प्रेम में निष्ठा / पवित्र पाप / सुशोभित
सुशोभित
स्टीफ़न हॉकिंग के जीवन पर बनाई गई फ़िल्म ‘द थ्योरी ऑफ़ एवरीथिंग’ वास्तव में जेन हॉकिंग के जीवन की कहानी है। स्टीफ़न उसमें एक संदर्भ-बिंदु हैं। और भौतिकी के नियम तो उसमें सुदूर के पार्श्वसंगीत से अधिक नहीं। यह जेन की दो रिलेशनशिप्स की कहानी है- स्टीफ़न और जोनाथन। स्टीफ़न से उसे प्रेम था, लेकिन पके फल जैसा जीवन कालान्तर में उसे जोनाथन की ओर खींच ले गया, जैसे कि सेब बरबस ही धरती पर आ गिरता है- ग्रैविटी की पुकार से।
साठ के दशक के आरम्भ में स्टीफ़न कैम्ब्रिज का एक उजले ज़ेहन वाला छात्र था। हंसता-खेलता नौजवान। वो कॉस्मोलॉजिस्ट था और इसे ‘बुद्धिमान अनीश्वरवादियों का मज़हब’ बतलाता था। दूसरी तरफ़ जेन की परवरिश चर्च ऑफ़ इंग्लैंड में हुई थी और वो हर रविवार गिरजाघर जाती थी। वो मिडिएवल पोएट्री की छात्रा थी और विलियम ब्लैक को उद्धृत करती थी। इसके बावजूद उसको बिखरे बालों वाले और मोटी फ्रेम का चश्मा लगाने वाले स्टीफ़न से प्यार हो गया। विपरीत ध्रुवों ने एक-दूसरे को आकृष्ट किया। वो दोनों पीली धूप में तितलियों की तरह उड़ने वाले एक ख़ुशगवार जोड़े की तरह थे।
स्टीफ़न के टीचर्स उसको लंदन में रोजर पेनरोज़ की एक स्पीच सुनाने ले गए (रोजर को गए साल भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दिया गया है)। रोजर ब्लैकहोल पर बात कर रहे थे। वह स्पीच सुनते हुए ही स्टीफ़न को अपना जीवन-लक्ष्य मिला। यह तय हो चुका था कि अब उन्हें अपना पूरा जीवन ब्लैकहोल्स के अनुसंधान में लगा देना है। वो इसकी थियरी बनाने में जुट गए। तभी अचानक, बिना किसी चेतावनी या पूर्वसूचना के उनका शरीर उनका साथ छोड़ने लगा, उनकी माँसपेशियाँ अकड़ने लगीं। एक तरफ़ प्रेम का भावोद्रेक था, दूसरी तरफ़ जीवन-प्रयोजन का उल्लास : और अचानक यह त्रासदी।
प्रेम का एक आत्मगौरव होता है। उसने जेन को ग्रस लिया, जब उसे बतलाया गया कि स्टीफ़न मर रहा है। उसने स्वयं से पूछा, जिसे मैंने प्रेम किया था, क्या अब उसे इस घड़ी में छोड़ जाऊं? सहूलियत और समझदारी तो इसी में थी, लेकिन तब वो ख़ुद को मुँह कैसे दिखा पाती? उसने दूसरा रास्ता चुना और सबकुछ जानते हुए स्टीफ़न से विवाह किया। उसे बतलाया गया था कि स्टीफ़न के पास केवल दो साल हैं। लेकिन (दुर्भाग्य से या सौभाग्य से?) स्टीफ़न ने कहीं लम्बी उम्र पाई (वर्ष 1963 में स्टीफ़न हॉकिंग की मोटर न्यूरॉन डिसीज़ का खुलासा हुआ था, लेकिन वे 2018 तक जीवित रहे)। यहाँ से कठिनाइयाँ शुरू हुईं।
