इदन्नमम / मैत्रेयी पुष्पा / पृष्ठ 1

Gadya Kosh से
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एक

बेर की कँटीली झाड़ियों और गूलर के पेड़ों से आच्छादित गैल से निकलकर बैलगाड़ी सड़क पर आ लगी। सड़क-सड़क चलते ही लिपी दीवारों वाले घरौंदों की खपरैलें तथा बीच गाँव में बने पक्के अटाओं की झिलमिलाती सफेदी दिखाई पड़ने लगी।

छतों पर झुके पेड़ रूखों की हरियाली को देखकर बैलों को हाँकते हुए पक आयी उम्र के गनपत बोले, ‘‘लो बऊ, आ गया श्यामली गाँव।’’

सुनते ही बऊ के गेहुआँ रंग के बूढ़े चेहरे पर हड़बड़ाहट छा गयी। ऐनक नाक के ऊपर से नीचे सरक आयी, नाक में पहनी सतबुँदिया लौंग के ऊपर। उन्होंने होंठ सिकोड़ लिए, जिसके कारण नाक अधिक नुकीली-सी दिखने लगी।

चश्मा साधकर उन्होंने निगाह तेरह वर्षीय मन्दाकिनी पर डाली जो गाड़ी में बिछे खेस पर बेसुध सो रही थी और फ्रॉक सिकुड़ जाने से जिसकी जाँघें खुल आयी थीं।

‘‘फिराक नहीं बदली मोंड़ी ने ! बिराने गाँव में ऐसे ही...उघारे गोड़ ! सिलवार-कुरता पहर लेती तो ठीक रहता।’’

‘‘बखत ही नहीं मिला होगा। नहीं तो मन्दा फिराक पहरकर आने वाली नहीं थी। हमारे दुख के कारण बोल नहीं पायी स्यात।’’


‘‘आग लगे मोरी बूड़ी छाती कों ! पछरा पर गये बुद्धि पर ! ख्याल ही नहीं किया कुछ। ऐसी सिर्रिन बाबरी हो गयी।’’

‘‘लो जिन्दगी-भर गिरिस्ती अकेलें खेंची। महेन्दर को पाल-पोसकर बड़ा किया अकेली ने ही, और आज ऐसी निबल हो उठी। कतई हिम्मत छोड़ बैठी !’’ बऊ एकालाप में डूबी थीं।

‘‘लै आज तोय कौल है महेन्दर मताई ! पराये गाँव का सीवान नाँखने जा रही है, जो आँख से कबहुँ अँसुआ डारै।’’ बऊ ने सौगन्ध धरी अपने ही ऊपर। अपनी छाती पर हथेली जमा ली, जैसे प्रण ले रही हों। साथ ही मोह के गीलेपन से प्रयत्नपूर्वक। अपने चित्त को झटके से उखाड़ लिया। कटी जड़ों में टीसते दर्द को पीती हुई वे आगे बढ़ी चली जा रही हैं।

ऊँचे मन्दिर के पास से बैलगाड़ी ने सड़क छोड़कर गाँव के भीतर को मोड़ लिया। चौड़ी गली से गुजरती, नालियों को नाँखती उनकी गाड़ी पंचमसिंह के द्वार से जा लगी।

कुछ देर गनपत यों ही बैलों की रास थामे खड़े रहे।

न उनको ही कुछ सूझा, न बऊ को।

बऊ का मन अजीब-सी दुविधा में फँसा है कि यहाँ आकर आज उन्हें चैन की साँस लेनी चाहिए या इस अपरिचित गाँव में अपने प्रति और भी सचेत, सतर्क हो जाना चाहिए।

जिस बोध से चली थीं, वही डगमगाने लगा।

उन्होंने अपनी दुश्चिंता को काटने का प्रयास किया—पंचमसिंह ने जान लिया होगा कि अब हमारा धनी-धोरी गाँव-आनगाँव में कोई है नहीं। तभी तो बुला लिया अपने यहाँ। तभी जिम्मेदारी लेने का वचन दिया है। महीन धागे-सी रिश्तेदारी कह लो या उनका बड़ा कलेजा, नहीं तो कौन पड़ता है किसी की आपदा में !

