इस्लामी औरत: कठमुल्लाओं के लिए चुनौती / संतोष श्रीवास्तव
विश्व का बहुत बड़ा भूभाग इस्लाम धर्म को मानने वाला है। भारत और पाकिस्तान सहित अरब, ईरान, ओमान, कतर, बहरीन, मिस्र, जॉर्डन, कुवैत, मोरक्को, फलस्तीन क्षेत्र, सीरिया और सूडान के प्रतिनिधियों ने संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक आयोग द्वारा महिला गतिविधियों के बारे में आयोजित सम्मेलन में शिरकत की और यह चिंता प्रगट की कि इतने बड़े भूभाग में फैले बसे इस्लामी धर्मानुयायियों के बीच महिलाओं की स्थिति बेहतर नहीं है। अरब महिलाएँ गरीबी, राजनीतिक अस्थिरता और खस्ता सामाजिक परिस्थितियों का खामियाजा भुगत रही हैं। वहाँ कामकाजी महिलाओं की तादाद विश्व औसत दर 15-20 फीसदी के मुकाबले मात्र 5-7 फीसदी है। उक्त सम्मेलन में आए संयुक्त अरब अमीरात ने महिलाओं के खिलाफ हर तरह के भेदभाव खत्म करने के लिए हुई संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए। उनकी संकुचित मानसिकता खुद उन पर सवालिया निशान लगा गई। सवाल ये उठता है कि क्या इस्लाम धर्म भी महिलाओं के प्रति ऐसी ही संकुचित विचारधारा को अपनाए है? क्या धार्मिक आड़ लेकर उन पर की गई सख्ती, पाबंदी सचमुच जायज है? क्यों न इसका जवाब इस्लाम में ही ढूंढ़ा जाए।
इस्लाम ने मुस्लिम औरत को शरियत लॉ द्वारा जो अधिकार दिए हैं उन्हें पहले मुस्लिम औरतों को खुद ही समझना होगा। यह अधिकार सिर्फ़ लड़की को ही है कि जब तक वह हाँ न कहे निकाल कबूल न माना जाए। उसे अपनी मर्जी का जीवनसाथी चुनने का पूरा हक इस्लाम देता है। निकाह के वक्त मेहर की रकम तय की जाती है जो इतनी हो कि उसी वक्त अदा कि जा सके। यह रकम भी औरत को अच्छी तरह से रखने की एक तरह की गारंटी कही जा सकती है। यदि तलाक होता है तो मर्द उस औरत को इतना मताह (रकम) दे कि वह बाकी ज़िन्दगी आराम से गुजार सके। औरत, अगर मर्द को निभा नहीं पा रही है तो वह भी अपनी तरफ से तलाक ले सकती है। यहाँ तक कि औरत अपने बच्चे को अपना दूध पिलाने पर राजी नहीं हैं तो उसके लिए आया भी रखी जा सकती है। मुसलमानों में शिया और सुन्नी के कुछ अलग-अलग कानून हैं। शिया कानून में औरत को बराबर का हिस्सा जायदाद में देने का चलन है। यदि मां-बाप, भाई का देहांत हो जाए तो जायदाद लड़की को ही मिलेगी। इस्लाम उन्हें शारीरिक ज़रूरतें पूरी करने की भी छूट देता है। ऐसी स्थिति में अनुबंध विवाह यानी मुताह की इजाजत है जो दो घंटे से लेकर पूरी ज़िन्दगी का भी हो सकता है। यदि ऐसे में औरत गर्भवती हो जाती है तो पैदा होने वाली औलाद को तलाक के बाद भी पिता का नाम और लालन-पालन का खर्च मिलेगा। मुताह का चलन तब से शुरू हुआ जब युद्ध के मैदान में घर के मर्द सैनिक बनकर लम्बे समय के लिए घर के बाहर रहते थे। औरत की शारीरिक ज़रूरत व्याभिचार में न बदले इसलिए इसे धार्मिक और कानूनी जामा पहनाया गया। इस्लाम में सबसे बड़ा विवाद का विषय है चार विवाह। इस्लाम में ये चार विवाह कब मान्य हैं-जब पहली पत्नी बीमार हो, बांझ हो या कोई औरत बेसहारा हो लेकिन मर्द ने कानून की आड़ ले इसे ऐश का जरिया बना लिया।
आज स्थिति यह है कि औरत को सम्मान और आजादी देने वाले इस्लाम को मुल्लाओं, कठमुल्लाओं ने अपने हाथ में ले उसको मनमाना स्वरूप दे दिया है। समाज ने, राजनेताओं ने भी इन मुल्लाओं को मुस्लिम कौम का स्पोकमैन मान लिया। नतीजा... हर हाल में हलाल की गई मुस्लिम औरत। मुल्ला धर्म के ठेकेदार बन गए। पितृसत्ता मुंह उठाने लगी। लिहाजा तीन बार तलाक... तलाक... तलाक कहकर पत्नी से सम्बंध विच्छेद का अधिकार पतियों की मुट्ठी में चला गया। मेहर की रकम सुहागरात को ही पत्नी को बरगला, फुसलाकर माफ कर लेना, उसके सिर पर तीन सौतें कानून का हवाला दे ला बिठाना... गाय-भैंस की तरह हर साल बच्चा जनवाना जैसे कि आम बात हो गई। सदी गुजर गई पर हालात वही के वहीं। लड़कियाँ आज भी नकाब, हिजाब से ढंकी मुंदी, पढ़-लिखकर भी उन्हें परिवार मर्दों के समाज में काम करने की इजाजत नहीं देता। न ही उनके टॉप करने, मेरिट में आने की कोई मन्नत मांगता जबकि घर के कूढ़मगज बेटे के लिए आईएएस आॅफिसर बन उच्च पदों पर प्रतिष्ठित होने का सपना हर मां-बाप की आंखों में अंगड़ाइयाँ लेता है।
