उपसंहार / भाषा की परिभाषा / 'हरिऔध'
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हिन्दी साहित्य का विकास किस प्रकार हुआ और कब-कब वह किन-किन रूपों में कैसे परिणत हुआ, मुझको यही प्रकट करना इष्ट था। यह यथासम्भव प्रकट किया गया। इतना ही नहीं, इस विषय में जितने आवश्यक साधान थे उनको भी ग्रहण किया गया। हिन्दी भाषा का वर्तमान रूप बहुत समुन्नत है और वह दिन-दिन विस्तृत और सुपरिष्कृत हो रही है। किंतु एक बात मुझको यहाँ और निवेदन कर देने की आवश्यकता ज्ञात होती है, वह यह कि जितना सुगठित, प्रांजल और नियमबध्द हिन्दी-गद्य इस समय है, उतना उसका पद्य भाग नहीं। गद्य हिन्दी के अधिकांश नियम भारतवर्ष के उन सब प्रान्तों और भागों में सर्वसम्मति से स्वीकृत हैं, जहाँ उसका प्रचार अथवा प्रवेश है। किन्तु पद्य के विषय में यह बात नहीं कही जा सकती। पद्य-विभाग में अभी तक बहुत कुछ मनमानी हो रही है, जिसके मन में जैसा आता है उस रूप में उसको वह लिखता है। मैं पहले खड़ी बोली के कुछ नियम बतला आया हूँ। उन नियमों का अब तक अधिकतर पालन हो रहा है। परन्तु थोड़े दिनों से कुछ लोगों के द्वारा उनकी उपेक्षा हो रही है। यह उपेक्षा यदि भ्रान्ति अथवा बोधा की कमी के कारण होती तो मुझको उसकी विशेष रूप से चर्चा करने की आवश्यकता नहीं थी। किन्तु कुछ लोग तो जान-बूझकर इस प्रकार के कितने प्रयोग कर रहे हैं, जिनको वे प्रचलित करना चाहते हैं, और कुछ लोग इस विचार से ऐसा कर रहे हैं कि वे अपने विचारानुसार भाषा की उन्मुक्त धारा को बंधान में डालना नहीं चाहते। सम्भव है कि कुछ भाषा-मर्मज्ञ इसको अनुचित न समझते हों। परन्तु मेरा निवेदन यह है कि यदि नियमों की आवश्यकता स्वीकृत न होगी तो न तो भाषा की कोई शैली निश्चित होगी और न काव्य शिक्षा-प्रणाली का कोई मार्ग निधर्रित हो सकेगा। किसी विद्या के पारंगत के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता किन्तु प्रत्येक विद्या और कला सीखनी पड़ती है। कोई किसी विद्या का पारंगत यों ही नहीं हो जाता, पहले उसको शिक्षा-लाभ करने की आवश्यकता होती है। यदि कोई नियम ही न होगा तो शिक्षा-सम्बन्धी इस आरम्भिक जीवन का मार्ग ही प्रशस्त न हो सकेगा। इसीलिए साहित्य और व्याकरण के नियम निश्चित किये गये हैं और उन नियमों का पालन करके चलने से ही प्रत्येक शिक्षार्थी इष्ट की प्राप्ति कर सका। मैं जानता हूँ कि भाषा परिवर्तनशील है। वह बदलती है और उसके नियम भी बदलते हैं। परन्तु नियम ही बदलते हैं, यह नहीं होता कि उसका कुछ नियम ही न हो। ऐसी अवस्था में नियम का त्याग नहीं हो सकता।
कहा जाता है कि स्वतंत्रा विचार वाले परतंत्रता कभी स्वीकार नहीं करते। एक सज्जन कहते हैं कि जो लोग उच्छृंखलता का राग अलापते हैं उनको सोचना चाहिए कि उच्छृंखलता शब्द ही में बंधान और परस्परागत पराधीनता का भाव भरा है। उनसे मेरा यह निवेदन है कि नियम के भीतर रहकर जो आवश्यक सुधार अथवा परिवर्तन किये जाते हैं। उनको कोई उच्छृंखलता नहीं कहता। मनमानी करना ही उच्छृंखलता है। इसी मनमानी से सुरक्षित रहने के लिए ही नियम की आवश्यकता होती है। फिर उसमें क्या बंधान है और क्या परम्परागत पराधीनता? प्रतिभावान और साहित्य-मर्मज्ञ जिस मार्ग पर चलते हैं उसका विरोधा कुछ काल तक भले ही हो, परन्तु काल पाकर उनकी प्रणाली आदर्श बन जाती है और उसी पर लोग चलने लग जाते हैं। अतएव विचारणीय