वे अपने-आप को समेटती-सहेजती बोलीं, ‘‘गनपत, तुम ऐसे ही काहे ठाड़े रह गये ? गाड़ी खोलो।’’

गनपत ने गर्दन मोड़कर देखा, ‘‘लो तुम उतरो तो सही। गाड़ी का मुख नीचे को दबाना पड़ेगा।’’ कहकर गनपत अपने नाटे कद के कारण उछलते हुए उतर पड़े। सिर के काले-सफेद बालों में चमकता पसीना पोंछने लगे और फिर अँगोछा गर्दन के आसपास लपेट लिया।

बऊ ने चश्मे की कमानी नाक पर ठीक से बिठाई। धोती के पल्ले को सही किया, चेहरे पर माथे तक का घूँघट सरकाकर मन्दाकिनी को झकझोरकर जगाने लगीं।

‘‘मन्दा ! उठ बिटिया ! उठ तो !’’

वह हड़बड़ाती हुई उठ बैठी।

साँवली रंगत के स्निग्ध गालों पर मोटे खेस की बुनावट के निशान स्पष्ट ऊभर आये हैं। कड़क धूप से देह तप गयी है। गर्दन पर बिखरे बाल पसीने से तर हैं। मुख तमतमाकर लाल हो आया...कैसा भेस हो गया है मोंड़ी का ! बऊ भीतर पिघल उठीं।

सिर पर हाथ फेरती हुई बोलीं, ‘‘मुँह पोंछ डालो बेटा।’’

उसकी अधमुँदी पलकों के बीच पुतलियाँ चैतन्य नहीं हो पा रहीं। नींद का गहरा प्रभाव है। कुछ देर ऊँघती हुई बैठी रही। सिर दोनों बाँहों और घुटनों पर टिका लिया।

बऊ ने फिर हटोका, ‘‘उठो बिन्नू।’’

मन्दाकिनी पलकें मूँदें हुए ही बोली, ‘‘बऊ, आ गया श्यामली ?’’

‘‘और क्या ! आ नहीं गया !’’

‘‘उतरें बऊ ?’’ कहते हुए उसने अपनी सीपी-सी आँखें खोल दीं।

‘‘लो, इतेक देर से हम और क्या कह रहे हैं। पर पहलें अपनी फिराक-ठीक-ठाक कर लो।’’

बऊ ने बच्ची का कंधा थपथपा दिया।

वह खड़ी हो गयी। अपनी हरे रंग की फ्रॉक झाड़-झूड़कर नीचे को सरका ली। खेस के नीचे से नीली पट्टी वाली हवाई चप्पल निकालीं, पहनकर खड़ी-खड़ी, हाथ फेर-फेरकर अपने बालों को ठीक करने लगी। ज्यों कंघी से ओंछकर एक-से कर रही हो।

उधर के पहिये पर पाँव टिकाकर बऊ उतरीं और इधर की ओर मन्दाकिनी। बऊ कुछ देर तक लम्बी कद-काठी के चलते अकड़ी हुई कमर को सीधी करने के यत्न में खड़ी रहीं। फिर पाँवों में पहने चाँदी के लच्छे, जो आपस में उलझ-से गये थे, ठीक से बिठाये।

गनपत ने दोनों बैलों के रस्से नीम के तने से बाँध दिये। पिछौरा बँधा चारा उनके सामने खोलकर रख दिया और गाड़ी को जुआ झुकाकर एक ओर टिका दिया। अपना अँगोछा कंधो पर डालकर वे हाथ से पसीना पोंछते हुए बैलों के पास ही जमीन पर जा बैठे।

उनके बैठते ही बऊ कड़क आवाज में बोलीं, ‘‘द्वार खटकाओ गनपत।’’

अपनी आवाज में समायी बुलन्दी पर उन्हें स्वयं अचरज हुआ। लगा कि वे तो आज उसी लय में बोल रही हैं, जैसे अपनी बाखर में मईदारों को हुक्म सुनाया करती थीं और जिसे कुछ समय से भूलती जा रही हैं।

मन्दाकिनी ने निगाह घुमा-घुमाकर चारों ओर देखा। वीरानी को देखकर पूछने लगी, ‘‘यहाँ तो कोई नहीं है बऊ ! तुम तो कहती थीं, पंचमसिंह दादा के घर में बहुत-बहुत सारे लोग हैं !’’

