शांति सदन में अखाड़ा / दराबा / जयप्रकाश चौकसे

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शांति सदन में अखाड़ा
जयप्रकाश चौकसे

गर्मियों की छुट्टियों में रसिक बुरहानपुर आया। उसके रंग-ढंग पूरी तरह से बदल चुके थे। माली समाज के इस युवा ने लखनवी नवाबों की नज़ाकत अपना ली थी और वह गुलाब जामुन के छिलके उतारकर खाने लगा। छोटी माँ अपने बेटे की कद-काठी और मोहक व्यक्तित्व से बड़ी प्रसन्न थी। अगर रूपा का बेटा रूपवान नहीं होगा तो किसका होगा ! रसिक की नज़ाकत और अंदाज़े बयां पर वह दिलो-जान से न्यौछावर थी। बड़ी माँ के जासूसों ने उनको सब खबरें लाकर दीं। बड़ी माँ को खबर लग चुकी थी कि शीघ्र ही रसिक अपनी माँ के आदेश से उनसे मिलने के लिए आने वाला है। बड़ी माँ ने सारी तैयारियाँ कर लीं। जब रसिक ने घर में प्रवेश किया, तब बड़ी माँ ने साफ-सुथरी चाँदी की थाली लेकर उसकी आरती उतारी, उसकी बलैयां लीं और मुट्ठी भर चवन्नियाँ उसके सिर पर से उतारकर गली में फेंक दीं। बड़ी माँ के इस भव्य स्वागत से रसिक भावविभोर हो गया और उस समय तो उसकी प्रसन्नता अत्यंत बढ़ गई जब बड़ी माँ ने उसे बुरहानपुर का अशोक कुमार कहा। बड़ी माँ के पास घंटा भर बैठने के बाद रसिक भीतरी सीढ़ियाँउतरकर दराबे की दुकान में पहुँचा। कृष्ण ने भी उसका भरपूर स्वागत किया। रसिक ने दुकान में चारों ओर निगाह डालकर देखा और उसे लगा कि धन की आवक होते हुए भी दुकान का रख-रखाव ऊँचे दर्जे का नहीं है। उसे नौकरों की मैली-कुचैली पोशाक सख्त नागवार गुजरी। भव्य स्वागत के कारण उसके हथियार गिर चुके थे और वह कृष्ण पर कोई आक्रमण नहीं कर पाया। जब वह दुकान से जाने लगा, तब कृष्ण ने खर्चे के लिए उसके हाथ में ढेर सारे रुपए रख दिए। उसने उन रुपयों में से चुनकर साफ सुथरे नोट अपनी जेब में भर लिये और पुराने तथा जरा से मैले पड़े हुए नोटों को वापस लौटा दिया। कृष्ण रुपए के मामले में ये नफ़ासत देखकर आश्चर्यचकित रह गया। रसिक कैलाश की लॉज में गया, जहाँ जुए का दौर जारी था। उसने कैलाश को समझाया कि लॉज चलाने या जुआघर चलाने पर उन्हें कोई व्यक्तिगत आपत्ति नहीं है, पर वे चाहते हैं कि यह सब काम भी शान-शौकत से किया जाए। आजकल बड़े शहरों में क्लब खुल गए हैं जहाँ श्रेष्ठि वर्ग के लोगों ने जुए को जायज मनोरंजन बना दिया है। उसने लॉज को स्वच्छ और खूबसूरत रखने की हिदायत और जुआरियों को ऊँचे दाम वाले ताश दिए जाने की सिफारिश की। उसने कैलाश को यह भी बताया कि आजकल प्लास्टिक के ताश भी मिलते हैं जिन्हें दिनभर के उपयोग के बाद साबुन से धोया जा सकता है। इस तरह आश्चर्यचकित करने वाली बातें करके रसिक वहाँ से बाहर निकला। घर लौटने पर उसने अपनी माँ से कहा कि कृष्ण भैया दुकान की साफ-सफाई पर कोई ध्यान नहीं देते। माँ ने उसे समझाया कि हर साल मुनाफा बढ़ रहा है। दोनों परिवारों के बच्चों की शिक्षा पर खूब पैसा खर्च हो रहा है और मैं एक रुपया माँगती हूँ तो मुझे दो मिलते हैं। इतनी अच्छी व्यवस्था के चलते हुए दुकान की गंदगी की फिक्र हमें क्यों होनी चाहिए। रसिक ने कहा- बात मुनाफे की नहीं है, बात ग्राहक के आराम की है। मुझे व्यवसाय के पुराने ढर्रे पसंद नहीं हैं। हर चीज टिप-टॉप होनी चाहिए। बड़ी माँ ने कहा कि तू अभी अपना ध्यान पढ़ाई-लिखाई में लगा और धंधे के बारे में मत सोच। मैं तुझे बुरहानपुर का कलेक्टर बनाना चाहती हूँ। रसिक ने. माँ से बहस करना उचित नहीं समझा और वह घूमने के लिए ताप्ती के किनारे की ओर चल पड़ा।

