नज़र / मणिमाला / नैनसुख / सुशोभित
सुशोभित
मणि कौल ने सन् तिहत्तर में 'दुविधा' बनाई थी, सन् नब्बे में 'नज़र'। यह 'दुविधा' के बाद उनकी पहली कथा-फ़िल्म थी। बीच के बरस उन्होंने 'वृत्तचित्र', या कहें 'फ़िल्म-रूपकों' के निर्माण में खपाए थे। वह कभी भी 'कथावाचक' नहीं हो सकते थे- ना होना चाहते थे- फिर भी, कई अर्थों में 'नज़र' मणि की सबसे पूर्ण कृति है। वह मणि के निजी दृष्टिकोण के सबसे निकट है।
जिसे अंग्रेज़ी में कहते हैं- अल्ट्रा-मिनिमल चैम्बर ड्रामा- जिसमें एक फ़्लैट, एक कमरे, एक क़िस्म की 'क्लॉस्ट्रोफ़ोबिक-कैप्टिविटी' या 'रिस्ट्रेंड स्पेस' में फ़िल्म का आख्यान रूपायित होता है- वह 'नज़र ' में अपने चरम पर है। यह दोस्तोयेव्स्की की एक कहानी 'द जेंटल क्रीचर' पर आधारित है (मणि के गुरु रॉबेर ब्रेसाँ ने भी दोस्तोयेव्स्की की इस कृति पर इसी शीर्षक से एक फ़िल्म सन् उनहत्तर में बनाई थी), लेकिन कथाक्रम के प्रति निर्देशक की उदासीनता का यहाँ कोई पारावार नहीं। जैसे कहानी के ब्योरे, उसका विस्तार, उसकी परिणति आदि एक बाध्यता हों। जैसे कहानी एक अनचाहा 'एक्सक्यूज़' हो, क्योंकि निर्वात में यह मीनार नहीं बाँधी जा सकती थी, लेकिन इसके साथ ही उस बाध्यता से मुक्ति की छटपटाहट भी हो। अपने समूचे रचनाकर्म में मणि ने 'स्टोरीटेलिंग' के प्रति ऐसी ही अरुचि दर्शाई है, लेकिन जैसे तारकोव्स्की की 'स्टॉकर' उनकी 'फ़िल्म-वृत्ति' का चरम कही जाती है, वैसे ही 'नज़र' में भी मणि की वह वृत्ति अपने शीर्ष पर पहुँच गई है।
मणि से किसी ने पूछा था कि रॉबेर ब्रेसाँ ने भी यह फ़िल्म बनाई और आपने भी- तो दोनों में क्या अन्तर है? मणि ने जवाब दिया था कि एक ही राग है, जिसे दो लोग गा रहे हैं। उनसे पूछा गया, लेकिन दो लोग कैसे गा रहे हैं? तो उन्होंने कहा, बस यह समझ लीजिए कि ब्रेसाँ जहाँ पॉल सेज़ाँ के स्कूल से ताल्लुक रखते थे, वहीं मेरा रिश्ता हेनरी मतीस के स्कूल से है।
मणि की इस टिप्पणी में द्वैत के भीतर एक और द्वैत, एक और युति का मज़ा है, क्योंकि जिस तरह से ब्रेसाँ मणि के उस्ताद थे, उसी तरह से मतीस ख़ुद को सेज़ाँ का शागिर्द मानते थे और कलागत-व्यवहार में तमाम पूर्व-निर्धारित पारिभाषिकताओं का निषेध करते थे। मसलन, मतीस के कैनवस पर बहुधा चीज़ों के रंग वे नहीं हुआ करते थे, जो वास्तव में होते हैं। 'पर्सपेक्टिव' के प्रतिरोध की यह प्रतिज्ञा मणि ने मतीस से ही गुरुदक्षिणा में पाई है। वह कहते हैं, "सेज़ाँ 'कंस्ट्रक्टिविस्ट' थे, जबकि मतीस का व्यवहार 'फ़िगर्स' का था। मेरा व्यवहार भी 'फ़िगर्स' का है। मैं अपनी फ़िल्मों को शॉट-दर-शॉट 'कंस्ट्रक्ट' नहीं करता, एक शॉट से दूसरे शॉट में जाने के दौरान उनमें जो ‘फ़िल्म-रूप' उभरकर सामने आता है, मैं उस 'फ़िगर' का ही अभ्यास करता हूँ। यह एक बहुत उस्तादों वाली टिप्पणी है!
