबिका को इस तरह बैठे देख कर क्षण-भर रुका रहता है। फिर पास चला आता है।

विलोम : घिरे हुए मेघों ने आज असमय अंधकार कर दिया है अंबिका, या तुम्हें समय का ज्ञान नहीं रहा ?

अंबिका आँचल से मुँह उठाती है। अग्निकाष्ठ के प्रकाश में उसके मुख की रेखाएँ गहरी और आँखें धँसी-सी दिखाई देती हैं।

आश्चर्य है, तुमने दीपक नहीं जलाया !

अंबिका : विलोम !....तुम यहाँ क्यों आए हो ?

विलोम बाईं ओर के दीपक के निकट चला जाता है।

विलोम : दीपक जला दूँ ?

अग्निकाष्ठ से छू कर दीपक जला देता है।

विलोम का आना ऐसे आश्चर्य का विषय नहीं है।

जा कर सामने के दीपक जलाने लगता है। अंबिका उठ खड़ी होती है।

अंबिका : चले जाओ विलोम ! तुम जानते हो कि तुम्हारा यहाँ आना...

विलोम : मल्लिका को सह्य नहीं है।

दीपक जला कर अंबिका की ओर देखता है।

जानता हूँ, अंबिका ! मल्लिका बहुत भोली है। वह लोक और जीवन के संबंध में कुछ नहीं जानती।

दीवार में बने आधार में अग्निकाष्ठ तिरछा लगा देता है।

वह नहीं चाहती कि मैं इस घर में आऊँ, क्योंकि कालिदास नहीं चाहता।

घूम कर अंबिका के पास आता है।

और कालिदास क्यों नहीं चाहता ? क्योंकि मेरी आँखों में उसे अपने हृदय का सत्य झाँकता दिखाई देता है। उसे उलझन होती है।...किंतु तुम तो जानती हो अंबिका, मेरा एकमात्र दोष यह है कि मैं जो अनुभव करता हूँ, स्पष्ट कह देता हूँ।

अंबिका : मैं इस समय तुम्हारे दोष-अदोष का विवेचन नहीं करना चाहती।

विलोम : देख रहा हूँ इस समय तुम बहुत दुखी हो।...और तुम दुखी कब नहीं रही, अंबिका ? तुम्हारा तो जीवन ही पीड़ा का इतिहास है। पहले से कहीं दुबली हो गई हो ?...सुना है कालिदास उज्जयिनी जा रहा है।

अंबिका : मैं नहीं जानती।

विलोम जैसे उसकी बात न सुन कर झरोखे के पास चला जाता है।

विलोम : राज्य की ओर से उसका सम्मान होगा ! कालिदास राजकवि के रूप में उज्जयिनी में रहेगा। मैं समझता हूँ उसके जाने से पहले ही उसका और मल्लिका का विवाह हो जाना चाहिए। इस संबंध में तुमने सोचा तो होगा ?

अंबिका : मैं इस समय कुछ भी सोचना नहीं चाहती।

विलोम : तुम, मल्लिका की माँ, इस विषय में सोचना नहीं चाहतीं ? आश्चर्य है !

अंबिका : मैंने तुमसे कहा है विलोम, तुम चले जाओ।

विलोम : कालिदास उज्जयिनी चला जाएगा ! और मल्लिका, जिसका नाम उसके कारण सारे प्रांतर में अपवाद का विषय बना है, पीछे यहाँ पड़ी रहेगी ? क्यों, अंबिका ?

अंबिका कुछ न कह कर आसन पर बैठ जाती है। विलोम घूम कर उसके सामने आ जाता है।

क्यों ? तुमने इतने वर्ष सारी पीड़ा क्या इसी दिन के लिए सही है ? दूर से देखनेवाला भी जान सकता है, इन वर्षों में तुम्हारे साथ क्या-क्या बीता है ! समय ने तुम्हारे मन, शरीर और आत्मा की इकाई को तोड़ कर रख दिया है। तुमने तिल-तिल कर के अपने को गलाया है कि मल्लिका को किसी अभाव का अनुभव न हो। और आज, जबकि उसके लिए जीवन भर के अभाव का प्रश्न सामने है, तुम कुछ सोचना नहीं चाहती ?

