माटी मानस / मणिमाला / नैनसुख / सुशोभित
सुशोभित
कितनी मिट्टी खोदनी पड़ी कि पैरों के बल खड़े हो सके कंधे पर बोझ ढोया एक जगह की मिट्टी दूसरी जगह की। "
हस्तशिल्प विकास आयोग और राष्ट्रीय फ़िल्म विकास निगम के सहयोग से सन् चौरासी में मणि कौल ने यह फ़िल्म बनाई थी- 'माटी मानस'। मृत्तिका के वृत्त में मनुष्यता का प्रसार यानी मणि द्वारा रचे गए नानाविध रूपकों में एक 'महारूपक'। मिट्टी से सम्बद्ध मिथकों, आख्यानों, किंवदंतियों और सभ्यता के सूत्रों का सिनेमा में संश्लेष- 'माटी मानस'- मिट्टी का मन!
फ़िल्म केन्द्रीय 'मोटिफ़' के रूप में मणि कौल हमें दो 'इमेजेस' देते हैं। पहली, एक बड़ा-सा घड़ा है-' मृत्तिका भांड' या 'अर्दन पॉट'- स्क्रीन के एकदम बीच में, अपनी धुरी पर घूमता, मानो वह घड़ा नहीं पृथ्वी हो। दूसरी- घड़ा अब अपनी धुरी पर स्थिर है, अचल है, और एक स्त्री स्वयं उसके इर्दगिर्द चक्कर लगा रही है, मानो अब वह स्त्री पृथिवी हो और वह घड़ा सूर्य।
सिनेमा में महारूपकों का निर्वाह इसी रीति से होता है क्योंकि मनुष्यता का समूचा इतिहास आखिर मृत्तिका की प्रदक्षिणा ही तो है! जबकि मणि कौल तो अपनी फ़िल्म में यह भी स्थापित करते हैं कि सिंधु सभ्यता का विनाश आर्यों के आक्रमण से नहीं, बल्कि सिंधु नदी द्वारा अपना वेग-पथ बदल लेने के कारण हुआ था। इससे एक परिमार्जित नगर-सभ्यता को विवश होकर ग्राम-व्यवस्था में परिवर्तित होना पड़ा था। पहले सिंधु घाटी के लोग जल के संग्रह के लिए घड़े बनाते थे, बाद में वे जल प्राप्त करने के लिए कुएँ खोदने लगे- जबकि कुएँ ख़ुद घड़ों की तरह थे। मोहनजोदड़ो में एक स्थान पर तो मीनार की तरह भी। जहाँ-जहाँ जल रहा, वहाँ-वहाँ मिट्टी के पात्र ने उसे सहेजा, और जहाँ-जहाँ मिट्टी के पात्र ने जल सहेजा, उसी के इर्द-गिर्द सभ्यताएँ पनपी और विकसित हुईं।
“चिड़िया जो भैंस के सींग पर बैठी थी ध्यान आने पर फिर चहचहाने लगी।
लेकिन बात केवल सभ्यताओं तक सीमित नहीं। मिट्टी से अनेक मिथक और लोकाख्यान भी जुड़े हैं और मणि की यह फ़िल्म एक-एक कर उनका जायजा भी लेती है। सरिया माता यानी सिंधु सभ्यता की बिल्लियों का मिथक, जो घड़ों में बच्चे जनती थीं। काला गोरा यानी राजस्थान की गांगली का मिथक, जिसमें गांगली गोरा को एक बैल में बदलकर उसे कोल्हू में जोत देती थीं। मेसोपोटामिया के गिलगिमेश और एनकिद का मिथक। परशुराम और रेणुका का मिथिहास। क्ले और टेराकोटा से निर्मित पॉटरी और स्कल्पचर्स और आर्टिफ़ैक्ट्स के लम्बे शॉट्स के बीच ये मिथक आवाजाही करते हैं। मिट्टी से सने हाथ, निष्णात कोमल स्पर्शों के साथ, चक्के पर घूमते मिट्टी के पिंड से घड़ों, आकृतियों और शिल्प का निर्माण करते हैं। बीच-बीच में मणि कौल की 'त्रैलोक्यजयी' टीम (सनद रहे, मणि ने यह फ़िल्म बनाने के लिए 35 लोगों की टीम के साथ एक बस में 15 हज़ार किलोमीटर की यात्रा की थी और 'देशाटन' के इस क्रम में बम्बई, मोलेला, लोथल, सरगुजा, पुडुकोट्टई, कच्छ, मणिपुर, आज़मगढ़ आदि जगहों की ख़ाक़ छानी थी) वृत्तचित्र निर्माण की क्लासिकी शैली के अनुरूप शिल्पकारों का साक्षात्कार लेने के लिए परदे पर आती रहती है। डेढ़ घंटे की यह फ़िल्म ख़त्म होते-होते हमारे ज़ेहन पर मिट्टी की 'महायात्रा'- जो कि मनुष्यता के प्रसार की समवर्ती है- का एक सांगरूपक अमिट रूप से अंकित हो जाता है।
“जड़ें धरती से मुँह लगाकर रस पीती हैं पत्ते पेड़ से गिरकर मछलियाँ बन जाते हैं आकाश एक वृक्षरहित वन है और दिन में अंधेरा वन में जाकर छुप जाता है।“
यह कमल स्वरूप का ‘टेक्स्ट' है- काव्य, दंतकथा और लोकस्मृति की अनुगूँजें लिए। ये वही कमल स्वरूप हैं, जिन्होंने 'ओमदरबदर' बनाई थी। पृष्ठभूमि में टी.आर. महालिंगम की बाँसुरी है। बीच-बीच में मॉंदल की थाप। पुपुल जयकर की पुस्तक 'अर्दन ड्रम्स' याद आती है, जोकि ग्राम सभ्यता से मिट्टी के अटूट लगाव का लेखा-जोखा है। अरुण खोपकर के शब्दों में, “भारतीय कला के मृण्मय और चिन्मय इतिहास का सार ही मानो यहाँ समन्वित हो गया है।” यह फ़िल्म नहीं एक आख्यान है, किंवदंती है, इतिहास है, महायात्रा है। मणि कौल द्वारा रचे गए अजेय मायालोक का एक विशिष्ट स्वर, एक अभिन्न रूपक।
हम सभी 'माटी मानस' हैं!