आषाढ़ का एक दिन / मणिमाला / नैनसुख / सुशोभित

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आषाढ़ का एक दिन
सुशोभित


आषाढ़स्य प्रथमदिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं वप्रक्रीड़ापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श ॥१.२ ॥

-कालिदास : 'मेघदूतम्'

आषाढ़ का पहला दिन और ऐसी वर्षा, माँ.... ऐसी धारासार वर्षा! दूर-दूर तक की उपत्यकाएँ भीग गईं।... और मैं भी तो!

-मोहन राकेश : 'आषाढ़ का एक दिन'

मणि कौल की फ़िल्म 'आषाढ़ का एक दिन' वर्ष 1971 में रिलीज़ हुई थी। 'उसकी रोटी' के बाद यह मणि की दूसरी फ़िल्म थी, दोनों ही फ़िल्में मोहन राकेश की कृतियों पर आधारित होने के बावजूद भावभूमि के स्तर पर सर्वथा भिन्न। 'उसकी रोटी' पंजाब के देहात के रूखे यथार्थ की कहानी थी, तो 'आषाढ़ का एक दिन' कालिदास के जीवन-प्रसंग पर एकाग्र है। जितना भेद इन दो कथाकृतियों में है, उससे और आगे का भेद मणि की इन दोनों फ़िल्मों में था, क्योंकि कथाकृतियों के भेद का निर्वाह तो वे फ़िल्में कर ही रही थीं, लेकिन उसमें मणि के फ़िल्म-निर्माण के 'पर्सपेक्टिव' का प्रस्थान भी जुड़ गया था। प्रसंगवश, मणि की कोई भी दो फ़िल्में एक जैसी नहीं होतीं!

'उसकी रोटी' सामाजिक यथार्थवाद की एक कहानी का 'ब्रेसोनियन' निरूपण था, जिसमें कथाक्रम की ही सबसे पहले क्षति होती थी। 'आषाढ़ का एक दिन' में सहसा मोटिफ़ बदल जाते हैं। अब यहाँ मणि की प्रेरणा का आलम्बन अजंता के भित्तिचित्र (फ्रेस्को) हैं। मणि ने स्वयं से पूछा कि क्या मैं अजंता के चित्रों के रूपबंध को किसी फ़िल्म-कृति में रच सकता हूँ? इस प्रश्न का उत्तर खोजने का उन्होंने जो प्रयास किया, उसी की परिणति यह फ़िल्म है। फ़िल्म के निर्माण के दौरान मणि और उनके सहयोगी-कलाकार जिन कक्षों में ठहरे थे, उनकी दीवारों पर अजंता के भित्तिचित्रों की प्रतिकृतियाँ प्रदर्शित थीं। फ़िल्म में अभिनय करने वाले अरुण खोपकर के शब्दों में, “ये चित्र मणि के आषाढ़ की चित्रणशैली के स्फूर्ति-स्थान थे। इन्हीं से वह चित्र रचना, हावभाव, आँखों की भंगिमाओं और शरीर के अंगों संबंधी नियमों की खोज करते थे।"

हमें याद रखना चाहिए कि लैंडस्केप हमेशा मणि के सिनेमा में केन्द्रीय भूमिका निभाता रहा है। 'उसकी रोटी' और 'दुविधा' में पंजाब और राजस्थान लैंडस्केप के दो रूपों की तरह अवस्थित थे। 'ध्रुपद' में राजप्रासादों के 'आर्किटेक्चरल रिलीफ़' एक 'बैकड्रॉप' की तरह बरते गए थे। 'माटी मानस' तो समूची ही 'लैंडस्केप' की फ़िल्म है। लेकिन ‘आषाढ़ का एक दिन' में- हाड़ कंपा देने वाली कसौली की सर्दियों में फ़िल्माई जाने के बावजूद- मणि के पास अधिक 'लैंडस्केप' नहीं था। कारण, फ़िल्म का एक बड़ा हिस्सा एक पर्णकुटी के भीतर घटित होता है। एक अर्थ में, 'नज़र' की तरह यह भी 'रिस्ट्रेंड स्पेस' वाला एक ' चेम्बर ड्रामा' है, लेकिन तब भी जहाँ 'नज़र' में ज़ोर 'इंटीरियर्स' पर था, वहीं 'आषाढ़ का एक दिन' में ज़ोर 'पोर्ट्रेट्स' पर है- जैसा कि ऊपर बतलाया गया है कि यह फ़िल्म अजंता के रूपाकारों को फ़िल्म-कृति के रूप में रचने की प्रतिज्ञा से प्रसूत है। और कह सकते हैं कि भारतीय सिनेमा में 'पोर्ट्रेट्स' की, व्यक्तिचित्रों की ऐसी 'स्टडी' किसी और फ़िल्म में नहीं की गई होगी। यह फ़िल्म विभिन्न मुखाकृतियों (प्रोफ़ाइल) और उन पर उभर आए मनोभावों का एक 'अलबम' है।

अरुण खोपकर के शब्दों में “आँखों की दीप्ति, भुजाओं का झुकाव, सिर की अवस्थिति, समूहों का ज्यामितीय सरेखण, यहाँ सभी कुछ तो है!"