जीवन मृत्यु से अधिक चुनौतीपूर्ण और कम काव्यात्मक होता है। विश्व के लिए यह सौभाग्य था कि स्टीफ़न जीते रहे, किंतु जेन के लिए यह कड़ी परीक्षा बन गई थी। एक सीमा के बाद जेन का धैर्य चुक गया। उनके जीवन में जोनाथन आए, जो संगीतकार थे, ईश्वर में गहरी आस्था रखते थे, और जो सामान्य पुरुषों की तरह चल सकते थे, बोल सकते थे, दु:ख में जेन को आसरा दे सकते थे। स्त्री सशक्त होती है, फिर भी स्वभाव से ही पुरुष से मिलने वाले सम्बल की तरफ़ बेल की तरह झुक जाती है। जेन को भी जोनाथन से प्रेम हो गया।
तब जेन ने स्वयं से क्या कहा होगा? मनुष्य के मन को स्वयं को छलने में सिद्धि प्राप्त है। जिस सम्बंध में वह प्रेम और निष्ठा का हवाला देकर आता है, कालान्तर में फिर परिस्थितियों का हवाला देकर उसी से बाहर निकल आता है। प्रेम ज्वार की तरह होता है। यह हमेशा ही चंद्रमा की पुकार पर लहर नहीं बनता। जो भी मीनार पर चढ़ता है, एक दिन नीचे उतरता है। पहाड़ पर कोई घर नहीं बनाता। जेन के प्रेम में आत्मगौरव था। जब वह थक गई तो उसने आगे बढ़ने का रास्ता चुन लिया। लेकिन उसने आत्मगौरव की बलि नहीं चढ़ाई। मनुष्य अपने अभिमान को कलंकित नहीं होने देता, इसीलिए स्वयं को छलता है। पहले कही गई बातों, दिए गए वचनों और बाँधी गई निष्ठाओं से जब वह आगे बढ़ता है, तो भी लज्जा से म्लान नहीं होता। वह भी एक रास्ता था, यह भी एक गति है- कहकर अपने जीवन के रियाज़ को साधता रहता है।
क्या प्रेम में निष्ठा इतनी असम्भव है? शायद नहीं, बशर्ते मनुष्य के संकल्प को हिमालय के आकार की परीक्षा मिले। प्रेम में ईश्वरत्व की आकांक्षा होती है और मनुष्य होने से उसमें ख़लल पड़ता है। प्रेम करने वाले मनुष्य एक-दूसरे को ईश्वर नहीं बना पाते और अपने मनुष्य होने को लाँघ नहीं पाते। नश्वरता की उपासना एक सीमा तक ही सम्भव है। इन्हीं विवशताओं, दुर्बलताओं और सीमाओं से मनुष्य के अस्तित्व का व्याकरण बनता है।
जब स्टीफ़न को बतलाया गया कि उनका शरीर धीरे-धीरे सिमट रहा है और उनके पास जीवित रहने के लिए केवल दो साल हैं तो उन्होंने पूछा, लेकिन मेरे ज़ेहन के बारे में क्या? उनको बतलाया गया कि उनके ज़ेहन के कलपुर्ज़े ज़रूर पहले की तरह दुरुस्त बने रहेंगे। यहीं पर स्टीफ़न ने निश्चय कर लिया कि अब जितने दिन जीना है, इसी बुद्धि को तराशना है। उनका शरीर पीछे छूट गया था, वो अपने मस्तिष्क में उठने वाली एक तरंग बन गए थे। अपाहिज होने के अपमान को वो घोलकर पी गए। अपने अभिमान को उन्होंने पीछे धकेल दिया। वो जीवित रहने के लिए दूसरों पर निर्भर थे। इसको उन्होंने स्वीकार कर लिया था। अगर इसका मतलब एक युवा स्त्री के जीवन पर ग्रहण बन जाना था, तो इसके लिए ख़ुद को दोष देकर वो कुछ पा नहीं सकते थे। यह स्टीफ़न और जेन की सम्मिलित नियति थी।
