इस सिलसिले को सहो या लपटों को गले लगाओ / संतोष श्रीवास्तव
सती की प्रथा सदियों से घटित हो रही एक ऐसी कुरीति है जिसके लिए इक्कीसवीं सदी में पहुँच चुकी इस दुनिया में भी वक्त ठहर-सा गया है। जबकि उन्नीसवीं सदी में राजा राममोहन राय के कठिन प्रयासों से इस प्रथा पर रोक लगा दी गई थी और कानून में सती प्रथा उन्मूलन एक्ट का पदार्पण हुआ था ब्रिटिश सरकार के द्वारा। कानून तो कागजों में बन गया लेकिन आज भी सती होने की घटना कि खबर अखबारों में आ ही जाती है। बिहार के समस्तीपुर जिले में एक औरत के सती होने की ताजा खबर ने जिसकी चिता के अंगारे अभी ठंडे भी नहीं हुए होंगे, अंधे समाज अंधे कानून के तमाम दावों पर सवालिया निशान लगा दिए। इसके पहले घटी घटनाएँ राजस्थान में रूपकुंवर कांड से लेकर उत्तर प्रदेश के बांदा कस्बे में 75 वर्षीय एक महिला द्वारा पति की चिता में आत्मदाह कर लेना और इस पर समाज का उसे महिमा मंडित करना यह सिद्ध करता है कि समाज में जहालत की जड़ें कितनी गहरी धंसी हैं। जय सती के गूंजते नारे यह तो साफ सिद्ध करते हैं कि समाज को शिक्षित करने तथा अंधविश्वासों के रसातल से बाहर निकालने की कोशिशों की अभी और ज़रूरत है।
पिछले वर्षोँ में स्त्री के सती हो जाने, उस स्थान पर हर साल सरकारी देख-रेख में सती मेला लगाने और सती की पूजा-अर्चना कि शुरूआत होने की घटनाएँ बार-बार दोहराई जाती रही हैं। मगर एक बात तेजी से स्पष्ट होती है कि वे इलाके जहाँ स्त्री सती हुई है समृद्धि और जागृति की तुलना में काफी पिछड़े इलाके हैं। स्त्री का सती होना पुण्य, प्रसिद्धि या पति में लगाववश कतई नहीं माना जा सकता। पति का आसरा छिन जाना, अपने को बेबस असहाय मानना, दो जून की रोटी की समस्या और परिवार का उसके प्रति बदलाव रवैया शायद उसे चिता तक खींच ले जाता हो। एएसे मामलों को भावना का सहज आवेग मानकर खारिज नहीं किया जा सकता।
आखिर कोई सजग इंसान भला किस तरह जनती चिता में कूदने का दुस्साहस कर सकता है? क्या मौत इतनी सहज होती है कि कोई भला, चंगा, स्वस्थ, जिजीविषा से पूर्ण इंसान उसे गले लगा ले? सती होने और आत्महत्या में कोई फर्क नजर नहीं आता। जाहिर है जो स्त्री मृत्यु की लालसा में जलती आग में कूदती है उसके पीछे समाज की अशिक्षा और पिछड़ेपन के साथ-साथ आने वाली ज़िन्दगी के वे भयावह दृश्य होते हैं जिनमें संभवत: घुट-घुटकर जीना ही एकमात्र विकल्प हो।
सामाजिक सुरक्षा के नाम पर कुछ नहीं कर पा रहे हमारे देश में बिना किसी मर्द के सहारे के जीना उन स्त्रियों के लिए अत्यंत कठिन है जो अशिइक्षत हैं और जो अफने पैरों पर खड़ी नहीं हो सकतीं। समाज सुधारकों के लिए ऐसी घटनाएँ चिंता का विषय तब बन जाती हैं जब मंत्रीगण और समाज के बड़े तबकों से जुड़े लोग ऐसे आयोजनों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं। इन नेताओं को वोट पाने के लिए गले में सांप डालकर ओझा-गुनियों के नृत्य में शामिल होने और सती मेले में सती चौरे की परिक्रमा कर लेने में कोई फर्क नजर नहीं आता।