रसिक ताप्ती के स्वच्छ निर्मल प्रवाह को देखकर मुग्ध हो गया। नदी के बीच में एक चट्टान है, जिसे हथिया कहते हैं, क्योंकि पानी में उभरी यह चट्टान आपको हाथी का स्मरण कराती है। ऐसा आभास होता है मानो हाथी अपनी सूँड से शिवजी को नमस्कार कर रहा है। घाट पर लाल देवल हैं- शिवजी का अत्यंत पुराना मंदिर। इसके निर्माण के कई दावेदार हैं। लकड़ी और शराब के ठेकेदार बसंतलाल का दावा है कि यह उनके पूर्वजों ने बनाया है। मंदिर पर निर्माण करने वाले कभी अपने नाम का कोई चिह्न नहीं छोड़ते। हमारे यहाँ तो अजंता, एलोरा और खजुराहो के दिव्य निर्माण में भी किसी ने अपना नाम नहीं छोड़ा है।

बुरहानपुर की अधिकांश जनता का जीवन ताप्ती से जुड़ा रहा है। वे हमेशा यहाँ नहाते और प्रार्थना करते रहे हैं। हथियार की तरह ही थोड़ी दूर पर एक बेतरतीब चट्टान उभर आई है जिसे नवगजा कहते हैं क्योंकि यहाँ पानी की गहराई नौ गज है। क्या ये चट्टानें नदी के मन में उठे सवाल हैं, या देवी-देवता के प्रति आदर अभिव्यक्त किया जा रहा है। कल्पनाशील रसिक सोचने लगा क्या शाहजहाँ और मुमताज ताप्ती में नौका विहार करते होंगे? जिस समय रसिक का मन ताप्ती को लेकर कल्पना में डूबा था उस समय उसे क्या पता था कि नेपानगर में बना कागज का कारखाना ताप्ती के जल को प्रदूषित कर देगा। शहर के नाले सारा कूड़ा-करकट ताप्ती की गोद में प्रवाहित कर देंगे और ऐसा समय भी आएगा जब ताप्ती के सुंदर किनारों पर झाड़ियाँ उग आएँगी और जल इतना गंदा होगा कि मछलियाँ भी विरोध में प्राण दे देंगी। स्वतंत्रता के बाद अनियोजित औद्योगीकरण भारत की सभी नदियों को प्रदूषित कर देगा। दराबा भोगी सदैव अलसाया-सा बुरहानपुर कभी प्रतिरोध भी नहीं करेगा। जो शहर अपनी नदी को नहीं बचा पाता, वह शहर अपनी अस्मिता और पहचान भी खो देता है।

ताप्ती नदी के किनारे सूरज कुमार दंड पेल रहे थे। रसिक और सूरज बचपन के मित्र थे। सूरज के पिता महाजन थे गोया कि सूदखोरी उनका धंधा था। नाजुक और नफासत के शौकीन रसिक को पहलवानी का कोई शौक नहीं था। उसने अनेक बार सूरज को समझाया कि पहलवानी करने से अक्ल घट जाती है। सूरज को रसिक के सिद्धांत पर कोई एतराज नहीं था। उसे कसरत करना और भोजन करना पसंद था और उसका यकीन था कि ज्यादा अक्ल से जिन्दगी में परेशानियाँ बढ़ती हैं। पैसा तो किस्मत से आता है, अक्ल उसका रास्ता रोकती है। सूरज मूर्खता को आनंद की गंगोत्री मानता था और इस विषय पर ऐसे बात करता था मानो धर्म पर बतिया रहा हो। सूरज अपने पिता के महाजनी व्यवसाय में कमउम्र से ही लग गया था और वह ये जानता था कि कसरती बदन के कारण ब्याज वसूल करने में सहायता मिलती है। महाजनों और सूदखोरों को हर कालखंड में कानून से ज्यादा भरोसा मजबूत मांसपेशियों पर रहा है। बातों ही बातों में सूरज ने उसे बताया कि जो हुकुम लक्ष्मण और जीवनलाल ने बड़ा आलीशान डेरी फार्म खोला है। दोनों मित्रों ने यह तय किया कि डेरी फार्म का चक्कर लगाना चाहिए।

