इजोतिया / शालिग्राम
समय में जरा भी उतार-चढ़ाव नहीं।...
खटिया पर पड़ा-पड़ा जीबू हाँफ रहा है। कलेजे में कंपकंपी समा गई है। जानमारू ठण्ड। नन्हें बच्चे की तरह निहत्था, इस शीत में यह भी नहीं होता कि वह उघरे पाँव को कम्बल से ढँक ले। बाहर हाथ निकला कि लुन्ज मार देगा तुरन्त... अलबत्त की ठण्डी। और बुढ़ापा तो कुसूर है। उमिर की गति, ऐसे भी दिन आते हैं। इजोतिया ओसारे पर खड़ी, दोनों हाथ से घर की बल्ली पकड़ी हुई है।
नजर सामने सहजन गाछ से चढ़ती लत्ती पर टिकी हुई है-हरी-हरी कद्दू की लत्ती !..... उजले उजले फूल, जिसे वह एक हफ्ते से देखती आ रही है। छोटा बतिया अब बड़ा होकर लटक गया है। कद्दू भात खाने की इच्छा बराबर बनी रही। एक साँझ के लिए तो चावल हैः पर ठंड। वह कब तक दिन खुलने के आसरे बैठी रहेगी?... जी ललचता है। अब वह इसे तोड़ लेगी। बाहर से ठंडी हवा आती है। इजोतिया के रोएँ खड़े हो जाते हैं। कई दिनों से वह इसी सोच में पड़ी रही कि क्यों उसने रामेसर को गलियाँ दीं?
उसने रामेसर की एक-एक बात को अपने अन्दर तौला-जोखा पक्के कियाल की तरह, जरा भी कम-बेस नहीं। पर सभी विचार एक-एक कर डूबते गये-अथाह गहराई में। पता नहीं वह कैसे इसे ऊपर कर पायेगी। अन्दर एक हिलोर उठी जो किनारे से जा टकराईः पर वह टकराहट नहीं, अन्दर का गुब्बार रहा मात्र. ....एक धुन्ध, उद्वेग! बस शुरू का चढ़ाव जो नीचे से ऊपर बड़ी तेजी में चढ़ता, समतल पर पहुँच स्थिर हो जाता और जब नीचे गिरता तो शुरुआत से कम नहीं।. ..करमचारी! एक सफेद कल्पना.... रंग रूप से पड़ी एक रेखा जिसकी उसे इच्छा जगी.... मीठा स्वाद आया।
जबसे रामेसर करमचारी के यहाँ नौकरी करने लगी है तब से उसकी हालत बदल गई है। उसकी घरवाली की देह पर रेशमी पटोर झूलने लगा है। कान में कनफूल, हाथ में वाला, गले में सिकड़ी.... सब कुछ। किसी चीज की कमी
नहीं। अब वह कटनी बन्धनी को खेत-पधार भी नहीं जाती है। इजोतिया अपने आप पर झेंप गई। लगा, आठ दिनों का सूरज बादल से निकल आया हो। शीतलहरी के दिन बीत गये। चारों तरफ उजाला। क्यों नहीं वह बाहर निकल घूमे-फिरे?
चन्नन बाबू का सिपाही पूरन सिंह जब भोर में जन की टोह लेने निकलता तो वह रामेसर के घर की ओर नहीं जाकर, सीधे बिन टोली को मुड़ जाता है — यह जानकर कि अब तो रामेसर की बहू परी बन गई है.... उड़न परी ! हा-हा-हा-हा... उड़न परी कहीं बनिहार करे?
सिपाही की दोनो उँगलियाँ मूँछ पर चली आती और बलॉक वाला करमचारी का चमरचट चेहरा सामने आ जाता है...हमेशा खें-खें खाँसता, बीड़ी के धुँए से बने काले-काले होंठ, खिखिर की माँद की तरह धँसी आँखें-सिपाही कसकर एकबार लात मार दे तो पेट का फेकचा निकल जाए बाहर ।..... 'स्साला, पैसा कमा कमाकर बहा देता है रंडीबाजी में। जोरू-जाता का ठिकाना नहीं। रामेसर को अपने यहाँ रखा है. ..स्साला वह भी भडुआ! कोई नहीं मिला तो अपनी बहू को सुपुरद करता है..... टेंट भरता है और बदले में अपना सिरमां भेंट चढ़ाता है.... छिः छिः कोढ़ फूटे ऐसी जिनगी को-दमरी को चमरी पर नमरी का लोट!' जिस किसी के पास हुआ इतनी गालियाँ सिपाही जरूर दे बैठता है-उन दोनों को, करमचारी और रामेसर !