मेरे एक मारवाड़ी उद्योगपति प्रशंसक ने सती प्रथा पर लिखा मेरा उपन्यास मालवगढ़ की मालविका पढ़कर मुझसे कहा कि मैं सती प्रथा के पक्ष में हूँ। मेरे रोंगटे खड़े हो गए। इस सदी का ऐसा बर्बर वाक्य।
आपकी दृष्टि में हम आधुनिक हो गए हैं। औरत को उसके अधिकार मिलने लगे हैं। वह आकाश की ऊंचाइयाँ छू रही हैं पर क्या सामाजिक परिवेश बदला? क्या आजादी के छप्पन सालों के बाद भी हमारे रहन-सहन और पारिवारिक ढांचे में कोई बदलाव आया? गांवों में तो आज भी औरत अर्ध सामंती व्यवस्था के कारण अपने अधिकारों से न केवल वंचित है बल्कि उसे जीवन की छोटी-छोटी सुविधाएँ भी मयस्सर नहीं है। औरत परिवार के भीतर ही शोषण का शिकार होती है। इसकी क्या गारंटी है कि मेरे मरने के बाद मेरी पत्नी के साथ मेरे परिवार के लोग अच्छा सलूक करेंगे? गहराई से सोचिए आप... आप एक लेखिका हैं सोच सकती हैं। क्या आपको नहीं लगता कि पति की मृत्यु के बाद पारिवारिक उपेक्षा और प्रताड़ना कि आशंका से औरतें सती हो जाना ज़्यादा बेहतर समझती हैं। उन्हें विधवा जीवन की विवशताएँ और भावी जीवन को लेकर गहरी निराशा ही इस कृत्य के लिए मजबूर करती है। मैं भी चाहूंगा कि मेरी मृत्यु के बाद मेरी पत्नी सती हो जाए। देवर, जेठ, सास, ससुर और समाज के तानों, प्रताड़नाओं से तिल-तिलकर जलने से ज़्यादा सुरक्षित है सती होना।
मुझे लगा यह कहकर उन्होंने मुझे तपती जमीन पर ला पटका है। किसी जानलेवा हकीकत से रूबरू करवाया उन्होंने मुझे। ऐसी ही तल्ख हकीकत से गुजरी थी मैं जब उभरती हुई तीस वर्षीया युवा चित्रकार सारा कि चित्र प्रदर्शनी में मैं गई थी। तमाम चित्रों का एक ही शीर्षक था औरत। पहले चित्र में माँ के गर्भ में डरी सहमी कन्या भ्रूण की ओर बढ़ती डॉक्टर की संड़सी थी। दूसरे में दूध का गिलास हाथ में लिए, बस्ता पीठ पर टांगे भाई था और उसे टुकुर-टुकुर देखती बहन... न दूध, न बस्ता... उसका अपराध था लड़की होना जो कि पराया धन है। पराए धन को क्या पढ़ाना, क्या लिखाना। तीसरे में दहेज के कारण जलाई जा रही लड़की, चौथे में विधवा... जिसके सिर के बाल नदारद हैं, शरीर पर न रंगीन कपड़े हैं न गहने... वह तीन स्थितियों से गुजर रही है... पहले में उसे घर के कोने में चटाई देकर ढकेला जा रहा है जहाँ उबला भोजन उसकी प्रतीक्षा कर रहा है। दूसरे में उसे विधवा आश्रम ले जाकर छोड़ा जा रहा है जहाँ कड़े कानून, कठोर जीवन और आश्रम की सुरक्षा, देखरेख के लिए तैनात मर्दों की असीमित हवस है और तीसरे में उसे दुल्हन-सा सजाकर सती होने के लिए ले जाया जा रहा है। गौरतलब बात ये है कि इन चित्रों की चित्रकार इक्कीसवीं सदी की, एक बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी में इंजीनियर के पद पर कार्यरत तीस वर्षीया लड़की है जो यह समझ गई है कि जब भी कोई औरत सती होती है सामाजिक न्याय का खूब ढिढ़ोरा पीजा टाता है। एक रूढ़िग्रस्त अफने अधिकारों को भला कैसे समझ सकता है? कानून के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन होना नितांत आवश्यक है। परिवारों को अपने संकुचित दायरे से बाहर आकर नई सोच में कैसे ढाला जाए यह एक विकट समस्या है।