भारतीय मुस्लिम औरतें अन्य देशों की मुस्लिम औरतों से बेहतर स्थिति में हैं। शाहबानो आज भी हमारे दिलोदिमाग में जिंदा है, जिसने 1400 साल बाद इस्लाम की दीवारों को झकझोर डाला। मौलवी वर्ग दंग, घबराए, सत्ता हाथ से जाने शक से बेजार, मुल्ला वर्ग परेशान-कैसे इस स्थिति से निजात पाएँ? इस्लाम ने तो औरत को सम्मान और आजादी दी है, औरत-मर्द को बराबर समझा है, इसी बिना पर तो शाहबानो बेगम ने अपने अधिकारों की मांग की और यह सिद्ध कर दिया कि परिवर्तन की आंधी औरत की ओर से ही उठेगी। उठी भी... आज भारत में मुस्लिम औरतें मॉडलिंग करती हैं, सौंदर्य प्रतियोगिता में भाग लेती हैं... फ़िल्मी दुनिया तो मुस्लिम हीरोइनों से भरी पड़ी है। गायिकाओं से भरी पड़ी है। एकजुट नाटक कंपनी की मालिक नादिरा बब्बर अरसे से नाटकों के शो आयोजित कर रही हैं। पैंथर पार्टी की पत्रकार नसरीन कश्मीरी सरहदों में बखूबी अपना रोल निभा रही है।
समाजसेवी मुस्लिम औरतों ने गरीब तबकों में घुटन और बेबसी की ज़िन्दगी जीती महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति सचेत कर आत्मबल से जीने की तालीम दी। ऐसी औरतें खुद के पेट समेत परिवार वालों का भी पेट भर रही हैं। यदि मुस्लिम महिलाएँ शोषण का शिकार होती हैं तो महिला संगठन आवाज उठाते हैं। राजनीति में, पुलिस महकमे में, पत्रकारिता, मीडिया, उद्घोषिका, इंजीनियर, डॉक्टर हर ओर उठे उनके कदम यह साबित करते हैं कि मर्द के साथ टक्कर की आंधई पुरजोर है।
धार्मिक कट्टरता के विरोध में भी औरतों ने आवाज उठाई। जहाँ कठमुल्ल्लाओं ने औरतों का मस्जिद में जाकर नमाज अदा करना गैरमजहबी बताया वहीं औरतों ने इस बात को नजरअंदाज कर मस्जिद में जाकर नमाज अदा की। इस्लाम में दहेज का चलन नहीं पर मुस्लिम समाज इस गुनाह में पीछे नहीं... अब लड़कियाँ दहेज के विरोध में उठ खड़ी हुई हैं। वे शादी से इंकार कर देती हैं, बारात वापिस कर देती हैं और दूल्हे और उसके परिपवार के लोगों को हवालात का मजा चखा देती हैं।
समाज समय-कुसमय होने वाली वारदातों से अछूता नहीं है। मुजफ्फरनगर की इमराना के साथ ससुर के द्वारा किए गए बलात्कार और उसके बाद दारुला उलूम के मुफ्ती हबीबुर्रहमान के फतवा जारी करने की बात ने आॅल इंडिया मुस्लिम बोर्ड सहित तमाम बुद्धिजीवियों के होश उड़ा दिए। फतवा कुछ यूं कि ससुर अली मोहम्मद द्वारा बलात्कार किए जाने के बाद इमराना अब अपने पति नूर इलाही के लिए हराम हो गई है। वह न नूर इलाही के संग रह सकती है और न ही ससुर के साथ। इमराना का पति उसे तलाक दे-दे और इद्दत पूरी होने तक फर्ज को पूरा करे। इसके बाद इमराना चाहे तो किसी तीसरे व्यक्ति के साथ निकाह कर सकती है। उसके पांच बच्चों की जिम्मेदारी अब उसके पति की होगी। ये सभी फरमान सहज रूप में हमारे जीवन में मौजूद न्याय और नैतिकता के सिद्धांत को ही उलट देते हैं। ये फरमान कई दिनों तक छिपे रहने के बाद बाहर निकलकर आए पति-पत्नी के लिए मुश्किल पैदा कर सकते हैं। मुस्लिम औरतों की सुरक्षा के उद्देश्य से स्थापित आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने किया क्या? क्या यह बलात्कारी का साथ देने की खामोशी तो नहीं? अपने बच्चों से वंचित हुई इमराना घर से बेघर हुई... इद्दत की तीन महीने की अवधि बीतते क्या देर लगती है? कुसूर किसी का सजा किसी और को? यह कैसा न्याय है?
