इवा, ये मुहिम है या मकड़जाल! / संतोष श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लेकिन सवाल यह उठता है कि वैदेही को भूमि में समाने की ज़रूरत ही क्यों पड़ें? क्यों उसे यौन शुचिता का प्रमाण-पत्र देना पड़े? और क्यों ये प्रमाण-पत्र पुरुष से नहीं मांगा जाता? उसके लिए तो जिस्म के बाज़ार खुले हैं। वह विधुर, तलाकशुदा, एक से अधिक पत्नी, रखैल, कॉल गर्ल, वेश्या का... होकर, पाकर, अपनाकर, भोगकर भी पवित्र है, समाज में सम्मान के योग्य हैं। कोई उस पर उंगली नहीं उठाता, कोई उशे दोषी नहीं मानता और यही पुरुष जब औरत को तथाकथित आचरण वाली पाता है तो वह उसके लिए त्याज्य है, बदचलन है, आवारा है, पापी है। औरत की पवित्रता भी तो इसी पुरुष प्रधान समाज की देन है। क्यों नहीं औरत को भी मुक्ति के अधिकार मिलते? क्यों देह से अलग उशकी परिभाषा गढ़ी जाती? देह शुचिता कि गांठ खोलकर ही समाज खुली हवा में सांस ले सकता है। औरतें हर जगह अपने आपको देह के कारण ही तो सुरक्षित पाती हैं। जो औरतें देह की आड़ में सफलता के पायदान चढ़ती हैं उसे अवश्य त्याज्य माना जाना चाहिए। वह रास्ता ही ग़लत है।

राजा-महाराजा, शाही घराने, जमींदार सामंत एक से अधिक पत्नियों से अपने हरम की शोभा बढ़ाने में अपनी शान समझते थे। क्या औरत को यह आजादी है? सौत का दु: ख सहती औरत क्या एक पति के रहते दूसरी शादी कर सकती है? समाज और स्वयं औरत भी इसकी कल्पना नहीं कर सकती। स्वीडन के कानून के मुताबिक स्त्री या पुरुष एक ही समय में एक से अधिक विवाह करते हैं तो उनके लिए दो साल की सजा का प्रावधान है। इस प्रवृत्ति को समाप्त करने के लिए सरकार प्रयत्नशील है। लेकिन इवा मानती हैं कि यह प्रयत्न तो बड़े अविवेक और पिछड़ेपन की निशानी है। आखिर किसी के पारिवारिक मामले में सरकार क्यों दखलंदाजी करती है? वह चाहे एक शादी करे या दस, यह उसका बिल्कुल निजी मामला है। इवा कानून में परिवर्तन के लिए कमर कसे है। इस मानसिक जड़ता को जड़मूल से मिटाने के लिए चाणक्य बनी हुई है।

आदिकाल या मध्यकाल में विश्व के सभी देशों में सभी धर्मों में एक से अधिक पत्नियाँ रखने के हकदार पुरुष यहाँ तक कि देवता भी स्त्रियों के प्रति इतने संकीर्ण विचार क्यों अपनाए हैं? कि वे एक से अधिक पति नहीं रख सकतीं? यह अधिकार स्त्री को देने में इतनी कृपणता क्यों? पौराणिक काल में मातृसत्तात्मक परिवार होते थे। तब पति की आज जैसी न कोई अहमियत थी न अवधारणा। चंद्रवंशी क्षत्रियों के वंश में ययाति की पत्नियाँ देवयानी और शर्मिष्ठा से क्रमश: यदु वंश और पुरुवंश चला। यदु वंश में बलराम, कृष्ण हुए और पुरु वंश में कौरव, पांडव। मातृसत्तात्मक समाज में स्त्री ही परिवार की अधिष्ठाता और पालनहार थीं। वही निर्णय करती थीं कि विवाह के लिए किसे चुनना है, किसे नहीं। यहाँ तक कि प्रणय निवेदन एवं नियोग से गर्भधारण करने तक की उन्हें आजादी थी। यदि इस विषय में उनके निवेदन को कोई ठुकरा देता था तो वह अधर्मी कहलाता था। लेकिन अनेक पतियों को रखने के मामले में यहाँ भी सत्ता खामोश थी। पुरुष बहुविवाह करके स्त्री को जायदाद मान कुछ इस तरह उसका स्वामी बन जाता था जैसे गाय-भेड़ों के बाड़े का स्वामी।

