एक कतरा खून / इस्मत चुग़ताई / पृष्ठ 3

Gadya Kosh से
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अली बिन अबी तालिब ने अपनी जिरह-बकतर बतौर मेहर पेश कर दी। तब रसूलुल्लाह ने अपनी बेटी को बुलाया। ‘‘फ़ातिमा ! अली तुम्हारे सामने खड़े हैं। यह तुम्हारे ख़्वास्तगार हैं। बोलो, तुम्हारी क्या मर्ज़ी है ?’’ फ़ातिमा ज़ोहरा की पलकें झुकी रहीं। वह कुछ भी बोल न सकीं। तीन बार बाप ने बेटी से यही सवाल किया। ज़ब वह ख़ामोश रहीं तो कहा, ‘‘इसका मतलब है कि अली तुम्हें पसन्द हैं। तुम्हें यह रिश्ता मंजूर है। शर्म की वज़ह से ख़ामोश हो।’’ फ़ातिमा ज़ोहरा फिर ख़ामोश रहीं।

रसूलुल्लाह ने अपने चंद दोस्तों को बुलाकर मशविरा किया। जिरह बक्तर जो अली ने बतौर मेहर पेश की थी उसे फ़रोख़्त करके फ़ातिमा का ज़हेदज़ खरीदा गया। दो चक्कियाँ, दो घड़े, एक चर्खा, एक चादर और चंद प्याले और रकाबियाँ। रसूलुल्लाह ही अली के बुजुर्ग थे। बाकी जो रुपया बचे उनसे वलीमे1 की दावत का इंतज़ाम हुआ। आपने अली से फ़र्माया, ‘‘जाओ अली ! अहले-मदीना2 को अपने वलीमे की दावत दे आओ।’’


1. वलीमे 2. अहले-मदीना ।


अली घबरा गए। इतना थोड़-सा खाना और मदीने के हर ख़ास-ओ-आम की दावत ! मगर दमबख़ुद थे, बोलने की गुंजाइश न थी। सोचा, अगर वाक़ई अहले-मदीना बुलावा पाकर आ गए तो ग़ज़ब हो जाएगा। बड़ी शर्मिन्दगी उठानी पड़ेगी। लिहाज़ा एक टीले पर खड़े होकर बड़ी धीमी आवाज़ में पुकारा, ‘‘ए अहले-मदीना ! अली इब्ने अबी तालिब के वलीमे की दावत है। शिरकत फ़र्माकर इज़्ज़तअफ़ज़ाई कीजिए।’’

अली समझते थे कि यूँ हौले से पुकारेंगे तो जो सुनेंगे, आ जाएँगे ; जो न सुन पाएँगे, नही आएँगे। अच्छा ही है कि कम मेहमान आएँ। खाना बहुत कम मिक़दार में है। मगर हवा को जो शरारत सूझी तो अली की आवाज को ले उड़ी और गली-गली, कूची-कूचा ख़बर पहुँच गई। जब बुलावा लेकर वापस लौटे तो यह देखकर पैरों-तले से जमीन खीसक गई कि एक भीड़ लगी है। लोग जौक़-दर-जौक़ पैदल और नाक़ों पर सवार चले आ रहे हैं। रसूले-ख़ुदा की प्यारी बेटी की शादी और अली के वलीमे की दावत कौन अहमक़ था, जो छोड़ देता ! पूरी मदीना की ख़ल्कत टूट पड़ी। ‘‘या रसूलुल्लाह, खाना कैसे पूरा पड़ेगा ? जरा देखिए तो मेहमानों की रेलपेल।’’ अली ने परेशान होकर कहा।

‘‘फ़िक्र न करो इंशा अल्लाह खाना पूरा हो जाएगा।’’ और ऐसा ही हुआ। लोगों ने खाना खाया और बचाया। कोई हौके का मारा पेट का तंदूर भरने नहीं आया था। सब बरकत का निवाला खाकर सेर हो गए। रसूलुल्लाह ने अपनी प्यारी बेटी फ़ातिमा ज़ोहरा का हाथ अपने सबसे प्यारे रफ़ीक और शरीकेकार और लायक़तरीन शागिर्द के हाथ में देकर ख़ुदा का शुक्र अदा किया।

यकायक फ़ातिमा ज़ोहरा का हुजरा नूर से जगमगा उठा। दरो-दीवा चमक उठे। अम्मा हड़बड़ाई हुई हुजरे से बाहर निकलीं, ‘‘अली ! अली !! बेटा, मुबारक हो, बख़ुदा बिलकुल चाँद का टुकड़ा है।’’ अली ने इत्मिनान की साँस ली और आँखों से आँसू बहने लगे। रसूले-ख़ुदा के कान आवाज़ पर लगे हुए थे। बड़ी तेज़ी से अंदर दाखिल हुए, लाओ अम्मा, कहाँ है हमारा बेटा, हमें दिखाओ।’’ ‘‘ज़रा सब्र कीजिए, नहला-धुलाकर अभी लाती हूँ।’’ ‘‘उसे नहलाने की कोई ज़रूरत नहीं। वह तो पाक है। अल्लाहताला ने उसे आसमान से ही पाक करके भेजा है। तुम हमें ऐसे ही दे दो।’’ अस्मा ने बच्चे को एक ज़र्द कपड़े में लपेटा और बाहर ले आईं। नाना ने बच्चे को सीने से लगा लिया और बेइख़्तियार चूमने लगे।

‘‘अली, अली, वल्लाह ज़रा बेटे को देखो, ख़ुशनसीब हो तुम और फ़ातिमा कि ख़ुदा ने तुम्हें यह बेटा दिया। यह बड़े नसीबवाला है। एक दिन यह दुनिया का हादी1 और रहनुमा् बनेगा। लोग रहती दुनिया तक इसके कारनामे याद करेंगे। अली, तुम्हें यह बेमिसाल बेटा मुबारक हो।’’ अली बेइख़्तियार मुस्करा दिए। ‘‘यह आपका है। मुझसे ज़्यादा इस पर आपका हक़ है। जो फ़जीलत2 इसे नसीब होगी वह आपकी बदौलत होगी। आपकी गोद में पलेगा। ख़ुदा इसके सर पर आपका साया कायम रखे।’’ ख़ुदा से दुआ है कि तुम और फ़ातिमा ख़ुश रहो, फूलो-फलो।’’ रसूले-ख़ुदा ने बच्चे को घुटने पर लिया लिया। अली ख़ामोश हैरतज़दा उन्हें देख रहे थे। उन्होंने कभी रसूलुल्लाह को यूँ बच्चों की तरह खु़शी से हँसते नहीं देखा था।

उन्होंने बच्चे के कान में अज़ान कही, फिर दूसरे कान में इक़ामत3 और उसके नन्हे-नन्हे रेशमी हाथ चूमने लगे।


1. पथ-प्रदर्शक 2. श्रेष्ठता, बुजुर्गी 3. नमाज़ के लिए पढ़ी जाने वाली तकबीर।