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सुशोभित
वॉल्टर आइज़ैकसन हैज़ डन इट अगेन!
यानी वॉल्टर आइज़ैकसन ने एक बार फिर यह कर दिखाया। और इस बार वो बहुत दूर की कौड़ी बहुत फुर्ती के साथ लेकर आए हैं!
वॉल्टर आइज़ैकसन मौजूदा दौर के सबसे चर्चित और पढ़े जाने वाले बायोग्राफ़र हैं। बीते दो-ढाई दशकों में उन्होंने एक-एक कर हेनरी किसिंजर, बेंजमिन फ्रैंकलिन, अल्बर्ट आइंष्टाइन, स्टीव जॉब्स और लियोनार्दो दा विंची की जीवनियाँ लिखीं और हमारे समय के इंटेलेक्चुअल-लैंडस्केप को बदल दिया। ये तमाम जीविनयाँ भिन्न क्षेत्रों के व्यक्तियों पर लिखी गई हैं, अलबत्ता इन सबमें उद्यमशीलता और बौद्धिक-क्षमता की समानता है। लेकिन वॉल्टर की नई किताब सर्वथा नए विषय पर है।
गए साल अक्टूबर में कैमिस्ट्री का नोबेल पुरस्कार इमान्युअले कारपेन्तीयर और जेनिफ़र डूडना को संयुक्त रूप से दिया गया था। मार्च का महीना आते-आते- यानी इसके महज़ छह माह बाद- वॉल्टर आइज़ैकसन 560 पन्नों की जेनिफ़र डूडना की बायोग्राफ़ी लेकर हाज़िर हो गए। लेकिन यहाँ महत्व जेनिफ़र की जीवन-यात्रा का इतना नहीं है, जितना उस विषयवस्तु का है, जिस पर जेनिफ़र ने जीवनपर्यंत काम किया है। यह विषयवस्तु है मौजूदा दौर की सबसे महत्वपूर्ण परिघटनाओं में से एक- जेनेटिक इंजीनियरिंग। श्योर इनफ़, वॉल्टर की किताब अपनी श्रेणी में पहले ही ग्लोबल बेस्टसेलर बन चुकी है और उसके अमेज़ॉन पेज पर 4500 से ज़्यादा रिव्यूज़ और रेकमेंडेशन दर्ज किए जा चुके हैं। जी हाँ, दुनिया ऐसी चीज़ों का इंतज़ार करती है और ख़ूब मन लगाकर उन्हें पढ़ती है।
किताब का शीर्षक है- द कोड ब्रेकर। जब जेनिफ़र को नोबेल दिया गया था तो उनकी संस्तुति में स्वीडिश एकेडमी ने कहा था कि यह पुरस्कार उन्हें "डीएनए में कतरब्यौंत करने वाली कैंची" पर शोध के लिए दिया जा रहा है, जिसको वो CRISPR-Cas9 कहती हैं। यह तकनीक पशुओं, पौधों और माइक्रोऑर्गेनिज़्म्स के डीएनए में मुस्तैदी से- स्वीडिश एकेडमी के शब्दों का उपयोग करें तो- विद एक्स्ट्रीम प्रिसीज़न- बदलाव कर सकती है। लेकिन ज़ाहिर है ये तमाम मेहनत पशुओं, पौधों और माइक्रोऑर्गेनिज़्म्स के डीएनए के लिए नहीं की जा रही है। इसका आख़िरी मक़सद है मनुष्यों के डीएनए में बदलाव करना, ताकि आनुवांशिक रोगों की सम्भावनाओं को क्षीण बनाया जा सके और नई कैंसर थैरेपीज़ का प्रतिपादन किया जा सके।
कोरोनावायरस ने जिस तरह से मनुष्यता की वल्नरेबिलिटी को एक्सपोज़ कर दिया है, उस परिप्रेक्ष्य में भी यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या जेनेटिक इंजीनियरिंग से मनुष्यों को ऐसे वायरसों के प्रति इम्युन बनाया जा सकता है? कान्स्पिरेसी थ्योरीज़ कहती हैं कि कोरोनावायरस को लैब में इंजीनियर किया गया था। तो वैसी आफतों का मुक़ाबला करने के लिए ह्यूमन डीएनए को लैब में क्यों नहीं मोडिफ़ाई किया जा सकता? यह अकारण नहीं है कि जेनिफ़र को नोबेल मिलने के महज़ छह माह के भीतर वॉल्टर आइज़ैकसन उस पर किताब लिखकर सामने आ गए हैं- क्योंकि यह प्रश्न आज दुनिया के सम्मुख महत्वपूर्ण बन गया है, इसकी गहरी प्रासंगिकता है। एक जीनियस माइंड हमेशा समकालीन प्रश्नों पर पैनी नज़र बनाए रखता है।
