एक डिग्री की जन्मकथा/ दराबा / जयप्रकाश चौकसे
जयप्रकाश चौकसे
परिवार की कन्याओं में रसिक की छोटी बहन गीता को पढ़ाई-लिखाई का बहुत शौक था और डॉक्टर बनने की महत्वाकांक्षा थी। कृष्ण की बहन सीता को पढ़ाई-लिखाई का दिखावा करने का बहुत शौक था। अपने वजन से ज्यादा किताबों को लादकर घूमना उसे बहुत पसंद था। बाबू शरतचंद्र की कहानियाँ पढ़कर वह इतनी जोर से रोती थी कि घर के ही क्या आसपास के लोग भी जमा हो जाते थे। लोगों के लिए यह बड़े आश्चर्य की बात थी कि कोई लड़की कहानी के दर्द से इस तरह विचलित हो सकती है! सीता को इस तरह का मजमा लगाना बहुत पसंद था। पहले एक-दो बार तो शरतचंद्र की नायिकाओं का दुःख उसे सचमुच रुला देता था, परन्तु बाद में संतरे के छिलके और प्याज के टुकड़ों की सहायता से वह रुदन का अभिनय करने लगी। कुछ ही दिनों में माली समाज में सीता की संवेदनशीलता के किस्से फैल गए। सीता ने साहित्यप्रेमी होने के स्वांग को ज़िन्दगी भर ढोया। जब उसकी साहित्यप्रियता का नाटक खूब जमने लगा तब उसने सोचा कि नाटक में सही रंग भरने के लिए यह जरूरी है कि वह बर्तज ग्राम सेविका के खादी की सफेद साड़ी पहनने लगे। उस जमाने में खादी के कपड़े फैशन में शुमार थे। सीता ने शरतचंद्र चटर्जी, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा और सुमित्रानंदन पंत की सारी किताबें आर्डर देकर रत्नालय बुक डिपो के मार्फत मँगवाईं। रतनलाल की किताबों की दुकान बुरहानपुर की एकमात्र ऐसी दुकान रही है, जहाँ प्राइमरी से लेकर कॉलेज तक और शरतचंद्र से लेकर शेक्सपीयर तक की किताबें उपलब्ध थीं। यह बहुत आश्चर्य की बात है कि ढेरों स्कूलों के बावजूद भी बुरहानपुर में किताबों की एक ही दुकान रही। सब्जी मंडी स्थित फेमस बुक डिपो में उर्दू की किताबें मिलती थीं, परन्तु रत्नालय के मुकाबले फेमस का स्टॉक बहुत सीमित था। जिगर, गालिब और जोश के मुकाबले फेमस वाले जासूसी दुनिया और शमा बेचने में ज्यादा यकीन करते थे। रत्नालय के मालिक रतनलाल का ये कमाल था कि ग्राहक द्वारा माँगी गई किताब वह मुंबई, दिल्ली, इलाहाबाद कहीं से भी मँगवाकर जरूर देते थे। उसकी एक और खासियत थी कि वह अपने ग्राहकों के परिवारों को भलीभांति जानता था। कोई बच्चा अगर कम पैसे भी लेकर आए तो भी रतनलाल जी पूरा सामान दे देते थे। उनकी उधारी के डूबने का तो कोई सवाल ही नहीं था।
सीता को उन किताबों का भी बहुत शौक था, जिनकी प्रतियाँ आसानी से उपलब्ध नहीं होतीं। दरअसल महादेवी वर्मा की कविताएँ पढ़कर उसने अपने व्यक्तित्व को एक युवा दुखियारी कवयित्री के रूप में ढाला। उसे मीना कुमारी की रोने-धोने वाली फिल्में भी बहुत पसंद थीं। अनुपलब्ध किताबों के शौक के पीछे असली राज यह था कि वह दूसरों की कविताएँ चुराकर अपने नाम से सुनाती थी। वह हमेशा खादी की कलफ लगी हुई सफेद साड़ी पहनती थी और माथे पर अठन्नी के बराबर टीका लगाती थी। उसकी आँखें और दृष्टि बिल्कुल ठीक थी, परन्तु उसने इन्दौर से बिना नंबर का मोटा चश्मा मँगवाया था और हमेशा चश्मा धारण किए रहती थी। उसे अपनी उम्र से ज्यादा बड़ी उम्र की दिखने का शौक था। वह हर बार इतने धीमे स्वर में बोलती थी कि उसकी आधी बातें किसी की समझ में नहीं आतीं। इस तरह की अस्पष्ट बात करने वाले को विद्वान समझा जाता था। धीरे-धीरे कोशिश कर उसने अपने लिए करुणा की देवी की छवि गढ़ ली थी। मोहल्ले वाले लड़के उसे महजबीं मीना कुमारी कहकर बुलाते थे। दिखावे के लिए वह लड़कों से खफा हो जाती थी परंतु मन ही मन बहुत खुश थी। सीता ने बी.ए. के बाद बी.टी. की परीक्षा पास कर ली थी और वह एक प्राइमरी स्कूल में शिक्षिका बन गई। घर में पैसों की कोई कमी नहीं थी, परन्तु उसकी छवि के लिए यह जरूरी था. कि वह बेचारी शिक्षिका कहलाए। वेतन से अधिक पैसा तो वह घर से उठाती थी और सारा पैसा अपनी छवि के ऊपर खर्च करती थी। उसके भाई कृष्ण ने बहुत कोशिश की कि सीता विवाह कर ले, एक सद्गृहस्थ का जीवन व्यतीत करे। माली समाज के उम्मीदवार लड़के उसे देखने आते थे और वह उन्हें कविताएँ पढ़कर डरा देती थीं। एक के बाद एक अनेक प्रयासों में असफल रहने के बाद यह मान लिया गया कि सीता का विवाह संभव नहीं है और इस बात से सीता खुश थी।
सौतेली बहन गीता विपरीत स्वभाव की थी। उसके मन में डॉक्टर बनने की महत्वाकांक्षा थी, परन्तु वह फिजिक्स में इतनी कमजोर थी कि बी.एस-सी. का पहला वर्ष ही पार नहीं कर पा रही थी। गीता को पढ़ाने के लिए आधा दर्जन शिक्षक घर आया करते थे और भरपूर जोर लगाने के पश्चात् भी उसे फिजिक्स पढ़ाने में असफल रहे।