उर्दू शायरों की पनाहगाह भिंडी बाज़ार / संतोष श्रीवास्तव
भिंडी बाज़ार मुम्बई का मुस्लिम बहुल आबादी वाला वह हिस्सा है जहाँ हर वक़्तजनसमूह उमड़ा नज़र आता है। भिंडी बाज़ार ने अपने नाम के लफ़्ज़ के सफ़र में तीन परतों को पार किया है। इस जगह में दरख़्त के नीचे आसपास के गाँवों के हाट लगा करते थे इसलिए इसका नाम भिंडी बाज़ार पड़ा। यहीं कहीं बर्तन भीबना करते थे। बर्तन को मराठी में भांडी कहते हैं एक वजह यह भी है। तीसरी वजह है कि फोर्ट में स्थित क्रेफ़र्ड मार्केट के पीछे बसा होने के कारण इसे बिहाइंड मार्केट कहते थे जो बाद में बिहाइंड का भिंडी हो गया है। वैसे अब यह क्षेत्र बहुत विस्तार ले चुका है। यहाँबंगाली मोहल्ला, सुरती मोहल्ला, छीपा (राजस्थान) मोहल्ला है। पहले यहाँ काबुली, पठान, बलूची, ईरानी, मकरानी और अरब समुदाय भी रहता था। अब धीरे-धीरे इनकी आबादी कम हो गई. जब मैं मुम्बई आई तो कुछ ख़ास इलाकों को देखने की चाहत लिए भिंडी बाज़ार भी आई... बाज़ार ऐसा मिला जुलाकिमोहल्ले भी वहाँ, स्कूल भी वहाँ, मस्जिदभी वहाँ, नल बाज़ार, चोर बाज़ार... उफ़ कितना सघन इलाका। फुटपाथों पर सजी सजाई हर वास्तु की दुकानें, जो चाहे ख़रीद लो। आज आपका कोई सामान चोरी हुआ है, कल वह चोर बाज़ार में बिकता नज़र आ जाएगा। दिन भर ठेला गाड़ियों में थोक का सामान भर कर मज़दूर यहाँ से वहाँ पहुँचाते हैं... रात को फुटपाथ पर बिकते भोजन से पेट भर कर ठेला गाड़ी में ही सो जाते हैं। देश के कोने-कोने से आए हज़ारों मज़दूरों ने भिंडी बाज़ार में सूनी ज़िन्दग़ी गुज़ारकर मुम्बई को चौबीस घंटे रोशन किया है।
भिंडीबाज़ार में उर्दू के कई शायरों, लेखकों, संगीतकारों ने भी संघर्ष के दिनों में पनाह पाई है। उर्दू की क्लासिकल शायरी के दौर में भिंडी बाज़ार में मज़रूह सुल्तानपुरी, आरज़ू लखनवी, जोश मलीहावादी, सज्ज़ाद ज़हीर (जिन्हें बन्ने भैया के सम्बोधन से सब बुलाते थे) , मुंशी प्रेमचन्द, मुल्कराज आनंद की कर्मभूमि मुम्बई ही थी हालाँकि प्रगतिशील लेखक संघ की नींव लंदन में मुल्कराज आनंद, सज्ज़ाद ज़हीर, मुंशी प्रेमचंद के प्रयासों से सन 1932 में पड़ चुकी थी लेकिन मुम्बई जैसे इन भविष्य के नगीनों को पुकार रही थी। आरज़ू लखनवी, जोश साहब आदि जब मुम्बई आते थे भिंडी बाज़ार में हकीम मिर्ज़ा हैदर बैग के दवाखाने में ठहरते थे जो दवाखाना कम इन शायरों की पनाहगाह ज़रूर था। उसी ज़माने में जिगर मुरादाबादी के इसरार पर मजरूह सुल्तानपुरी जो हकीम थे लेकिन उसमें उनका मन नहीं लगता था, मुम्बई आ गये और भिंडी बाज़ार में साबूसिती कॉलेज के ग्राउंड में सारी रात चले मुशायरे में उन्होंने अपना कलाम पढ़ा-
मुझे सहल हो गई मंज़िलें कि हवा के रुख भी बदल गये
तेरा हाथ-हाथ में आ गया कि चिराग़ राह में जल गये