ज्यादातर युद्ध, जमीन और स्त्री को लेकर ही हुए और इसी बात की तह में आकर इवा का विद्रोह ज्वालामुखी बन जाता है कि यह अधिकार स्त्री को क्यों नहीं? आर्यावर्त में मनु ने विवाह संस्था का श्रीगणेश किया, उसके पहले न कोई किसी का पति होता था न पत्नी... संभोग से समाधि की ओर जाने का मार्ग प्रशस्त और खुला था। सभी के लिए। प्लेटो ने भी एक ऐसे रिपब्लिकन की कल्पना कि थी जिसमें न कोई पति होता न कोई पत्नी। कम्यून का हर व्यक्ति कम्यून का होता... यहाँ तक कि उनके बच्चे भी कम्यून की साझा जिम्मेदारी होते।

शादी का बंधन मानव सभ्यता के हजारों साल के मंथन का निचोड़ है। यह सिर्फ़ कामेच्छा कि पूर्ति के लिए किया गया कानूनी, सामाजिक और धार्मिक समझौता नहीं बल्कि उनके नैसर्गिक दायित्व की गरिमामयी अभिव्यक्ति है। संतान उत्पत्ति का बड़ा पवित्र और त्यागमय स्वरूप है। इवा को बहुविवाह शायद इसलिए तर्कसंगत लग रहा हो कि वे स्त्री के अधिकारों को लेकर सजग हैं और पुरुष को सामाजिक दृष्टि से अपराधकर्म को लेकर भी कंधे से कंधा मिलाना चाहती हों। प्रतियोगिता कि यह भावना उन्हें कहाँ ले जाएगी अभी नहीं कहा जा सकता।

जब भी स्त्रियों के बहुविवाह की चर्चा छिड़ती है हमारा ध्यान सहज ही द्रौपदी की ओर चला जाता है। द्रौपदी जो पांच पांडवों की पत्नी थी और महाभारत के युद्ध के कारण। हिमाचल प्रदेश के पर्वतीय, घने जंगलों से हरे-भरे निर्जन इलाके के किन्नौर जिले में निवास करने वाली जनजाति में आज भी स्त्रियों में बहुविवाह प्रथा है। यह जनजाति अपने को पांडवों का वंशज बतलाती है और द्रौपदी प्रथा से खुद को जोड़ती है। बहुपति प्रथा को इन्होंने पांच हजार पूर्व अपनाया था। ऊपर किन्नौर में सुदूर गाँव रारांग में पहाड़ी पर बसे लोगों के पास मात्र 25 प्रतिशत भूमि ही खेती करने लायक है इसलिए एक ही छत के नीचे यथासंभव सिमटे रहना ज़रूरी था। एक पारंपरिक समाधान यह था कि परिवार के सभी पुत्रों का विवाह किसी एक लड़की से कर दिया जाए ताकि परिवार बिखरे न। कई पतियों की पत्नी... यानी अधिकांश औरतें इस पद्धति की समर्थक हैं। वे अपने पतियों से शारीरिक और भावनात्मक रूप से जुड़ी होती हैं। रिवाज के मुताबिक वे उशके पति हैं। उसका यह नैतिक रूप से वैध या तरतीबशुदा दायित्व ही नहीं बल्कि वास्तव में सामाजिक कर्त्तव्य भी है कि वह उनकी सभी ज़रूरतों को पूरा करे। अधिखांश परिवार पितृसत्तात्मक हैं। पुरुष ही महत्त्वपूर्ण फैसले लेते हैं। खरीददारी, बिक्री, शिकार, घुड़-दौड़, पूजा आदि तमाम काम पुरुषों के द्वारा ही संपन्न होते हैं। संपत्ति का बंटवारा रोकने के लिए कई बार सबसे छोटे पुत्र को भिक्षु बनने के लिए मठ भेज दिया जाता है। उसी प्रकार से जिस प्रकार यूरोप में रिवाज है कि छोटे पुत्रों को संपत्ति विहीन अधिकार दिए जाते हैं। इसके लिए जब बड़ा भाई किसी लड़की से शादी कर लेता है तो छोटा भाई बड़ा बन जाता है और पत्नी का बंटवारा कर लिया जाता है।

