एक गधे की आत्मकथा / कृश्न चन्दर / पृष्ठ 3
दिल्ली का भूगोल
इसके पूर्व में शरणार्थी, पश्चिम में शरणार्थी, दक्षिण में शरणार्थी और उत्तर में शरणार्थी बसते हैं। बीच में भारत की राजधानी है और इसमें स्थान-स्थान पर सिनेमा के अतिरिक्त नपुंसकता की विभिन्न औषधियों और शक्तिवर्धक गोलियों के विज्ञापन लगे हुए हैं, जिससे यहां की सभ्यता तथा संस्कृति की महानता का अनुभव होता है। एक बार मैं चांदनी चौक से गुज़र रहा था कि मैंने एक सुन्दर युवती को देखा, जो तांगे में बैठी पायदान पर पांव रखे अपनी सुन्दरता के नशे में डूबी चली जा रही थी और पायदान पर विज्ञापन चिपका हुआ था,
असली शक्तिवर्धक गोली इन्द्रसिंह जलेबी वाले से खरीदिए !’
मैं इस दृश्य के तीखे व्यंग्य से प्रभावित हुए बिना न रह सका और बीच चांदनी चौक में खड़ा होकर कहकहा लगाने लगा। लोग राह चलते-चलते रुक गए और एक गधे को बीच सड़क में कहकहा लगाते देखकर हंसने लगे।
वे बेचारे मेरी धृष्ट आवाज पर हंस रहे थे और मैं उनकी धृष्ट सभ्यता पर कहकहे लगा रहा था। इतने में एक पुलिस के संतरी ने मुझे डण्डा मारकर टाउन हाल की ओर ढकेल दिया। इन लोगों को मालूम नहीं कि कभी-कभी गधे भी इन्सानों पर हंस सकते हैं।
दिल्ली में आने वालों को यह याद रखना चाहिए कि दिल्ली में प्रवेश करने के बहुत से दरवाज़े हैं। दिल्ली दरवाज़ा, अजमेरी दरवाज़ा, तुर्कमान दरवाज़ा इत्यादि। परन्तु आप दिल्ली में इनमें से किसी दरवाज़े के रास्ते भीतर नहीं आ सकते। क्योंकि इन दरवाज़ों के भीतर प्रायः गायें, भैंसें, बैल बैठे रहते हैं या फिर पुलिसवाले चारपाइयां बिछाए ऊंघते रहते हैं। हां, इन दरवाज़ों के दायें-बायें बहुत सी सड़के बनी हुई हैं, जिन पर चलकर आप दिल्ली में प्रवेश कर सकते हैं। अंग्रेजों ने दिल्ली में भी एक इंडिया गेट बनाया है, लेकिन इस गेट से भी गुज़रने का कोई रास्ता नहीं है। दरवाजे के ईर्द-गिर्द घूम-फिरकर जाना पड़ता है। संभव है, दिल्ली के घरों में भी थोड़े दिनों में ऐसे दरवाज़े लग जाएं; फिर लोग खिड़कियों में से कूदकर घरों में प्रवेश किया करेंगे।
दिल्ली में नई दिल्ली है और नई दिल्ली में कनाटप्लेस है। कनाटप्लेस बड़ी सुन्दर जगह है। शाम के समय मैंने देखा कि लोग लोहे के गधों पर सवार होकर इसकी गोल सड़कों पर घूम रहे हैं। यह लोहे का गधा हमसे तेज़ भाग सकता है, परन्तु हमारी तरह आवाज़ नहीं निकाल सकता। यहां पर मैंने बहुत से लोगों को भेड़ की खाल के बालों के कपड़े पहने हुए देखा है। स्त्रियां अपने मुँह और नाखून रंगती हैं, और अपने बालों को इस प्रकार ऊंचा करके बांधती हैं कि दूर से वे बिल्कुल गधे के कान मालूम होते हैं। अर्थात् इन लोगों को गधे बनने का कितना शौक है, यह आज मालूम हुआ।
कनाटप्लेस से टहलता हुआ मैं इंडिया गेट चला गया। यहां चारों ओर बड़ी सुन्दर घास बिछी थी और उसकी दूब तो अत्यंत स्वादिष्ट थी। मैं दो तीन दिन से भूखा तो था ही, बड़े मजे से मुंह मार-मारकर चरने लगा। इतने में एक ज़ोर का डंडा मेरी पीठ पर पड़ा। मैंने घबराकर देखा, एक पुलिस का सिपाही क्रोध भरे स्वर में कह रहा था:
‘‘यह कमबख्त गधा यहां कैसे घुस आया ?’’