शाहबानो बेगम के द्वारा तलाकशुदा महिलाओं को गुजारा भत्ता देने की मांग पर मुंबई के उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया था कि गुजारा भत्ते की मांग जायज है और कानून इसकी अनुमति देता है। इस फैसले के बाद मुस्लिम समाज के विरोध को देखते हुए केंद्र सरकार ने उच्च न्यायालय के फैसले को अप्रभावी बनाने के लिए संसद से मुस्लिम महिला कानून 1986 पारित कराया था। इसके तहत केवल इद्दत की अवधि तक ही अपनी तलाकशुदा पत्नी को गुजारा भत्ता देने के लिए जिम्मेवार है लेकिन अदालत ने यह भी स्पष्ट किया था कि इद्दत के इन तीन महीनों में पति को अपनी तलाकशुदा पत्नी को ऐसी समुचित राशि दे जिससे कि वह इद्दत की अवधि के बाद भी अपनी बकाया उम्र आराम से गुजार सके। पर ये केवल कागजी बातें हैं।
हकीकत में तलाकशुदा औरत को अपना पेट भरने के लिए क्या कुछ नहीं करना पड़ता। समाज ऐसी बेसहारा औरतों से भरा पड़ा है। ऐसी मुस्लिम औरतों की बेहतरी के लिए औरतों की ही एक संस्था मोमिन मौन आंदोलन चला रही है। अधिकतर औरतें तलाक देने का अधिकार और आजीवन गुजारा भत्ता चाहती हैं। वे तो तलाक के चलन को ही खत्म कर देना चाहती हैं ताकि आने वाली पीढ़ी को उनके जैसी टूटी-फूटी ज़िन्दगी न मिले। मोमिन ने अधिकृत संस्थाओं से अपील की है कि वे इस स्थिति पर गौर करें और उनके द्वारा चलाई जा रही मुहिम में उनका साथ दें। संस्था कि संयोजक हैं अख्तर। वे कहती हैं-भारत में एक ही सांस में तीन बार तलाक कहकर औरत को बेघर करना और मात्र इद्दत की अवधि तक ही उसका भरण-पोषण करना एक गैर-जिम्मेदाराना हरकत है। यह प्रथा इस्लाम पूर्व अरब में थी। कुरान में तो इसका जिक्र तक नहीं। पैगंबर मोहम्मद के जीवनकाल में तलाके सुन्ना को मान्यता प्राप्त थी। एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि तलाक ए तफवीद के तहत एक मुस्लिम महिला ठोस तथ्य के आधार पर बगैर अदालत या पति के मशविरे के अपने पति को तलाक दे सकती है। लेकिन 1937 के शरीयत कानून में इसका कोई जिक्र नहीं है। फिर भी पिछले सौ साल से भारतीय न्यायालय तलाक ए तफवीद को मान्यता देता है और उनका पालन करता है। इस्लाम 1400 साल पहले ही वैवाहिक विवाद को सुलझाने की अवधारणा पेश कर चुका है। आज विश्व के कई मुस्लिम देशों में औरत को तलाक देने का हक है साथ ही औरत को इसका भी हक है कि वह जायदाद में हिस्सा ले सकती है। ऐसी हालत में सिर्फ़ भारत में ही इस बात पर क्यों अड़ा जाए कि मुस्लिम औरत को तलाक का हक नहीं मिलेगा और न ही संपत्ति में हिस्से का।
मस्जिद में जाकर नमाज अदा करने की औरत पर लगी पाबंदी को लखनऊ की औरतें तोड़ चुकी हैं। परंतु इसे मर्द समाज ने स्वीकार नहीं किया। विदेशों की ओर रुख करें तो इस पाबंदी पर कई बार पहल हुई है। अमेरिका कि वर्जीनिया कॉमनवेल्थ यूनिवर्सिटी में इस्लामी स्टडीज की प्रोफेसर अमीना वदूद ने न्यूयॉर्क में जुमे की नमाज मस्जिद में अदा करते हुए अन्य मुस्लिम औरतों को भी आमंत्रित किया। अटलांटा कि एक मस्जिद के लाउडस्पीकर से एक अन्य मुस्लिम औरत सोहेला-अल-अतर ने ऐलान किया कि मर्द और औरतें दोनों ही नमाज के लिए मस्जिद में इकट्ठा हों। लगभग सवा सौ मर्द और औरतें जमा हो गए। इस्लाम धर्म के कट्टरपंथियों के दिमाग में भूचाल आ गया।
जो घटना लखनऊ में घटी उसके भी आठ बरस पहले तिरुवनंतपुरम् में एक इमाम ने जब अपनी मस्जिद के दरवाजे औरतों के लिए खोले तो बवंडर मच गया। जगह-जगह जुझारू मुस्लिम औरतें इस बवंडर के विरोध में मोर्चा बाँधकर खड़ी हो गईं। नवयुवतियों का कहना था... खासकर लखनऊ की फातिमा रिजवी का जो प्रसिद्ध शिया नेता मौलाना कल्बे साहिक की पोती थी और जिसने युवतियों का जत्था दुखतरन-ए-जैनेबी बनाया था कि हम अमेरिकी जींस पहनती हैं तो सिर पर स्कार्फ भी बाँधती हैं... हम कहीं से भी धर्म का उल्लंधन नहीं करतीं। फिर खुदा के दरबार में हमसे भेदभाव क्यों?