अपनी पुस्तक 'चलत् चित्रव्यूह' में इस फ़िल्म की सृजन-प्रक्रिया पर चर्चा करते हुए खोपकर ने लिखा था-

“मणि ने सम्पूर्ण फ़िल्म की गणितीय रूपरेखा बना ली थी। इसीलिए फ़िल्म में एक तरह का सौष्ठव है, जैसा संगीत की बंदिशों में पाया जाता है। प्रत्येक फ़िल्म के लिए, उसके अपने अहसासों के बुनियादी ढाँचे के आधार पर वे आलेख बनाते थे। इस वैयक्तिक भावना को प्रक्षेपित कर उसे वस्तुनिष्ठता का मुश्तरका जामा पहनाते थे। छंदशास्त्र और संगीत में भी ऐसे ही आलेख पाए जाते हैं। बड़े ख़याल को आमतौर पर केरवा या दादरा में निबद्ध नहीं किया जाता। फटाफट बदलने वाली भावनाओं को शार्दूलविक्रीड़ित में छंदोबद्ध नहीं किया जाता। ओवियों में तथा उसी क्रम में रचित अभंग में एक लघुसूत्री सुलभता होती है। मणि की शुरुआती फ़िल्मों में अक्षरगणवृत्त-सी बंदिश है। उनकी लेंसिंग, शॉट की लम्बाई और सम्पूर्ण लय में निबद्धता है। जिन लोगों को निबद्धता के इन दायरों का पता नहीं होता, उन्हें मणि की फ़िल्में समझने में बहुत-सी दिक़्क़तें आती हैं।

"आषाढ़ के लिए मणि ने जो दृश्य-कठघरा बनाया था, उसके तहत सिर्फ़ 32 मिलीमीटर फ़ोकल लेंथ वाली लेंस का ही प्रयोग किया जाना था। उसके लिए पाँच फ़ासले तय किए गए थे। क्लोज़अप, मिड क्लोज़अप, मिड शॉट, मिड-लॉन्ग और फ़ुल शॉट। अन्तर पूर्वनिर्धारित होने के कारण सीन कोई भी हो, मणि आपको इन्हीं में से किसी फ़ासले पर खड़े होने की हिदायत देते थे। यदि हिलना-डुलना या हरकतें शॉट में अपेक्षित हों तो उसके लिए निर्धारित किसी एक फ़ासले से दूसरे फ़ासले तक की ही अनुमति होती थी। कैमरे की मूवमेंट का दायरा भी यही होता था। अतैव एक शॉट से दूसरे शॉट पर जाते हुए ऐसा लगता था जैसे किसी एक सुर से दूसरे नज़दीकी सुर की सवारी की जा रही हो।"

'लहरों के राजहंस' की भूमिका में मोहन राकेश ने कहा था कि मेघदूत की कहानी निर्वासित यक्ष की उतनी नहीं है, जितनी स्वयं अपनी आत्मा से निर्वासित उस कवि की, जिसने अपनी ही एक अपराध अनुभूति को इस परिकल्पना में ढाल दिया है। कह सकते हैं कि मोहन राकेश ने कालिदास की इसी अपराध-चेतना को अपनी इस कृति का आधार बनाया था। यह अकारण नहीं कि फ़िल्म का शीर्षक, उसकी ध्रुवपंक्ति और केन्द्रीय रूपक उन्होंने 'मेघदूत' से ही लिए थे। कालिदास की अपराध-अनुभूति यह थी कि अपनी प्रेयसी और प्रियजनों को छोड़कर वह उज्जयिनी का राजकवि बन जाता है और फिर लौटकर नहीं देखता। महत्वाकांक्षा का यह दंश कालिदास के हृदय में कंटक की तरह खटकता रहता है। यह फ़िल्म उसी ग्लानि का स्थापत्य है।

फ़िल्म में कालिदास की भूमिका उपर्युक्त उद्धृत अरुण खोपकर ने निभाई थी। वही अरुण खोपकर, जिन्होंने गुरुदत्त के सिनेमा में महाकाव्य और अतिनाटक के तत्त्व पर वह अद्भुत पुस्तक लिखी है- 'तीन अंकीय शोकान्तिका।' कालिदास की प्रेयसी मल्लिका की भूमिका रेखा सबनीस ने निभाई है। वही रेखा सबनीस, जिन्होंने अवतार कृष्ण कौल की फ़िल्म '27 डाउन' में एम.के. रैना की कर्कशा पत्नी की भूमिका निभाई थी। फ़िल्म का छायांकन के. के. महाजन ने किया था। वही के.के. महाजन, जिन्होंने 'सारा आकाश', 'मायादर्पण' और 'उसकी रोटी' का संवेदनशील फ़िल्मांकन किया था।

लेकिन अन्तत: यह मणि कौल का संसार है। उनके स्वप्निल संसार का बेछोर प्रसार। यह मणि की मंजूषा का एक और रत्न है!