एक गधे की आत्मकथा / कृश्न चन्दर / पृष्ठ 2
2 करना प्रस्थान गधे का बाराबंकी से और जाना दिल्ली तथा वर्णन उस सुन्दर नगरी का।
उन दिनों दिल्ली चलो का नारा प्रत्येक छोटे बड़े व्यक्ति की जबान पर था। और एक तरह से मैं भी इसी नारे से प्रभावित होकर दिल्ली जा रहा था। परन्तु यह मालूम न था कि रास्ते में क्या विपत्ति आएगी। रास्ते में एक स्थान पर मैंने देखा, एक मुसलमान बढ़ई शरअई दाढ़ी रखे हुए एक छोटी सी गठरी बगल में दबाए, एक छोटे से गांव से भागकर सड़क पर आ रहा था। मैंने सहानुभूति प्रकट करते हुए उसे अपनी पीठ पर सवार कर लिया और तेज़-तेज़ कदमों से चलने लगा, ताकि उस गांव के फसादी उसका पीछा न कर सकें। और हुआ भी यही, मैं बहुत आगे निकल गया और मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुआ कि चलो, मेरे कारण एक निर्दोष की जान बच गई। इतने में क्या देखता हूं कि बहुत से फसादी रास्ता रोके खड़े हैं।
एक फसादी ने हमारी ओर देखकर कहा-देखो, इस बदमाश मुसलमान को ! न जाने किस बेचारे हिन्दू का गधा चुराए लिए जा रहा है। मुसलमान बढ़ई ने अपनी जान बचाने के लिए बहुत कुछ कहा, मगर किसी ने एक न सुनी। उसे फसादियों ने मौत के घाट उतार दिया। मुझे एक फसादी ने बांध लिया औए अपने घर की ओर चला।
जब हम आगे बढ़े तो रास्ते में मुसलमानों के कुछ गांव पड़ते थे। यहां पर-कुछ एक दूसरी ओर के फसादी आगे बढ़े। एक ने कहा-देखो, यह बेचारा गधा किसी मुसलमान का मालूम होता है, जिसे यह हिन्दू फसादी घेरे लिए जा रहा है। उस बेचारे ने भी अपनी जान बचाने के लिए बहुत कुछ कहा लेकिन किसी ने एक न सुनी और उसका सफाया हो गया और मैं एक मौलवी साहब के हिस्से में आया, जो मुझे उसी रस्सी से पकड़कर अपनी मस्जिद की ओर ले चले। रास्ते में मैंने मौलवी साहब के आगे बहुत अनुनय विनय की :
मैं-हज़रत ! मुझे छोड़ दीजिए।
मौलवी-यह कैसे हो सकता है ? तुम माले-गनीमत हो।
मैं-हुजूर ! मैं माले गनीमत नहीं हूं। गनीमत यह है कि मैं एक गधा हूं वरना अब तक मारा गया होता।
मौलवी-अच्छा, यह बताओ, तुम हिन्दू हो या मुसलमान ? फिर हम फैसला करेंगे।
मैं-हुजूर, न मैं हिन्दू हूं न मुसलमान। मैं तो बस एक गधा हूं और गधे का कोई मज़हब नहीं होता।
मौलवी-मेरे सवाल का ठीक-ठीक जवाब दो। मैं-ठीक ही तो कह रहा हूं। एक मुसलमान या तो हिन्दू गधा हो सकता है, लेकिन एक गधा मुसलमान या हिन्दू नहीं हो सकता।
मौलवी-तू बहुत बदमाश मालूम होता है। हम घर जाकर तुझे ठीक करेंगे। मौलवी साहब ने मुझे मस्जिद के बाहर एक खूंटे से बांध दिया और स्वयं भीतर चले गए। मैंने मौका गनीमत जाना और रस्सी तोड़कर वहां से निकल भागा। ऐसा भाग, ऐसा भागा कि मीलों तक पीछे मुड़कर नहीं देखा। अब मैंने यह निश्चय कर लिया कि इन संकीर्ण हृदय व्यक्तियों के झगड़े से एक गधे का क्या सम्बन्ध ! अब मैं न किसी हिन्दू की सहायता करूंगा, न मुसलमान की अतएव अब मैं दिन भर किसी वृक्ष की घनी छाया में पड़ा रहता या किसी जंगल अथवा मैदान में घास चरता रहता और रात होने पर अपनी यात्रा शुरू कर देता। इस प्रकार चलते-चलते बड़ी मुश्किल से कहीं छह सात महीनों के बाद दिल्ली पहुंचा। दिल्ली के भूगोल का वर्णन संक्षिप्त रूप से करता हूं, ताकि दिल्ली आने वाले यात्री मेरी जानकारी से पर्याप्त लाभ उठा सकें और धोखा न खाएं।