उसने कहा था / बायस्कोप / सुशोभित
सुशोभित
उसने कहा था- मैं आऊंगी। और तब मुझे लगा, मेरी अब तक की तमाम ज़िंदगी उसकी हां का इंतज़ार ही तो थी बहुत मान-मनौव्वल के बाद उसने हां कहा था । बहुत अरसे से मैं आग्रह कर रहा था कि एक दिन समय निकालकर मेरे घर आओ। मैं उसे चार साल से जानता था, लेकिन बात कभी जब-तब की टेलीफोन वार्ता से आगे नहीं बढ़ सकी थी। टेक्स्ट मैसेजेस में अकसर मैं कोमल अहसास बयां करता,
लेकिन उसमें एक क़िस्म की परदेदारी होती है । उसकी ओट में आप कुछ भी कह सकते हैं । किंतु मजाल है, जो वही बात आप आमने-सामने कहकर दिखाओ ।
कभी-कभी रास्ते चलते उससे भेंट हो जाती तो पल दो पल को बात हो लेती। कहीं किसी जलसे में दिख जाती तो एक फौरी क़िस्म की दुआ-सलाम । लेकिन ऐसा ना होता कि घड़ीभर कहीं बैठकर उससे इत्मीनान से बातें हों, और बीच में कोई आकर कंधा ना झकझोरे । उससे कितनी तो बातें मुझे कहनी थीं। और बातें अगरचे चंद ही हों तब भी किसी टेलीग्राम की तरह तो नहीं कही जा सकतीं। बातों को कहने के लिए एक हाशिया चाहिए, एक तनहाई, एक वक्फ़ा, एक कमरा । दुनिया की नज़र से घड़ी भर को ओझल हो जाने का करतब।
इससे पहले एक बार वो मेरे घर आई थी। मैंने मां से उसे मिलाया । आध घड़ी औपचारिक बातें होती रहीं । चाय पी गई। फिर मैंने कहा, चलो तुम्हें अपना कमरा दिखलाता हूं। उसे भीतर ले गया । अपनी किताबों की आलमारी दिखलाई। अपनी तस्वीरों का अलबम । फिर कहा, देखो ये दीवारें हैं, ये छत है, ये खिड़की । वो खिलखिला पड़ी । तो क्या? ये तो सभी घरों में होती हैं। मैं जवाब में मुस्करा भर दिया । मैं भला कैसे कहता कि इन दीवारों, इन खिड़कियों से पूछो। इस कमरे में तुम्हारे होने का क्या मतलब है, ये इस कमरे से पूछो । यह एकान्त से भरा रहता है । और मुझसे । मेरे और इसके एकान्त में तुम्हारे होने से सुंदर बाधा कोई दूसरी नहीं ।
उसने उस दिन सफेद लिबास पहना था । जब संध्या ढल गई, तब भी कमरे की बत्तियां जलाई नहीं गईं। बीत रहे दिन में एक हलकी-सी उजास बाकी थी। वह उसके लिबास का गहना बन गई, जैसे धानी रंगत वाली कुर्ती में एक सफेद मोती। उसने कहा, अच्छा बहुत देरी हुई, अब चलती हूं। मैंने चला, चलो तुम्हें सड़क तक छोड़ आऊं । हम दोनों कुछ देर चलते रहे। मैंने स्वयं से कहा, वो अभी मेरे साथ है। वो यहां है। वो सांसें ले रही है। यह सच है । अगले मोड़ से उसे घर लौट जाना है। तुम्हें लौट आना है, अपने कमरे पर, जो अब पहले से ज्यादा अकेला हो जाएगा ।
मैंने मुस्कराकर उसे विदा कहा - इस शाम के लिए शुक्रिया । उसने सदाशय मुस्कान के साथ हाथ हिलाया और लौट गई । मैं अपने कमरे पर चला आया । मुझे लगा मैं मिलेना का काफ़्का बन गया हूं । काफ़्का मिलेना से प्रेम करता था, किंतु मिलेना वियना में रहती थी, और काफ्का प्राग में रहता था। दोनों मिल नहीं सकते थे। एक दिन काफ़्का ने मिलेना को खत लिखा और कहा, पता है आज मैंने वियना का एक नक्शा देखा एकबारगी तो मैं समझ ही नहीं पाया कि उन्होंने इतना बड़ा शहर किसलिए बनाया, जबकि मिलेना के लिए तो एक कमरा ही बहुत था।