कई बार भाईयों की उम्र में इतना अंतर होता है कि वे पत्नी के साथ शारीरिक सम्बंध नहीं बना पाते। ऐसी स्थिति में परिवार के प्रौढ़ सदस्यों को अपने अधिकार का उपयोग करने की छूट है। पत्नी अपने कमसिन भोले पतियों को यौन प्रशिक्षण देती है और उन्हें कामक्रीड़ा में पारंगत करने के लिए खुद एक उपकरण बन जाती है।

परिवार में सभी भाईयों के पत्नी के पास जाने के दिन और समय तय रहते हैं। यदि एक पति पत्नी के साथ कमरे में है तो दरवाजे पर उसकी टोपी या जूते के संकेत हैं जिनके आधार पर उसके कमरे के अंदर होना तय माना जाता है। इस नियम का उल्लंघन अपराध है। यही अपराध अर्जुन ने भी किया था जब द्रौपदी युधिष्ठिर के साथ संभोगरत थी और अर्जुन ने शयनकक्ष में प्रवेश कर लिया था। वह दिन युधिष्ठिर के लिए तय था। अर्जुन को दंडस्वरूप कुछ समय का वनवास भोगना पड़ा था।

इस जनजाति की युवा पीढ़ी बहुपति प्रथा के खिलाफ खड़ी हो रही है। यद्यपि यह प्रथा परिवार में एकता, मजबूती को बढ़ावा देती है, संपत्ति का बंटवारा होने जैसी स्थिति भी नहीं आ पाती। इस जनजाति के एक बुजुर्ग का मानना है कि यदि बहुपति प्रथा का उन्मूलन कर दिया जाए तो संपूर्ण किन्नौर ही समाप्त हो जाएगा। कोई एक परिवार अपने दम पर ज़िन्दगी नहीं गुजार सकता। किसी भी परिवार का अस्तित्व उसीी सूरत में बना रह सकता है जब अनेक लोग साथ रहें। यह प्रथा हमारी जाति की पहचान है, इसे खत्म करना खुद को खत्म करने जैसा है।

इस जनजाति के बिल्कुल विपरीत भारतीय समाज बहुपत्नी प्रथा कि त्रासदी से गुजर रहा है। कानून भी एक से अधिक विवाह को अनुमति नहीं देता। भारतीय दंड संहिता कि धारा 494 के तहत पहली पत्नी के जीवित रहते यदि पति दूसरा विवाह करता है तो उसे सात वर्ष के कठोर कारावास और जुर्माने की सजा हो सकती है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल ही में यह फैसला किया है कि भारतीय दंड संहिता कि धारा 494 अनुसूचित जनजाति पर लागू नहीं होगी। पूर्व केंद्रीय मंत्री की बेटी और भारतीय रिजर्व बैंक के हैदराबाद स्थित वरिष्ठ अधिकारी श्री दुर्गाचरण हांसदा कि पहली पत्नी सूरजमणि स्टेला कुजूर ने जब अपने पति के दूसरे विवाह के खिलाफ मुकदमा दायर किया तो आरोपी पति के वकील ने यह दलील दी कि अभियुक्त अनुसूचित जनजाति का सदस्य है इसलिए हिंदू विवाह अधिनियम उस पर लागू नहीं होता।

औरतों के सामने सवाल उठ खड़ा हुआ है कि वे इवा कि मुहिम में शामिल हों या सदियों से जैसा होता आ रहा है पुरुषों के बहुविवाह के मकड़जाल में फंसती चली जाएँ, क्योंकि हिंदू विवाह अधिनियम में बहुविवाह अपराध होने पर भी अगर पुरुषों को बहुपत्नियाँ रखनी हैं तो वे अपने आपको अनुसूचित जनजाति का सिद्ध कर देंगे और खुलेआम इस कुरीति को बढ़ावा मिलता रहेगा।