अंबिका : तुम यह सब कह कर मेरा दु:ख कम नहीं कर रहे, विलोम ! मैं अनुरोध करती हूँ कि तुम इस समय मुझे अकेली रहने दो।

विलोम : मैं इस समय अपना तुम्हारे पास होना बहुत आवश्यक समझता हूँ, अंबिका ! मैं ये सब बातें तुमसे नहीं, उससे कहने के लिए आया हूँ। आशा कर रहा हूँ कि वह मल्लिका के साथ अभी यहाँ आएगा। मैंने मल्लिका को जगदंबा के मंदिर की ओर जाते देखा है। मैं यहीं उसकी प्रतीक्षा करना चाहता हूँ।

ड्योढ़ी से कालिदास और उसके पीछे मल्लिका आती है।

कालिदास : अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी, विलोम !

विलोम को देख कर मल्लिका की आँखों में क्रोध और वितृष्णा का भाव उमड़ आता है , और वह झरोखे की ओर चली जाती है। कालिदास विलोम के पास आ जाता है।

मैं जानता हूँ कि तुम कहाँ, किस समय और क्यों मेरे साक्षात्कार के लिए उत्सुक होते हो।...कहो, आजकल किस नए छंद का अभ्यास कर रहे हो ?

विलोम : छंदों का अभ्यास मेरी वृत्ति नहीं है।

कालिदास : मैं जानता हूँ तुम्हारी वृत्ति दूसरी है।

क्षण-भर उसकी आँखों में देखता रहता है।

उस वृत्ति ने संभवत: छंदों का अभ्यास सर्वथा छुड़ा दिया है।

विलोम : आज नि:संदेह तुम छंदों के अभ्यास पर गर्व कर सकते हो।

अग्निकाष्ठ के पास जा कर उसे सहलाने लगता है। प्रकाश उसके मुख पर पड़ता है।

सुना है, राजधानी से निमंत्रण आया है।

कालिदास : सुना मैंने भी है। तुम्हें दुख हुआ ?

विलोम : दुख ? हाँ-हाँ, बहुत। एक मित्र के बिछुड़ने का किसे दुख नहीं होता ?

...कल ब्राह्म मुहूर्त में ही चले जाओगे ?

कालिदास : मैं नहीं जानता।

विलोम : मैं जानता हूँ। आचार्य कल ब्राह्म मुहूर्त में ही लौट जाना चाहते हैं। राजधानी के वैभव में जा कर ग्राम-प्रांतर को भूल तो नहीं जाओगे ?

एक दृष्टि मल्लिका पर डाल कर फिर कालिदास की ओर देखता है।

सुना है, वहाँ जा कर व्यक्ति बहुत व्यस्त हो जाता है। वहाँ के जीवन में कई तरह के आकर्षण हैं - रंगशालाएँ, मदिरालय और तरह-तरह की विलास-भूमियाँ !

मल्लिका के भाव में बहुत कठोरता आ जाती है।

मल्लिका : आर्य विलोम, यह समय और स्थान इन बातों के लिए नहीं है। मैं इस समय आपको यहाँ देखने की आशा नहीं कर रही थी।

विलोम : मैं जानता हूँ तुम इस समय मुझे यहाँ देख कर प्रसन्न नहीं हो। परंतु मैं अंबिका से मिलने आया था। बहुत दिनों से भेंट नहीं हुई थी। यह कोई ऐसी अप्रत्याशित बात नहीं है।

कालिदास : विलोम का कुछ भी करना अप्रत्याशित नहीं है। हाँ, कई कुछ न करना अप्रत्याशित हो सकता है।

