आषाढ़ का एक दिन / दो शब्द / मोहन राकेश
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हिंदी नाटक रंगमंच की किसी विशेष परम्परा के साथ अनुस्यूत नहीं है. पाश्चात्य रंगमंच की उपलब्धियाँ हीं हमारे सामने है. परन्तु न तो हमारा जीवन उन सब उपलब्धियों की माँग करता है, और न हीं यह संभव प्रतीत होता है कि हम उस रंग शिल्प को व्यापक रूप से ज्यों का त्यों अपने यहाँ प्रतिष्ठित कर दें.
हिंदी रंगमंच के विकाश से निःसन्देह यह अभिप्राय नहीं है कि अत्याधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न रंगशालाएँ राजकीय अथवा अर्द्धराजकीय संस्थाओं द्वारा जहाँ-तहाँ बनवा दि जाएँ जिससे वहाँ हिंदी नाटकों का प्रदर्शन किया जा सके. प्रश्न केवल आर्थिक सुविधा का हीं नहीं, एक सांस्कृतिक दृष्टि का भी है. हिंदी रंगमंच को हिंदी भाषी प्रदेश की सांस्कृतिक पूर्तियों और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करना होगा, रंगो और राशियों के हमारे विवेक को व्यक्त करना होगा. हमारे दैनंदिन जीवन के रागरंग को प्रस्तुत करने के लिए, हमारे स्म्वेदों और स्पन्दनों को अभिव्यक्त करने के लिए, जिस रंगमंच की आवश्यकता है, वह पाश्चात्य रंगमंच से कहीं भिन्न होगा. इस रंगमंच का रूपविधान नाटकीय प्रयोगों के अभ्यन्तर से जन्म लेगा और समर्थ अभिनेताओं तथा दिग्दर्शकों के हाथों उसका विकाश होगा.
संभव है यह नाटक उन सम्भावनाओं की खोज में कुछ योग दे सके.
मोहन राकेश
बसन्त, 1958
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