इंटरफ़ेथ-मैरिज / पवित्र पाप / सुशोभित

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इंटरफ़ेथ-मैरिज
सुशोभित


भारत में हिंदुओं के शादी-ब्याह सम्बंधी मामलों के लिए ‘हिंदू मैरिज एक्ट 1955’ है।

और मुस्लिमों के शादी-ब्याह सम्बंधी मामलों के लिए ‘ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ’ है।

दोनों के अलग-अलग नियम-क़ायदे हैं।

तब ‘इंटरफ़ेथ’ या ‘इंटरकास्ट’ मैरिज की स्थिति में निर्मित होने वाली पेचीदगियों से बचने के लिए एक तीसरा क़ानून उपस्थित है, जिसका नाम है- ‘स्पेशल मैरिज एक्ट 1954’।

लेकिन यहां पर पेंच यह है कि अगर कोई हिंदू ‘इंटरफ़ेथ’ विवाह भी करता है, तब भी ‘हिंदू मैरिज एक्ट’ के तहत वह मान्य होगा। किंतु अगर कोई मुस्लिम धर्म से बाहर विवाह करता है तो ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ के हिसाब से यह निक़ाह अमान्य होगा।

वैसी स्थिति में किसी मुस्लिम युवक के प्यार में डूबी हिंदू लड़की अगर उससे विवाह करना चाहती है और युवक अपना धर्म नहीं छोड़ना चाहता तो युवती के लिए अपना धर्म या नाम बदलना अनिवार्य हो जाएगा, और स्पेशल मैरिज एक्ट का कोई औचित्य ही नहीं रह जाएगा।

देखा तो यही गया है कि हिंदू लड़कियां इंटरफ़ेथ-मैरिज के बाद नाम और धर्म बदलने को तत्पर रहती हैं। वैसा कोई दबाव मुस्लिम लड़के पर नहीं होता। कभी-कभी तो हरियाणा जैसे राज्य में कोई चंद्रमोहन भी चांद मोहम्मद बन जाता है।

कुछ वर्ष पूर्व की बात है। एक हिंदू युवती ने मुस्लिम युवक से इंटरफ़ेथ विवाह किया। किंतु उसे अपने मूल हिंदू नाम से पासपोर्ट चाहिए था। ख़बर आई कि पासपोर्ट अधिकारी ने युवती पर दबाव बनाया कि दुविधा से बचने के लिए वे उसी नाम से आवेदन दें, जो उन्होंने विवाह के उपरांत अपनाया है। क्योंकि युवती के द्वारा विवाह के उपरांत नाम बदल लिया गया था। उन्होंने एक मुस्लिम नाम अपना लिया था।

प्रश्न यह है कि लड़की ने ही विवाह के बाद अपना धर्म त्यागकर नाम क्यों बदला, लड़के ने वैसा क्यों नहीं किया? क्या लड़की ही लड़के को प्रेम करती थी, लड़का लड़की से प्रेम नहीं करता था? क्या प्यार में बराबरी नहीं थी?

इसका दूसरा आयाम यह है कि अगर लड़की लड़के के सामने यह विकल्प रखती कि वह अपना धर्म त्यागकर उसका धर्म ग्रहण करेगा, तभी वह विवाह करेगी, तो क्या युवक प्रेम की इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए वैसा करता? क्योंकि लड़की ने तो ठीक वैसा ही किया था।

‘इंटरफ़ेथ’ मैरिज से उपजी संतान का धर्म क्या हो, एक प्रश्न तब यह भी है?

अगर पुरुष का धर्म ही संतान का धर्म होगा, तो यह तो निरी पितृसत्ता है। और अगर प्यार धर्म और जाति से परे है तो अपना धर्म और नाम बदलने की ज़िम्मेदारी केवल एक पर क्यों होनी चाहिए, दो पर क्यों नहीं?

यों देखा जाए तो किसी भी प्रकार की इंटरफ़ैथ-मैरिज पर आपत्ति लेने का कोई कारण नहीं बनता, बशर्ते प्रक्रियाओं में पूर्ण नैतिकता, वैधता, ईमानदारी और बराबरी का समावेश हो।

बात केवल धर्म और जाति से बाहर होने वाले विवाहों तक ही सीमित नहीं, जाति के भीतर विवाह करने वाली युवती भी अपना उपनाम या गोत्रनाम बदलती है। यह सच में ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज इक्कीसवीं सदी में भी लड़की को विवाह के बाद अपने पति का उपनाम अपने नाम में जोड़ना पड़ता है और विधर्मी-विवाह की स्थिति में तो पति का धर्म भी अपनाना पड़ता है।

बुनियादी प्रश्न यही है कि क्या स्त्री को इस दोहरे मानदंड से स्वतंत्र होने का अधिकार नहीं है?