एक गधे की आत्मकथा / कृश्न चन्दर / पृष्ठ 1
1 इसके पढ़ने से बहुतों का भला होगा
महानुभाव ! मैं न तो कोई साधु संन्यासी हूं, न कोई महात्मा-धर्मात्मा। न श्री 108 स्वामी गहम गहमानन्द का चेला हूं, न जड़ी बूटियों वाला सूफी गुरमुखसिंह मझेला हूं। न मैं वैद्य हूं, न कोई डाक्टर। न कोई फिल्म स्टार हूं, न राजनीतिज्ञ। मैं तो केवल एक गधा हूं, जिसे बचपन के दुष्कर्मों के कारण समाचार पत्र पढ़ने का घातक रोग लग गया था। होते-होते यह रोग यहां तक बढ़ा कि मैंने ईंटें ढोने का काम छोड़कर केवल समाचार-पत्र पढ़ना आरम्भ कर दिया। उन दिनों मेरा मालिक धब्बू कुम्हार था, जो बाराबंकी में रहता था। (जहां के गधे बहुत प्रसिद्ध हैं) और सैयद करामतअली शाह बार एट ला की कोठी पर ईंटें ढोने का काम करता था। सैयद करामतअली शाह लखनऊ के एक माने हुए बैरिस्टर थे, और अपने पैतृक नगर बाराबंकी में एक आलीशान कोठी स्वयं अपनी निगरानी में बनवा रहे थे। सैयद साहब को पढ़ने-लिखने का बहुत शौक था।
इसलिए अपनी कोठी का जो भाग उन्होंने सबसे पहले बनवाया, वह उनकी लाइब्रेरी का हाल तथा रीडिंग-रूम था, जिसमें वह प्रातःकाल आकर बैठ जाते। वह बाहर बरामदे में कुर्सी डालकर समाचार पत्र पढ़ते और ईंटें ढोने वालों की निगरानी भी करते रहते। उन्हीं दिनों मुझे समाचार पत्र पढ़ने का चस्का पड़ा। होता अधिकतर यों था कि इधर मैंने एक उठती हुई दीवार के नीचे ईंटें फेंकीं, उधर भागता हुआ रीडिंग-रूम की ओर चला गया। बैरिस्टर साहब समाचार पढ़ने में इतने लीन होते कि उन्हें मेरे आने की खबर तक न होती और मैं उनके पीछे खड़ा होकर समाचार-पत्र का अध्ययन शुरू कर देता। बढ़ते-बढ़ते यह शौक यहां तक बढ़ा कि बहुधा मैं बैरिस्टर साहब से पहले ही समाचार पत्र पढ़ने पहुँच जाता। बल्कि प्रायः ऐसा भी हुआ है कि समाचार-पत्र का पहला पन्ना मैं पढ़ रहा हूं और वह सिनेमा के विज्ञापनों वाले पन्ने मुलाहिज़ा फरमा रहे हैं। मैं कह रहा हूं-ओह ! ईडन, आइजन हावर, बुल्गानिन फिर मुलाकात करेंगे और वह कह रहे हैं-अहा !
हज़रतगंज में दिलीप कुमार और निम्मी की नई फिल्म आ रही है। मैं कह रहा हूं-चः चः ! सिकंदरिया की हवाई दुर्घटना में बारह मुसाफिर मर गए ! और वह कह रहे हैं-बाप रे बाप ! सोने का भाव फिर बढ़ गया है। बस, इसी प्रकार हमारा यह सिलसिला चलता रहता, यहां तक कि मेरा मालिक ईंटें गिनकर और मिस्त्री के हवाले करके वापस आ जाता और मेरी पीठ पर ज़ोर से एक कोड़ा मारकर मुझे ईंटें ढोने के लिए ले जाता, लेकिन बैरिस्टर साहब मुझे कुछ न कहते। दूसरे फेरे में जब मैं वापस आता, तो वह स्वयं समाचार पत्र का अगला पन्ना उठाकर मुझे दे देते और यदि मैं पूरा पढ़ चुका होता, तो भीतर लाइब्रेरी से कोई पुस्तक निकाल लाते और ज़ोर-ज़ोर से पढ़ना शुरू कर देते। यह जो मैं पढ़ना और बोलना सीख गया हूं, तो इसे सैयद साहब का ही चमत्कार समझिए या उनकी कृपादृष्टि, क्योंकि सैयद साहब को समाचार पत्र पढ़ते हुए उन पर टिप्पणी करने की बुरी आदत थी। यहां जिस स्थान पर वह कोठी बनवा रहे थे, उन्हें कोई व्यक्ति ऐसा न मिला, जिससे वह ऐसी बहस कर सकते। यहां प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने काम में व्यस्त था।
बस, मैं एक गधा उन्हें मिला। परन्तु इसमें उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। वास्तव में वह केवल बातचीत करना चाहते थे। किसी से अपने मन की बातें कहना चाहते थे। गधे की बजाय एक खरगोश भी उनकी संगति में रहता तो महापण्डित बन जाता। सैयद साहब मेरे प्रति बड़ा स्नेह प्रकट करते थे और प्रायः कहा करते थे,
‘‘अफसोस, तुम गधे हो, अगर आदमी के बच्चे होते, तो मैं तुम्हें अपना बेटा बना लेता !’’
