दुविधा / मणिमाला / नैनसुख / सुशोभित
सुशोभित
मणि कौल की यह फ़िल्म विजयदान देथा की उसी चर्चित लोककथा पर आधारित है, जिस पर बाद में अमोल पालेकर ने 'पहेली' बनाई। मैं कल्पना कर सकता हूँ कि अमोल पालेकर ने यह रीमेक क्यों बनाई होगी। क्योंकि इस कहानी में नाटकीयता के असीमित अवसर हैं, जिनका दोहन करने में मणि कौल ने किंचित भी रुचि नहीं दिखाई थी। अमोल इस पर इस तरह से फ़िल्म बना सकते थे, मानो वह पहली बार इस विषय को छू रहे हों, जबकि मणि की फ़िल्म अपनी कोटि आप थी, जिसकी कोई तुलना नहीं। कथा उसमें गौण थी, सिनेमा का छन्द उसमें मूल था।
'दुविधा'– यह फ़िल्म-कला का जयगान है। सिनेमा एक 'आर्ट फ़ॉर्म' के रूप में कितनी ख़ालिस ऊँचाई तक जा सकता है, यह उसकी बानगी है। 'सिनेमैटिक-पर्सपेक्टिव' के लगभग असह्य सौंदर्य से परिपूर्ण फ़िल्म है यह। 'दुविधा' के फ्रीज़-फ्रेम, जम्प-कट्स, नैरेटिव-टेम्पो, सीक्वेंस में समय का निरंतर बोध, अटूट अंदरूनी लय, पृष्ठसंगीत का विषण्ण अभाव, भावशून्यता, लैंडस्केप का पर्सपेक्टिव- यह सब भारतीय दर्शकों के लिए अजूबा था। ये उनके लिए 'भूतो ना भविष्यति' चीज़ थी, जो तिहत्तर के उस साल में ऐन उनके सिर के ऊपर से निकल गई थी।
मणि कौल के यहाँ पाया जाने वाला 'डेडपेन' (भावशून्यता) बदनाम है, लेकिन कम ही लोग समझ पाते हैं, कि उनके सिनेमा के 'टेक्स्चर' और 'ओवरटोन्स' से 'डेडपेन' की ही संगति बैठ सकती थी। उनके पास इस 'स्टाइलाइज़ेशन' से बचने का कोई चारा नहीं था। उनके सिनेमा का दत्तचित्त और 'मेडिटेटिव' टेम्पो अभिनय के नाम पर डेडपेन और अभिनेताओं के स्थान पर ग़ैर-अभिनेताओं की ही स्वीकृति देता था, जबकि भारत में सिनेमाई कलात्मकता की वैसी कोई परम्परा नहीं रही थी और आज भी कमोबेश नहीं है। हमारे यहाँ समान्तर सिनेमा के सबसे प्रसिद्ध फ़िल्मकार भी अन्ततोगत्वा 'सामाजिक-यथार्थवाद' के ही चितेरे हैं, जोकि सुपरिचित 'नैरेटिव-फ्रेमवर्क' में काम करते थे, बस उनका ‘ग्रामर' लोकप्रिय सिनेमा से भिन्न हुआ करता था।
कथा गल्प का सत्य है, अभिनय रंगमंच का, रूपाकार कैनवस का, जबकि सिनेमा का सत्य ‘छायांकन' है- यह रॉबेर ब्रेसाँ ने स्थापित किया था और मणि घोषित रूप से उनके मानसपुत्र हैं। ब्रेसाँ से आशीर्वाद लेकर सन् तिहत्तर में भारत में वैसी एक फ़िल्म बनाना बहुत दमगुर्दे की बात थी।