मनुष्य क्या है? कवि, दार्शनिक और समाजशास्त्री इस प्रश्न का सामना दूसरी तरह से करेंगे, लेकिन बायोलॉजिस्ट्स के पास इसका सरल-सा उत्तर है- मनुष्य उन तमाम गुणसूत्रों की अभिव्यक्ति है जो उसके डीएनए में कोडिफ़ाइड हैं। मनुष्य अपने डीएनए से बढ़कर नहीं हो सकता। कोई व्यक्ति कैसा दिखता है या स्वयं को कैसा दिखलाता है, इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता, क्योंकि जो दिखलाई देता है वह तो महज़ एक टिप ऑफ़ आइसबर्ग है। साइकोएनालिसिस कहेगा कि यह हिमखण्ड एक सामूहिक अवचेतन के समुद्र में तैर रहा है, जिसका केवल ऊपरी हिस्सा दिखलाई देता है। मॉडर्न बायोलॉजी कहेगी कि इस सामूहिक अवचेतन के कूटसूत्र व्यक्ति के डीएनए में छिपे हैं। वो एक प्रोग्राम की तरह हैं। आपने उसे भेद लिया तो आप मूल तक पहुँच गए।
आख़िर युवाल नोआ हरारी ने मज़ाक़ में कहा ही था कि आने वाले समय में इंश्योरेंस कम्पनियाँ हमारे डीएनए स्कैन्स माँगेंगी और उसके मुताबिक हमारी प्रीमियम्स तय करेंगी, क्योंकि वो डीएनए स्कैन बतलाएगा कि हम किस तरह की इंश्योरेंस पॉलिसी के सुपात्र हैं। हो सकता है, हमें अपने भविष्य के एम्प्लॉयर्स को अपना सीवी भेजने के बजाय अपना डीएनए फ़ैक्स करना पड़े। भारत के परिप्रेक्ष्य में- मैं इसमें आगे यह जोड़ दूँ, उतनी ही विनोदप्रियता के साथ- कि शायद आइंदा से पंडित को कुण्डली मिलाने की ज़हमत नहीं उठाना पड़े, दो व्यक्तियों की डीएनए-मैपिंग का मिलान करके यह निश्चित किया जा सके कि क्या वो- इवोल्यूशनरी टर्म्स में- सुंदर, स्वस्थ और उपयोगी संतानों को जन्म देने के अधिकारी हैं?
सेपियन्स के 459वें सफ़हे पर एक डिटेल है, जिसे मैं पढ़ जाना चाहूँगा- हो सकता है आने वाले समय में आपका फ़ैमिली डॉक्टर आपके डीएनए का अध्ययन करके आपको यह बतलाए कि आपको हार्ट अटैक की बिलकुल भी चिंता करने की ज़रूरत नहीं, लेकिन आप लिवर कैंसर से बचकर रहिए। वो यह भी बतला सकता है कि जो लोकप्रिय दवाई 92 फ़ीसदी मरीज़ों पर कारगर है, वह आपके लिए बेकार है, उसमें समय, धन, ऊर्जा और स्वास्थ्य ज़ाया ना करें। सेपियन्स का आख़िरी चैप्टर- द एंड ऑफ़ होमो सेपियन्स- जो कि मनुष्यता के इतिहास पर आधारित इस पुस्तक का सबसे फ़्यूचरिस्टिक हिस्सा है- इसी जेनेटिक इंजीनियरिंग पर आधारित है। किताब के पहले ही सफ़हे पर हरारी ने इसे नेचरल सिलेक्शन बनाम इंटेलीजेंट डिज़ाइन के द्वैत की तरह प्रस्तुत कर दिया था। आज पृथ्वी पर मौजूद जितने भी प्राणी हैं, वो विगत चार अरब वर्षों की यात्रा में अपने इस मौजूदा स्वरूप में आए हैं। सिंगल कॉमन