वे दोनों चौक बाजार आए और तांगे वाले अलीबख्श से दाम तय कर रहे थे कि ठीक उसी वक्त किशनलाल पंजाबी अपनी फटफटिया लेकर वहाँ आ पहुँचे। किशनलाल इन लोगों का पुराना दोस्त था और उसने प्रस्ताव रखा कि तीनों दोस्त उसकी मोटरसाइकल पर बैठकर जो हुकुम और जीवन के डेरी फार्म पर चलें। रसिक के लिए मुमकिन नहीं था कि वह दो सवारी वाली गाड़ी पर तीसरी सवारी बनकर बैठे। इसलिए रसिक अलीबख्श के तांगे में जा बैठा और इनका सफर शुरू हुआ। किशनलाल पंजाबी को तांगे के साथ-साथ फटफटिया चलाने में मजा नहीं आ रहा था, परंतु वह मजबूर था। कभी-कभी वह अपनी मोटरसाइकल को तांगे के आगे ले जाता था और सड़क के किनारे तांगे का इंतजार करता रहता था। इसके साथ ही वह रसिक की नज़ाकत का मज़ाक भी उड़ाता था। किशनलाल की खासियत यह थी कि वह निहायत भोलेपन के साथ बेहूदगी भरी बातें किया करता था और उसका लहजा कुछ इस तरह का होता था कि गाली सुनने वाले को भी बुरा नहीं लगता था। किशनलाल के पास खुद पर भी हँसने-हँसाने का माद्दा था और उसके जैसा सेंस ऑफ ह्यूमर किसी के पास नहीं था। वह खुद को एक बेवकूफ और जाहिल आदमी के तौर पर पेश करता था और अपने इसी साहस के दम पर वह किसी का भी मखौल बनाने से नहीं चूकता था। उसका व्यवसाय भी सूदखोरों का ही था, परन्तु उसमें और सूरज में जमीन-आसमान का अंतर था। किशनलाल पैसे की परवाह नहीं करता था और यार-दोस्तों के लिए सूद की दरें भी बहुत कम रखता था। किशनलाल के लिए पैसा कमाने से ज्यादा जरूरी यारबाज़ी थी और सूरज के लिए सूद जिन्दगी का एकमात्र सत्य था। सूरज से छोटे व्यवसायी और मजबूर लोग पैसा लेते थे, जबकि किशनलाल का पैसा ऊँचे घराने के व्यवसायियों के बीच चलता था। सूरज हुंडी लिखाए बिना अपने भाई को भी पैसा नहीं देता था, जबकि किशनलाल को हुंडी आदि कागजों से बहुत नफरत थी। उसकी जेब में एक छोटी डायरी होती थी, जिसमें वह अपने लेनदेन का हिसाब रखता था। अगर वह डायरी गुम जाए, तो उसका सारा हिसाब गड़बड़ हो सकता था।

उसकी डायरी की कोई नकल उसने कभी तैयार नहीं की। यह किशनलाल की साख थी कि दो-एक बार शराब के नशे में धुत होने पर उसकी डायरी कहीं गिर गई और उसके कर्जदारों ने दूसरे दिन उसकी डायरी उसे लौटा दी। आधी पंजाबी और आधी उर्दू में लिखी पूरी डायरी काफी मशहूर हो चुकी थी। शहर के आम पंजाबियों को बड़ी कोफ्त थी कि किशनलाल दरियादिली के साथ उधार का धंधा करता है।