इस कुप्रथा का जन्म कैसे और किन परिस्थितियों में हुआ जिसके कारण आए दिन पति की मृत्यु के बाद किसी औरत का सती होना यानी कि आत्महत्या या हत्या कर देने को सती शब्द से महिमा मंडित किया जाता है। सती की जय जयकार के साथ एक जीवित औरत आग में ढकेली जाती है। इस नृशंस, बर्बर, रूह कंपा देने वाले कांड को यह कहकर पूजा भाव से हल्का कर दिया जाता है कि धन्य है यह औरत जिसने जीने-मरने की साथ-साथ कसम खाने का वादा निभाया। कितनी विकृत मानसिकता का परिचायक है यह वाक्य। सैंकड़ों वर्ष पूर्व सती शब्द के मायने ही कुछ और थे। सती का शाब्दिक अर्थ है सत् यानी सत्यता। जिस स्त्री के अंदर सत्, त्याग, कर्तव्यनिष्ठा, वफादारी, ईमानदारी के गुण हों वह सती कहलाती थी। सत् से पूर्ण ऐसी नारी में सीता, सावित्री, अनुसूइया का नाम गिना जाता है। लेकिन धीरे-धीरे पितृसत्तात्मक परंपराओं के कारण इस शब्द ने अपने मायने खो दिए और ले लिया वीभत्स रूप। जहाँ एक ओर पुरुष की वीरता पूजी जाती है वहीं दूसरी ओर स्त्री का सती होना पूजा जाता है। जिस स्थान पर स्त्री सती हुई है वहाँ सती चबूतरा बनाया जाता है, सती माता का मंदिर बनता है और मेला भरता है। औरतें सती मंदिर में सुहाग के प्रतीक चिह्न चूड़ी, बिंदी, मेहंदी, महावर, सिंदूर और बिछिए चढ़ाकर सुहागिन मरने की कामना करती हैं ताकि उनके साथ भी यह बर्बरता का इतिहास न दोहराया जाए।
संभवत: गुप्त काल के बाद सती प्रथा का जन्म हुआ माना जाता है। उस समय अराजकता का प्रादुर्भाव था। विभिन्न टोले, कबीले, वर्ग और समुदाय आपस में लड़ा करते थे। अपनी आन-बान की रक्षा हेतु स्त्रियाँ लड़ाई में मृत्यु को प्राप्त हुए अपने पति की चिता के साथ जल मरती थीं। पितृसत्तात्मक समाज भी इसका एक कारण था जहाँ स्त्री एक वस्तु के रूप में मानी जाती है। अधिकारहीन, ठुकराई हुई, कोसी गई विधवा के सामने भविष्य एक कंटीला जाल नजर आता है। धर्म अपनी कट्टरता से बाज नहीं आता... वह बताता है कि सती हुई स्त्री कितना पुण्य कमाती है। स्वर्ग के दरवाजे उसके लिए खुल जाते हैं, जन्ममृत्यु के बंधन से वह मुक्त हो जाती है। धार्मिक कट्टरता के बहकावे में आकर वह मूर्ख बन जाती है, छली जाती है और सती होने के बहाने या तो आत्महत्या या हत्या कि बर्बरता से वह गुजरती है।
राजस्थान का कण: कण गवाह है इस बर्बरता का। श्मशान घाट के फाटक पर लाल रंग के हाथों के निशान बना दिए जाते हैं। ये निशान सती हो रही स्त्री के हाथों पर महावर लगाकर छापे जाते हैं। कुछ हथेलियों की छाप तो इतनी छोटी होती है जैसे नन्हीं बालिका कि हथेली हो। छोटी-छोटी कोमल, मासूम हठेलियाँ विधवा होने के जुर्म में जला दी गई बालिकाओं की जिन्होंने ज़िन्दगी का स्पर्श तक नहीं किया जो शादी का अर्थ तक नहीं जानतीं और जिन्हें बूढ़ों से ब्याह दिया जाता है, रोगी से ब्याह दिया जाता है... इनका गौना तक नहीं होता कि खबर आती है कि ये विधवा हो गई। फिर इन चएकती, चिल्लाती, डरी-सहमी बालिकाओं के हाथ पैर बाँधकर उनके बूढ़े, रोगी पतियों की चिताओं में उन्हें फेंक दिया जाता है। एक लम्बी दर्दनाक चएक से आसमान गूंज उठता है और फिर सब कुछ शांत।
