उसकी रोटी / मणिमाला / नैनसुख / सुशोभित
सुशोभित
जहाँ से यह सब शुरू हुआ!
मणि कौल की पहली फ़ीचर फ़िल्म 'उसकी रोटी' वर्ष 1969 में रिलीज़ थी। उन्नीस सौ उनहत्तर! जब आन्द्रे तारकोव्स्की ने काम शुरू ही किया था, जब 'ब्रेसोनियन' परिघटना अभी घट ही रही थी, जब बेला तार किशोरावस्था में थे, तब भारत में कुल जमा छब्बीस साल के मणि ने सिनेमा के शास्त्रीय मानदंडों पर पूर्ण रूप से खरी यह फ़िल्म बनाई थी। 'उसकी रोटी' एक दुर्दम्य मास्टरपीस है। समालोचकों ने इसे 'सिटीज़न केन' और 'पथेर पांचाली' के बाद सबसे प्रभावशाली 'डेब्यू' फ़िल्म बताया है। एक समालोचक ने यह भी कहा कि यह भारत में निर्मित आख़िरी महान फ़िल्म है, जिसके बाद अडूर गोपालकृष्णन और जी. अरविंदन की कुछ फ़िल्में उसके क़रीब पहुँची हैं और ख़ुद मणि 'दुविधा' में ही कुछ हद तक अपने क़रीब पहुँच पाए हैं, लेकिन फ़िल्म-माध्यम का जैसा निष्णात निर्वाह 'उसकी रोटी' में है, वैसा बाद में फिर देखने को नहीं मिलता।
साठ के दशक के अन्त और सत्तर के दशक के प्रारम्भ में 'उसकी रोटी', 'भुवन शोम', 'सारा आकाश' और 'मायादर्पण' रिलीज़ हुई थीं, और इन्होंने 'न्यू वेव' हिन्दी सिनेमा के आरम्भ की सूचना दी थी। बाँग्ला सिनेमा में यह परिघटना दो दशक पहले ही घटित हो चुकी थी। इन चार में से तीन फ़िल्में साहित्यिक कृतियों पर आधारित थीं— क्रमशः मोहन राकेश, राजेंद्र यादव और निर्मल वर्मा की कहानियों पर। बहरहाल, इस सूचना के साथ इन फ़िल्मों को देखना धोखादेह साबित हो सकता है, सबसे ज्यादा 'उसकी रोटी' के संदर्भ में, क्योंकि जहाँ मोहन राकेश की कहानी तीन-चार पन्नों का एक लीनियर, रियलिस्टिक नैरेटिव है, वहीं मणि कौल की फ़िल्म उससे महज़ एक ‘स्केलेटन प्लॉट' लेकर उस पर अपना स्वयं का एक 'सिनेमैटिक टेक्स्ट' निर्मित करती है, उससे इतना मुख्तलिफ़ कि मोहन राकेश बड़ी आसानी से इसे अपनी कहानी पर बनाई फ़िल्म मानने से इनकार कर सकते थे।
मोहन राकेश एक कहानी सुना रहे थे- जबकि मणि कौल-जैसा कि उनके बारे में कहा गया है, "वॉज़ ट्राइंग हार्ड नॉट टु टेल अ स्टोरी! “विश्व सिनेमा में हो रही हलचलों से अनजान जो भारतीय दर्शक यह फ़िल्म देखने भूल से चले गए थे, वे इसके निर्देशक को कोसते हुए बाहर निकले थे। 'उसकी रोटी' कइयों के लिए एक यातना सिद्ध हुई थी। फ़िल्म का अतिशय 'लैंग्विड-पेस' दर्शकों और समालोचकों को हैरान कर देने के लिए काफ़ी था। यह भारत में बनाई गई सबसे ख़ामोश फ़िल्म है, जबकि उसकी पृष्ठभूमि देहाती है- वह भी पंजाब का देहात। यही मणि का 'हाइपर-रीयल' था। मणि ने उनहत्तर के उस साल में सिनेमा के प्रति हमारी धारणाओं को सिर के बल खड़ा कर दिया था। उस ज़माने में वैसी रूपवादी फ़िल्म बनाना बड़ा रचनात्मक साहस था।
गिल्स देल्यूज़े की फ़िल्म थ्योरी मणि की धारणाओं का आधार थी। आइजेंस्ताइन, आन्द्रे बाज़ाँ और ब्रेसाँ के बाद देल्यूज़े के फ़िल्म-निबंध ही सर्वाधिक लब्धप्रतिष्ठ माने जाते हैं। उनकी सिनेमा पर दो किताबें हैं- 'द मूवमेंट-इमेज' और 'द टाइम-इमेज'। 'द मूवमेंट-इमेज' में देल्यूज़े की स्थापना यह है कि सिनेमा चंद स्थिरचित्रों का संकलन भर नहीं है, बल्कि वह एक स्वायत्त गतिशील छवि है। 'द टाइम-इमेज' में उनकी स्थापना यह है कि फ़िल्म में समय छवियों का अनुसरणकर्ता नहीं है, बल्कि समय का स्थापत्य स्वयं एक फ़िल्म-बिम्ब है। 'मोनोक्रोम' में फ़िल्माई गई (जिसमें स्याह पर सफ़ेद की बढ़त, जो फ़िल्म की कम्पोजिशंस को फ़ेडिंग बना देती है) मणि कौल की यह फ़िल्म देल्यूज़े की इन्हीं धारणाओं को आदरांजलि देती थी।
मणि ने अपने सिनेमैटोग्राफ़र को हिदायत दी थी कि उन्हें इस फ़िल्म की कम्पोज़िशंस अमृता शेरगिल की पेंटिंग्स की तरह चाहिए। फ़िल्म के सोलह लॉन्ग शॉट 135 मिमी लेंस से फ़िल्माए गए हैं और डीप-फ़ोकस के दृश्य 28 मिमी लेंस से। मणि ने स्केल से नापकर यह फ़िल्म बनाई है कि फलाँ शॉट में सब्जेक्ट को कैमरा से कितनी दूरी पर होना चाहिए- तीन फ़ीट यानी तीन फ़ीट, पाँच फ़ीट यानी पाँच फ़ीट, ना कम ना अधिक। नतीजतन, फ़िल्म में एक सुस्पष्ट विजुअल रिदम है। लगभग सभी कट्स ‘विलम्बित' हैं और कैमरा सीन समाप्त होने के बाद भी देर तक वहाँ बना रहता है। मणि के यहाँ जिस 'नैरेटिव-फ़िगर ' की निष्णात संरचना की बात हमने 'नज़र' के संदर्भ में की थी, वो यहाँ उपस्थित है और अपने एक साक्षात्कार में स्वयं मणि ने इस पर विस्तार से बात की है। मणि ने कहा है, "मैं 'उसकी रोटी' बनाते समय ‘रियलिस्टिक-डेवलपमेंट' की परिपाटी को पूरी तरह से ध्वस्त कर देना चाहता था।”और उन्होंने यह कर दिया!
'उसकी रोटी' फ़िल्म-आस्वाद का एक प्रतिमान है।