किशनलाल, रसिक और सूरज जब डेरी फार्म पर पहुँचे तब डेरी फार्म पर दूध दोहने की तैयारी चल रही थी। जो हुकुम लक्ष्मण और जीवन ने बड़े फख्र के साथ अपना डेरी फार्म अपने दोस्तों को दिखाया। रसिक डेरी फार्म की व्यवस्था से बहुत प्रभावित हुआ और उसने दोनों भागीदारों को जी खोलकर बधाई दी। जीवनलाल भैंसों पर और बर्टेन्ड रसेल पर समान अधिकार से बात करता था और रसिक उसके ज्ञान का कायल था। तारीफ के इस सिलसिले को किशनलाल पंजाबी ने तोड़ा। उसने रसिक को बताया कि जो हुकुम लक्ष्मण और विद्वान जीवनलाल पाँच स्टार यादव हैं और इन बुद्धिमान बेवकूफों की मेहनत और मलाई कृष्ण खाता है। किशनलाल पंजाबी ने रसिक को समझाया कि कृष्ण ने इन दोनों को बेवकूफ बनाया है। वह इनसे सस्ते दामों में दूध खरीदकर बाजार में महँगे दामों पर बेचता है और ये दोनों बेवकूफ इस बात पर खुश हैं कि उसने इनके धंधे में बिना ब्याज के पैसा लगाया है। अगर ये दोनों ब्याज से पैसा उठाकर अपना दूध खुले बाजार में बेचें तो ब्याज चुकाने के बाद भी इनको अच्छा-खासा लाभ हो सकता है। जो हुकूम लक्ष्मण बिना ब्याज की पूँजी पर खुश थे और उनको किशनलाल पंजाबी की बातें अच्छी नहीं लगीं। सूरज ताजा निकला हुआ दूध पीने में मस्त था और उसे अपने मित्रों की बातचीत में कोई दिलचस्पी नहीं थी। रसिक को तैश आ गया और उसने कहा कि वह इन दोनों दोस्तों के लिए कृष्ण भाई से लड़ाई लड़ने को तैयार है। जीवनलाल ने उसे समझाया कि लड़ाई लड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि कुछ ही सालों में उनका डेरी फार्म कृष्ण के कर्जे से मुक्त हो जाएगा। किशनलाल पंजाबी ने प्रस्ताव रखा कि वे लोग उससे पैसा लेकर कृष्ण भाई को लौटा दें और इसके एवज में उसे तीसरे भागीदार के रूप में शामिल कर लें, परन्तु जीवन ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। किशनलाल ने जीवन से पूछा कि आसपास कहीं देशी शराब मिल सकती है? डेरी फार्म पर काम करने वाले मजदूर किटकुल ने बताया कि वह ग्राम नागझिरी से शराब ला सकता है। उन दिनों शहर बुरहानपुर में शराब के खिलाफ कानूनी पाबंदी थी। इस पाबंदी के बावजूद आसपास के गाँवों में देशी शराब बनाई जाती थी और धड़ल्ले से बेची जाती थी। किटकुल साइकिल पर बैठकर गाँव गया और आधे घंटे में गले में साइकिल का ट्यूब लटकाकर वापस आ गया। उन दिनों अवैध शराब के व्यापारी साइकिल की खाली ट्यूब में शराब भरकर बेचा करते थे।

इस मित्र-मंडली में किशनलाल पंजाबी और सूरज कुमार शराब के बेहद शौकीन थे। रसिक को शराब की महफिल में बैठने का शौक था, परन्तु वह स्वयं शराब नहीं पीता था। जीवन और जो हुकुम लक्ष्मण नए और कच्चे खिलाड़ी थे। दरअसल ये दोनों भी सिर्फ महाफिलबाज थे। किशनलाल पंजाबी शराब पीते ही गलत शेर सुनाना शुरू कर देता था और जैसे-जैसे शराब पीता जाता था, वैसे-वैसे उसके चेहरे पर मासूमियत बढ़ती जाती थी। इसके विपरीत सूरजकुमार शराब की मात्रा के साथ ही और ज्यादा गुमसुम हो जाते थे। जीवनलाल शराब पीने के बाद उन सब किताबों का विवरण देने लगते थे, जो उन्होंने हाल ही में पढ़ी हैं या जिस किताब की समालोचना उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया में पढ़ी। शहर से दूर खस्ता हाल सराय में ये सारे मित्र उन सूफी दार्शनिकों की तरह हो गए जो सफर की थकान मिटाने के लिए सराय में रातभर के लिए डेरा डाले हुए बैठे हैं। जीवन के मुनीम मुंशीलाल को शराब की इस महफिल से सख्त एतराज था। जब तक महफिल चलती रही, तांगेवाला रसिक सेठ का इंतजार करता रहा। उसने घोड़ा खोलकर उसे चारा डाल दिया। आधी रात के बाद महफिल खत्म हुई और मित्र-मंडली ने शहर जाने का इरादा किया। यह तय किया गया कि नशे की ज्यादती के कारण किशनलाल को जीवन और लक्ष्मण अपने साथ कार से ले जाएँगे और रसिक अपने तांगे में घर लौटेगा।