एक अंग्रेज पर्यटक ने अपने संस्मरण में लिखा है-मैंने लाहौर में एक बहुत ही खूबसूरत लगभग बारह वर्ष की बहुत प्यारी बच्ची अपनी आंखों के सामने चिता में जीवित जलते देखी। जब वह चिता के पास लाई गई। उसके हाथ-पैर कांप रहे थे और वह फूट-फूट कर रो रही थी। मारे डर के अधमरी उस बालिका को एक बूढ़ी औरत ने गोद में लिया और ब्राह्मणों की मदद से उसे चिता पर बैठा दिया। वह चिता से कूदकर न भागे इसलिए उसके हाथ-पैर बाँध दिए गए थे। धीरे-धीरे चिता के साथ वह भी जलने लगी। वह जीवित, पूर्ण स्वस्थ, खिलती सुंदर कली जिसकी सांसों में कच्चे दूध की खइसबू थी एक मरे हुए व्यक्ति के साथ जो उसका पति था जला दी गई। उसका जुर्म (?) कि वह पति की मृत्यु के बाद भी जिंदा है? ईश्वर ने उसे मृत्यु नहीं दी तो समाज दे देगा, धार्मिक कट्टरता दे देगी। इस कांड के पीछे मिथक इस तरह जोड़ा गया कि सती में सत होता है। उसके सतीत्व से लपटें निकलती हैं और वह खुद को भस्म कर लेती है। जहाँ वह सती होती है उस जगह कोई भी उस वक्त प्रवेश नहीं कर सकता जब वह सती हो रही होती है। सती होने के बाद वह जगह पुण्यभूमि मानकर पूजी जाती है। श्मशान भूमि से पुरुषों का काफिला सती मैया कि जय के नारे लगाता लौटता था और मनगढ़ंत कहानी बनाकर घर की औरतों को सुनाता था ताकि उनकी औरतें मरने से, सती होने से डरें नहीं।
ज्यादातर बालिकाएँ या जिनके पति की असमय मृत्यु हुई है ऐसी स्त्रियाँ सती होती थीं। सती होने के कुछ घंटे पहले से इन्हें अफीम आदि नशीले पदार्थ खिलाये जाते थे। फिर घर की अन्य स्त्रियाँ इनका सोलह शृंगार कर बाजे-गाजे के साथ सती स्थल की ओर रवाना करती थी। नशे में लड़खड़ाती स्त्री को चिता पर बैठा दिया जाता था और उसके ऊफर कनस्तरों से घी उंडेला जाता था ताकि आग जल्दी पकड़ ले। उसके चारों ओर नुकीले बांस लिए लोग खड़े रहते थे कि अगर वह भागने की कोशिश करे तो उसे बांस से कोंच-कोंचकर चिता में ढकेल सकें। सती की चएक कोई सुन न सके इसलिए ढोल, मंजीरे, शंख जोर-जोर से बजाए जाते थे और सती माता कि जय-जयकार के नारे लगाए जाते थे। यह लोमहर्षक दृश्य सदियों से दोहराया जाता रहा है। इस कुप्रथा को बंद करने का कानून भी बना पर पुरुष प्रधान समाज को इस बात का डर था कि कहीं विधवा औरत संपत्ति पर अपना हक न जताने लगे। शायद यही वजह है कि मातृसत्तात्मक समाज में यह कुप्रथा नहीं के बराबर थी। वैसे इस कुप्रथा ने पूरे भारत में अपना दानवी पंजा फैलाया। राजा राममोहनराय ने बंगाल में इस कुप्रथा के लोमहर्षक दृश्यों को देख इसके विरुद्ध आंदोलन छेड़ा। यों जौहर की परंपरा राजघरानों में दोहराई ही जाती रही है। युद्ध में जाते हुए अपने पतियों को अंतिम विदाई दे और यह मानकर कि क्या पता वे युद्ध भूमि से न लौटें रानियाँ, दासियाँ, सहेलियाँ संभावित वैधव्य की आशंका से जौहर की ज्वाला में कूद स्वयं को भस्म कर लेती थीं।
