इम्यून सिस्टम / आइंस्टाइन के कान / सुशोभित
सुशोभित
मनुष्य का इम्यून सिस्टम भी एक ही अचम्भा है। उसे अपने ताने-बाने की भली प्रकार से सुध रहती है। देह के यंत्र में कोई बाहरी तत्व प्रवेश कर जाए तो वह सशंक हो उठता है। उसे नष्ट करने दौड़ पड़ता है। सृष्टि की समस्त जैविक संरचनाओं के भीतर अनेक प्रकार की सूचनाएं इनकोडेड रहती हैं, किंतु सबसे बुनियादी सूचना (चीट कोड?) एक ही है- अपनी रक्षा करो, और अपने कुल का विस्तार करते चलो। इसी के वशीभूत होकर विषाणु भी हमारे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। हमारा प्रतिरोधी-तंत्र उनसे संघर्ष करता है। यह लड़ाई लड़ने में हम उसकी मदद वैसे ही करते हैं, जैसे हनुमान को उनके बल की याद दिलाई गई थी। इम्यून सिस्टम को उसकी ताक़त का अहसास कराने के हमारे इसी जतन का नाम वैक्सीनेशन है!
जब मनुष्य ने कम्प्यूटर बनाया तो अपने शरीर में निहित उन प्रविधियों की नक़ल ही की, जिनमें जैविक सूचनाएं कोडिफ़ाइड रहती हैं। तो हम देखते हैं कि कम्प्यूटर भली प्रकार काम कर रहा है। फिर हम यूएसबी के प्रवेश-द्वार से उसमें एक पेन ड्राइव इनसर्ट करते हैं और सहसा कम्प्यूटर में मौजूद एंटीवायरस चौकस हो उठता है। ख़बरदार, एक फ़ॉरेन एंटीटी नमूदार हुई है! अगर पेन ड्राइव में मालवेयर हैं तो वह उसमें निहित डेटा के प्रवेश को अवरुद्ध कर देता है। पहले स्कैन कीजिये- वह कहता है- उसके बाद ही हम डेटा को एक्सेस करेंगे। हमें रज़ामंदी में सिर हिलाने भर की देरी होती है कि एंटीवायरस सक्रिय हो जाता है। वो मालवेयर को हटाकर ही दम लेता है। इसके बाद ही आप अपना काम निर्बाध रूप से कर सकते हैं।
कम्प्यूटर में जो एंटी-वायरस है, वही मनुष्य के शरीर में इम्यून सिस्टम है। यह रोगों से हमारी रक्षा करता है। हम इसके बारे में जानते नहीं हैं, क्योंकि शरीर का काम स्वयं को भुलाए रखना है। शरीर की याद हमें रोग में ही आती है। दु:ख ही जाग्रति है। सुख तो भुलावा है। विषाणुओं की खोज भले 1890 के दशक में हुई हो, किंतु ये अगणित युगों से अस्तित्व में हैं। मनुष्य ने सूक्ष्मदर्शी के नीचे उन्हें अपनी आंख से जब देखा, उसके बहुत पहले से उसे उनके अस्तित्व का अनुमान था। विषाणु किसी लिविंग ऑर्गेनिज़्म के बाहर जीवित नहीं रह सकता था। अपने रीप्रोडक्शन के लिए वो भरसक जतन करता था कि किसी तरह आपके ऊतकों में प्रविष्ट हो जाए। यह विरोधाभास ही है कि विषाणु के संक्रमण से हमारी मृत्यु हो सकती है, जबकि विषाणु हमें मारना नहीं चाहता। वह अपने घर, अपने आश्रयदाता लिविंग ऑर्गेनिज़्म को भला क्यूं गंवाना चाहेगा? घोड़ा घास से दुश्मनी कर लेगा तो खाएगा क्या? बहरहाल, द न्यूयॉर्कर में सिद्धार्थ मुखर्जी का एक लेख प्रकाशित हुआ है, जिसके इधर बड़े चर्चे हैं। ये वही सिद्धार्थ मुखर्जी हैं, जिनके द्वारा कैंसर पर लिखी पुस्तक द एम्परर ऑफ़ मेलेडीज़ पर उन्हें पुलित्ज़र पुरस्कार मिला था। उसके बाद उन्होंने जेनेटिक संरचनाओं पर भी एक चर्चित पुस्तक लिखी। जैविकी और चिकित्सा के क्षेत्र में उनका नाम सम्मान से लिया जाता है और उनकी बातों को दुनिया ग़ौर से सुनती है। वैक्सीनेशन की सैद्धांतिकियों को अंतिम स्वरूप भले उन्नीसवीं सदी में लुई पाश्चर के द्वारा दिया गया हो, किंतु सिद्धार्थ ने अपने लेख में लिखा है कि गंगा के दोआब के यायावर ब्राह्मणों के एक पंथ ने अढ़ाई सौ साल पहले ही टीके की ईजाद कर ली थी!