सांसद द्विवेदी ने चुनाव जीतने के बाद प्राइमरी स्कूल में अध्यापन-कार्य छोड़ दिया। उनके जीवन में राजनीति ने आमूल परिवर्तन ला दिया। उन्होंने चुनाव लड़ने के लिए प्रताप से धन लिया और चुनाव जीतकर प्रताप को धन कमाने के लिए अनेक सुविधाएँ उपलब्ध कराईं। इस चक्र में उनके घर पर भी

धन की फुहारें पड़ती रहीं। राजनीति का बादल बखूबी जानता है कि किस छत को भिगोना है और किस जगह को सूखा रखना है। यह सच है कि मूसलाधार वर्षा तो प्रताप के घर हुई, परन्तु जो फुहारें पंडितजी के घर पर गिरीं, वे फुहारें उनकी सात पुश्तों को सुरक्षित कर गईं। प्रताप ने भी अपना रवैया बदल दिया। अब वे बाइज्जत व्यापारी बन चुके थे। उनकी बसें आसपास के चालीस गाँवों में चलती थीं और चौक बाजार में उनकी संपत्ति दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थी। उनके लिए अब कन्नू पत्तेबाज कतई उपयोगी नहीं था। अब स्वयं प्रताप शतरंज के खिलाड़ी हो चुके थे। प्रताप के पुत्र और पंडित द्विवेदी के पुत्र उच्च शिक्षा के लिए इंदौर जा बसे थे। प्रताप के बड़े सुपुत्र महादेव को राजनीति में गहरी रुचि थी, जबकि पंडितजी के पुत्र साहित्य की ओर आकर्षित थे। पंडितजी भी महादेव को अपना मानस पुत्र मानते थे। जिले के तमाम सरकारी दफ्तर प्रताप के दरबार में बिना नागा हाजरी लगाया करते थे। जिले के सारे ओहदों पर ट्रांसफर की डोर प्रताप के हाथ थी। इस तरह से बुरहानपुर में समानांतर सरकार के एकछत्र राजा प्रताप थे। धन और सामाजिक मर्यादा की पूर्ति के साथ प्रताप की दरियादिली भी बढ़ती चली गई और उनके दरबार से कभी कोई खाली नहीं लौटा।

दरअसल भारत में दया को सिक्के के रूप में चलाने की उच्च परंपरा का विकास प्रताप ने ही किया था। उनकी दया से अभिभूत अधिकारी उनके अवैधानिक कार्यों को नजरअंदाज करने के लिए एक तरह से बंध जाता था। दान-पुण्य करते समय ही प्रताप के मन में याचक की उपयोगिता का चित्र स्पष्ट उभर आता था। कई बार वे अनुपयोगी होने पर भी याचक को दान दिया करते थे, क्योंकि ऐसे कार्यों से ही मनुष्य किंवदंती बनता है। इस गूढ़ सत्य का ज्ञान उनको स्वाभाविक ढंग से हो गया था। एक दिन महादेव ने उन्हें बताया कि शहर के युवा वर्ग में उनकी लोकप्रियता बहुत कम है, क्योंकि इनमें से अधिकांश आज भी उन्हें लुटेरा ही मानते हैं। इन युवा लोगों में से थोड़े-बहुत उनको रॉबिनहुड मानने को तैयार हैं, परंतु एकछत्र राजा की छवि को इस वर्ग ने निर्ममता के साथ ठुकरा दिया है। प्रताप ने कहा- 'इन लौंडों की पिटाई करवा दूँ।' महादेव ने उन्हें समझाया कि राजनीति में जो काम अक्ल से होता है वह पिटाई से नहीं होता। प्रताप ने धीरज खो दिया और तैश के मारे उठकर खड़े हो गए। उन्होंने कहा-'अबे कल के लौंडे, तू क्या मुझे राजनीति पढ़ा रहा है? लगता है पंडितजी ने तेरे कान में कोई गलत मंत्र फूंक दिया है।' महादेव ने अपने पिता को शांत करते हुए समझाया कि आजकल युवा वर्ग का घाट शांति सदन कॉलेज है। हमें कॉलेज पर कब्जा करना चाहिए। यह सुनकर प्रताप बोले- 'कितने लठैत भेज दूँ?' महादेव ने मुस्कुराकर कहा- 'लठों की राजनीति गाँवों में चलती है, शहर में दूसरा खेल चलता है।' प्रताप ने पूछा-'कैसा खेल ?' महादेव ने उन्हें समझाया कि वे केला व्यापारी संघ के अध्यक्ष हैं। संघ की ओर से प्राचार्य का स्वागत किया जाना चाहिए। दोनों बाप-बेटे ने एक-दूसरे की ओर देखा और मुस्कुरा दिए।