यह है कि क्या साहित्य-पारंगत और मर्मज्ञ जन उन्मार्गगामी होते हैं? मेरा विचार है वे उन्मार्गगामी नहीं होते। वे सत्पथ-प्रदर्शक होते हैं। इसीलिए उनके पथ पर स्वीकृति की मुहर लग जाती है। इसका विरोधा मैं नहीं करता और न यह बात है कि मैं इस स्वाभाविकता को स्वीकार नहीं करता हूँ। मेरा कथन यह है कि जो विविधारूपता और अनियमबध्दता साहित्य में दिखलायी दे रही है उसका प्रतिकार किया जावे और खड़ी बोलचाल की कविता की ऐसी प्रणाली निश्चित की जावे, जिसमें एकरूपता हो, जो एक प्रकार से सर्वमान्य हो सके। इसी बात को सामने रखकर मैं कुछ ऐसे प्रयोग भाषा मर्मज्ञों के सामने रखता हूँ जिन पर विचार होने की आवश्यकता है। यदि वे प्रयोग उचित हैं तो जाने दीजिये, मेरी बातों को न सुनिये। यदि अनुचित हैं तो उचित मीमांसा होकर उनके विषय में कोई सिध्दान्त निश्चित कीजिए।
आजकल उर्दू में जिसको रोजमर्रा कहते हैं उनकी परवा हिन्दी रचनाओं में, विशेषकर आधुनिक खड़ी बोली की कविताओं में, कम की जाती है। रोजमर्रा का अर्थ यह है कि जैसा आपस में बोलते-चालते हैं वैसा ही शब्दों का व्यवहार गद्य और पद्य में भी करें। यदि हम बोलते हैं 'ऑंख देखी बात' तो 'ऑंख देखी बात' ही लिखना चाहिए, 'ऑंख बिलोकी' या 'ऑंख निहारी बात लिखना' संगत नहीं। बोलचाल है कि हमारा पाँव दुख रहा है। यदि इसके स्थान पर हम लिखें कि 'हमारा पाँव दुख पा रहा है'तो ऐसा लिखना उचित न होगा। इसी प्रकार मुहावरे के जितने वाक्य हैं वे उन्हीं शब्दों में परिमित हैं, जिन शब्दों में बोले जाते हैं। उनके शब्दों को बदल देना और उसी मुहावरे में उस वाक्य को ग्रहण करना नियम-विरुध्द है। मुहावरा है 'दाँत निकालना'। यदि हम 'दाँत' के स्थान पर 'दसन' या 'दंत' प्रयोग कर देंगे तो यह प्रयोग नियमानुकूल न होगा। परंतु ऐसे प्रयोग किये जाते हैं। मेरा कथन यह है कि ऐसा होना उचित नहीं।
एक पक्ष वालों का यह सिध्दांत है कि ब्रजभाषा के शब्द खड़ी बोलचाल की कविता में आने ही नहीं चाहिए, उसकी क्रियाओं का प्रयोग तो किसी अवस्था में न होना चाहिए। दूसरे पक्ष के लोग कहते हैं कि ब्रजभाषा के कोमल और मुधार शब्द अवश्य ले लिये जायँ और विशेष अवस्थाओं में क्रिया भी ले ली जाय, परंतु तब जब उसको खड़ी बोली का रूप दे दिया जावे। आजकल की रचनाओं में दोनों प्रकार के प्रयोग मिलते हैं और उन लोगों को इस प्रकार का प्रयोग करते देखा जाता है जिनकी रचनाएँ प्रामाणिक मानी जाती हैं। इस भिन्नता से दूर होने की आवश्यकता है। मेरा पक्ष दूसरा है। परंतु मैं 'पत्ता' के स्थान पर 'पात', 'पुष्प' के स्थान पर 'पुहुप', 'हृदय' के स्थान पर 'हिय, हिया' अथवा 'रिदै', 'ऑंखें' के स्थान पर 'ऍंखियाँ', 'समय' के स्थान पर'समै', 'पवन' के स्थान पर 'पौन' 'भवन' के स्थान पर 'भौन', 'गमन' के स्थान पर 'गौन', 'नयन' के स्थान पर 'नैन', 'वचन'के स्थान पर 'बैन' या 'बयन', 'मदन' के स्थान पर 'मैन' या 'मयन', 'यम' के स्थान पर 'जम', 'यज्ञ' के स्थान पर 'जग्य', 'योग' के स्थान पर 'जोग' आदि लिखना अच्छा नहीं समझता। इसलिए कि इससे शब्द अधिक बिगड़ते हैं और उस रूप में सामने आते हैं जो खड़ी बोली के नियम के विरुध्द हैं।