विलोम : यह वास्तव में प्रसन्नता का विषय है कालिदास, कि हम दोनों एक-दूसरे को इतनी अच्छी तरह समझते हैं। नि:संदेह मेरे स्वभाव में ऐसा कुछ नहीं है, जो तुमसे छिपा हो।

क्षण भर कालिदास की आँखों में देखता रहता है।

विलोम क्या है ? एक असफल कालिदास। और कालिदास ? एक सफल विलोम। हम कहीं एक-दूसरे के बहुत निकट पड़ते हैं।

अग्निकाष्ठ के पास से हट कर कालिदास के निकट आ जाता है।

कालिदास : नि:संदेह। सभी विपरीत एक-दूसरे के बहुत निकट पड़ते हैं।

विलोम : अच्छा है, तुम इस सत्य को स्वीकार करते हो। मैं उस निकटता के अधिकार से तुमसे एक प्रश्न पूछ सकता हूँ ?...संभव है फिर कभी तुमसे बात करने का अवसर ही प्राप्त न हो। एक दिन का व्यवधान तुम्हें हमसे बहुत दूर कर देगा न !

कालिदास : वर्षों का व्यवधान भी विपरीत को विपरीत से दूर नहीं करता।...मैं तुम्हारा प्रश्न सुनने के लिए उत्सुक हूँ।

विलोम बहुत पास आ कर उसके कंधे पर हाथ रख देता है।

विलोम : मैं जानना चाहता हूँ कि तुम अभी तक वही कालिदास हो न ?

अर्थपूर्ण दृष्टि से अंबिका की ओर देख लेता है।

कालिदास : मैं तुम्हारा अभिप्राय नहीं समझ सका।

उसका हाथ अपने कंधे से हटा देता है।

विलोम : मेरा अभिप्राय है कि तुम अभी तक वही व्यक्ति हो न जो कल तक थे ?

मल्लिका झरोखे के पास से उधर को बढ़ आती है।

मल्लिका : आर्य विलोम, मैं इस प्रकार की अनर्गलता क्षम्य नहीं समझती।

विलोम : अनर्गलता ?

अंबिका के निकट आ जाता है। कालिदास दो-एक पग दूसरी ओर चला जाता है।

इसमें अनर्गलता क्या है ? मैं बहुत सार्थक प्रश्न पूछ रहा हूँ। क्यों कालिदास ? मेरा प्रश्न सार्थक नहीं है ?...क्यों अंबिका ?

अंबिका अव्यवस्थित भाव से उठ खड़ी होती है।

अंबिका : मैं इस संबंध में कुछ नहीं जानती, और न ही जानना चाहती हूँ।

अंदर की ओर चल देती है।

विलोम : ठहरो, अंबिका !

अंबिका रुक कर उसकी ओर देखती है।

आज तक ग्राम-प्रांतर में कालिदास के साथ मल्लिका के संबंध को ले कर बहुत कुछ कहा जाता रहा है।

मल्लिका एक पग और आगे आ जाती है।

मल्लिका : आर्य विलोम, आप...!

विलोम : उसे दृष्टि में रखते हुए क्या यह उचित नहीं कि कालिदास यह स्पष्ट बता दे कि उसे उज्जयिनी अकेले ही जाना है या...

मल्लिका : कालिदास आपके किसी भी प्रश्न का उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं है।

विलोम : मैं कब कहता हूँ कि बाध्य है ? परंतु संभव है कालिदास का अंत:करण उसे उत्तर देने के लिए बाध्य करे। क्यों कालिदास ?

कालिदास मुड़ पड़ता है। दोनों एक-दूसरे के सामने आ जाते हैं।

कालिदास : मैं तुम्हारी प्रशंसा करने के लिए अवश्य बाध्य हूँ। तुम दूसरों के घर में ही नहीं, उनके जीवन में ही अनाधिकार प्रवेश कर जाते हो।

विेलाम : अनधिकार प्रवेश...? मैं ? क्यों अंबिका, तुम्हें कालिदास की यह बात कहाँ तक संगत प्रतीत होती है कि मैं, विलोम, दूसरों के जीवन में अनाधिकार प्रवेश कर जाता हूँ ?