बऊ ने अपनी धोती का पल्ला अच्छी तरह से कमर में खोंसा, नरम आवाज में बताने लगीं, ‘‘खेत कटनईं के दिन हैं बेटा, सब जने खेतों, खलिहानों में होंगे। घर की जनी-मानसें भी रोटी-पानी लैकें वहीं गयी होंगी।’’

बच्ची दो क्षण कुछ सोचती रही, सहसा चुप्पी तोड़ते हुए बोली, ‘‘हमारा खेत तुमने क्यों नहीं कटवाया बऊ ? कौन कटबायेगा। ?’’

बऊ के भीतर पैनी धार उतर गयी, क्या उत्तर दें इस प्रश्न का ? दो पल निरीह-सी देखती रहीं, फिर गहरा श्वास भरती हुई कहने लगीं, ‘‘भगवान कटबायेगा अब। अब उसी पनमेसुर के ऊपर छोड़ा है।’’

दादी का सूक्त वाक्य सम्भवतः बच्ची की समझ में नहीं आया। वह उन्हें उसी तरह प्रश्नवाचक नजरों से देखती रही।

कलईपुती दीवारें। किशमिशी रंग की चिकनी और पीतल की पीली कील-ठुकी किवाड़ें। मन्दाकिनी छू-छूकर देखने लगी।

घने नीम के हरियल वृक्ष की ओर देखती हुई बोली, ‘‘बऊ, अपने द्वार जैसा ही लग रहा है न इस घर का द्वार ?’’

बऊ ने ‘हाँ’ कहते हुए सिर हिलाया और महीन-सी हँसी हँस दी—‘‘सारे जमींदारों की हवेलियों की गढ़त एक-सी होती है स्यात।’’

दुबारा-तिबारा किवाड़ें भड़भड़ाने पर भारी चरमराहट के साथ द्वार खुला। किवाड़ों के बीच एक महिला खड़ी दिखाई दीं।

वे साँवली रंगत और मझोले कद की हैं। बीच की उम्र है। तरुणी न वृद्धा। हरी फूलदार किनारी वाली गुलाबी रंग की धोती पहने हुए। घूँघट माथे तक है। गले में सोने की हँसुली चमक रही है। बऊ ने उन्हीं पल-छिनों में सारा कुछ देख लिया।

‘‘सीताराम !’’ गनपत ने उनसे झुककर अभिवादन किया।

‘‘खुसी रहो, कहाँ सेऽऽऽ ?’’ उनका एक हाथ किवाड़ पर टिका था।

‘‘सोनपुरा से। महेन्दरसिंह की मतारी हैं हमारे संग। उनकी बिटिया मन्दा भी।’’ गनपत ने तर्जनी से इंगित कर दिया।

सुनकर एक पल को महिला का मुख विवर्ण हो आया।

कुछ देर अवाक् खड़ी रहीं।

जब सँभलीं तो पूछा, ‘‘जो मर गये थे, वे ही महेन्दरसिंह ? वे, जिनकी जनी...’’

गनपत ने स्वीकृति में सिर हिलाया।

‘‘दइया !’’ उनके मुख से अनायास ही निकल पड़ा।


बाहर की ओर गौर किया तो देखा कि कुछ दूरी पर एक वृद्धा, लगभग बारह-तेरह वर्ष की बच्ची को अपने से सटाये खड़ी हुई हैं। उनका हाथ बच्ची के सिर पर है और स्वयं कुछ। झुकी हुई-सी।

अभिवादन करने के लिए वे आगे बढ़ीं और बऊ के चरणों में झुक गयीं।

अधबीच ही रोक लिया बऊ ने। कंधे पकड़कर ऊपर उठा लिया।

‘‘पाँव जिन छुओ। रिस्ते में तुम हमारी भतीजी लगती हो। पंचमसिंह के घर से ही हो न ? देवगढ़वारी ?’’

