ध्रुपद / मणिमाला / नैनसुख / सुशोभित

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ध्रुपद
सुशोभित


कितने रंज की बात है कि हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत पर बनी मणि कौल की नयनाभिराम और कर्णप्रिय फ़िल्म 'ध्रुपद' के नाम पर एक विकीपीडिया पेज तक नहीं है! लेकिन उसकी एक क़िस्म की 'कल्ट फ़ॉलोइंग' क्लासिकी संगीत और कलात्मक-सिनेमा के चहेतों के बीच में बनी हुई है। यह वृत्तचित्र है, किन्तु मणि अपने एक साक्षात्कार में कह उठते हैं कि इसे 'डॉक्यूमेंट्री' कहकर कैसे बात समाप्त की जाए, यह तो 'पोएट्री' है। मणि अपनी फ़िल्मों को लेकर बहुधा इस तरह से 'सेल्फ़ इंडल्जेंट' या आत्ममुग्ध नहीं होते, लेकिन 'ध्रुपद' ने उनसे यह बुलवा लिया।

भारतीय फ़िल्मकारों में मणि से ज़्यादा शुद्ध सिनेमा किसी ने नहीं बनाया है, यह 'शुद्ध कल्याण' की तरह एकदम ख़ालिस राग है। तिस में भी यह फ़िल्म मणि की फ़िल्मकला का मुकुट है। दृश्य, बिम्ब, प्रकाश और ध्वनि का ऐसा तन्मय-तालमेल दुर्लभ ही मिलता है। फ़िल्म का एक-एक फ्रेम और कम्पोज़िशन परफ़ेक्ट है। यह कृति शास्त्रीय संगीत की किसी लम्बी, आरात्र बैठक की तरह मालूम होती है।

जैसा कि शीर्षक से ज़ाहिर है, यह ध्रुपद संगीत पर एकाग्र वृत्त है। परदे पर आप 'डागरबानी' घराने के ज़िया फ़रीदुद्दीन डागर (कंठस्वर) और ज़िया मोहिउद्दीन डागर (रुद्र वीणा) को देख सकते हैं। ध्रुपद संगीत की सबसे गहन-गम्भीर शैली है। ख़याल गायकी में जितना लालित्य होता है, ध्रुपद में उतना ही गाम्भीर्य है और इसके ख़रज के सुर बहुधा नाभि तक से लगाए जाते हैं। यह शब्द 'ध्रुव-पद' से बना है, यानी वह शैली, जिसके नियम 'ध्रुव' की तरह अटल हों। भरतमुनि के 'नाट्यशास्त्र' में ध्रुपद की परिभाषा दी गई है, “वर्ण, अलंकार, गान-क्रिया, यति, वाणी, लय आदि जहाँ परस्पर सम्बद्ध रहें, उन गीतों को 'ध्रुव' कहा गया है और जिन पदों में यह नियम शामिल हों, उन्हें 'ध्रुवपद'।

ग्वालियर घराने की गायकी से ध्रुपद का एक जोड़ इसलिए बनता है, क्योंकि ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर ने ही इस प्राचीन पद्धति के संरक्षण में योगदान दिया था। संगीत सम्राट तानसेन स्वयं ध्रुपद गायक थे। बैजू भी ध्रुपद ही गाते थे। इधर कुछ साल पहले पंडित जसराज ने मियाँ तानसेन की गानशैली में ध्रुपद गायकी के कुछ रेकॉर्ड निकाले थे, जिनमें दरबारी, तोड़ी, मल्हार जैसे तानसेन के प्रिय रागों (इन्हें अब ‘मियाँ की तोड़ी' या 'मियाँ की मल्हार' भी कहा जाता है) का समावेश किया था। पंडितजी के गम्भीर कंठ में ध्रुपद की आलापचारी सम्मोहक प्रभाव उत्पन्न करती है।

ऐसे तो ध्रुपद की चार बानियाँ हैं, लेकिन मणि कौल की यह फ़िल्म 'डागरबानी' पर एकाग्र है। लोक, शास्त्र, इतिहास, वर्तमान की गोधूलि है यह। सम्मोहक और मंत्रमुग्धकारी। फ़िल्म में मणि कौल का स्पेस का बर्ताव विलक्षण है और मुग़ल और राजपूत शैली के शिल्प उसमें जैसे एक अनुकूल-संयोजन की तरह गुँथ गए हैं। मणि के यहाँ स्पेस का हमेशा एक तरल 'पर्सपेक्टिव' होता है, जिसमें कैमरे की 'पैनिंग' विलम्बित लय में सब्जेक्ट से दूर खिसकती रहती है।

यह भी उल्लेखनीय है कि वीणा, सितार, तानपुरे जैसे वाद्य अपने स्वरूप में ही इतने चाक्षुष होते हैं कि उनकी अपनी एक स्वायत्त 'इमेज-रेपर्टरी' सम्भव हो सकती है और यही तो एक गुणी फ़िल्मकार का ईष्ट होती है। मैहर घराने की तूम्बे वाली सितार लिए युवा रवि शंकर की कोई छवि देखें, गंधर्वों की भाँति लगते हैं कि पलक नहीं झिपती। दो तूम्बे वाली रुद्रवीणा लिए उस्ताद ज़िया मोहिउद्दीन डागर भी फ़रिश्तों से कम नहीं लगते। तिस पर मुग़ल और राजपूत शैली के स्थापत्य का परिवेश। बक़ौल अरुण खोपकर, “मणि ने ध्रुपद की बंदिशों का अनुभव प्रतिमांकित करने के लिए भारतीय वास्तुकला की श्रेष्ठ वास्तु का उपयोग किया है।”अनुकूल छवियों और विषयवस्तु का ऐसा 'मणिकांचन' संयोग फ़िल्मकार को सजल और निष्कवच बना सकता है।

किसी और लैंडस्केप में, किन्हीं और विग्रहों के साथ, संगीत की सबसे शुद्ध शैली पर ऐसी फ़िल्म नहीं बनाई जा सकती थी। मणि के रोमांच की कल्पना नहीं की जा सकती। वह एक ऐसी फ़िल्म-भाषा में स्वप्न देखने जा रहे थे, जिसे अभी तक छुआ नहीं गया था। और मणि ने मास्टरों-सी दत्तचित्त पूर्णता के साथ इस स्वप्नभाषा का दोहन किया है। परिणाम है प्रेरणा से उमगती एक ऐसी फ़िल्म, जिसके व्याकरण का विश्व सिनेमा में कोई साम्य नहीं।

जिस दिन ध्रुवपद के प्रथम स्वर को स्पर्श किया गया होगा, उसी दिन से जैसे यह नियत था कि मणि कौल को इस वैभव का उत्सव मनाना है!