मिलेना के लिए ही नहीं, काफ़्का के लिए भी । दुनिया में जो भी प्यार करता है, उसके लिए भी। प्रेमियों को दुनिया नहीं चाहिए, बस एक छोटा-सा कमरा चाहिए। ये एक नन्ही-सी
एक नन्ही-सी आरजू होती है । लेकिन दुनिया में इससे नामुमकिन कुछ और नहीं ।
उस रात मैंने बहुत गझिन मन लेकर उसको मैसेज किया- आज तुम आईं, कितना अच्छा लगा। अभी मैं ठीक वहीं बैठा हूं, जहां तुम थीं। मैं तुम्हारी ग़ैरमौजूदगी के साथ इस कमरे में रह रहा हूं और भीतर से सांकल लगी है । कल तक ये मेरा कमरा था, आज ये मुझे कितने संकोच से भरता है । यह सब कितना आश्चर्य जगाने वाला है । बदले में उसकी एक मुस्कराहट लौट आई ।
उस दिन को बीते कोई छह-सात महीने होने को आए कि अब जाकर उसने फिर हां कही थी। मेरे लिए यह उत्सव से कम नहीं था । इससे अधिक सुंदर कल्पना मैं कोई दूसरी नहीं कर सकता था कि वो एक बार फिर मेरे कमरे में होगी। शाम चार बजे का समय तै हुआ था । मैं बाज़ार जाकर मिठाई, मठरियां, बिस्किट ले आया । पूरा कमरा बुहार दिया । गुलदान ठीक कर दिए। कमरे में नई चादर बिछाई । तकियों के खोल बदले । किताबें करीने से सजा दीं। फिर देर तलक अपने घर को निहारता रहा, मानो इसमें रत्ती - तोला - माशा की भी कमीबेशी रह गई तो गज़ब हो जाएगा । कुछ टूट जाएगा । एक अधूरापन फिर ताज़िंदगी खटकेगा। उसे फिर दुरुस्त नहीं किया जा सकेगा ।
चार बजने में पंद्रह मिनट की देरी थी कि अब मैं घर के भीतर नहीं रह सका। मुझे लगा, मैं भीतर से भर गया हूं। मैं दरवाज़े पर जाकर खड़ा हो गया । चार बजा। चार बजकर दस मिनट हुआ । फिर सवा चार । फिर चार बीस । पता नहीं, वो कहां रह गई । मैंने फोन उठाकर उसे मैसेज किया- मैं
तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूं। कोई जवाब नहीं आया । मेरा दिल बेचैन हो गया। अब मैं गली के मुहाने पर जा खड़ा हुआ, जैसे इतने भर से वो वहां चली आएगी। पौने पांच बज गया, वो नहीं आई। सांझ ढलने लगी । रौशनी का जादू छीजने लगा । अगर उसने पंद्रह मिनट और देरी की तो वह माया छिन्न-भिन्न हो रहेगी, जिसके आलोक में उसे करीब से निहारने के लिए कितनी मन्नतें मैंने मांगी थीं, कितने दिन रास्ता देखा था। अब भी देर नहीं हुई है, प्लीज अब भी चली आओ- मैंने मन ही मन कहा ।
पांच बजा, फिर सवा पांच | अब मैं मुख्य सड़क पर जा खड़ा हुआ। यह उज्जैन से इंदौर को जोड़ने वाली सड़क थी । इसी सड़क के एक सुदूर छोर पर एक गली के भीतर उसका घर था । मैं जहां खड़ा था, वहां एक दूसरा बायपास रोड आकर मिलता था। ऑटो-रिक्शा भी वहीं रुकते। यहां से मेरे घर तक पैदल जाना होता। उस शाम मैं इसी चौरस्ते तक उसे छोड़ने आया था । साढ़े पांच बजा। मेरा समूचा अस्तित्व सिमटकर एक ही इच्छा में आ सिमटा- बस आज की शाम तुम आ जाओ । ये मेरे जीवन की अंतिम संध्या नहीं है, ना तुम्हारे जीवन की, लेकिन सबकुछ इतना असम्भव है कि वह एक बार होकर फिर दूसरी बार नहीं होता । मैंने इस शाम से अपनी नियति को जोड़ लिया है। थोड़ी देर को ही चली आओ । अभी कहीं से चमत्कार की तरह दिखलाई दो और मुस्कराकर मेरे साथ चल दो ।