केला व्यापारी संघ के स्वागत समारोह में प्राचार्य श्यामसुंदर को बुरहानपुर की शिक्षा के इतिहास का भीष्म पितामह कहा गया और उन्हें फूलों से लाद दिया गया। उसी समय प्रताप के बगीचे पर प्राचार्यजी के सम्मान में एक शानदार दावत रखी गई। इस दावत में जी खोलकर शराब पी गई और शिक्षा के नाम पर जाम टकराए गए। बहुत दिनों से शिक्षक काम कर रहे हैं और समिति के पास जमीन होते हुए भी भवन बनाने का धन नहीं है। प्रताप केला व्यापारी संघ और कपास व्यापारी संघ से बहुत-सा चंदा एकत्रित कर सकते थे। प्रति ठेले की लदाई पर 50 रुपए और प्रति गठान पर एक रुपए की दर से दान की रकम बाँधी जा सकती है। प्राचार्य महोदय नशे के बावजूद ये बात समझ गए कि अब कॉलेज को शास्त्रीजी की जरूरत नहीं है, वरन् प्रताप जैसे अध्यक्ष की आवश्यकता है, जो अपने सामर्थ्य से कॉलेज को नया रूप दे सकता है। उन्होंने प्रताप को वचन दिया कि वे बुरहानपुर में शिक्षा की प्रगति के लिए सभी आवश्यक कदम उठाएँगे।

दूसरे दिन सुबह प्राचार्यजी ने कॉलेज की स्वार्थ की तराजू पर दोनों पलड़ों में शास्त्रीजी और प्रताप का सामाजिक वजन तौला और उन्होंने ये पाया कि शास्त्रीजी की स्वच्छ छवि आज के उठापटक के दौर में कोई विशेष उपयोगी नहीं है। प्रताप पूरे शहर के एकछत्र राजा हैं और उन्हें अध्यक्ष बनाने पर कॉलेज की इमारत आसानी से खड़ी की जा सकती है। उनका व्यक्तिगत लाभ यह है कि मुफ्त दावतों की कमी नहीं होगी और भोपाल में सत्ता के गलियारे में कॉलेज अनुदान के लिए प्रताप का झंडा बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। प्राचार्यजी के मन में बस एक ही बात खटक रही थी कि किसी शिक्षा समिति के अध्यक्ष पद पर किसी अंगूठा छाप व्यक्ति को कैसे बैठाया जा सकता है। आजाद भारत में शिक्षा उद्योग का स्वरूप ग्रहण कर चुकी थी। अनेक पदों पर अशिक्षित लोगों का हुकुम चल रहा है। आज समाज में योग्यता और चरित्र ताकत बनने के बदले कमजोरी सिद्ध हो चुका है। समाज के हर क्षेत्र में लाठी वालों को सत्ता की भैंस प्राप्त हो गई। अतः उन्होंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि शास्त्रीजी की जगह सर्वशक्तिमान प्रताप विराजेंगे। खत्री को तो उन्होंने समझा दिया था कि कॉलेज के हित में उन्हें त्यागपत्र देना चाहिए और खत्री इतने भले आदमी थे कि वे ये बात मान भी गए। शास्त्रीजी भी बहुत भोले थे, परन्तु वे इस प्रकार का समझौता करने वाले आदमी नहीं थे। वे प्रताप जैसे अशिक्षित व्यक्ति के पक्ष में त्यागपत्र देने के लिए कभी तैयार नहीं होते। अतः प्राचार्य जी ने अपनी बुद्धि का प्रयोग किया और शास्त्रीजी के खिलाफ एक षड्यंत्र रचा।