औरतों की स्थिति के बारे में इस्लामी तारएक क्या कहती है? चौदह सौ साल पहले हुजूर के समय औरतों ने ज़िन्दगी के हर मामले में बढ़-चढ़कर जो काम किया, उसकी गवाह किताबें हैं। जंग-ए-अहद के समय जब हजरत मुहम्मद जख्मी हो गए तो उनका इलाज बेटी हजरत फातिमा ने किया, जो कि जंग की एक कमान भी सम्हाले हुए थीं। हुजूर की पत्नी हजरत खदीजा तिजारत किया करती थीं। हजरत मैमूना ने महिलाओं की सेना बनाई थी। इसी प्रकार हजरत रूफायदाह एक जानी मानी जर्राह (सर्जन) थीं और मस्जिद ए नबवी के साथ ही उनका चिकित्सालय था। शिफा बिन्त-ए-अब्दुल्लाह अपने समय की धुरंधर नेता और वक्ता थीं। गरज की औरत उस जमाने में भी मर्द के कंधे से कंधा मिलाकर चल रही थीं फिर उसके मस्जिद में प्रवेश को लेकर कट्टरपंथी धर्मशास्त्रियों और कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवियों के बीच जो रस्साकशी जारी है, उससे पूरे समुदाय की जगहंसाई हो रही है। न तो उलेमा और न ही बुद्धिजीवी वर्ग इस बात के लिए तैयार है कि इस प्रकार के मुद्दों को इस बदलती हुई दुनिया के हिसाब से सुलझाने के लिए यूं टकराव के हालात पैदा हों।
इस्लाम के लिए यह बड़े ही अफसोस की बात है कि मुसलमानों ने इस धर्म को छोटी-छोटी हदों में बाँध रखा है। यही वजह है कि टकराव के हालात पैदा होते हैं। यही वजह मुसलमानों की तरक्की में रुकावट डालते हैं। इस्लाम से औरतों को जो आजादी और बराबरी का दर्जा मिला है वैसा किसी दूसरे धर्म में नहीं मिला लेकिन मर्दों ने उस आजादी को खत्म कर दिया।
इस्लामी धर्मशास्त्रियों का मानना है कि औरत अपने घर में दूसरी औरतों या उन मर्दों की इमामत कर सकती हैं जिनसे उनका पर्दा नहीं जैसे पिता, पति, भाई, बेटा आदि। खुद उलेमा बताते हैं कि हजरत मुहम्मद के समय औरतें भी मस्जिदों में नमाज पढ़ने जाती थीं और आखिरी कतार में खड़ी होती थीं ताकि मर्दों से दूरी रहे। हजरत मुहम्मद के गुजरने के लगभग पच्चीस बरस बाद हजरत लिद्दीक ने महिलाओं के मस्जिद जाने पर पाबंदी लगा दी क्योंकि रात और तड़के सुबह के सांवले अंधेरे में निकलने पर उनके साथ असामाजिक तत्वों की छेड़छाड़ होती थी। धर्मशास्त्रियों ने कहा कि औरतों के लिए सबसे बेहतर मस्जिद उनके घर की कोठरी हैं तो यह इंतजाम किया गया कि वे दूसरे रास्ते से प्रवेश करें। उनके लिए मस्जिद में पर्दे वाली जगह का इंतजाम भी किया गया। विश्व की तीन ऐसी बड़ी मस्जिदें-मक्का कि मस्जिद ए हरम, मदीना कि मस्जिद ए नबवी और यरुशलम की मस्जिद अल अक्सा में इस तरह की नमाज की व्यवस्था है। दक्षिण भारत में भी कई मस्जिदों में भी यह इंतजाम है। भारत में रमजान के महीने में बहुत सारे घरों में रात को एक लम्बी नमाज होती है जिसे तरावीह कहते हैं। इसमें भी औरत मर्द साथ-साथ नमाज अदा करते हैं।
कुरान शरीफ में कहा गया है कि औरतों को भी उनके अधिकार प्रदान किए जाएंगे, जिसका उनको हक है। 1997 में जब भारत अपनी आजादी की पचासवीं सालगिरह मना रहा था तो कुछ मुस्लिम औरतों ने फैसला किया कि वे आसिफी इमामबाड़े में जुमे की नमाज पढ़कर पुरानी जंजीरों को जोड़ फेकेंगी। जब पुलिस ने उन्हें रोकने की कोशिश की तो इन औरतों ने कहा कि अगर वे वोट देने के लिए, राशन लेने के लिए, रेल टिकट बुकिंग के लिए कतार में खड़ी हो सकती है तो मस्जिद में जाकर नमाज क्यों नहीं पढ़ सकतीं?