इजोतिया चिमटा से बोरसी की आग उकटती गई..... उकटती गई अन्दर तकः पर कहीं कुछ नहीं मिला चिलम भरने को....बस, राख ही राख, उसका बाप जाड़े में दुलक रहा है। वह जल्द चिलम भर दे। आठ रोज हो गये..... अभी तक दिन नहीं खुला है, ठंड के मारे। हमेशा धुन्ध छाई रहती है आकाश में। वर्षा भी खूब नहीं होती कि सब पानी चू जाय आकाश से एक बार और सूरज निकल जाए भक से। केवल टप-टप बूँदें ओस की तरह.... ।
ऐसी शीतलहरी कभी नहीं आयी। जीबु की उमर भर नहीं। इस साल बुढ़वा नहीं बचेगा। इजोतिया को बाप पर दया आती है। वह जीबू की ओर ताकती, जल्दी-जल्दी बोरसी से राख बाहर निकालती है। एक लुत्ती चमकी। इजोतिया की आशा बंधी। वह डलिया से गोयठा चुन-चुन कर बोरसी भरने लगी। जल्दी आग वने कि वह चिलम भरे, और बाप को इस ठंड में सुपुरद करे। कुछ तो राहत मिलेगी ।
इस साल उसे बाइसवाँ लग रहा है। इजोतिया को जीबू पर गुस्सा आता है।.... आजकल-आजकल वह कहता रहा, हमेशा... 'हाँ हाँ, इसी फागुन में इजोतिया का ब्याह कर देंगे-जुआन-जहान को घर में रखना ठीक नहीं।' एकबार नहीं, कई बार...... कोठी के दोगे से, भंसा घर की झिलमिली से, यह सुनते-सुनते इजोतिया के कान बहरा गए। अब सुनने में कोई मजा नहीं कि छमक कर वह अपनी सखी-बहिनियाँ से खुसुर-फुसुर बातें करे, 'गे किसनी! गे देवकी! गे विलसिया!' और शरम से सिर नीचे झुका ले। इसकी जोड़ी-पारी सव ससुराल बस गई हैं। बस, एक इजोतिया ही रह गई आम की तरह पाल पर पक पक कर सड़ने को केवल। अब इसके पास रहा ही क्या? जिनगी भर बाप की सेवा करती रही. ...दिल की ढेर सारी आशा पर पानी फिर गया.... गोबर का ढेर बनकर सरांध. ...वस, उजले कुकुरमुत्ते निकल आए, यही वहुत पर हाथ लगते ही टुकड़े-टुकड़े। जीबू सव दिन गाँव में बेगार का बेकार बना रहा। पेटभत्ता पर भी लोग ऐसे जन से काम कराने तैयार नहीं होते। काम के नाम से उसके माथे पसीना छूटने लगता है। यह तो इजोतिया बेटी ही है कि उसने जीबू जैसे कोढ़ियठ बाप का पेट पालते अपने जीवन के भीत को लीप-पोत कर चिक्कन-चुमुन बना लिया है-खेलने-कूदने, दौड़ने-धूपने का कभी मौका ही न मिला। थोड़ी बड़ी हुई कि हँसिया हाथ में पड़ा और खेत-खेत कटनी बाँधनी करने लगी..... माथे पर भारी- भारी बोझ उठाने लगी। अपने हाथ की कमाई से उसने बाप का उधार किया, माँ की कोख को गंगा पानी-सा स्वच्छ बनाया और उसकी आत्मा को सुख पहुँचाया। अब इजोतिया कहाँ-कहाँ इजोत करे? अपने सब दिन अंधेरे में रहे क्या? दीये की तरह जलती, दूसरों को इजोत करती।
बोरसी की आग सुलग गई। धन्धार में इजोतिया का चेहरा चमक उठा, लाल! बड़ा अच्छा लगा इजोतिया के दोनों गरम-गरम गाल। उसने अपने कान की बाली को छुआ.....गीलट बिलकुल नकली, चाँदी का नहीं। रामेसर की बहू को असली चाँदी का कनफूल है। उसका मन टूट गया। क्यों उसने रामेसर को गलियाँ दी?.....