अंबिका : मैं कह चुकी हूँ, मुझे इस संबंध में कुछ भी नहीं कहना है।

अंदर चली जाती है।

विलोम : बस, चल ही दीं...? अच्छा कालिदास, तुम्हीं बताओ, तुम्हें अपनी यह बात कहाँ तक संगत प्रतीत होती है ? मैंने किसके जीवन में अनाधिकार प्रवेश किया है ? चलो, ग्राम-प्रांतर में चल कर किसी से भी पूछ लें...।

विदग्ध दृष्टि से उसे देखता है। फिर अग्निकाष्ठ के पास जा कर उसे आधार से हाथ में ले लेता है।

तो तुम अपने अंत:करण से भी मेरे प्रश्न का उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं हो ! संभवत: प्रश्न ही ऐसा है...!

कालिदास : तुम कुछ भी अनुमान लगाने के लिए स्वतंत्र हो। मैं इतना ही जानता हूँ कि मुझे ग्राम-प्रांतर छोड़ कर उज्जयिनी जाने का तनिक मोह नही है।

विलोम उल्मुक कालिदास के मुख के निकट ले आता है।

विलोम : नि:संदेह ! तुम्हें ऐसा मोह क्यों होगा ? साधारण व्यक्ति को हो सकता है, तुम्हें क्यों होगा ? परंतु मैं केवल इतना जानना चाहता था कि यदि ऐसा हो - क्षण भर के लिए स्वीकार कर लिया जाए कि तुम जाने का निश्चय कर लो - तो उस स्थिति में क्या यह उचित नहीं कि...

मल्लिका उसके और कालिदास के बीच में आ जाती है। अग्निकाष्ठ का प्रकाश उसके मुँह पर पड़ने लगता है।

मल्लिका : आर्य विलोम, आज अपनी सीमा से आगे जा कर बात कर रहे हैं। मैं बच्ची नहीं हूँ, अपना भला-बुरा सब समझती हूँ।...आप संभवत: यह अनुभव नहीं कर रहे कि आप यहाँ इस समय एक अनचाहे अतिथि के रूप में उपस्थित हैं।

विलोम : यह अनुभव करने की मैंने आवश्यकता नहीं समझी। तुम मुझसे घृणा करती हो, मैं जानता हूँ। परंतु मैं तुमसे घृणा नहीं करता। मेरे यहाँ होने के लिए इतना ही पर्याप्त है।

अग्निकाष्ठ का प्रकाश फिर कालिदास के चेहरे पर डालता है।

और एक बात कालिदास से भी करना चाहता था।

अर्थपूर्ण दृष्टि से कालिदस को देख कर फिर मल्लिका की ओर देखता है।

तुम कालिदास के बहुत निकट हो, परंतु मैं कालिदास को तुमसे अधिक जानता हूँ।

पुन: एक-एक कर के दोनों की ओर देखता है और ड्योढ़ी की ओर चल देता है। ड्योढ़ी के पास से मुड़ कर फिर कालिदास की ओर देखता है।

तुम्हारी यात्रा शुभ हो, कालिदास ! तुम जानते हो, विलोम तुम्हारा ही शुभचिंतक है।

कालिदास : यह मुझसे अधिक कौन जान सकता है ?

विलोम के कंठ से तिरस्कारपूर्ण स्वर निकलता है और वह मल्लिका की ओर देखता है।

विलोम : अनचाहा अतिथि संभवत: फिर भी कभी आ पहुँचे। तब के लिए भी क्षमा चाहते हुए...।

व्यंग्य के साथ मुस्करा कर चला जाता है। कालिदास क्षण-भर मल्लिका की ओर देखता रहता है। फिर झरोखे के पास चला जाता है।

मल्लिका : फिर उदास हो गए ?