अशल में समस्या मस्जिद में औरतों द्वारा नमाज पढ़े जाने की नहीं है, बल्कि उन उलेमाओं की है जो जानते हैं कि अगर औरत का नाता सीधे धर्म से जुड़ेगा तो वह अपने खिलाफ जुल्म का डटकर मुकाबला और विरोध करेगी। वह तलाक, चार-चार निकाह, नकाब, जायदाद में हिस्सा और परिवार नियोजन जैसे मामलों में इंसाफ मांगेगी। यह बात कट्टरपंथी मुस्लिम वर्ग बर्दाश्त नहीं कर सकेगा। शरीयत के अनुसार तो उलेमा ने अपना फतवा जारी कर दिया कि औरत मस्जिद में जाकर नमाज अदा नहीं कर सकती।
जब पड़ोसी राज्य बल्कि यूं कहा जाए कि सदियों से भारत का ही रह चुका एक हरा-भरा समृद्ध हिस्सा पाकिस्तान का नाम जुबान पर आता है तो मुहम्मद अली जिन्ना याद आ जाते हैं जिन्हें पाकिस्तान का निर्माता कहा जाता है। फिर उनसे जुड़ा एक और नाम फातिमा जिन्ना का जो जिन्ना कि बहन थीं। इस औरत की भाई के लिए अपने जीवन की कुर्बानी मिसाल कायम करती है। अपना डॉक्टरी पेशा छोड़कर उसने एक ऐसे भाई की ताउम्र सेवा कि जिसका अपना कोई भविष्य न था। फातिमा ने भाई के कारण ही शादी तक नहीं की। बचपन से लेकर अंतिम सांस तक वे अपने भाई के साथ रहीं। भाई की मृत्यु के बाद पाकिस्तान में वे ताउम्र उपेक्षित रहीं। जब वे जिन्ना कि बरसी पर रेडियो स्टेशन गई तो उनके लेख को प्रसारित नहीं किया गया। बिजली गुल कर दी गई। वे गुमनामी की ज़िन्दगी जीती रहीं... क्या इसकी वजह उनका औरत होना मान ली जाए? ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान में राजनीति के क्षेत्र में औरतें नहीं उतरीं। बेनजीर भुट्टो इसका ताजातरीन उदाहरण है। बेगम राना जिन्होंने नवनिर्मित पाकिस्तान में महिला संगठन अपवा का गठन किया और महिलाओं की समस्याओं पर गहराई से काम किया। बेगम राना फ्रांस में पाकिस्तान की राजदूत भी रहीं। अस्सी के दशक में वामपंथी महिलाओं ने आॅल पाकिस्तान डेमोक्रेटिक वुमंस फ्रंट नाम की संस्था बनाई। इसके बाद कई सशक्त विदुषी महिलाओं, लेखिकाओं ने पाकिस्तानी सियासत, साहित्य और सामाजिक ज़िन्दगी में महत्त्वपूर्ण रोल अदा किए पर जबकि समूचा पुरुष समाज ही फौजी शासकों और राजनीतिक दलों की गुंडागर्दी, भ्रष्टाचार के कारण दुबका पड़ा हो तो महिलाएँ कहाँ तक दम भरें। इन राजनीतिक दलों की पोल खोलती औरतों पर रोंगटे खड़े कर देने वाले जुल्मो सितम की कहानी कहती किताब आई तहमीना दुर्रानी लिखित माई फ्यूडल लार्ड जिसका हिन्दी तर्जुमा है मेरे आका। इस पुस्तक में तहमीना ने अफने राजनीतिज्ञ पति गुलाम मुस्तफा खर की तीसरी पत्नी का दर्जा प्राप्त खुद पर किए गए अत्याचारों का रोंगटे खड़े कर देने वाला वर्णन किया है। पाकिस्तान अधिकृत पंजाब में औरतों को जमीन जायदाद ही समझा जाता है। तहमीना ने सामंती उच्च जागीरदार घरानों में औरतों की स्थिति का बेबाक वर्णन किया है। गौर करने वाली बात ये है कि ये अत्याचारी मर्द अशिक्षित नहीं बल्कि उच्च शिक्षा प्राप्त, देश-विदेश में सैर किए, आधुनिक सभ्य माने जाने वाले ऐसे मर्द हैं जिन्हें पाकिस्तानी समाज आधुनिक और उदारवादी मानता है।
विदेशी महिला पत्रकार ईमा डंकन जब पाकिस्तान के दौरे पर आईं तो उन्होंने वहाँ की औरतों की स्थिति का बारीकी से अध्ययन किया। अपने तमाम अनुभवों का बयान अपनी पुस्तक ब्रेकिंग द कर्फ्यू, ए पोलिटिकल जर्नी थ्रू पाकिस्तान में लिखा कि मुझे सड़कों और बाजारों में बहुत कम औरतें दिखाई दी। जो थोड़ी बहुत दिखाई दीं वे सिर से पांव तक पूरी ढकी मूंदी थीं। बहुत ज़्यादा आधुनिक युवतियों, औरतों के बस चेहरे भर दिखाई देते हैं। एक आश्चर्यचकित अमेरिकी ने मुझे पेशावर में बताया कि जिस तरह दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों के साथ गोरे व्यवहार करते थे, उसी तरह पाकिस्तानी अपनी औरतों के साथ करते हैं। पाकिस्तान में इस्लामी कानूनों के लागू होने के बावजूद औरतें बड़ी संख्या में नौकरी कर रही हैं। पूरे विश्व की औरतों को नौकरी के दौरान जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, अमूमन वही कठिनाइयाँ पाकिस्तानी औरतों की भी हैं। ईमा डंकन की इस किताब ने कई पहलुओं को दुनिया के सामने रोशन किया है।
पाकिस्तानी औरतों की एक बड़ी तादाद को आज भी प्राचीन परंपराओं, रस्मो रिवाजों का पालन करना पड़ता है। ये परंपराएँ भी दिल दहला देने वाली हैं। सिंध के जमींदार घरानों में लड़कियों की इसलिए शादी नहीं की जाती कि खानदानी जायदाद का बंटवारा हो जाने का खतरा पैदा हो जाता है। उनकी शादी अगर होती भी है तो शादी जैसी लगती नहीं। बलूचिस्तान और सूबा सरहद में कारोकारी यानी परिवार के सम्मान के नाम पर कबायली इलाके की हजारों औरतों का कत्ल कर दिया जाता है और कानून आंखें मूंदे रहता है। औरत पर बदतलनी का आरोप लगाकर उसकी हत्या कर दी जाती है। यह एक प्राचीन परंपरा है। जो गैर-इस्लामी है, मगर इस्लाम का कट्टरता से पालन करने वाले भी इसका विरोध नहीं करते। इसी प्रकार पंजाब के गाँव देहातों में हजारों लड़कियाँ वानी जैसी रस्म का शिकार होती है।