यदि कोई स्त्री चिता से कूदकर भागने में सफल हो जाती थी तो गाँव में उसका प्रवेश पाना नामुमकीन था। उसका पुनर्विवाह तो कल्पना से परे की चीज थी बल्कि उसे कुलटा, कुलच्छिनी, कलमुंही और यहाँ तक कि डायन जैसे विशेषणों से नवाजा जाता था और यदि वह पकड़ में आ गई तो झूठी कहानियाँ उसके साथ जोड़कर उसे पत्थरों से कुचलकर मार डाला जाता था। अपने दूधमुंहे बच्चे को परिवार द्वारा जबरदस्ती छिनवाकर सती के लिए ले जाई जा रही स्त्री यदि भाग गई तो उसकी ममता को, वात्सल्य को डायन कहा जाता था। उसके ममता के आधिक्य से भरे दूध बहाते स्तनों की पीड़ा अगर वह किसी और के बच्चे को दूध पिलाकर दूर करना चाहती थी तो अंधविश्वासों या फैलाई गई भ्रांतियों से भरा समाज इसे भी डायन का टोटका, करतूत समझता था। आज भी यह माना जाता है कि डायन बच्चे को अपना दूध पिलाकर उसके प्राण हर लेती है।
पूरे भारत में फैली इस कुप्रथा का हर जगह एक जैसा रूप नहीं है। दक्षिण भारत में कोरोमंडल के तट पर सती होने वाली औरत को पति की चिता के साथ जलाया नहीं जाता था बल्कि चिता के जल जाने के बाद चिता के पास ही जमीन में एक पांच फुट का गड्ढा खोदा जाता था। सती होने वाली औरत को उस गड्ढे में उतरने को कहा जाता था, जैसे ही वह गड्ढे में उतरती थी गड्ढे का मुंह फुर्ती से बंद कर तीन-चार पुरुष उस पर तब तक कूदते थे जब तक विश्वास न हो जाए कि वह औरत मर चुकी है। औरत तो यह समझ ही नहीं पाती थी कि उसके साथ क्या हो रहा है और अन्य औरतों को इस बारे में इसलिए पता नहीं चल पाता था क्योंकि औरतों का श्मशान घाट जाना निषेध है।
आगरा के आसपास के इलाकों में मृत व्यक्ति को श्मशान नहीं ले जाया जाता था। एक घासफूस की झोपड़ी बनाकर उसमें औरत अपने मृत पति का सिर अपनी गोद में लेकर बैठ जाती थी और झोपड़ी को आग लगा दी जाती थी। झोपड़ी के आसपास खड़े लोग सती माता कि जय-जयकार करते जाते थे और लकड़ी, गोबर के कंड़े, घास के सूखे पुआल तब तक फेंकते जाते थे जब तक कि औरत राख नहीं हो जाती थी। यह मुगलकाल की सती परंपरा थी जिसका उल्लेख फ्रांसिस्टो पैल्टर्स ने अफने यात्रा संस्मरण में किया है। मुगलकाल में अकबर ने इस प्रथा को रोकने के लिए जो कानून बनाया था वह सभी मुगल बादशाहों के शासनकाल में लागू रहा मगर फिर भी विधवा औरतें जीवित जलाई जाती रहीं। हिन्दू आध्यात्म ग्रंथों में महाभारत, रामचरितमानस, वैदिक युग, मौर्य काल, गुप्त काल, मुगल काल, सल्तनत काल, ब्रिटिश काल और अब आधुनिक काल तक में सती परंपरा जीवित है और औरत जीते-जी लपटों के हवाले हो रही है। मथुरा को घेर कर बहती यमुना नदी पर तो एक सती घाट ही बना दिया गया है जो हजारों स्त्रियों के जीवित जलाए जाने का मूक गवाह है।
विदेशों में भी वहाँ के मूल निवासियों में सती प्रथा का उल्लेख किया गया है। अमेरिका के हवाई द्वीप समूह में रहने वाले आदिवासी पोलीनीशियन में पति की मृत्यु के बाद पत्नी को भी उसी के साथ जीवित दफना दिया जाता है। यह परंपरा आज भी जीवित है।