‘‘हओ।’’

‘‘हम तुम्हारे पिता की फुआ की बेटी हैं, और यह हमारी पोती।’’ कहकर बऊ ने मन्दाकिनी को हाथ पकड़कर आगे कर लिया।

‘‘भीतर आ जाओ।’’ वे दोनों आगे हो लीं।

पौर में खटिया नवाती हुई सोच में बिंध गयीं, दादा ने तो इनकी आवाजाई को लेकर कुछ कहा नहीं। क्या करें ? क्या दुआरे से ही वापिस कर दें, या अपरिचित बनी रहकर किवाड़ें मूँद लें ? अब जो भी हो, द्वार आयी पाहुनी हैं। स्यात रहना भी हो इन्हें यहाँ, कि जाना हो....

खटिया बिछी तो बऊ बैठ गयीं। मन उठंग है। अधबीच लटका हुआ। मन्दाकिनी सहमी-सी एक ओर खड़ी अपनी लाल रिबन बँधी मोटी चोटी से खेल रही है। वे बच्ची के पास पहुँच गयीं, ‘‘सरमा रही हो तुम ? हम कक्को हैं। घर-गाँव के सब लरका-बिटिया हमें ‘कक्को’ कहकर बुलाते हैं, तुम भी कक्को कहो।’’ उन्हें मन्दाकिनी को देखकर ममता उमड़ आयी। उसकी पीठ को सहारा देती हुई वे खटिया तक ले आयीं और अपने से सटाकर बिठा लिया।

वे देखती रहीं, बच्ची की आँखें कजरारी, घनी लम्बी बरौनियों वाली हैं, जिन्हें वह पटर-पटर झपका रही है। खाने वाला मुँह छोटा है, ऊपर का होंठ धनुष की तरह कटावदार और ललामी लिए हुए। मुख पर झलकती उम्र के मुकाबले कद लम्बा है। टेढ़ी माँग निकालकर बाल सँवारे हैं और एक लट अंडे की सी बनगत वाले चेहरे पर बार-बार झूल जाती है, जिसको सिर झटककर वह पीछे कर लेती है।

‘‘बहू जा बिटिया को छोड़कें चली गयी।’’ वे बऊ से मुखातिब हुईं।

बऊ कुछ न बोलीं, जैसे चुप्पी के परदे में स्वयं को छिपा रही हों।

‘‘पानी ले आवें हम। प्यास लगी होगी।’’ कहकर वे भीतर चली गयीं।

मन्दाकिनी खटिया पर बैठी-बैठी अपने लटके हुए पावों को हिलाने लगी थी, ज्यों पंजों को झूला झुला रही हो।

बऊ ने देखते ही हटोका, ‘‘सूधें बैठ जा मन्दा ! पाँव नहीं हिलाते, दोस होता है।’’

उसने अपने पाँवों की हरकत उसी दम रोक दी और पूछने लगी, ‘‘दोस क्यों होता है बऊ ?’’

बऊ से कोई उत्तर न बन पड़ा।

कक्को ने पानी भरा लोटा बऊ को थमा दिया। बऊ ने पानी का रंग देखा और बोलीं, ‘‘जे तो सरबत है। इतेक हमसे नहीं पिबेगा। मन्दा भी इसी में पी लेगी। और जिन लाना।’’

‘‘हमारे गनपत कक्का पियेंगे लाओ हम दे आयें,’’ मन्दा ने कहा—

वे विहँस उठीं, ‘‘तुम काहे ? हम दे आते हैं।’’

कक्को खटिया के पायँते बैठ गयीं। अब क्या बातें करे ? किस छोर की गहें ? कहाँ से आरम्भ करें ? और कहाँ अन्त ? दुख-विपता की बातें चलाना क्या आसान काम है ? जबकि मालूम हो, सामने बैठा मनिख ठहरी हुई पीर में फिर बहने लगेगा।

किस हिम्मत से छेड़ें बऊ के दुख का प्रकरण...वे चुप बैठी रहीं।

बातें बऊ से भी नहीं बन पा रहीं। पराया गाँव। बिरानी माँटी। अनचीन्ही धरती और अजनबी आसमान...जिधर को दृष्टि जाती है, अलगाव-सा झरता दीखता है।