पाकिस्तानी औरतें भी अन्य देशों की औरतों की तरह अवहेलना, उत्पीड़न, अत्याचार, शो, ण और कुरीतियों का शिकार हैं। फिर भी उनमें माहौल से संघर्ष करने, बेबाक टिप्पणी देने का जज्बा है, हिम्मत है। जिन पाकिस्तानी लेखिकाओं ने समाज सहित अपने घर और अपने शयनकक्ष तक का परदा उठाया है क्या वैसी हिम्मत भारतीय लेखिकाओं में है? तहमीना दुर्रानी ने पाकिस्तान के उच्च वर्ग के आडंबर और खोखले आदर्शों की जिस तरह पोल खोली है, जिस तरह अपने सभ्य सुशिक्षित पति के घिनौने कारनामों को दुनिया के सामने प्रगट किया है, क्या भारतीय लेखिका अपने अत्याचारी पति के खिलाफ वैसा लिख सकती है बल्कि यह तो अपने पति की तमाम बुराइयों को ढंकती-मूंदती आई है। इतनी विसंगतियों से जूझते हुए आज पाकिस्तानी महिलाएँ विदेश सेवा से लेकर दफ्तरों, अस्पतालों यहाँ तक कि सियासत और फौज में भी हैं। वहाँ 8 मार्च को महिला दिवस भी मनाया जाता है और विभिन्न महिला संगठन उस दिन न केवल पाकिस्तानी महिलाओं बल्कि इस्लाम जगत की मशहूर महिलाओं को भी याद कर लेते हैं। मात्र एक यही दिन महिलाओं का होता है। बाकी सारे दिन मर्दों के, कठमुल्लाओं के, कबीले के, रस्मोरिवाज और परंपराओं के होते हैं। इन्हीं रिवाजों की भेंट चढ़ गई मुख्तारिन माई।
मुस्तान के एक गाँव की निवासी मुख्तारन के भाई का उसी गाँव के एक प्रतिष्ठित घराने की लड़की से इश्क हो गया। पाकिस्तान में इश्क करने की सजा संगसारी है यानी पत्थरों से प्रेमी युगल की हत्या पर न जाने क्यों उच्च जाति द्वारा संचालित गाँव की पंचायत ने फैसला सुनाया कि इस जुर्म की सजा यह है कि लड़के की बहन पंचायत के हवाले कर दी जाए। इस फैसले के खिलाफ मुख्तारन के परिवार ने दुहाई दी लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी और अंत में मासूम, भोली भाली मुख्तारन तेरह भेड़ियों के हवाले कर दी गई। कसूर किसी का सजा किसी और को, वह भी ऐसी घिनौनी कि अपराध की श्रेणी में आए यानी बलात्कार। जब मीडिया ने इस खबर को सुर्खियों में उछाला तो पुलिस हरकत में आई। मुलजिम पकड़े गए, फैसले सुनाए गए। मुलजिम जिरह, गवाही के बाद छोड़ दिए गए। कुछ इस अदा में जैसे कुछ हुआ ही न हो। हाईकोर्ट के फेसले के खिलाफ कुछ निजी संस्थाओं ने आवाज उठाई और मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गया। मुख्तारन भी पूरी ताकत से उठ खड़ी हुई और उसने मुजरिमों से बदला लेने के लिए कमर कस ली। मीडिया, निजी संगठनों के सामूहिक प्रयास से उठे इस मामले में उच्च न्यायालय ने आरोपियों की गिरफ्तारी का फरमान जारी किया। इस फैसले से न केवल मुख्तारन बल्कि पाकिस्तान की लाखों दबी कुलची और शोषित महिलाओं को एक नई ज़िन्दगी मिली। इस मामले को अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने भी उठाया। अमेरिकी मानवाधिकार संगठनों ने मुख्तारन को अमेरिका आने का न्यौता दिया लेकिन इससे पाकिस्तान की बदनामी होगी, सोच राष्ट्रपति परवेज मइसर्रफ ने उसके अमेरिका जाने पर रोक लगा दी। उसका पासपोर्ट जब्त कर लिया। इस बात के खिलाफ विदेशी अखबारों ने जमकर छापा लिहाजा सरकार को पासपोर्ट लौटाना पड़ा।
आज मुख्तारन माई पूरी दुनिया में औरत की हिम्मत बनकर उभरी है। उसने अपने जैसी पीड़ित महिलाओं की सहायता के लिए एक ट्रस्ट बनाया है। वह जो लड़ाई लड़ रही है वह महिलाओं के अधिकार की लड़ाई है। आठ मार्च महिला दिवस के अवसर पर मुल्तान शहर में मुख्तारन माई के नेतृत्व में दस हजार महिलाओं का शानदार जुलूस निकाला जिसने तमाम सड़कों पर घूम-घूमकर अपने अधिकारों मुख्तारन के नाम के नारे लगाए। एक गरीब और पिछड़े किसान की तलाकशुदा, बलात्कार की शिकार मासूम बेटी जब हिम्मत जुटाकर उठ खड़ी होती है तो जमाना देखता रह जाता है। लोगों को यकीन ही नहीं था कि पिछड़े इलाके की यह कमजोर औरत एक दिन आरोपियों को जेल की हवा खिलाएगी। आम धारणा है कि बलात्कार के बाद या तो औरत खामोश रहती है या आत्महत्या कर लेती है। पर मुख्तारन अपने दिन में उठे बदले की आग में ऐसी सुलगी कि लपटों से आरोपी बच न सके। उसकी दर्द भरी दास्तान और मुख्तारन बीवी से मुख्तारन माई बनने की कहानी इन दि नेम आॅफ आॅनर, ए मेम्बायर पुस्तक में दर्ज है। यह केववल दर्द की दास्तान ही नहीं बल्कि एक निहायत पिछड़े इलाके की बेपढ़ी लिखी औरत के लगातार संघर्ष और कभी न टूटने वाली हिम्मत की कहानी है। रिकॉर्ड बताता है कि पाकिस्तान में हर छह घंटे में एक बलात्कार और बर चार दिन में सामूहिक बलात्कार होता है। ऐसे में मुख्तारन माई उन पीड़ित महिलाओं की आवाज बन गई है जो घर और समाज की बदनामी के डर से बलात्कार सह लेती हैं पर कानून के दरवाजे नहीं खटखटातीं।