उन्होंने कॉलेज में एक पुरस्कार वितरण समारोह का आयोजन किया और कुछ उद्दंड विद्यार्थियों को विश्वास में लेकर एक नाटक कर डाला। पुरस्कार वितरण के समय जब शास्त्रीजी भाषण देने खड़े हुए तो कुछ विद्यार्थियों ने अशोभनीय नारेबाजी की। विद्यार्थियों के दो दल आपस में झगड़ पड़े। शास्त्रीजी ने बार-बार अपील की कि विद्यार्थी शिक्षा की गरिमा को बनाए रखें। हर अपील के साथ शोर-शराबा बढ़ता गया। शास्त्रीजी ने परस्पर विरोधी गुटों को धमकाने की खातिर मंच पर यह घोषणा की कि अगर विभिन्न वर्गों का आपसी युद्ध समाप्त नहीं हुआ तो वे अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे देंगे। शास्त्रीजी को आशा थी कि इस तरह की घोषणा से विद्यार्थी विस्मित हो जाएँगे और उनका युद्ध समाप्त हो जाएगा, परंतु आशा के विपरीत इस घोषणा के बाद भी नारेबाजी चलती रही और विद्यार्थियों में हाथापाई शुरू हो गई। भारी अव्यवस्था और शोर-शराबे के बीच समारोह समाप्ति की घोषणा कर दी गई। प्राचार्य कक्ष में शांति सदन शिक्षा समिति की आपातकालीन बैठक हुई जहाँ प्राचार्य ने अव्यवस्था पर खेद प्रकट किया और बार-बार शास्त्रीजी से निवेदन किया कि वे अपना त्यागपत्र वापस ले लें। इस बात की ओर किसी का ध्यान नहीं गया कि शास्त्रीजी ने त्यागपत्र की घोषणा सदन के बाहर की थी और उसका कोई कानूनी औचित्य नहीं था। जितनी बार प्राचार्यजी त्यागपत्र वापस लेने की अपील करते, उतनी ही बार शास्त्रीजी त्यागपत्र वापस नहीं लेने की बात को दोहराते।

जब कमरे के भीतर इस तरह की बातचीत हो रही थी तब कमरे के बाहर विद्यार्थी दलों का झगड़ा जोर-शोर से चल रहा था। महादेव के किसी पट्ठे ने रस्सी बम फोड़ दिया। भीतर कमरे में बम की आवाज़ से शास्त्रीजी ऐसे दहल गए मानो किसी आतंकवादी ने सचमुच का बम फोड़ दिया हो। प्राचार्यजी ने शास्त्रीजी को समझाने की कोशिश की। जब कॉलेज का स्वरूप विराट होगा, तब इस तरह की घटनाएँ प्रतिदिन घटित होंगी। उन्होंने अपने रिकार्डनुमा अंदाज़ में शास्त्रीजी से त्यागपत्र वापस लेने का अनुरोध फिर एक बार कर दिया। ये अजीब बात है कि कोई त्यागपत्र प्रस्तुत नहीं था, परंतु उस अदृश्य और अवास्तविक त्यागपत्र को वापस लेने की प्रार्थना बार-बार की जा रही थी।

इन सब बातों से शास्त्रीजी इतने विचलित हुए कि क्रोध में आकर उन्होंने कमरा छोड़ दिया और वे अपने घर चले गए। उनके जाने के पश्चात् प्राचार्य ने मगरमच्छ के आँसू बहाए और अपने साथियों से कहा कि अब इस बड़े कॉलेज को सुचारु रूप से चलाने के लिए उन्हें एक मजबूत अध्यक्ष की आवश्यकता है और ठीक उसी समय नाटकीय ढंग से प्रताप ने कमरे में कदम रखा। उनके साथ उनके लठैत भी भीतर आ गए। प्रताप ने बड़े नाटकीय अंदाज़ में अपने लठैतों को डाँटा और अपमानित करके उन्हें बाहर निकाल दिया। उन्होंने बहुत विनम्र होकर समिति के सामने कपड़े की गठान और केले की लदान पर धन इकट्ठा करने का आश्वासन दिया और उन्होंने यह भी कहा कि उनका अपना ठेकेदार बगैर किसी मेहनताने के कॉलेज का भवन निर्माण करेगा। वे अपनी ओर से एक हजार बोरी सीमेंट और एक हजार मन लोहा दान में देंगे। प्राचार्यजी ने तपाक से कहा कि इसे कहते हैं इस्पाती व्यक्ति जो तन-मन-धन से शिक्षा की सेवा करें। प्रतापजी ने विनम्र होकर कहा कि आप गुरुजन विद्वान लोग मुझ जैसे निपट गवार अशिक्षित व्यक्ति को शर्मिन्दा न करें। उन्होंने कहा कि आप लोग शिक्षा के बारे में गंभीर चिन्तन करें और प्रताप स्वयं बाहर जाकर विद्यार्थियों को अनुशासनबद्ध करेंगे। ऐसा कहकर प्रताप कॉलेज मंच की ओर चल दिए। उनके आते ही विद्यार्थियों का झगड़ा रुक गया और महादेव के इशारे पर प्रताप जिन्दाबाद के नारे लगने लगे। प्रताप ने मंच पर खड़े रहकर अपना भाषण प्रारंभकिया। उन्होंने कहा कि आज विद्यार्थी वर्ग के पास असीम शक्ति है और देश का नवनिर्माण विद्यार्थियों के हाथ में है। उन्होंने वचन दिया कि कॉलेज की नई इमारत में एक शानदार व्यायामशाला भी खुलवाई जाएगी, जहाँ विद्यार्थी खूब मन लगाकर दंड पेल सकेंगे। उन्होंने कहा कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ विचारों का जन्म होता है-और उसके आगे का भाषण हिन्दुस्तानी कुश्ती के दाँव-पेंच पर एक लंबे-चौड़े शोधपत्र की तरह था।