बोरसी खिसकाकर खटिया के नीचे रख दी उसने। जीबू की जान जैसे तैरकर किनारे आ गई। आग के ताब में उसका बदन टनटना गया। एक भोर से लू मार दिया था उसे। अब लगा प्राण को प्राण मिल गए हैं। उसने दिल खोल कर कहा, 'अ-हो-हो-हो-हो-जिनगी अनन्द रहे, अनन्द रहे सब दिन बेटी! भगवान रछिया करे.... चिलम भर दे कंठ सूख रहा है बेटा। इजोतिया का जी सिहर गया। पाँव त्तले विषधर दब गया हो जैसे। आशीष वचन तो उसकी जिन्दगी का शाप बना रहा, सब दिन। हरहरा साँप की तरह...... 'मत मारो, मत मारो-नाग देवता है यह चुप रही। कभी चौबा तक न उठाई, पर नाग ने डस लिया और विष ऊपर चढ़ गया। अब कौन बचाए? 'जिनगी अनन्द रहे अनन्द रहे' कैसा लबरधोंधू है उसका बाप। बोलने तक का शऊर नहीं। अनन्द क्या? करम से आया, करम से कूट खाया, अपना भरोसा रहा......फिर अनन्द! बोरसी उलट दे देह पर, कि बुढ़वा केकिया-केकिया कर जल मरे। और इजोतिया खड़ी खड़ी देखती रहे, इस्स तक न बोले। भले जान का जंजाट टल जाय..... रोग! उसने जहर-सा मुँह बना कर जीबू के हाथ में चिलम थमा दी।
अभी तक वह खेत कटनी को नहीं गई है। आज ठंड में बाहर निकलना उससे पार नहीं लगेगा। घर में ही वह दिन भर घुरमुराती रही......हाथ में हंसिया लिए नाटक के पात्र की तरह स्टेज पर जाने से पूर्व मन में संवाद दुहराती हो जैसे। वह कभी बोरसी के पास बैठ जाती तो कभी दरवाजे का खम्भा पकड़ खड़ी हो जाती है। अजीब सी कछमछी और ऊहा-पोह।
आसमान का रंग और भी मटमैला पड़ता जा रहा है। साँझ हो रही है जैसे। पानी टप-टप गिर रहा है। उसने जीबू के बदन को ठीक से ढँक दिया और बोंरसी की आग सुलगा दी जिससे गर्मी लगते ही बुढ़वा जल्द सो जाय। वह ओसारे से उतर बाहर चली आई। दिन भर के अपने बन्ते उघड़ते विचारों को उसने ठीक से सुलझाया..... अन्दर एक अजीब सी धड़कन समा गई। सारा बदन काँपने लगा।
सामने वलॉक के क्वाटर दिखाई दे रहे हैं एक कतार में.... पीले-पीले रंग के। उसने बड़ी-बड़ी फाँक आँखों से देखा, जैसे कभी देखा न हो.... नया दृश्यावलोकन। पर आज उसका रंग और पीला मालूम पड़ता है.... एक नये सिरे से पुती दीवार जिसकी पिछवाड़े वाली खिड़की पर टंगा उजला परदा सफेद बगुले के पाँव जैसा लग रहा है। देखते ही इजोतिया के मन पर सफेदी छा जाती है, इस पियरी में भी। वह अपनी देह को निहारती है। दोनों वाहें अंगिया की कसी आस्तीन में उमर गई हैं, पुष्ट। आँचल छाती से चिपका हुआ है.....सिट-सिट हवा का झोंका, वाहर ठंड। उसे अपना बदन अच्छा लगा।
उसने फिर अपने आँचल को ठीक से लपेट लिया और दोनों हाथों को मोड़ छाती से लगा वह उस ओर बढ़ चली।
बूँदा-बूँदी होती रही। रास्ते पर कजली पड़ गई हैं। वह सम्भल-सम्भल कर बिल्ली की तरह आगे बढ़ती जा रही है। उसके मन में आता है.... साथ में अगर रामेसर रहता तो उसे जरा भी डर नहीं लगता। फिर भी वह अपने को मजबूत करती, डेरे के पिछवाड़े में खड़ी हो गई और साहस के साथ आगे की सीढ़ियाँ चढ़ने लगी.....एक, दो, तीन। उसका जी मचलने लगा और उसने जोर से दरबाजा खटखटाया। दोनों किबाड़ खुल गये। इतने में अन्दर से क्रेन की तरह दो हाथ बाहर निकले और इजोतिया को दबाते हुए भीतर ले गये। दरबाजा चटाख से बन्द हो गया। खुली खिड़की का परदा हिलता रहा।
अभी साँझ नहीं हुई है। सहजन गाछ पर चढ़ी कदू की लत्ती...... उजले- उजले फूल और एक बड़ा बतिया ! कौआ उस पर चोंच मार रहा है। दिन ढल रहा है। सूरज पश्चिम में बादल की ओट से निकल आया है। डूबता सूरज ! किरणें खिड़की के उजले परदे पर पड़ने लगी हैं- जैसे आगे सिनेमा का स्क्रीन हो।