तालिबान शासन के दौरान अफगानी औरतों को क्या-क्या नहीं सहना पड़ा था। तालिबान ने कुरान की ऐसी व्याख्या कि जिससे आधुनिक इस्लामी राष्ट्र भी खासे पशोपेश में हैं। वहाँ इस्लामी धर्मराज्य की स्थापना के नाम पर औरतों को वस्तुत: घरों में कैद कर दिया गया। उनके पढ़ने-लिखने पर पाबंदी लगा दी गई। लड़कियों को जितने भी स्कूल थे, बंद कर दिए गए। बाज़ार में खरीददारी के लिए औरतों का घर से निकलना दूभर हो गया। नाते-रिश्तेदारों के यहाँ खानदानी रस्म निभाने के लिए यदि जाना हो तो सिर से पांव तक लंबा बुर्का ओढ़कर ही वे जा सकती थीं। वे किसी भी तरह के मनोरंजन की हकदार नहीं थीं। रेडियो, टीवी सुनना तो दूर की बात थी, उनके तो गाने बजाने तक पर प्रतिबंध था। लड़कियाँ न तो कोई खेल-खेल सकती थी, न जोर से हंस बोल सकती थीं। कड़वी सच्चाई यह है कि अफघानिस्तान में औरतों को मर्दों का गुलाम बना दिया गया था। वे सिर्फ़ बच्चा जनने की मशीन बनकर रह गई थीं।
अब अफगानिस्तान तालिबान शासन से मुक्त है, औरतें भी आजाद हुईं पर आज भी उनकी स्थिति में कुछ खास फर्क नहीं आया है। आज भी वे सामंती जुल्मों को झेल रही हैं। उन पर यौनाचार के आरोप लगाने में पुरुष समाज ज़रा भी नहीं हिचकिचाता। इस बात से इंकार नहीं कि कुछ औरतें आरोपी हैं, गुनहगार हैं, पर अधिकतर ऐसी मासूम हैं जिन पर आरोप थोपे गए हैं। कड़े इस्लामी मूल्यों वाले समाज में उन्हें परिवार ने भी छोड़ दिया है। इन्हीं में से एक कैदी औरत है फुरुजन। सलाखों के पीछे से वह अपनी दर्द भरी दास्तान सुनाती है-मैं यहाँ घुट-घुट कर जीने पर मजबूर हूँ जबकि मेरा कोई अपराध ही नहीं है। उसे सात महीने का गर्भ है और गोद में एक बच्चा भी। 23 वर्षीय फुरजन का गुनाह... उसके जीजा ने उस पर चचेरे भाई के साथ नाजायज सम्बंध कायम रखने का आरोप लगाया और उसे सजा हो गई। उसका जीजा उसके मृत पति की जमीन बेचना चाहता था। फुरुजन ने जो थोड़े ही समय पहले विधवा हुई थी, अपने चचेरे भाई की मदद ली लेकिन इसके बदले मिले उसे जेल। ऐसी कितनी ही औरतें जेल में बेगुनाही के आंसू बहा रही हैं। पर सुने कौन? ऐसे देश में जहाँ पुरुष के शब्द ही कानून हैं, करीब तीस औरतें यौनाचार के झूठे आरोप में सजा भुगत रही हैं। जेल में बंद इन औरतों को लोहे की सलाखों के पीछे उन सिपाहियों की निगरानी में रहना पड़ता है जो राइफलों से लैस रहते हैं और जिनकी भूखी निगाहें हर वक्त उनके कपड़ों के अंदर घुसपैठ मचाए रहती है।
ईराक में महिला कैदियों की स्थिति और भी बदतर है। वहाँ की अबू गरीब जेल में अमरीकी गठबंधन सेनाओं ने पुरुष युद्धबंदियों के साथ जो हैवानियत सुलूक किया वह तो अखबारों की सुर्खियाँ बन गया लेकिन महिला युद्धबंदियों के साथ हुए बर्बर व्यवहार प्रकाश में अधिक नहीं आए। कोई भी जंग हो सबसे ज़्यादा क्रूरता, बर्बरता औरतों को ही भुगतनी पड़ती है। कोई नहीं जानता कि अमेरिकी सेना कि कैद में कितनी ईराकी महिलाएँ हैं और उन पर क्या बीत रही है? इन महिला कैदियों की अमालकदम खादी नामक महिला वकील ने जेलों में पहुँच बनाई तो वहाँ का हाल देखकर वह रो पड़ी। अमेरिकी सैनिक इन महिलाओं को लगातार अपनी हवस का शिकार बना रहे हैं। उन्हें अधिकांश समय निर्वस्त्र रहने के लिए विवश किया जाता है। उनकी इज्जत जेल के सींखचों में नुमाइस बनकर रह गई है। न जाने कितनी महिला कैदी गर्भवती हो गई हैं। लेकिन वे नहीं चाहतीं कि इसकी खबर उनके परिवार तक पहुँचे। एक घिनौनी शर्म का एहसास उन्हें अपने बच्चों और रिश्तेदारों तक इस अनाचार की खबर पहुँचाने से रोकता है।
यही अमेरिकी गठबंधन सेना थी जो अमेरिकी राष्ट्रपति के द्वारा अपने देश में हुए आतंकवादी हमले के जवाब में ईराक भेजी गई थी और सद्दाम हुसैन की सेना को रौंदने और सद्दाम हुसैन को गिरफ्तार करने की जद्दोजहद में जुटी थी। इसी सेना ने ईराक की महिलाओं को सद्दाम हुसैन के शासनकाल में उन पर किए गए अत्याचारों का हवाला दिया था कि किस तरह सुद्दाम हुसैन ने कानून बनाकर आॅनर किलिंग के नाम पर औरतों का कत्ल करने की छूट दी थी। उन्हें किसी भी राजनीतिक भागीदारी से वंचित किया था और अब? अब सत्ता बदल गई है तो वही सेना उनका शोषण, अत्याचार करने में सद्दाम हुसैन से एक कदम आगे सिद्ध हो रही है। किस पर भरोसा करे औरत? कानून पर? धर्म पर? परिवार पर? या उन परंपराओं पर जो सदा औरत के खिलाफ ही रहीं। फिर चाहे दुनिया का कोई भी देश हो, क्या फर्क पड़ता है?