पर वो नहीं आई। मेरा दिल डूबने लगा । बायपास रोड की तरफ़ से एक ट्रक- डम्पर एक कंस्ट्रक्शन साइट पर आकर रुका। उसमें गिट्टी-रेत लदी थी । उसका पल्ला खुला । रेत - गिट्टी बिखर गई । मैं अपलक उस दृश्य को देखता रहा । मुझे लगा जैसे मैं खुद रेत का एक टीला बन गया था ।
वो नहीं आई थी। उसने इत्तेला करना भी ज़रूरी नहीं समझा था कि मैं नहीं आ सकूंगी। उसने मैसेज का जवाब भी नहीं दिया । मैं लौटकर घर नहीं जाना चाहता था। मुझे उस गुलदान से शर्म आ रही थी, जिसे मैंने करीने से सजाया था। मैं चाय की प्याली से आंख बचा लेना चाहता था । मैं अपने कमरे के दरवाज़े पर घुटनों के बल गिरकर उससे माफी मांगना चाहता था और फूट-फूटकर रोना चाहता था। मैंने उन सबसे एक खूबसूरत वादा किया था, लेकिन मैं वादा पूरा नहीं कर पाया था।
इस बात को फिर बहुत दिन बीते । एक दिन वह मुझे दिखलाई दी। मैंने अभिवादन किया। उसी ने आगे रहकर कहा, उस दिन तुम रास्ता देखते रहे होंगे ना? मेरा भी बहुत मन था आने का, लेकिन दोपहर चढ़ते चढ़ते मुझे बुख़ार हो आया। दवाइयां लेकर सो रही । सोचा था चार बजे तक जाग जाऊंगी, लेकिन नींद ही नहीं खुली। पूरी शाम सोती रही। रात नौ बजे आंख खुली तो तुम्हारा खयाल आया। तुम्हारे मैसेजेस देखे । मारे संकोच के जवाब देते ना बना । मैंने सोचा नहीं था तुम इतना इंतज़ार करोगे । खैर, चाय ही तो पीना थी, फिर कभी पी लेंगे।
मैं चुपचाप सुनता रहा। उसकी तमाम बातें अपनी जगह सही थीं । सिवाय इसके कि मैंने सोचा नहीं था, तुम इतना इंतज़ार करोगे। मुझे लगा, मेरा वजूद बहुत हलका हो गया। तराजू के दूसरे पलड़े ने मुझे बे-बहर कर दिया है। मैं बेतुका हो गया हूं। चीज़ों के मायने नहीं रह गए थे । शिकायत करने का भी दिल नहीं रह गया था। शिकायत करने का भी एक अधिकार होता है। जो यह कहता हो कि मैंने सोचा नहीं था तुम रास्ता देखोगे, उससे भला कोई किस हक से रूठे ।
फिर कभी उससे वैसे मिलना ना हुआ। वो अकेली शाम अकेली ही रही, जब वो पहली और आख़िरी बार आई थी। उसका फिर कोई जोड़ ना बना । वो एक याद भीतर धंसकर रह गई । और उसके बाद वो दूसरी शाम, जो मेरे भीतर किसी मीनार के टूटकर जमींदोज होने का चित्र रचती थी - तेज़ी से धंसती हुई रेत और गिट्टियां ।
फिर, बहुत बहुत सालों के बाद उसे देखा । सच में नहीं, तस्वीर में। अब वो ब्याहता थी। तस्वीर में वह सुखी, संतुष्ट, निश्चित दिखाई देती थी | मैं जानता था कि उसने प्रेम के बिना विवाह किया है, लेकिन इससे बड़ा रंज मुझे यह था कि उसे इसका अभाव कभी खटका नहीं था । मैं तस्वीर में उसे देखता रहा । फिर उस आदमी को देखा, जिसके साथ वह थी । उसके चेहरे को मैंने गौर से निहारा । और I खुद से पूछ बैठा-
इतनी निष्ठा और इतनी प्रतीक्षा, इतने रंज और इतनी तमन्नाओं के बावजूद जिसके साथ एक घड़ी चुपचाप बैठने का अधिकार भी मैं हारकर भी हासिल नहीं कर सका था, उसके साथ पूरा जीवन बिताने की पात्रता इस अनजान आदमी ने भला किस हक से पा ली थी ?