उनके हर वाक्य पर ताली पड़ने लगी और विद्यार्थियों का उत्साह खूब बढ़ गया। शिक्षा समिति के सदस्यों ने प्रताप का जलवा अपनी आँखों से देखा और यह निश्चय किया कि वह ही इस समिति के अध्यक्ष पद के लिए सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हैं। इस तरह शांति सदन महाविद्यालय की तरक्की में नया दौर शुरू हुआ। दरअसल इस तरह पूरे देश में शिक्षा के सारे केंद्र अखाड़ों में बदलते रहे और मंत्री लोग सदन में शिक्षा प्रगति पर भाषण झाड़ते रहे। आजाद भारत में सार्थक शिक्षा का घोर अभाव रहा, जिसके कारण भ्रष्टाचार पनपा। दरअसल पूरे देश में शिक्षा के नाम पर एक किस्म की नौटंकी चलती रही।

शास्त्रीजी के साथ ही गरिमा और नैतिक मूल्य शांति सदन से बिदा हो गए। श्यामसुंदर ने उच्च शिक्षा की सुविधा के लिए पवित्र उद्देश्य से संस्था का प्रारंभ किया था, परन्तु मात्र नेक इरादों से कुछ नहीं होता। वे अपने सपने को साकार करने की जल्दी में थे और साधन के अपवित्र होने की उन्हें चिन्ता नहीं थी। शिक्षा संस्था का अनुदान राजनीतिक सत्ता के कब्जे में था और आधी-अधूरी तनख्वाह लेते-लेते लंबा समय गुज़र गया था। प्रताप के पदार्पण से सत्ता के सारे द्वार उनके लिए खुल गए। वे एक लोकप्रिय प्राचार्य थे और विद्यार्थियों को पढ़ाने के साथ ही उनके साथ टेबल टेनिस और क्रिकेट खेलते भी थे। अपने छात्रों के साथ उनका दोस्ताना था और धीरे-धीरे उन्हें लोकप्रियता का नशा चढ़ने लगा। दरअसल आजाद भारत के हर क्षेत्र में लोकप्रिय फैसले लिये गए, जो देश को कमजोर बनाते थे। महानगरों की पुरानी शिक्षण संस्थाओं में गंभीर रूप से पढ़ाई होती रही परन्तु छोटे नगरों और कस्बों में शिक्षा के नाम पर हुड़दंग चलता रहा। इसीलिए शिक्षा के लाभ से बड़े व्यापक क्षेत्र अछूते रहे। शिक्षा में ट्यूशनबाजी, परचा आउट कराना, नकल कराना, नंबर बढ़ाना इत्यादि काम चलते रहे और एक विराट नौटंकी का उदय हुआ। इसने देश की युवा ऊर्जा को लील लिया। श्यामसुंदर नायक के रूप में शिक्षा के मंच पर उभरे थे परन्तु सस्ती लोकप्रियता के चक्कर में वे विदूषक बन गए। समाज के हर क्षेत्र में नायक कालांतर में अपना ही कैरीकेचर बन गए।