एक बात पर तो पुरुष समाज को औरतों को दाद देने में नहीं हिचकिचाना चाहिए। वह है इस्लामी औरत का जज्बा। इतने जुल्मों सितम के बाद भी वह अपने हकों की लड़ाई में पीछे नहीं। ईरान की दबंग महिला है जाहरा सोजाई जिसने महिलाओं को तलाक अर्झी दायर करने का हक दिलाने की लड़ाई लड़ी। मौजूदा कानून के तहत ईरान में महिलाओं को अपने पति की सहमति के बिना तलाक का कानूनी अधिकार नहीं है। जाहरा सोजाई की मांग पर ईरान की पार्लियामेंट ने यह अधिकार महिलाओं को प्रदान कर दिया। अब तो इन्हें मतदान का अधिकार भी मिल चुका है।
बदलाव की बयार अन्य मुस्लिम देशों में भी आई है। सऊदी अरब में कंजरवेटिव माहौल में जहाँ महिलाओं को गाड़ी चलाने तक की इजाजत नहीं थी, वहाँ महिला पायलट का होना अपने आप में एक मिसाल है। कैप्टन हनादी जकारिया ने भारी संघर्ष के बाद पायलट की ट्रेनिंग ली और अपनी पहली उड़ान सऊदी अरब के अरबपति शहजादे अलवालीद इब्त तलाल के जेट विमान को उड़ाकर की। हालांकि 26 वर्षीय हनादी के लिए यह एक बड़ी सफलता है लेकिन उन्हें हवाई अड्डा जाने के लिए पुरुष चालक वाली टैक्सी में ही जाना पड़ता है क्योंकि देश में आज भी महिलाओं को गाड़ी चलाने की इजाजत नहीं है।
इससे महिलाओं के चुनौती भरे तेवर में कोई अंतर नहीं आया है। हिबा कुत्व एक परंपरावादी मुस्लिम महिला है, जो सिर पर स्कार्फ बाँधती है और पूरी तहजीब के साथ नजर आती है टेलीविजन पर। कई अरब देशों में नकाब पहनकर टेलीविजन पर उद्घोषिक दिखने लगी हैं। पर हिबा कुत्व जिस टॉक शो को प्रसारित करती है वह मुस्लिम जगत के महिलाओं के प्रति तथाकथित संकीर्णवादी रवैये का मुंहतोड़ जवाब है। इस टॉक शो में हिबा सेक्स के बारे में बेधड़क होकर महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ देती हैं। इस शो में जिसका नाम बिग टॉक है वह मध्यपूर्व के उन सभी मुस्लिम मर्द-औरत के प्रश्नों का उत्तर देती है जो प्रश्नकर्ताओं के बेडरुम के अत्यंत अंतरंग पहलुओं से जुड़े होते हैं। यह उस सोसाइटी के लिए काफी बड़ा क्रांतिकारी कदम है जहाँ सेक्स पर बात करने से बचा जाता है। हिबा कुत्व के स्वतंत्र व खुले विचार उस क्षेत्र में काफी चर्चित हो रहे हैं। जहाँ सेक्स एजुकेशन नहीं के बराबर है और पुरुष व महिला सम्बंध को हमेशा ग़लत नजर से देखा जाता है। सेक्स पर जानकारी के लिए पुराने मिथ व धडल्ले से बिकने वाली अश्लील सामग्री पर निर्भर इस क्षेत्र में हिबा कि यह पहल महत्त्वपूर्ण है। कई बार पुरुष उसके प्रश्नों के उत्तर से चौंक जाते हैं हालांकि वह बताती है कि इस्लाम ही ऐसा धर्म है जिसमें सेक्स पूर्व प्यार पर जोर दिया है। पूरे विश्व में सबसे पहले इस्लाम ने ही सेक्स को समझा।
हिबा का यह नजरिया मुस्लिम जगत में बदलाव लाये और मुस्लिम औरत जागृत हो तब समझा जाएगा कि हिबा कि पहल सफल हुई।