इदन्नमम / मैत्रेयी पुष्पा / पृष्ठ 2

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बऊ गुमसुम बैठी रहीं।

देखती रहीं, मन्दा का मुख मलिन है। बाल उलझे हुए। फ्रॉक पर जगह-जगह मटमैले धब्बे लगे हैं।

उसका ध्यान भी अपनी फ्रॉक पर है।

बऊ ने गरदन में हाथ डालकर, कान के पास मुँह ले जाकर कहने लगी, ‘‘उठो बऊ, बक्सा खोलो। हम कपड़ा बदलेंगे।’’

उन्होंने धीरे से उसका हाथ दबा दिया, ‘‘अबै नहीं। तनक गम खाओ। रुकने-बैठने का ठौर...’’

अब वे दोनों बरामदे में खेस बिछाकर बिठा दी गयीं।

‘‘बऊऽऽ !’’ मन्दाकिनी ने अपनी फ्रॉक दिखाकर फिर ध्यान दिलाया।

‘‘मन्दा, तुम भी बड़ी जिद्दिन हो। कह तो रहे हैं, अबै कहाँ से निकार दें तुम्हारे उन्ना कपड़ा ? कित्तै धर के खोलें बक्सा ?’’ बऊ खीजी-सी फुसफुसाईं।

घर की स्त्रियाँ अपने कामों से फुरसत पाकर उनके पास आ बैठीं।

बातें चल उठीं। मिल-जुलकर उसी विपत्ति की परतें उखाड़ी जाने लगीं, जिससे वे कतई बचना चाहती हैं।

‘‘लो भाग तो देखो कि इतेक मुसीबत।’’

दूसरी बोली, ‘‘भाग-कुभाग की क्या बात, इनकी बहू ने ही संग नहीं दिया, तो फिर कोई गैर कैसे समझेगा इनकी पीर ?’’

मन्दाकिनी देख रही है, इन औरतों के गोदों में बच्चे हैं। छाती से दूध चूसते हुए बच्चे। गोदी में बैठकर खुश होने वाले बच्चे। एक-दो गोद में बैठकर भी रोने वाले बच्चे, जिन्हें वे अनजाने की थपथपा देती हैं और छूटी हुई बात का छोर गहकर बऊ को फिर खींच लेती हैं चर्चा में।

‘‘जीजा के संग भग गयी।’’ एक ने कहा।

‘‘भग कहाँ गयी अपहरन हुआ है बेचारी का।’’ दूसरी ने तर्क दिया।

‘‘अई, नोंनें रहो। अपहरन काहे ! अपहरन होता तो बऊ का न हो जाता। जे भी तो भर ज्वानी में विधवा हुई थीं। जे कहो कि मस्तानी हती। ज्वानी की मारी। सो बिना खसम के रहाई नहीं आयी।’’

बऊ की भीतरी परतें छिलने लगीं। सुनते-सुनते आँखों में नमी आ गयी। मन्दाकिनी कुछ देर तक उन औरतों को घूरती रही। उसके होंठ भिंच गए, आँखें बड़ी और पनीली-सी दिखने लगीं। बऊ को अधिक उदास देखकर उनके घुटने पर अपना सिर टिका दिया।

सहसा वे सब द्रवित-सी हो गयीं, बोलीं, ‘‘देखो तो, मोंड़ी हिंरस उठी। कैसी कठकरेज मतारी हती कि छोड़ गयी पुतरिया-सी बिटिया कों ! चिरइया-परेबा तक नहीं छोड़ते अपने अंडी-बच्चा।’’

साँझ हो आयी।

आँगन में धूप सरककर दीवारों पर पहुँच गयी।

एक ही जगह पर बैठे रहने के कारण मन्दाकिनी ऊबने लगी। बऊ को संकेतों से समझाने लगी कि चलो बऊ।

वे अनदेखा किये बैठी रहीं। दादा की प्रतीक्षा है उन्हें। आ जाते तो रुख का पता चलता। भले ही सहमति है, लेकिन उनका सन्देही मन कई तरह से सोचने लगता है। न जाने किस तरह से लें उनके आने को ? हँसी-खुशी में पाहुनी बनकर थोड़े ही आयी हैं, संकटों में उलझी आगन्तुका हैं। ऐसे में कौन कर सकता है स्वागत ? अपने ही किनारा कर जाते हैं दुख-तकलीफ के बखत।