उस समय चेचक एक बड़ी महामारी थी। किंतु यह देखने में आता था कि एक बार जिसे चेचक हो जाए और उसके प्राण बच जाएं, तो उसके बाद फिर उसे कभी चेचक नहीं होती। इस पर सोचा गया कि हो न हो, किसी रोग का सामना करने के बाद रोगी के शरीर में ऐसी कोई प्रतिक्रिया होती होगी, जो आगे से उसे इसके लिए तैयार कर देती होगी। वे उसी रहस्यमयी इम्यून सिस्टम के बारे में सोच रहे थे, जिसकी प्रकृति के बारे में बाद में वैज्ञानिक सूचनाओं का निष्पादन किया गया।
गंगा के दोआब के वो ब्राह्मण यायावर टीके का इस्तेमाल कैसे करते थे? वो किसी चेचक के रोगी से पीप लेते थे और किसी स्वस्थ व्यक्ति की त्वचा को खुरचकर उसमें उसका प्रवेश करा देते थे। ऊपर से पट्टी बांध देते थे। वह व्यक्ति रोग से संक्रमित होकर खाट पकड़ लेता था, किंतु जल्द ही वो इससे उबर जाता और फिर कभी उसे यह रोग नहीं सताता। इस टीकाकरण के दो बुनियादी सिद्धांत थे- एक, अगर सीमित संख्या में किसी व्यक्ति के शरीर में विषाणु का प्रवेश कराया जाए, तो उसे प्राणघातक रोग नहीं होगा, केवल अल्पकालिक लक्षण ही उभरेंगे। और दो, किंतु इसी प्रक्रिया में शरीर के भीतर मौजूद रोग प्रतिरोधक प्रणाली- जो कि सूचनाओं को प्रोसेस करने वाली बड़ी इंटेलीजेंट व्यवस्था होती है- सक्रिय हो जाती है, और उस वायरस को आइडेंटिफ़ाई कर लेती है। आइंदा से वह शरीर को क्षति ना पहुंचाए, यह सुनिश्चित करने के लिए वह अपने भीतर मज़बूत क़िलेबंदी कर लेती है। मनुष्य के इम्यून सिस्टम और वायरसों के बीच तू डाल-डाल, मैं पात-पात का यह खेल लम्बे समय से चल रहा है। इधर एंटीबायोटिक की शह है तो उधर सुपरबग की मात है। इधर इम्यून सिस्टम वायरसों के प्रति इम्युनिटी विकसित करता है, उधर वायरस उसमें सेंध लगाने के नए तरीक़े खोज निकालते हैं। यह एक प्रोग्रामिंग की तरह है। जैविक-संसार में सभी जीव-संरचनाओं को इसी तरह किसी भी क़ीमत पर सर्वाइवल के लिए डिज़ाइन किया गया है। किंतु जहां मनुष्य ने चेचक, पोलियो, मीज़ल्स के विषाणुओं का शमन कर दिया है, और कालान्तर में हर्ड-इम्यूनिटी विकसित करते हुए तपेदिक और फ़्लू के विषाणु की लगाम कस ली है, वहीं नॉवल कोरोनावायरस उसके लिए एक नई चुनौती है।
यह नया-नवेला वायरस अत्यंत संक्रमणशील तो है ही, किंतु यह इतना घातक नहीं है कि अपने सम्पर्क में आने वाले हर मनुष्य के प्राण हर ले। इसकी मारक-क्षमता 3.4 प्रतिशत आंकी गई है। आज पूरी दुनिया में मनुष्य का रोग प्रतिरोधी तंत्र इससे भरसक लड़ाई लड़ रहा है, और यह लड़ाई ज्वर और ताप के माध्यम से अभिव्यक्त होती है। हम बाहर से उसकी मदद करें (इसे विज्ञान की भाषा में अक्वायर्ड इम्यून सिस्टम कहा जाता है), इसके लिए वैक्सीन की तलाश भी की जा रही है। इस बेलगाम घोड़े जैसे वायरस की लगाम पूरी तरह से तो तभी कसी जा सकेगी।
कोरोना से इस अप्रत्याशित लड़ाई में मनुष्य ने अभी तो दो प्लान सोचे हैं। प्लान-ए यानी डिफ़ेंसिव प्लान - जितना सम्भव हो वायरस से बचकर रहो। प्लान-बी- यह भी डिफ़ेंसिव प्लान है किंतु उम्मीदज़दा- कि अगर हम संक्रमित हो गए, तो अपने इम्यून सिस्टम पर भरोसा रखो। हम अभी बाहर से उसकी मदद करने में सक्षम नहीं हैं। अक्वायर्ड सिस्टम अभी अमल में नहीं लाया जा सकता है। इननेट इम्युनिटी पर ही पूरा दारोमदार है।
ज़रा सोचिये- ख़ुशहाली के दिनों में जब हम बेधड़क सिगरेटें फूंककर अपने फेफड़े जला रहे थे, शराब पीकर अपने लीवर का बंटाढार कर रहे थे, मगन होकर जंकफ़ूड खा रहे थे, डायबिटीज़ की जननियों शुगर-ड्रिंक्स का सेवन कर रहे थे, और प्रोटीन की हवस में अनैतिक और अस्वस्थ फ़ैक्टरी फ़ॉर्मिंग से प्राप्त रेड-मीट को भकोस रहे थे- तब हममें से कितनों ने सोचा था कि वैसा करके हम अपने इम्यून सिस्टम की उस पूंजी में पलीता लगा रहे हैं, जो एक नए वायरस से मुठभेड़ हो जाने पर जान बचाने की लड़ाई में हमारा इकलौता हथियार साबित होने जा रहा है?