खड़ी बोली का यह नियम है कि उसके कारक के चिद्द लोप नहीं किये जाते। पहले इस नियम की रक्षा सतर्कता के साथ की जाती थी किन्तु अब यह देखा जाता है कि इस बात की परवा कम की जाती है विशेषकर पद्य के अन्त में। यह ब्रजभाषा का अनुकरण है। खड़ी बोलचाल के नियमानुसार या मुहावरों में जहाँ कारक के चिद्द लुप्त रहते हैं, उनके विषय में मुझे कुछ नहीं कहना है। परन्तु अन्य अवस्थाओं में कारक के चिद्दों का त्याग न होना चाहिए।
खड़ी बोली में अब तक यह होता आया था कि 'न' का अनुप्रास 'ण' को मान लेते थे। परंतु 'प्राण' के स्थान पर 'प्रान'लिखना पसंद नहीं करते थे। इसी प्रकार युक्त विकर्ष को भी अच्छा नहीं समझते थे। अब देखते हैं कि युक्त विकर्ष भी होने लगा है और णकार का नकार किया जाने लगा है। शकार को भी सकार कर दिया जाता है, कभी अनुप्रास के लिए, कभी कोमलता की दृष्टि से। जब सकार का अनुप्रास शकार मान लिया गया है तब अनुप्रास के लिए 'शकार' का सकार करना उचित नहीं। शब्द की कोमलता के धयान से शकार का सकार होना अच्छा नहीं। क्योंकि ऐसी अवस्था में शब्द की शुध्दता का लोप हो जाता है।
यह देखा जाता है कि अंग्रेजी मुहावरों का अनुवाद करके ज्यों का त्यों पद्यों में रख दिया जाता है। जैसे, 'golden end' का'स्वर्ण अवसान' 'Golden dream' का 'स्वर्ण स्वप्न', 'Golden shadow' का 'कनक छाया', और 'Dreamy splendour' का 'स्वप्निल आभा'। इसका परिणाम यह होता है कि कोई अंग्रेजी का विद्वान् उन अनुवादित मुहावरों का अर्थ भले ही समझ ले, परन्तु अधिकांश हिन्दी भाषा भाषी जनता उसको नहीं समझ सकती। इसका कारण पद्य की जटिलता और दुरूहता होती है। इसलिए इस प्रकार का प्रयोग वांछनीय नहीं। एक भाषा के मुहावरे का अनुवाद दूसरी भाषा में नहीं होता। इसका नियम यह है कि या तो उसका भाव अपनी भाषा में रख दिया जाय अथवा उसी भाव का द्योतक कोई मुहावरा अपनी भाषा का चुन कर पद्य में रखा जावे। मैं यह नहीं कहता हूँ कि नये मुहावरे नहीं बनते या नहीं बनाये गये। मेरा कथन इतना ही है कि मुहावरों की रचना के भी नियम हैं। उर्दू में कितने ही मुहावरे बन गये हैं, जैसे 'हवा बाँधना', 'हवा हो जाना', 'हवा बिगड़ जाना' इत्यादि। किन्तु विचारना यह है कि ये मुहावरे बने कैसे? ये मुहावरे बोलचाल में आकर बने और फिर कवियों और लेखकों द्वारा गृहीत हुए। प्रमाण इसका यह है कि हिन्दी के जितने मुहावरे हैं, वे सब प्राय: तद्भव शब्दों से बने हैं। हिन्दी का कोई मुहावरा प्राय: संस्कृत शब्दों से नहीं बना है। कारण इसका यह है कि जनता की बोलचाल ही मुहावरों को जन्म देती है। संस्कृत के तत्सम शब्द कभी जनता की बोलचाल में नहीं थे। इसलिए मुहावरों में वे न आ सके। उर्दू के मुहावरों की भी उत्पत्ति ऐसे ही हुई है। यही प्रणाली ग्रहण कर यदि नये मुहावरे बनाये जायँ तो कोई आपत्ति नहीं। अन्यथा पद्यविभाग जटिल से जटिलतर हो जावेगा। दूसरी बात यह है कि जब गद्य में इस प्रकार के मुहावरे नहीं लिखे जाते तो पद्य में उनका प्रयोग कहाँ तक संगत है। विशेषकर उस अवस्था में जब गद्य और पद्य की भाषा की एकता का राग अलापा जाता है। मैं यह जानता हूँ कि गद्य की भाषा से पद्य की भाषा का कुछ अन्तर होता है। किन्तु इसके भी कुछ नियम हैं। उन नियमों की रक्षा के विषय में ही मेरा निवेदन है।