उस वक़्त श्रोताओं में बैठे प्रोड्यूसर डायरेक्टर ए आर कारदार ने उन्हें अपनी फ़िल्म 'शाहजहाँ' में लिखने की दावत दी जो वे के एल सहगल को लेकर बना रहे थे। मजरूह सुल्तानपुरी का पहला गाना था-ग़म दिए मुस्तकिल / कितना नाज़ुक है दिल / ये न जाना / हाय-हाय ये ज़ालिम ज़माना।
उसी दौर में कैफ़ी आज़मी, साहिर लुधियानवी, प्रेम धवन, शैलेंद्र, अली सरदार ज़ाफ़री आदि ने भी मुम्बई का रुख़ किया। और उनके संघर्ष के दिनों में भिंडी बाज़ार ने उन्हें सहारा दिया। उस वक़्त हुनरकी इतनी क़ीमत थी कि साधारण-सा चाय वाला, पाव वाला उनके चाय, पानी का प्रबंध कर देता था। एक तरह का लेखन का जुनून सब अपने-अपने तरीक़े से आगे बढ़ा रहे थे। एडल्फ़ी हाउस में सआदत हसन मंटो रहते थे। उनके घर के पास वह बाग़ आज भी है जहाँ वे शाम को बैठा करते थे। वो सादवी होटल अभी भी है जहाँ वे चाय पीते थे। नज़दीक ही रेड लाइट एरिया है जहाँ मंटो की कहानियाँ खोल दो, ठंडा गोश्त, काली सलवार आदि के पात्र मानो जीते जागते उनकी कहानियों में चले आये थे। वह 1920 से 22 के बीच का ज़माना था।
आज से पाँच छै: साल पहले मराठी के मशहूर शायर नारायण सुर्वेजी से मुलाकात के दौरान मुझे पता चला कि कैफ़ी आज़मी वग़ैरह के साथ नारायण सुर्वे भी भिंडी बाज़ार में अपने पसंदीदा मुर्ग़ मुसल्लम, सींक कबाब खाने जाया करते थे।
बीसवीं सदी की शुरुआत में मुरादाबाद से नज़ीर ख़ान, छज्जूख़ान तथा उनके भाई मुम्बई आये और उन्होंने भिंडी बाज़ार में शास्त्रीय संगीत के घराने भिंडी बाज़ार घराने की नींव डाली जिसमें इंदौर से आए उस्ताद अमान अली ख़ान की बहुत बड़ी भूमिका है। उस्तादअमान अली ख़ान लता मंगेशकर के भी उस्ताद थे। लता मंगेशकर, मन्नाडे, महेंद्र कपूर, डॉ. सुहासिनी किरोड़कर और जाने माने संगीतकारों ने 'भिंडी बाज़ार घराने' की संगीत प्रणाली को अपनाया। भिंडी बाज़ार मोहम्मदअली रोड, जे.जे. अस्पताल, नागपाड़ा, क्रेफर्डमार्केट से लेकर इन सब जगहों को समेटता मदनपुरामें जाकर ख़त्म होता है। इन जगहों ने एक से एक चमकते सितारे मुम्बई की सरज़मीं को दिये। नागपाड़े में मशहूर फ़िल्म अभिनेत्री नादिरा रहती थीं जो यहूदी थीं। यहूदी मोहल्ले में उनका घर था। हालाँकि उनका परिवार तो इज़राइल चला गया पर वे अंत तक हिन्दी सिनेमा में अभिनय करती रहीं। क्रेफ़र्ड मार्केट में दिलीप कुमार की सूखे मेवे की दुकान थी। मेवे बेचते हुए ही वे अभिनय की दुनिया में आए और अभिनय के पुरोधा बन गये। क्रेफ़र्ड मार्केटसे मदनपुरा तक का इलाका म्युनिसिपल लिमिट का नाम नहीं है बल्कि साहित्यिक और संगीत की सोच और ज़ुबान का नाम है जो भिंडी बाज़ार कहलाता है।