स्टीफ़न ने अपने भीतर की जिजीविषा को पुकारा और जीवित रहे। उन्होंने पुस्तकें लिखीं और अपने मिज़ाज की मिठास से लोकप्रिय संस्कृति का अटूट हिस्सा बन गए। स्टीफ़न हॉकिंग की कहानी मनुष्य की जीवेषणा के महानतम उदाहरणों में से एक है। जिन हालात में किसी का भी दम घुट जाता, कुंठा से वह मर जाता, तब स्टीफ़न एकनिष्ठ होकर अपनी जीवन-साधना करते रहे। और जीवित रहे। जीवित रहना हमेशा ही सुंदर नहीं होता। किंतु सबकुछ सुंदर होगा, इसकी इच्छा करना जो महज़ इक्कीस साल की उम्र में त्याग देता है, उसके संकल्प का कोई ओर-छोर नहीं रह जाता।
स्टीफ़न हाकिंग के जीवन पर बनाई गई फ़िल्म में ये तमाम आयाम रूपायित हुए हैं। एक विलक्षण जीवन पर बनाई गई यह एक सुंदर फ़िल्म है, और स्टीफ़न से अधिक जेन हॉकिंग के जीवन-संघर्ष को केंद्र में रखने के कारण वह अधिक मानवीय हो गई है। रोजर पेनरोज़ की स्पीच में स्टीफ़न को बतलाया गया था कि जब एक सितारा मरता है तो अपनी ग्रैविटी के खिंचाव में अपने ही भीतर धंसने लगता है और ब्लैकहोल बन जाता है। ब्लैकहोल के केंद्र में घनत्व की वह चरम स्थिति होती है कि वहाँ स्पेस-टाइम सिंगुलैरिटी की स्थिति बन जाती है। स्टीफ़न ने पूछा, अगर आइंश्टाइन सही थे और यूनिवर्स लगातार फैल रहा है, तो घड़ी की सुइयाँ पीछे घुमाने पर हमें क्या मिलेगा? अपने में सिमटता हुआ यूनिवर्स, किसी ब्लैकहोल बन रहे तारे की तरह? तो क्या यूनिवर्स के आरम्भ में भी वही स्पेस-टाइम सिंगुलैरिटी थी, अस्तित्व की परम एकात्मकता? अगर जीवन का मतलब व्याप्ति है और मृत्यु का मतलब संकुचन है तो क्या जीवन का आरम्भ मृत्यु से हुआ है? जबकि हम तो सोचते हैं कि जीवन का अंत मृत्यु से होता है।
स्टीफ़न ने इसे ‘वाइंडिंग बैक द क्लॉक’ कहा था। ‘द थ्योरी ऑफ़ एवरीथिंग’ के एक दृश्य में नौजवान स्टीफ़न जेन का हाथ थामकर एंटी-क्लॉक रीति से घूमने लगते हैं- हंसते-खिलखिलाते हुए। फ़िल्म के अंतिम दृश्य में हम उन्हीं स्टीफ़न को व्हीलचेयर पर देखते हैं, लगभग एक लाश, जो सोच सकती है, जिसमें कॉन्शियसनेस का दीया अब भी टिमटिमा रहा है। स्टीफ़न अपने बच्चों की तरफ़ इशारा करते हुए जेन से कहते हैं- ‘देखो, हमने क्या रचा है!’ फ़िल्म इस बिंदु से फ़्लैशबैक होने लगती है, एक-एक दृश्य पीछे की तरफ़ दौड़ता है और कैम्ब्रिज में इक्कीस साल के नौजवान स्टीफ़न के चेहरे पर जाकर रुकता है, जिसने सबसे पहले जेन को देखा था और उससे प्रेम कर बैठा था।
वाइंडिंग बैक द क्लॉक : जीवन से मृत्यु और मृत्यु से फिर जीवन। सृष्टि का महानृत्य। समय शायद एक सीधी लकीर में नहीं चलता और ज़िंदगी का तरन्नुम जब हमारे भीतर से गुज़रकर हमें खंख कर रहा होता है, तब भी कुछ ना कुछ हमेशा शेष रह जाता है। जीवित रहने की तमाम कुरूपताओं के बीच हमें उस शेष से कभी नज़र नहीं डिगाना चाहिए- आख़िर यही स्टीफ़न और जेन की ज़िंदगी की कहानी है!