बहरहाल, ‘नज़र' को 'वर्चुअल स्पेस' या 'आभासित अवकाश' की अद्भुत कृति बताया गया है और पॉल विल्मैन ने कहा है कि वस्तु के बिना कभी कोई रूप बनता नहीं है, लेकिन इस फ़िल्म में ऐसा लगता है, जैसे स्पेस से ही कोई रूपाकार उभरकर सामने आ रहा हो। यह ऐन वही चीज़ है, जिसे ऊपर 'निर्वात की मीनार' कहकर इंगित किया गया है- बिना किसी 'मैटर' के एक 'फ़ॉर्म', जबकि ऐसा नहीं है कि 'मैटर ' वहाँ पर नहीं है- दोस्तोयेव्स्की की कहानी है और माशाअल्ला संबंधों के बहुत मनोवैज्ञानिक तनावों से भरी कहानी है, लेकिन मणि की फ़िल्म में उस आख्यान की उपेक्षा का यह आलम है कि उनके स्क्रीनप्ले में 'प्रटैगनिस्ट' ठीक-ठीक संवाद भी नहीं बोलता। वह 'इंटर्नल-मोनोलॉग' की तर्ज पर स्वगत-कथननुमा कुछ वाक्य उच्चरित करता रहता है, जिन्हें जोड़कर देखें, तो कोई एक नैरेटिव उभरकर सामने नहीं आ सकता। मणि मानकर चलते हैं कि दर्शक ने दोस्तोयेव्स्की की कहानी पढ़ रखी होगी और ब्रेसाँ ने उस पर जैसी 'कंस्ट्रक्टिविस्ट' फ़िल्म बनाई है, उससे भी वे परिचित होंगे। अब मैं अपनी यह ‘व्याख्या' उनके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। मणि दर्शकों से इतने 'सोफ़िस्टिफ़िकेशन' की अपेक्षा ही नहीं रखते, बल्कि उसे 'अज़्यूम' कर लेते थे।
फ़िल्म-स्पेस के ‘ऑर्केस्ट्राइज़ेशन' और 'स्टाइलाइज़ेशन' की पूर्ण कृति है 'नज़र।' बम्बई हार्बर के समीप किसी हाईराइज़, सी-फ़ेसिंग अपार्टमेंट के एक फ़्लैट में इसे फ़िल्माया गया है, जिसमें ऊँचाई से सड़कों पर बेआवाज़ दौड़ते वाहन एक अलग ही स्वप्निल-स्पेस में तैरते नज़र आते हैं। ज़िया फ़रीदुद्दीन डागर की रुद्रवीणा को तो यहाँ होना ही है। वह इस फ़िल्म में एक अत्यंत महत्वपूर्ण अवयव है। मणि के यहाँ संगीत का बर्ताव भी स्पेस की तरह किया जाता है, वह उनके लिए 'सिनेमैटोग्राफ़ी' की लय का एक अनिवार्य हिस्सा है।
फ़िल्म-रिदम और सम्पादन के अन्तरसंबंधों के परिप्रेक्ष्य में 'नज़र' को एक 'फ़िल्म-निबंध' की तरह पढ़ा जाना चाहिए। एक 'स्पेस', जो कि 'कंवर्जेंस' की ओर नहीं बढ़ रहा है, जिसकी कोई 'समभिरूपता' नहीं है, जहाँ समय और संगीत ख़ुद स्पेस में गुँथे हैं, जहाँ जाग्रत अवस्था के पर्सपेक्टिव में स्वप्न और सुषुप्ति की अनुभूति को समाविष्ट कर देने का लगभग दुराग्रह है, वैसी मणि कौल की यह फ़िल्म है, वैसी मणि कौल की यह 'नज़र ' है- जैसे 'यूलीसस का भ्रू-भंग! '