कालिदास झरोखे से बाहर देखता रहता है।

देखो, तुम मुझे वचन दे चुके हो।

कालिदास लौट कर उसके पास आ जाता है।

कालिदास : फिर एक बार सोचो, मल्लिका ! प्रश्न सम्मान और राज्याश्रय स्वीकार करने का ही नहीं है। उससे कहीं बड़ा एक प्रश्न मेरे सामने है।

मल्लिका : और वह प्रश्न मैं हूँ...हूँ न ?

उसे बाँहों से पकड़ कर आसन पर बिठा देती है।

यहाँ बैठो। तुम मुझे जानते हो। हो न ?

कालिदास उसकी ओर देखता रहता है।

तुम समझते हो कि तुम इस अवसर को ठुकरा कर यहाँ रह जाओगे, तो मुझे सुख होगा ?

उमड़ते आँसुओं को दबाने के लिए आँखें झपकती और ऊपर की ओर देखने लगती है।

मैं जानती हूँ कि तुम्हारे चले जाने से मेरे अंतर को एक रिक्तता छा लेगी। बाहर भी संभवत: बहुत सूना प्रतीत होगा। फिर भी मैं अपने साथ छल नहीं कर रही।

मुस्कराने का प्रयत्न करती है।

मैं हृदय से कहती हूँ तुम्हें जाना चाहिए।

कालिदास : चाहता हूँ तुम इस समय अपनी आँखें देख सकती।

मल्लिका : मेरी आँखें इसलिए गीली हैं कि तुम मेरी बात नहीं समझ रहे।

उसके पैरों के पास बैठ कर उसके घुटनों पर कुहनियाँ रख देती है।

तुम यहाँ से जा कर भी मुझसे दूर हो सकते हो...? यहाँ ग्राम-प्रांतर में रह कर तुम्हारी प्रतिभा को विकसित होने का अवसर कहाँ मिलेगा ? यहाँ लोग तुम्हें समझ नहीं पाते। वे सामान्य की कसौटी पर तुम्हारी परीक्षा करना चाहते हैं।

कुहनियों पर ठोड़ी भी रख लेती है।

विश्वास करते हो न कि मैं तुम्हें जानती हूँ ? जानती हूँ कि कोई भी रेखा तुम्हें घेर ले, तो तुम घिर जाओगे। मैं तुम्हें घेरना नहीं चाहती। इसलिए कहती हूँ, जाओ।

कालिदास : तुम पूरी तरह नहीं समझ रहीं, मल्लिका। प्रश्न तुम्हारे घेरने का नहीं है।

मल्लिका शब्दों की चुभन अनुभव कर के भी अपनी मुद्रा स्वाभाविक बनाए रखने का प्रयत्न करती है। कालिदास जैसे सोचता-सा उठ खड़ा होता है और टहलने लगता है।

मैं अनुभव करता हूँ कि यह ग्राम-प्रांतर मेरी वास्तविक भूमि है। मैं कई सूत्रों से इस भूमि से जुड़ा हूँ। उन सूत्रों में तुम हो, यह आकाश और ये मेघ हैं, यहाँ की हरियाली है, हरिणों के बच्चे हैं, पशुपाल हैं।

रुक कर मल्लिका की ओर देखता है।

यहाँ से जा कर मैं अपनी भूमि से उखड़ जाऊँगा।

मल्लिका आसन पर कुहनी रखे उससे टेक लगा लेती है।

मल्लिका : यह क्यों नहीं सोचते कि नई भूमि तुम्हें यहाँ से अधिक संपन्न और उर्वरा मिलेगी। इस भूमि से तुम जो कुछ ग्रहण कर सकते थे, कर चुके हो। तुम्हें आज नई भूमि की आवश्यकता है, जो तुम्हारे व्यक्तित्व को अधिक पूर्ण बना दे।

कालिदास : नई भूमि सुखा भी तो सकती है !

फिर टहलने लगता है।

मल्लिका : कोई भूमि ऐसी नहीं जिसके अंतर में कोमलता न हो। तुम्हारी प्रतिभा उस कोमलता का स्पर्श अवश्य पा लेगी।

कालिदास : और उस जीवन की अपनी अपेक्षाएँ भी होंगी...

