बुर्क़ा / पवित्र पाप / सुशोभित
सुशोभित
हमें डेनमार्क को मुबारक़बाद देना चाहिए।
रमज़ान के माहे-मुक़द्दस में डेनमार्क ने एक क़ानून पास करवाकर बुर्क़े पर बैन लगवा दिया। तालियों की गड़गड़ाहट से इस फ़ैसले का स्वागत किया जाए!
इससे पहले फ्रांस, बेल्जियम और ऑस्ट्रिया वैसा निर्णय ले चुके थे। दूसरे शब्दों में, अब यूरोप के चार देशों में औरतें आज़ाद हैं! हव्वा की बेटियों को इस आज़ादी का जश्न मनाना चाहिए!
डेनमार्क के सांसद आंदेर्स विस्तिसेन ने ट्वीट करके कहा- ‘मेरे देश को बधाई, अब यहां बुर्क़ा और नक़ाब नज़र नहीं आएंगे!’ डेनमार्क में लगभग 5 प्रतिशत आबादी मुस्लिमों की है। यों यह छोटा प्रतिशत नहीं है, लेकिन जब डेनमार्क की कुल आबादी ही 56 लाख है तो शायद एकाध लाख की आबादी इतनी बड़ी नहीं मानी जाए। भारत जैसे देश में तो रेलगाड़ियों में ही रोज़ 20 लाख लोग सफ़र करते हैं।
इसके बावजूद, यह एक साहसपूर्ण निर्णय है, मनुष्यता के हक़ में है, स्त्रियों की आज़ादी की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम है और यह संदेश देता है कि दुनिया दक़ियानूसी विचारों के साथ चलने के लिए तैयार नहीं है।
वर्ष 2010 में डैनिश प्रधानमंत्री लार्श ल्योके रास्मुस्सेन ने कहा था कि बुर्क़े जैसी चीज़ों का हमारे समाज में कोई स्थान नहीं है। वे मनुष्यता और स्त्रियों के प्रति एक ऐसी धारणा का प्रतीक हैं, जिनसे हमारा बुनियादी संघर्ष है।
जिस दिन भारत देश का कोई प्रधानमंत्री वैसा बयान देगा, वह इतिहास का एक गौरवशाली दिन होगा।
बुर्क़े जैसी बुराई का बुनियादी कॉन्सेप्ट क्या है?
इसका बुनियादी कॉन्सेप्ट स्त्रियों को ‘यौनदासी’ समझने की एक जघन्य प्रक्रिया है!
बुर्क़ा कहता है- ‘स्त्री नामक इस ‘वस्तु’ को, जो कि एक पुरुष की ‘निजी सम्पत्ति’ है, उस पुरुष के सिवा कोई भी देख नहीं सकता है।’
अलबत्ता यह बुराई केवल विवाहित महिलाओं के लिए ही नहीं है, हम छोटी बच्चियों को भी बुर्क़े में देख सकते हैँ।
कितने अचरज की बात है कि कहां तो एक तरफ़ स्त्री के शरीर के प्रति इतना संकोच, इतना नियंत्रण, और दूसरी तरफ़ बाल यौन शोषण और कौटुम्बिक व्यभिचार की इतनी घटनाएं।
डेढ़ सौ साल पहले अमेरिका जैसे देश में दासप्रथा थी। अश्वेतों को गले में बेड़ी डालकर पशुओं की तरह ख़रीदा-बेचा जाता था। दासप्रथा समाप्त हो गई, लेकिन दुनिया के कुछ इलाक़ों में औरतों की ग़ुलामी आज भी बदस्तूर जारी है।
घृणास्पद काले बुर्क़े में सिर से पैर तक ढंकी औरतें अपने ख़ाविंद के साथ घूमते दिखाई देती हैं, मवेशियों की तरह। और तब मैं सोचने लगता है कि क्या यह इक्कीसवीं सदी है? इस युग में यह मैं क्या देख रहा हूं? और क्यों और कब तक?
पुरुष सत्ता ने स्त्री की यौन स्वतंत्रता पर, उसके कौमार्य पर, उसकी आकांक्षाओं पर हज़ार बंदिशें अतीत में लगाई हैं। मुझे संतोष है कि मनुष्यता के हर चरण में उन बंदिशों को धीरे-धीरे तोड़कर हम आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन दुनिया की एक बड़ी आबादी अभी तक इस तरक़्क़ीपसंद कल्चर का हिस्सा नहीं बन सकी है।
बड़ी ढिठाई से तर्क दिया जाता है- बुर्क़ा पहनना मुस्लिम औरतों का ख़ुद का चयन है। यह उनका निजी निर्णय है। अच्छे-ख़ासे पढ़े-लिखे लोग ऐसे तर्क देते हैं।
इन पढ़े-लिखे अनपढ़ों से मेरा सवाल यह है कि-
बुर्क़ा पहनने का शौक़ दुनिया में केवल मुस्लिम महिलाओं को ही क्यों है, दूसरी महिलाओं को क्यों नहीं? तब यह एक निजी निर्णय है या एक सामुदायिक दबाव है?
दूसरे, तरह-तरह के परिधान दुनिया की स्त्रियां पहनती हैं, जीन्स से लेकर स्कर्ट तक और साड़ी से लेकर बिकिनी तक। निजी निर्णय उसको बोलते हैं! परिधान का चयन निजी निर्णय होता है, लबादे का नहीं! और परिधान धर्मनिरपेक्ष होते हैं, लॉन्जरी कोई भी लड़की पहन सकती है! जबकि बुर्क़े का एक स्पेसिफ़िक-कॉन्टैक्स्ट है।
इस पूरे प्रसंग में एक महत्वपूर्ण भूमिका नारीवाद की है। नारीवाद को लेफ़्ट-लिबरलिज़्म का वैचारिक अनुषंग माना जाता है। और लेफ़्ट-लिबरल्स सबाल्टर्न के प्रति अपनी सदाशयताओं के चलते बहुधा यह सोचकर चुनी हुई चुप्पियों का व्याकरण रच बैठते हैं कि कहीं वे फलाँ मामलों पर एक रुख़ अपनाकर आत्मघाती गोल तो ना कर बैठेंगे और जिन समुदायों के लिए लड़ते हैं, उन्हें ही एम्बैरेस तो नहीं करने लगेंगे?
मैं चाहूँगा कि लेफ़्ट-लिबरल्स और फ़ेमिनिस्ट्स स्त्रियों को बुर्क़े या उस तरह के किसी भी नियंत्रणवादी-अवगुण्ठन से मुक्त कराने के संघर्ष में वैसी पोलिटिकल-करेक्टनेस की हाजत से उत्पन्न होने वाली दुविधाओं को अपने भीतर जगह ना दें और अपने नैतिक-परिप्रेक्ष्यों को सबके सामने स्पष्ट करें।
डेनमार्क को फिर से बधाई। तुमने वह किया, जो शायद हम आने वाले समय में कभी कर पाएँ।