सिद्धेश्वरी / मणिमाला / नैनसुख / सुशोभित

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
सिद्धेश्वरी
सुशोभित


जल में नौका है, नौका पर मत्स्यकन्या-सी सिद्धि। सब कुछ थिर है केवल कैमरे की आँख तरल स्पेस में तैरती है। दृश्य का विस्तार होता है और अब हम देखते हैं कि नौका चलने लगी है, किन्तु कैमरा ठहर गया है। यह बनारस की भोर है, जिसमें विप्रवर गंगा में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य दे रहे हैं- किन्तु प्रतिमाओं की तरह अचल।

नौका उनके बीच से होकर गुज़र जाती है।

पृष्ठभूमि में राग खमाज है। सिद्धेश्वरी चैती गा रही हैं।

यह मणि कौल की फ़िल्म 'सिद्धेश्वरी' है।

कहने को तो यह वृत्तचित्र है। वर्ष 1989 में इसे सर्वश्रेष्ठ वृत्तचित्र का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। लेकिन यह वृत्तचित्र निर्माण के तमाम मानकों को उलट देती है। मणि कौल इस फ़िल्म को एकरैखिक-वृत्तचित्र की तरह नहीं बनाते (जैसे 'माणिक मोशाय' (सत्यजित राय) ने रबीन्द्रनाथ ठाकुर के जीवन पर वृत्तचित्र बनाया था), वे एक 'रूपक' की तरह इसका निर्वाह करते हैं। क्यों? बहुत कारण हैं। और सबसे बड़ा कारण तो यही है कि वह मणि कौल हैं।

'पुरबिया अंग' की उपशास्त्रीय गायकी में बनारस की 'बृहत्-त्रयी' का नामोल्लेख बहुत सम्मान के साथ किया जाता है। यह हैं- गिरिजा देवी, रसूलन बाई और सिद्धेश्वरी देवी। इनमें बड़ी मोतीबाई को भी अगर जोड़ दें तो यह एक चतुर्भुज बनता है। लखनऊ और बनारस-हिन्दुस्तानी क्लासिकल संगीत के ये दो घराने लास्य और लालित्य के आराधक हैं। ध्रुपद सरीखा गाम्भीर्य उनमें नहीं है। ख़याल की विलम्बित लय का भी निषेध। ठुमरी, होरी, कजरी, चैती, दादरा, टप्पा जैसे उपशास्त्रीय स्वरूप सौंदर्य और ऐंद्रिकता को साधते हैं। बहुधा अनंग ही उनका अभीष्ट होता है। ध्रुपद में शुद्ध स्वर का वैभव है, ख़याल में राग की धीमी बढ़त का, ठुमरी में माधुर्य और रस और कामना।

'बृहत्-त्रयी' की उन्हीं सिद्धेश्वरी देवी के जीवन पर यह रूपक। मीता वशिष्ठ ने इसमें युवा सिद्धेश्वरी की भूमिका निभाई है। जब मणि कौल यह फ़िल्म बना रहे थे, तो उन्होंने मीता को पहले ही सूचित कर दिया था कि वह सिद्धेश्वरी का अभिनय करने का प्रयास ना करें। उन्होंने कहा कि आपको सिद्धेश्वरी का 'रीप्रेजेन्टेशन' नहीं करना है, क्योंकि कोई भी किसी अन्य की भूमिका निभा नहीं सकता। कैमरे के सामने सभी स्वयं ही होते हैं, अपनी देहभाषा की अनिवार्यताओं के साथ। मणि की इस हिदायत में ही इस फ़िल्म में निहित रूपकात्मकता की कुँजी भी छिपी है। यह सिनेमा में प्रतिनिधित्व के विचार को भी आगे बढ़ाती है।

बनारस इस फ़िल्म का लैंडस्केप है। बनारस के घाटों और गलियों और झरोखों-रोशनदानों के सम्मोहक 'पैनिंग शॉट' आपको यहाँ मिलेंगे। गंगा में नौका-विहार के बहुतेरे मोटिफ भी। रात को चाँदनी में भीगा बनारस कैसा निर्जन स्वप्नलोक-सा जान पड़ता है, यह फ़िल्म संकेत करती है। चित्रकार विवान सुन्दरम् ने कहा था, “पानी की सतह से नीचे शूटिंग होने का अहसास यह फ़िल्म दिलाती है।'

फ़िल्म में नैरेटिव की- ज़ाहिर है- कोई 'लीनियर' गति नहीं है। सिद्धेश्वरी के जीवन के अंशों को फ़िल्माया गया है, कुछ रूपकों को इस 'टेपेस्ट्री' में पिरोया गया है, जबकि कैमरा हमेशा मूवमेंट करता रहता है और पृष्ठभूमि में सिद्धेश्वरी की आवाज़ गूँजती रहती है। अगर फ़िल्म-कला में रुचि ना हो तो आप इसे सिद्धेश्वरी की सर्वश्रेष्ठ रचनाओं के 'अलबम' की तरह भी सुन सकते हैं। फ़िल्म की शुरुआत बाक़ायदा एक 'अनुक्रम' के साथ होती है कि इसमें आपने किन एपिसोड्स को आगे चलकर देखना है, मानो वह फ़िल्म नहीं कोई नैरेटिव-टेक्स्ट हो। शायद इसे ही मणि कौल अपना 'प्रजेंटेशनल इडियम' कहते हैं, यानी सिनेमा का ऐसा ग्रामर, जिसमें गल्प और सत्य की युति हो, अन्तःक्रिया हो।

फ़िल्म का अन्तिम दृश्य है- पूरी फ़िल्म में सिद्धेश्वरी की भूमिका निभानेवाली मीता वशिष्ठ अब अपने वास्तविक स्वरूप में हैं- वह जैसे मंत्रमुग्ध-सी, टीवी पर सिद्धेश्वरी देवी की पुरानी रिकॉर्डिंग्स सुन रही हैं। कई मिनटों लम्बा यह सीक्वेंस मोनोक्रोम में चलता रहता है। इसी पर फ़िल्म फ़ेडआउट हो जाती है और क्रेडिट्स रोल होने लगते हैं। मणि कौल का 'प्रजेंटेशनल इंडियम' यहाँ चरम पर पहुँच जाता है।

यह सिनेमा नहीं सम्मोहन है!