अरुण खोपकर ने मणि कौल पर अपने एक निबंध में 'दुविधा' में लेवीस्त्रॉस के सुपरिचित 'स्ट्रक्चरल एनालिसिस ऑफ़ मिथ' की संगति पाई है, जिसमें मिथकों का निर्वाह स्पेस के अनुभागों की तरह ऐंद्रिक और चाक्षुष श्रेणियों की रीति-भाँति से किया जाता है। 'द सेवन्थ आर्ट' में उन्होंने लिखा है कि 'दुविधा' का केन्द्रीय मोटिफ़ 'टेम्पोरल एंड जैग्रफिकल डिस्लोकेशन' है। इस फ़िल्म में ब्रेसाँ और देवशेंको का सिनेमा, सेज़ाँ की 'स्टिल लाइफ़', राजस्थान का लोकसंगीत और बिज्जी की कथाशैली- सभी का ‘असम्भव-संश्लेष' हो गया है।
जब यह फ़िल्म पहले-पहल रिलीज़ हुई थी, तो सत्यजित राय ने इसकी ग्रामर को 'अ वेरी स्पेशल एंड प्राइवेट मोड ऑफ़ एक्सप्रेशन' क़रार दिया था और कहा था कि मणि कौल एक 'फ़ेनोमिना' हैं। अलबत्ता फ़िल्म में 'ह्यूमन एलीमेंट' के अभाव से वह निराश थे। उन्हें यही शिकायत कुमार शहानी की 'मायादर्पण' से भी थी। यह आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि सत्यजित राय का अभीष्ट वित्तोरीयो देसीका का नवयथार्थवाद है, गोदार का 'न्यू वेव' नहीं। सत्यजित 'अवाँगार्द' फ़िल्मकार नहीं हैं, अपने फ़ॉर्म में वह बहुत 'क्लासिकल' हैं। मणि कौल के 'नैरेटिव-डिक्शन' से उनकी पटरी नहीं बैठना थी, सो नहीं बैठी, लेकिन उन्होंने यह टिप्पणी करके दुर्भावना का ही परिचय दिया कि 'दुविधा' में नायिका 'रूरल' के वेश में 'अर्बन ' है। यह सन् तिहत्तर की बात है, जब स्वयं सत्यजित की ' अशनि संकेत' रिलीज़ हुई थी। बंगाल के भीषण दुर्भिक्ष पर केन्द्रित उस फ़िल्म में नायिका एक बांग्लादेशी सुंदरी थी, जिसकी भवें तराशी हुई थीं। माणिक मोशाय, वैसी सुंदरी भला किस 'रूरल' सेटअप में तब के भूखे बंगाल में पाई जा सकती थी?
तब सत्यजित की यह टिप्पणी बहुत चर्चित हुई थी कि “मणि कौल और कुमार शहानी में अपने उस्ताद ऋत्विक घटक का एक ही गुण है ( और वह गुण नहीं दुर्गुण है)- द शीयर लैक ऑफ़ ह्यूमर।” तब भारतीय समान्तर सिनेमा की इन दोनों धाराओं के अन्तर्संघर्ष को आप बहुत साफ़ तरीक़े से देख सकते हैं- सत्यजित राय और उनके शिष्य- श्याम बेनेगल, गौतम घोष, अडूर गोपालकृष्णन। और ऋत्विक घटक और उनके शिष्य- मणि कौल, कुमार शहानी, और कालान्तर में अमित दत्ता, गुरविंदर सिंह...। 'नियो-रियलिज्म' के बरअक़्स 'न्यू वेव'।
बहरहाल, 'दुविधा' फ़िल्म-आस्वाद की अपनी कोटि स्वयं है। यह संगीत के ठाठ की तरह है। सिनेमा में स्पेस का इतना तरल बर्ताव भी सम्भव है, इसकी कल्पना 'दुविधा' से पहले नहीं की जा सकती थी, कम से कम भारत में तो नहीं। हम हठात् कह सकते हैं कि दुनिया के पास ब्रेसाँ, तारकोव्स्की, एंजेलोपोलस और बेला तार हैं, तो हमारे पास भी एक मणि कौल हुए थे!