स्त्री की भूमिका / पवित्र पाप / सुशोभित
सुशोभित
मनुष्य की चेतना और सामाजिक संरचनाएं परस्पर संघर्षरत रहते हैं, यह मनुष्य-नियति का एक अनिवार्य संदर्भ है। स्त्री उन सभी संरचनाओं के मूल में होती है, चाहे समाज हो, परिवार हो या विवाह हो।
इसका यह भी अर्थ है कि अगर स्त्री विपथ और विचलित हो जाए तो समस्त सामुदायिक संरचनाएं ढह जाएंगी।
तब प्रश्न यह है कि मनुष्य का मूल दायित्व अपनी चेतना की सम्पूर्णता के प्रति है, या किन्हीं आरोपित व्यवस्थाओं को जीवन भर ढोने के लिए? दूसरे, संरचनाओं की बुनियादी इकाई के रूप में स्त्री की भूमिका क्या होनी चाहिए?
स्त्रियां तय कर लें तो सभी संरचनाएं आज ही ध्वस्त हो सकती हैं, किंतु यह भी सच है कि अपने आदिम अवचेतन से पहले ही भयभीत मनुष्य-जाति इसके लिए हरगिज़ तैयार नहीं है। वैश्विक स्वायत्तता की कल्पना से अधिक समाज और राजनीति को और कुछ भयभीत नहीं करता!
इसलिए, मुझे मालूम होता है कि एक मौन अनुबंध सामाजिक संरचनाओं ने रचा है, कि हम इस यथास्थिति को जारी रखेंगे और इस अनुबंध के प्रति स्त्रियों की निजी निष्ठा विश्व-व्यवस्था के मूल में है।
किंतु जब मैं इस ऊपर से अनुकूल दिखाई देने वाली यथास्थिति के भीतर झांककर देखता हूं तो मुझे उसमें कुंठित हो चुकी आत्माएं, स्वयं से भयावह समझौते, बेमेल सम्बंधों के दुःस्वप्न और रौंदी गई अनुभूतियां ही दिखाई देती हैं।
मनुष्य ने अपने ही द्वारा रचे गए संस्थानों को बचाए रखने के लिए अपनी आत्मा से कैसे कैसे कलुषित समझौते कर लिए हैं, अब इसकी भी परतें क्या खोली जावें?