मल्लिका उठ कर उसके पास आ जाती है और उसके हाथ अपने हाथों में ले लेती है।

मल्लिका : यह क्यों आवश्यक है कि तुम उन अपेक्षाओं का पालन करो ? तुम दूसरों के लिए नई अपेक्षाओं की सृष्टि कर सकते हो।

कालिदास : फिर भी कई-कई आशंकाएँ उठती हैं। मुझे हृदय में उत्साह का अनुभव नहीं होता।

मल्लिका : मेरी ओर देखो।

कालिदास कुछ क्षण उसकी आँखों में देखता रहता है।

अब भी उत्साह का अनुभव नहीं होता...? विश्वास करो तुम यहाँ से जा कर भी यहाँ से अलग नहीं होओगे। यहाँ की वायु, यहाँ के मेघ और यहाँ के हरिण, इन सबको तुम साथ ले जाओगे...। और मैं भी तुमसे दूर नहीं होऊँगी। जब भी तुम्हारे निकट होना चाहूँगी, पर्वत-शिखर पर चली जाऊँगी और उड़ कर आते मेघों में घिर जाया करूँगी।

बिजली कौंधती है और मेघ-गर्जन सुनाई देता है। कालिदास उसके हाथ पकड़े रहता है। मल्लिका पलकें झपका कर अपने आँसू सुखाती है।

लगता है फिर वर्षा होगी। यूँ भी बहुत अँधेरा हो गया है। आचार्य तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे होंगे।

कालिदास : मुझे जाने के लिए कह रही हो ?

मल्लिका : हाँ ! देखना मैं तुम्हारे पीछे प्रसन्न रहूँगी, बहुत घूमूँगी और हर संध्या को जगदंबा के मंदिर में सूर्यास्त देखने जाया करूँगी...।

कालिदास : इसका अर्थ है तुमसे विदा लूँ।

मल्लिका : नहीं ! विदा तुम्हें नहीं दूँगी। जा रहे हो, इसलिए केवल प्रार्थना करूँगी कि तुम्हारा पथ प्रशस्त हो।

उसके हाथ छोड़ देती है।

जाओ।

कालिदास पल भर आँखें मूँदे रहता है। फिर झटके से चला जाता है। मल्लिका हाथों में मुँह छिपाए आसन पर जा बैठती है। तीव्र मेघ-गर्जन सुनाई देता है और साथ वर्षा का शब्द सुनाई देने लगता है। मल्लिका अपने को रोकने का प्रयत्न करती हुई भी सिसक उठती है। अंबिका अंदर से आ कर उसके सिर पर हाथ रखती है और उसका मुँह ऊपर उठाती है।

अंबिका : मल्लिका !

मल्लिका आसन से उठ खड़ी होती है और झरोखे के पास जा कर उससे सिर टिका लेती है।

अंबिका : तुम स्वस्थ नहीं हो मल्लिका, चलो अंदर चल कर विश्राम कर लो।

मल्लिका अपनी सिसकियाँ दबाने का प्रयत्न करती हुई उसी तरह खड़ी रहती है।

मल्लिका : मुझे यहीं रहने दो, माँ ! मैं अस्वस्थ नहीं हूँ। देखो माँ, चारों ओर कितने गहरे मेघ घिरे हैं ! कल ये मेघ उज्जयिनी की ओर उड़ जाएँगे...!

पुन: हाथों में मुँह छिपा कर सिसक उठती है। अंबिका पास जा कर उसे अपने से सटा लेती है।

अंबिका : रोओ नहीं, मल्लिका !

मल्लिका : मैं रो नहीं रही हूँ, माँ ! मेरी आँखों में जो बरस रहा है, यह दुख नहीं है। यह सुख है माँ, सुख...!

अंबिका के वक्ष में मुँह छिपा लेती है। पुन: मेघ-गर्जन सुनाई देता है और वर्षा का शब्द ऊँचा हो जाता है।