उसी दौर में भिंडी बाज़ार में पूर्वी उत्तरप्रदेश से अलाउद्दीन साबिर आये जो पूर्वी भाषा में गज़लें लिखते थे। वे वहाँ चबूतरे पर बैठ कर पतँग का माँझा बनाकर पेट पालते थे। रात को शराब का पौआ चढ़ाकर शायरी करते थे। एक दिन शकील बदायूंनी वहाँ से शाम के समय गुज़र रहे थे। तब वे गंगा जमुना फ़िल्म बना रहे थे। साबिर साहब का गीत सुनकर रुके. वह उनका रुकना मानो साबिर साहब के अच्छे दिनों के शुरू होने की वजह बन गए. साबिर साहब ने गंगा जमुना का सुपरहिट गीत लिखा नैन लड़ जई हैं तो मनवा माकसक हुइबे करी। 1947 के आसपास मोहम्मद रफ़ी भी किस्मत आजमाने मुम्बई आये और भिंडी बाज़ार के वज़ीर होटल के कोठरीनुमा कमरे में एक के बाद एक हिटगीत गाने लगे। उस समय हिन्दुस्तान पकिस्तान विभाजन का माहौल था। हिन्दू मुसलमान एक दूसरे को देखते ही मार डालते थे। ऐसे कठिन वक़्त में महेन्द्र कपूर मोहम्मद रफ़ी से मिलने भिंडी बाज़ार आये और वज़ीर होटल में उनसे मिले। वज़ीर होटल के पास ही हाजी होटल है जहाँ का मुर्ग मुसल्लम बहुत प्रसिद्ध है। इस होटलमें अपने संघर्ष के दिनों में कमाल अमरोही और उनके दोस्त आगा जानी कश्मीरी आया करते थे। एक दिन दोनों ने जमकर खाया, बिल बना 12 रुपिए. जेब में फूटी कौड़ीनहीं। आगा साहब ने काउंटर पर जाकर कहा-"ज़रा, आठ रुपिए तो दीजिए. अबटोटल मेरे ऊपर आपकी उधारी रही बीस रुपिए."
होटल वाले ने हाथ जोड़े-"कोई बात नहीं।" क्या ज़माना था। हुनर की ऐसी इज्ज़त। बड़े-बड़े फ़िल्मकारों, गायकों, साहित्यकारों को आगे बढ़ाने में इन होटलों की कितनी अहम भूमिका है। बड़ा रोमांचक दौर था वो।
भिंडी बाज़ार केवल एक बाज़ार ही नहीं बल्कि मुम्बई की मिली जुली संस्कृति यानी गंगा जमुनी संस्कृति का रोशन सितारा भी है। इस परम्परा को आगे बढ़ा रहा है उर्दू मरक़ज़ जो समय-समय पर मुशायरे, सूफ़ी संगीत, नाटक और तमाम साहित्यिक कार्यक्रमों को भिंडी बाज़ार में आयोजित करता है।
वर्ष 2014 में उर्दू मरक़ज़ ने वी टी स्थित अंजुमन इस्लाम के साथ मिलकर एक सेमिनार आयोजित किया था। अंजुमन इस्लाम की करीमी लाइब्रेरी में हनुमान चालीसा, रामायण, महाभारत, गीता, वेद, उपनिषद और कुरान की पांडुलिपियाँ हैं जिनके पीले पड़ चुके जर्जर पन्नों की बाउंडिंग कराके दुनिया को परिचित कराया। देखने वाली बात ये थी कि इन सबका अनुवादउर्दू में हुआ था और कुरान का हिन्दी में। मैंने इस सेमिनार में शामिल होकर बड़े से प्रोजेक्टर पर इन सभी ग्रंथों के उर्दू अनुवाद देखे और विभिन्न समाचार चैनलों द्वारा पूरी दुनिया ने।
मुम्बई जहाँ मैं रहती हूँ और जहाँ मैंने अपनी उम्र के खूबसूरत लम्हों को जिया है। मुम्बई मेरे दिल की किताब में उस फूल की तरह दबी है जिसे हम अपनी कच्ची उम्र की भावुकता में किताब में या डायरी में रख देते थे लेकिन वह डायरी, वह किताब और उसमें दबा वह फूल जो अपने उसी आकार में दबकर सूख जाता है ज़िन्दग़ी भर हमें सहलाता, पुचकारता है... फ़ैज़ ने लिखा है जो मैं मुम्बई के लिए सोचा करती हूँ-तुझपे मुश्तरका हैं अहसान ग़मे उल्फ़त के / इतने अहसान कि गिनवाऊँ तो गिनवा न सकूँ।