एकजुटता की प्रतीक चॉल / संतोष श्रीवास्तव
मुम्बई से अगर चॉल शब्द हटा दिया जाए तो मुम्बई की पहचान और इतिहास दोनों ख़त्म हो जाएँगे। चॉल मुम्बईकरों की एकजुटता का उदहारण है। वरनादस बाई दस के कमरे में दस पंद्रह लोगों का एक साथ रहना क्या संभव है? चॉल ने कितनी ही महान हस्तियों को संघर्ष के शुरूआती दिनों में पनाह दी है। फ़िल्मी दुनिया के तो ज़्यादातर कलाकारचॉल में ही रहकर फ़िल्मी संघर्ष करते थे। उन दिनों आठ आने की चार रोटियाँ और उसके साथ दाल फ्री मिलती थी और कलाकारोंमें लगन ऐसी कि अगर स्टूडियो के चक्कर काटते रात हो जाए तो वहीं स्टूडियो केबंद शटर के सामने ही लम्बी तानकर सो जाते थे। ऐसे समर्पित कलाकार इस समय फ़िल्म इंडस्ट्री की शान हैं।
मुम्बई सभी को लुभाता है। कई लेखक, कवी यहाँ फ़िल्मी लेखक और फ़िल्मी गीतकार बनने आये। प्रेमचंद, अमृतलाल नागर, ख़्वाजा अहमद अब्बास, राही मासूम रज़ा से लेकर आज की युवापीढ़ी तक इसी आकर्षण में बँधी चली आ रही है। हर साल पाँच छै: हज़ार लड़के, तीन-चार हज़ार लड़कियाँ यहाँ मॉडलिंग, टी वी सीरियल और फ़िल्मों में अपना भाग्य आज़माने आते हैं। कुछ को ब्रेक मिलता है, कुछ को नहीं। अबयादगार फ़िल्में भी नहीं बनतीं। आवारा, शहर और सपना, सात हिन्दुस्तानी, श्री चार सौ बीस, मुग़ले आज़म, पाकीज़ा जैसी फ़िल्में तमाम तकनीकी सहूलियत और नए-नए फ़िल्मी आविष्कारों केबावजूद फ़िल्मइंडस्ट्री नहीं बना पा रही है।
मैंने पूरे भारत का भ्रमण किया है पर ट्रेफ़िक की जो व्यवस्था मुझे मुम्बई में दिखी वह और कहीं नहीं दिखी। यहाँ रफ़्तार के तेवर ऐसे कि फ़ास्ट भी धीमा लगता है इसीलिए 'बड़ाफास्ट' सिर्फ़ मुम्बई में ही मिलेगा। अपने मुहाने पर ठहरे समँदर जैसे खुले दिमाग़ वाला यह शहर दिन भर दौड़ता है लेकिन इस दौड़ में ज़िन्दग़ी कभी पीछे नहीं रहती। ख़तरों से खेलने के बावजूद सब महफ़ूज़ हैं यहाँ। मुम्बई दुनिया का पहला शहर है जहाँ लेडीज़ स्पेशल ट्रेन चली है।
मुम्बई की बारिश के क्या कहने। यहाँ चार महीने आसमान पर बादल ऐसे डेरा जमा लेते हैं जैसे बनजारे अपने तम्बू गाड़ते हैं। यहाँ की बारिश के लिए कहा जाता है कि मुम्बई की बरसात का क्या ऐतबार... यह मानो मुम्बई की फितरत और इसके कैरेक्टर को परिभाषित ही नहीं करता बल्कि इसकीअल्हड़और अलमस्त आनंद भरी छबि को भी पेश करता है। इस मौसम का मज़ा लेने दूर-दूर से लोग यहाँ उसी तरह आते हैं जैसे पहाड़ोंपर लोग बर्फ़बारी देखने जाते हैं। जून में पहले लोकल बादल आकर मुम्बई को सौंधी खुशबू से सराबोर करते हैं फिर दक्षिण भारत से मॉनसून की पहली दस्तक यहीं सुनाई देती है। मॉनसून आते ही 'टप टप गिरती बूँदों' का सम्मोहन मुम्बई करों को समँदर के तटों पर ले जाता है जहाँ उमड़ती लहरों औरबरसते पानी में भी न जाने कैसे कोयले की आँच में सिंकते भुट्टों की खुशबू होती है... भुट्टे वाले बरसात भर मालामाल होती रहते हैं। मुम्बई की बारिश नींद को गहरा और ज़िन्दग़ी को बिंदास बनाती है।
मुम्बई में तरह-तरह के व्यवसाय, पेशे, शेयर बाज़ार, फ़िल्में, संगीत, लोकल रेल, थियेटर, होटल, मॉडलिंग, अंडरवर्ल्ड, मल्टीनेशनल, डिज़ाइनिंग, एक्सपोर्ट्स, सॉफ्टवेयर, एनीमेशन, हेल्थकेयर, स्किनक्लीनिक, कॉलसेंटर जैसे क्षेत्र तेज़ी से उभरे हैं जिन्होंने मुम्बई को बदल डाला है। फिर भी संघर्ष करने वालों के लिए मुम्बई की रहमदिली में फ़र्क नहीं आया है। आज भी जेब में चंद पैसे खनखनाते संघर्ष करने वाले वड़ापाव या ऊसलपाव से पेट भर फुटपाथ, स्टेशनों के प्लेटफॉर्म या पाइपलाइनों के अंदर बसेरा कर लेते हैं।
बांद्रा वर्ली-सी लिंक का रोमांचकारी सफ़र, सोपऑपेरा, सिंथेटिक, हीरा और सराफ़ा बाज़ार, रिलायंस की व्यापारी दौड़, मोबाइल क्रांति और पूरे भारत से आये लोगों मारवाड़ी, सिंधी, पंजाबी, गुजराती, बिहारी, उत्तरप्रदेशीय संस्कृति में डूबी मुम्बई एक नगर नहीं एक पूरी की पूरी सभ्यता है। मुम्बई सबको अपने दिल में जगह देती है। राजनीतिक दाँवपेंच, भाषा और प्रांत की दुहाई देकर खुद को मुम्बई के असली वासी कहने वाले लोग कुछ भी कहते रहें पर यह हकीकत है जो एक बार मुम्बई आ गया, बस वह मुम्बई का ही होकर रह जाता है।