वास्तव में सती प्रथा औरत को मनुष्य नहीं बल्कि एक वस्तु के रूप में प्रतिपादित करती है। पति की मृत्यु के बाद औरत के जीवन की व्यर्थता ही सती प्रथा को मजबूत की है या तो जीवित जला दो या विधवा आश्रम भेज दो जहाँ वह महंतों, मठआधीशों, चेले चपाटों की हवस पूर्ति करती रहे। शरीर उसका इस्तेमाल होता रहे लेकिन मन की कोई कद्र नहीं, भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं। वह अपने जीवन की पुन: शुरुआत नहीं कर सकती ऐसा धर्म कहता है। उसे अपने सपनों को कुचल डालना है। एक जीवन साथी, बच्चे परिवार, गहने, कपड़े, सुस्वादु भोजन, व्रत, त्योहार, उत्सव, समाज में प्रतिष्ठित जीवन सब कुछ उससे विधवा होने की बिना पर छीन लिया जाता है। उसके लिए स्थान निश्चित कर दिए गए हैं या तो श्मशान घाट या विधवाश्रम या मंदिर जहाँ वह देवदासी बनकर पुजारियों, महंतों के यौन शोषण के परमात्मा के दिए अधिकार की शिकार होती है या परिवार के ही देवर, जेठ से ब्याही जाकर रात-दिन कुलच्छिनी के ताने सुनती जीवन गुजार देती है। क्या पुरुष के लिए ऐसी कोई प्रथा, ऐसा कोई धार्मिक बंधन, ऐसी कोई लाचारी है? जहाँ मातृसत्तात्मक परंपरा है वहाँ भी क्या अपनी मृत पत्नी के साथ उसका पति जिन्दा जलाया जाता है? धन्य है यह पुरुष प्रदत्त सती कुप्रथा जिसमें औरत को बरगला कर उस लोक में पति मिलन और मोक्ष की कामना के लिए उसे आग के हवाले कर दिया जाता है। इस जन्म में पति की पैर की जूता बनकर एक-एक चीज को तरसती जिसमें प्रेम, ईमानदारी, वफादारी, अपने लिए सम्मान सब शामिल है, वह उस लोक में अपने पति से सब कुछ पा लेगी। वह नन्हीं बालिका जो शादी, पति, सुहाग का अर्थ भी नहीं जानती। जिसके गुड्डे-गुड़िया खेलने के दिन हैं वह भी क्या यही कामना लेकर चिता पर चढ़ेगी? वह भोली अवाक् आग से डरी-सहमी, चिता के नजदीक झुलस-झुलस जाती कली जैसी एकाएक झंझावात के हवाले कर दी जाती है। अपनी जान बचाने के लिए 84 लाख योनियों के चक्कर में पड़ा कीट-पतंग तक छुपता है, भागता है, दुबकता है लेकिन पुरुष का निष्ठुर कलेजा कि जिस औरत जाति से उसने जन्म लिया उसी जाति के प्रति ऐसी निर्ममता, ऐसी कठोरता?
सती को लेकर विभिन्न कवियों ने लेखकों ने अपने-अपने नजरिए से इसका गुणगान या निंदा कि है। रीति-कुरीति बतलाई है। सती का व्याकरण में पुल्लिंग शब्द नहीं है। यह मात्र स्त्री के लिए उपयोग में लाया जाने वाला शब्द है। कबीर, जायसी, सूरदास, शरत्चंद्र, हजारीप्रसाद द्विवेदी, आदि ने सतीप्रथा पर रचना कि है। विदेशी यात्रियों ने भी अपने यात्रा वृत्तांतों में इस कुप्रथा का उल्लेख करते हुए आंखों देखा वर्णन लिखा है। सती प्रथा पर लिखे मेरे उपन्यास मालवगढ़ की मालविका भी सत्य घटनाओं पर आधारित कथ्य सहित चर्चित हुआ और भी साहित्य रचा गया सती को आधार बनाकर पर वे धुएँ के काले बादल नहीं छंटे जो सती के जलते शरीर से निकले थे। वह राख नहीं उड़ी जिसके ढेर के ढेर ढूंहों ने श्मशान घाट को थर्रा दिया था। वह पितृसत्ता के माथे पर लगा ऐसा कलंक है जिस पर सारी मानवता शर्मिंदा है।