एनसेस्टर की थ्योरी भी प्रचलित है। ये सभी प्राणी नेचरल सिलेक्शन यानी एवोल्यूशन की प्रक्रिया का परिणाम हैं। ये आसमान से नहीं टपके हैं, इन्हें किसी ईश्वर ने नहीं रचा है, ये इतने अरब वर्षों में एवॉल्व हुए हैं- प्रकृति ने सधे हुए हाथों से इन पर काम किया है, इन्हें गढ़ा है। हरारी का कहना है कि अब नेचरल सिलेक्शन को पीछे छोड़कर इंटेलीजेंट डिज़ाइन आगे बढ़ रही है। इंटेलीजेंट डिज़ाइन से हरारी का आशय जेनेटिक इंजीनियरिंग से है।
किंतु इसमें जोख़िम भी हैं। नैतिकता का प्रश्न भी उठ खड़ा होता है। ये और बात है कि मनुष्य अब अपनी यात्रा में उस मुकाम पर आन पहुँचा है कि अगर उसके सामने किसी अदृश्य वायरस के समक्ष निष्कवच होकर मर जाने या जेनेटिक-एडिटिंग से उसका मुकाबला करने का विकल्प प्रस्तुत होगा तो नि:संकोच वह दूसरे विकल्प का चयन करेगा। इतिहास की गति इसे ही कहते हैं। भला या बुरा- एक बार इतिहास किसी दिशा में आगे बढ़ जाता है तो फिर पीछे नहीं लौट सकता। मनुष्यता का इतिहास भी ऐसी ही गतानुगति का नाम है।
आप कह सकते हैं कि सुंदर, स्वस्थ, उपयोगी मनुष्यों का प्रजनन एक नैतिक प्रश्न है, अलबत्ता प्रकृति में कहीं भी नैतिक-परिप्रेक्ष्य नहीं हैं। प्रकृति क्रूर, उदासीन और अडिग रूप में उद्विकास की प्रक्रिया को अंजाम देती है, भले इसमें आपको न्याय, करुणा और औचित्य दिखलाई ना दे। एक स्कूल ऑफ़ थॉट यह भी कहता है कि समानता और अधिकार की लिबरल-वैल्यूज़ एवोल्यूशनरी मानदण्डों के अनुरूप नहीं हैं, वो मनुष्य के द्वारा रची गई लफ़्फ़ाज़ियाँ हैं। वहीं नेचरल सिलेक्शन में एक क़िस्म की फ़ासिस्ट-वृत्ति है। यह अकारण नहीं है कि नात्सी लोग सर्वाइवल ऑफ़ द फ़िटेस्ट का मंत्रजाप करते थे। उन्होंने तय कर लिया था कि किन लोगों को जीवित रहने और संतान उत्पन्न करने का अधिकार है और किन्हें नहीं। वो कहते थे कि इसमें तात्कालिक क्रूरता भले हो, किंतु दीर्घकालिक सुख, सुविधा, उपयोगिता है और बेकार के कष्टों से इससे मनुष्यता को निजात दिलाई जा सकती है। अलबत्ता उनका प्रस्थान नस्लवादी था। जेनेटिक इंजीनियरिंग एक दूसरे कोण से इस पर बात करना चाह रही है। प्रश्न यही है कि क्या वृहत्तर मनुष्यता ऐसे सवालों का सामना करने के लिए तैयार है?
बायोजेनेटिक्स के क्षेत्र में हाल के वर्षों में लिखी गई सबसे लोकप्रिय किताब? सिद्धार्थ मुखर्जी की द जीन : एन इंटीमेट हिस्ट्री। उसको नम्बर वन बेस्टसेलर की कोटि से अपदस्थ कर अब वॉल्टर आइज़ैकसन की द कोड ब्रेकर उस जगह पर काबिज़ हो चुकी है और सिद्धार्थ मुखर्जी इससे प्रसन्न हैं। स्वयं उन्होंने इस पुस्तक की संस्तुति करते हुए सबसे इसे पढ़ने का अनुरोध किया है। निश्चय ही यह किताब व्यापक पैमाने पर पढ़ी जाएगी और इस पर बहस होती रहेगी। भला वॉल्टर की ऐसी कौन-सी किताब है, जो पढ़ी नहीं गई है और जिस पर बहस नहीं हुई।
यक़ीनन, वॉल्टर आइज़ैकसन हैज़ डन इट अगेन!