मैंने पलटकर कहा, ‘‘क्यों भाई, क्या गधों को नई दिल्ली में आने की मनाही है ?’’
मुझे बोलता देखकर वह सटपटा गया। शायद उसने आज तक किसी गधे को बोलते नहीं सुना था। फटी-फटी आंखों से मेरी ओर देखने लगा। थोड़ी देर बाद उसका आश्चर्य कुछ कम हुआ, तो मुझे रस्सी में खींचकर थाने ले चला। थाने में ले जाकर उसने मुझे कान्स्टेबल के सामने जा खड़ा किया।
हेड कान्स्टेबल ने बड़े आश्चर्य से उसकी ओर देखकर कहा, ‘‘इसे यहां क्यों लाए हो, रामसिंह ?’’
रामसिंह ने कहा, हुजूर ! यह एक गधा है।’’
‘‘गधा तो है, यह तो मैं भी देख रहा हूं, मगर तुम इसे यहां क्यों लाए हो ?’’
‘‘हुजूर, यह इंडिया गेट पर घास चर रहा था।’’
‘‘अरे, घास चर रहा था तो क्या हुआ ! तुम्हारी बुद्धि तो कहीं घास चरने नहीं चली गई ? इसे यहां क्यों लाए ? लेकर जाकर कांजी हाउस में बंद कर देते। इस बेज़बान जानवर को थाने में लाने की क्या ज़रूरत थी।’’
रामसिंह ने रुकते-रुकते मेरी ओर विजयी दृष्टि से देखकर कहा,
‘‘हुजूर यह बेजबान नहीं है, यह बोलता है !’’
अबकी हेड कान्स्टेबल बहुत हैरान हुआ, लेकिन पहले तो उसे विश्वास न आया; फिर बोला, ‘‘रामसिंह तुम्हारा दिमाग तो ठीक है।’’
‘‘नहीं, यह बिलकुल ठीक कहता है, हेड कान्स्टेबल साहिब !’’ मैंने धीरे से सिर हिलाकर कहा।
हेड कान्स्टेबल अपनी सीट से उछला, मानो उसने कोई भूत देख लिया हो। वास्तव में उसका आश्चर्य अनुचित भी नहीं था, क्योंकि नई दिल्ली में ऐसे तो बहुत लोग होंगे जो इन्सान होकर गधों की तरह बातें करते हों लेकिन एक ऐसा गधा, जो गधा होकर इन्सानों की सी बात करे, हेड कान्स्टेबल ने आज तक देखा सुना न था। इसलिए बेचारा चकरा गया। उसकी समझा में न आया कि क्या करे। आखिर सोच-सोचकर उसने रोजनामचा खोला और रपट दर्ज़ करने लगा।
उसने मुझसे पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम ?’’
‘‘गधा।’’
‘‘बाप का नाम ?’’
‘‘गधा।’’
‘‘दादा का नाम ?’’
‘‘गधा।’’
‘‘यह क्या बकवास है ?’’ हेड कान्स्टेबल ने क्रोधपूर्वक कहा,
‘‘सबका एक ही नाम है ! यह कैसे हो सकता है। अब मुझे देखो, मेरा नाम ज्योतिसिंह है।
मेरे बाप का नाम प्यारेलाल था। मेरे दादा का नाम जीवनदास था। हमारे यहां नाम बदलते रहते हैं। तुम ज़रूर झूठ बोलते हो।’’
ज्योतिसिंह मुझे सुन्देह की नज़रों से देखने लगा।
मैंने कहा, ‘‘हुजूर ! मैं झूठ नहीं बोलता, सच कहता हूं कि हमारे यहां नाम नहीं बदलते। जो बाप का नाम होता है, वही बेटे का, वही पोते का।’’
‘‘इसके क्या लाभ ?’’ ज्योतिसिंह ने पूछा।
‘‘इससे वंशावली मिलाने में सुविधा होती है। उदाहरणस्वरूप क्या आप मुझे अपने परदादा के परदादा का नाम बता सकते हैं ?’’ मैंने ज्योतिसिंह से पूछा।
‘‘नहीं।’’ ज्योतिसिंह ने अफसोस प्रकट किया।
‘‘मगर मैं बता सकता हूं। आपके यहां वह आदमी बड़ा खानदानी समझा जाता है, जो आप से चार सौ, छह सौ आठ सौ, सोलह सौ साल पहले के अपने पुरखे का नाम बता सके। देखिए, मैं आपको आज से सोलह सौ क्या, सोलह लाख साल पहले के अपने पुरखे का नाम बता बताता हूं-श्री गधा ! बोलिए, फिर क्या हम गधे आपसे बेहतर खानदान के हुए या नहीं ?’’