सैयद साहब के कोई सन्तान न थी। खैर साहब ! करनी भगवान की यह हुई कि एक दिन सैयद करामतअली शाह की कोठी तैयार हो गई और मेरे मालिक को और मुझे भी वहां के काम से छुट्टी मिल गई फिर उसी रात धब्बू कुम्हार ने ताड़ी पीकर मुझे डंडे से खूब पीटा और घर से बाहर निकाल दिया और खाने के लिए घास भी न दी। मेरा दोष यह बताया कि मैं ईंटें कम ढोता था और समाचार पत्र अधिक पढ़ता था, और कहा-मुझे ईंटें ढोने वाला गधा चाहिए, समाचार पत्र पढ़ने वाला गधा नहीं चाहिए।
रात भर भूखा प्यासा मैं धब्बू कुम्हार के घर के बाहर शीत में ठिठुरता रहा। मैंने निश्चय कर लिया कि दिन निकलते ही सैयद करामतअली शाह की कोठी पर जाऊंगा और उनसे कहूंगा कि ईंटें ढोने पर नहीं तो पुस्तकें ढोने पर ही मुझे नौकर रख लीजिए। शेक्सपियर से लेकर बेढब मूज़ी तक मैंने प्रत्येक लेखक की पुस्तकें पढ़ी हैं, और जो कुछ मैं उन लेखकों के सम्बन्ध में जानता हूं, वह कोई दूसरा गधा नहीं जा सकता। मुझे पूरी आशा थी कि सैयद साहब तुरन्त मुझे रख लेंगे, लेकिन भाग्य की बात देखिए कि जब मैं सैयद साहब की कोठी पर पहुंचा तो मालूम हुआ कि रातों रात कोठी पर फसादियों ने हमला किया और सैयद करामतअली शाह को अपनी जान बचाकर पाकिस्तान भागना पड़ा।
फसादियों में लाहौर के गंडासिंह फल विक्रेता भी थे, जिनकी लाहौरी दरवाजे के बाहर फलों की बहुत बड़ी दुकान और माडल टाउन में एक आलीशान कोठी थी। इस हिसाब से एक अलीशान कोठी उन्हें यहां भी मिलनी चाहिए थी, सो भगवान की कृपा से उन्हें सैयद करामतअली शाह की नई बनी बनायी कोठी मिल गई। जब मैं वहां पहुंचा तो गंडासिंह लाइब्रेरी की समस्त पुस्तकें एक-एक करके बाहर फेंक रहे थे और लाइब्रेरी को फलों से भर रहे थे। यह शेक्सपियर का सेट गया और तरबूज़ों का टोकरा भीतर आया ! ये गालिब के दीवान बाहर फेंके गए और महीलाबाद के आम भीतर रखे गए ! यह खलील जिबरान गए और खरबूजे आए ! थोड़े समय के बाद सब पुस्तकें बाहर थीं और सब फल भीतर। अफलातून के स्थान पर आलू बुखारे, सुकरात के स्थान पर सीताफल ! जोश के स्थान पर जामुन मोमिन के स्थान पर मोसम्बी, शेली के स्थान पर शहतूत, कीट्स के स्थान पर ककड़ियां, सुकरात के स्थान पर बादाम, कृश्न चन्दर के स्थान पर केले और ल. अहमद के स्थान पर लीमू भरे हुए थे।
पुस्तकों की यह दुर्गत देखकर मेरी आंखों में आंसू आ गए और मैं एक-एक करके उठाकर अपनी पीठ पर लादने लगा। इतने में गंडासिंह अपनी फलों की लाइब्रेरी से बाहर निकल आए और एक नौकर से कहने लगे-इस गधे की पीठ पर सारी पुस्तकें लाद दो और एक फेरे में न जाएं तो आठ-दस फेरे करके ये सब पुस्तकें एक लारी में भरकर लखनऊ ले जाओ और नखास में बेंच डालो। अतएव गंडासिंह के नौकर ने ऐसा ही किया। मैं दिन भर पुस्तकें लाद लादकर लारी तक पहुंचाता रहा और जब शाम हो गई और अन्तिम पुस्तक भी लारी तक पहुंच गई, तब कहीं गंडासिंह के नौकर ने मुझे छोड़ा। मेरी पीठ पर उसने ज़ोर का एक कोड़ा जमाया और मुझे लात मार कर वहां से भगा दिया। मैंने सोचा-जिस शहर में पुस्तकों तथा महापण्डितों का ऐसा अनादर होता हो, वहां रहना ठीक नहीं। इसलिए मैंने वहां से प्रस्थान करने का संकल्प कर दिया। अपने शहर के दरो दीवार पर हसरत भरी निगाह डाली, घास के दो चार तिनके तोड़कर मुंह में रखे और दिल्ली की ओर चल खड़ा हुआ। सोचा दिल्ली स्वतंत्र भारत की राजधानी भी है और कला, विद्या राज्यों तथा राजनीति का केन्द्र भी। वहां किसी न किसी प्रकार गुज़ारा हो जाएगा।