आजकल यह भी देखा जाता है कि कुछ ऐसे समस्त शब्द बना लिये जाते हैं जो संस्कृत के नियमानुसार अशुध्द तो हैं ही, हिन्दी भाषा के नियमानुसार भी वे न तो गृहीत होने योग्य हैं, न उनका इस प्रकार प्रयोग होना उचित है। ऐसे समस्त शब्छ भी कुछ अंग्रेजी प्रणाली के अनुसार बनाये जाते हैं, और कुछ कवि की अहम्मन्यता अथवा प्रमाद के परिणाम होते हैं। ऐसे शब्दों या वाक्यों का अर्थ इतना दुर्बोधा हो जाता है कि उसके कारण् प्रांजल से प्रांजल पद्य भी जटिल बन जाते हैं। यदि कहा जाय 'उन्मत्ता क्रोधा', 'सरसईर्षा', 'ललित-आवेश', 'विहँसित-क्रन्दन', 'रुदित हँसी', 'खिलखिलाती चिन्ता', 'नाचती निद्रा', 'जागती नींद', 'उड़ता हृदय', 'सोता कलेजा' तो बतलाइये, इन शब्दों का क्या अर्थ होगा बोलचाल में तो इनका स्थान है ही नहीं, कवि-परम्परा में भी ऐसे से प्रयोग गृहीत नहीं हैं फिर कहिये इस प्रकार का प्रयोग यदि किया जाता है तो उसको निरंकुशता छोड़ और क्या कह सकते हैं। जहाँ दोषों की गणना की गई है वहाँ एक दोष 'अप्रयुक्त' भी माना गया है। जिसका प्रयोग न हुआ हो, उस शब्द या वाक्य का प्रयोग करना ही अप्रयुक्त दोष कहलाता है। जैसा वाक्य मैंने ऊपर लिखा है, इस प्रकार का वाक्य विन्यास तो अप्रयुक्त दोष से भी दो कदम आगे है। फिर भी आज दिन इस प्रकार के प्रयोग होते हैं। मेरा विचार है कि ऐसे प्रयोग चाहे नवीन आविष्कार कहलावें और प्रयोग कत्तर् के सिर पर नवीन आविष्कारक होने का सेहरा बाँध दें, परन्तु भाषा में ऐसा विप्लव उपस्थित करेंगे, जिससे वह पतनोन्मुख होगी और उसका स्थान कोई दूसरी उन्नतिशील और सुगठित भाषा ग्रहण कर लेगी। हम इस प्रकार के प्रयोगों को चमत्कृत बुध्दि का विलास नहीं कह सकते और न वह विलक्षण प्रतिभा की ही विभूति है। हाँ, उसे किसी अवांछनीय मनोवृत्तिा का फल अवश्य मान सकते हैं। यह मैं मानूँगा कि इस प्रकार की निरंकुशता और उच्छृंखलता होती आई है। यदि ऐसा न हो तो 'निरंकुशा: कवय:' क्यों कहा जाता? सब भाषाओं में ऐसे लेखक और कवि मिलते हैं कि नियमबध्दता होने पर भी उनके विषय में यह कहावत चरितार्थ होती है-मुरारे: तृतीय: पन्था:। यह मान भी लें तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि सब बातों की सीमा होती है। सीमोल्लंघन होना अच्छा नहीं होता। दूसरी बात यह कि निरंकुशता निरंकुशता ही है, उस पर निन्दनीयता की मुहर लगी हुई है। वह नियम के अन्तर्गत नहीं है,अपवाद है। यदि उच्छृंखला एवं निरंकुशता की उपेक्षा होती तो समालोचना प्रणाली का जन्म ही न होता। समालोचना का कार्य यही है कि वह इस प्रकार की नियम-प्रतिकूलता को साहित्य में स्थान न ग्रहण करने दे। जिससे किसी व्यक्ति विशेष का इस प्रकार का अनियम अन्यों का आदर्श बन सके। यह भी देखा गया है कि समालोचना के आतंक ने उनको भी सावधान कर दिया है, जो निरंकुश कहलाने ही में अपना गौरव समझते थे। सारांश यह कि साहित्य के हित की दृष्टि से जो बात उचित हो,उसकी ओर साहित्य-मर्मज्ञों की दृष्टि का आकर्षित होना आवश्यक है, जिससे साहित्य लांछित होने से बचे और इसी सदुद्देश्य से इस बात की चर्चा यहाँ की गयी है।
मेरा विचार है और मुझको आशा है कि खड़ी बोली का पद्य विभाग सुविकसित होकर बहुत उन्नत होगा और वह साहित्य सम्बन्धी ऐसा आदर्श उपस्थित करेगा जो उसके सामयिक विकास के अनुकूल होगा। यहाँ जो कुछ लिखा गया वह इसी विचार से लिखा गया कि हमारी यह आशा फलीभूत हो और इस मार्ग में जो बाधाएँ हैं उनका नियन्त्राण हो, और जो बातें सुधार-योग्य हों उनका सुधार हो, मुझको यह भी विश्वास है कि यदि मेरी बातों में कुछ भी सार होगा तो अवश्य वे सुनी जायँगी और उनका प्रभाव भी होगा।
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