ज्योतिसिंह ने बड़े ध्यान से मेरी ओर देखा। उसका सन्देह और बढ़ गया। उसने धीमे स्वर में रामसिंह के कान में कानाफूसी करते हुए कहा,
‘‘मुझे यह शख्स बड़ा खतरनाक मालूम होता है। हो न हो, यह कोई विदेशी जासूस है, जो गधे के लिबास में नई दिल्ली के चक्कर लगा रहा है !’’
रामसिंह ने कहा, ‘‘हुजूर ! मैं तो समझता हूं, इसकी खाल उतरवा कर देखना चाहिए, भीतर से खुफिया जासूस निकल आएगा। फिर हम इसे फौरन गिरफ्तार कर लेंगे।’’
ज्योतिसिंह ने कहा, ‘‘तुम बिल्कुल ठीक कहते हो। लेकिन इसके लिए सब इन्सपेक्टर चाननराम की आज्ञा लेना बहुत जरूरी है। चलो, इसे उनके सामने ले चलें।’’
मेरे कान में भी कुछ भनक पड़ गई थी, लेकिन मैं कान लपेटे चुप रहा और उन दोनों के साथ भीतर के कमरे में सब इन्सपेक्टर चाननराम के सामने चला। चाननराम की मूंछें बिच्छू के डंक की तरह खड़ी थीं और उसका सुर्ख चेहरा हर समय तमतमाया रहता था। चाननराम को आज तक किसी ने हंसते या मुस्कराते हुए नहीं देखा था, इसलिए लोग उसे एक योग्य पुलिस अफसर समझते थे। चाननराम ने उनकी पूरी बात सुनकर मेरी ओर घूरकर देखा और कहा,
‘हूं ! तो तुम पाकिस्तान के जासूस हो ?’’
मैं चुप रहा। चाननराम ने ज़ोर से मेज में मुक्का मारकर कहा, ‘‘समझ गया, तुम रूस के एजेण्ट हो।’’
मैं फिर भी चुप रहा।
चाननराम ने दांत पीसते हुए कहा, ‘‘कमबख्त ! बदमाश ! कम्युनिस्ट ! मैं तुम्हारी हड्डी-पसली एक कर दूंगा, वरना जल्दी बताओ तुम कौन हो ?’’
यह कहकर चाननराम मुझे मुक्कों, लातों और ठोकरों से मारने लगा। मारते-मारते जब वह बिल्कुल बेदम हो गया तो मैंने ज़ोर से एक दर्द भरी आवाज़ की। आवाज़ करते ही वह रुक गया और पहले मेरी ओर आश्चर्य से देखकर और फिर अत्यन्त क्रोध से ज्योतिसिंह और रामसिंह की ओर देखकर बोला,
‘‘अरे, यह तो बिलकुल गधा है। और तुम कहते हो, यह कोई विदेशी जासूस है। तुम मुझसे मज़ाक करते हो, मैं अभी तुमको डिसमिस करता हूं।’
रामसिंह और ज्योतिसिंह दोनों भय से थरथर कांपने लगे। हाथ जोड़कर बोले, ‘‘हुजूर ! अभी यह बाहर के कमरे में बोल रहा था। साफ-साफ बोल रहा था ! बिलकुल इन्सानों की तरह।’’
‘‘तुमने सपना देखा होगा या काम करते-करते तुम्हारा दिमाग खराब हो गया होगा। जाओ, इस गधे को मेरे सामने से ले जाओ ओर कांजी-हाउस में बन्द कर दो। अगर तीन चार दिन में इसका मालिक न आए तो नीलाम कर देना।’’
मैं खुशी-खुशी बाहर आया। मेरी चाल काम कर गई। अगर मैं बोलता तो वे लोग निश्चय ही मेरी खाल उधेड़कर देखते कि भीतर कौन है ? इसके बाद तीन-चार दिन तो क्या एक हफ्ते तक कोई मालिक न आया। फिर मुझे नीलाम कर दिया गया। अबके मुझे रामू धोबी ने खरीद लिया जो यमुनापार कृष्णनगर में रहता था।