फिर दादा कहीं यह न सोचने लगें कि मातौन तो आदर के भी खा गयीं। हमने झूठे को कहा और वे साँचे को चली आयी।

दिन डूबने में जो घंटा-डेढ़ घंटा बचा है, वह उन्हें बहुत लम्बा और भारी लग रहा है। काटे नहीं कट रहा।

मन्दाकिनी की दृष्टि अब कहीं और है।

स्कूल से बच्चे लौट चुके हैं। माँओं से खाने की माँग कर रहे हैं। कक्को से घी और चीनी के लिए जिद कर रहे हैं। सब्जी देखकर मुँह बिचका रहे हैं।

कुछ बस्ते रखकर पनारे पर मुँह-हाथ धोने में लगे हैं।

उसे अजनबी निगाहों से देख रहे हैं। अनचीन्हे भाव से घूर रहे हैं।

उसने अपनी फ्रॉक के घेर को घुटनों से खींच-खींचकर दोनों टाँगें ठीक प्रकार ढक लीं और खेस के ऊपर भली प्रकार बैठ गयी।

बऊ बोलीं, ‘‘तुम ज्यादा न तानना फिराक को, फट जायेगी।’’

कतार बनाकर बोरियाँ डाली गयीं। परसी हुई थालियाँ उनके आगे रखी गयीं। थालियों में आलू-बैगन का साग, दही का कटोरा, घी से चुपड़ी हुई ठंडी रोटियाँ। मिर्च और आम का अचार।

बच्चों ने मिलकर स्वर साधा :


‘‘आलू भटा की तिरकाई, नाचे मुन्ना की मताई।’’

फिर सब हँस पड़े।

मन्दाकिनी खिलखिलाती हुई पीछे तक हँसती रही।

सबका ध्यान उसकी हँसी पर ठहर गया।

वह एकदम चुप हो गयी।

कक्को ने उसे हाथ पकड़कर उठा लिया, ‘‘चलो, तुम भी खा लो।’’

अपनी पंक्ति में उसे बैठे हुए खाते देखकर लड़के विचित्र भाव से हँसने लगे। आपस में कान पर मुँह रखकर कुछ कह रहे हैं, जिसे वह सुन तो नहीं पा रही, लेकिन समझने की कोशिश कर रही है।

इस तरह का व्यवहार उसे बिलकुल अच्छा नहीं लगा। थाली लेकर जल्दी ही उठ गयी और पनारे पर रख आयी।

लौटकर बऊ के पास आ बैठी। बेचिन्हारा स्थान, अपरिचित चेहरे जैसे उसे दुखी और तंग करने पर तुले हैं। उसे सुगना की याद आने लगी। सात-आठ साल की सुगना उसके साथ ही साथ लगी रहती थी। स्कूल से लेकर तालाब-पहाड़ सब जगह संग। सुगना की चोटी से खोलकर यह लाल रिबन काकी ने चलते समय उसकी चोटी में बाँध दिया था। हड़बड़ी में कंघी-रिबन मिले ही नहीं थे उसे। बऊ ताला लगाने की जल्दी जो मचा रही थीं।

वह गाड़ी में बैठकर चली थी तो सुगना रोने लगी थी। जगेसर कक्का ने डपट दिया था काकी को कि चलो अपने घरै। आँखों में आँसू भरे सुगना कभी पिता की ओर देखती, कभी उसकी ओर।

‘‘बऊ, सुगना के पिता जी हैं, जगेसर कक्का। पिता जी हैं तो हर समय डाँटते क्यों रहते हैं ?’’

बऊ कुछ न बोलीं।

वह रिबन को ही देख रही है। सुगना का गोरा मुख याद आ रहा है कि अचानक बच्चों के झुंड में से कोई स्वर सुनाई पड़ा :

‘‘एक फूल की चार कली, रानी डोले गली-गली।’

ये क्या चिढ़ा रहे हैं उसे ? और नहीं तो क्या ? उसने मारे गुस्से के उन शैतान बालकों की ओर से पीठ कर ली। तमतमाई-सी बैठी रही।

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