शिक्षा का तबेला और एक जुआखाना / दराबा / जयप्रकाश चौकसे
जयप्रकाश चौकसे
बुरहानपुर बोहरा धर्म के लोगों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण शहर है और दुनिया भर के बोहरे जियारत करने इस शहर में आते रहे हैं। 1905 में बुरहानपुर में ताप्ती नदी के किनारे हकीमिया स्कूल की स्थापना हुई थी। उस समय भारत में अंग्रेजी की पढ़ाई को बमुश्किल साठ साल हुए थे। बोहरों ने ही नगर के दूसरे भाग में कादरिया स्कूल की स्थापना की। शहर के बाहर सरकार द्वारा स्थापित रॉबर्टसन स्कूल अपनी शैक्षणिक और खेल-कूद की परम्पराओं के कारण बहुत प्रसिद्ध था। आजादी के बाद इसका नाम बदलकर सुभाष हाईस्कूल कर दिया गया। इन तीनों स्कूलों में विद्यार्थी मध्यम और अमीर वर्ग से आते थे। शहर के पश्चिम में निम्न वर्ग से आए छात्रों के लिए भारत स्कूल की स्थापना की गई थी। बुरहानपुर के शिक्षा इतिहास में हकीमिया स्कूल मुस्लिम अलीगढ़ विश्वविद्यालय की तरह विकसित हुआ और सुभाष हाईस्कूल बनारस के हिन्दू विश्वविद्यालय की तरह था। इन दोनों स्कूलों में दाखिले के समय जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाता था। खेल के मैदान इन स्कूलों की प्रतिस्पर्धा कमोबेश भारत-पाकिस्तान के बीच खेले गए हॉकी या क्रिकेट मैच की तरह होती थी और शहर के काफी लोग इनके मैच देखने आते थे। सुभाष हाईस्कूल के पास अनेक खेल सुविधाएँ थीं और दो शिक्षकों को केवल खेल व्यवस्था तथा कोचिंग के लिए नौकरी दी गई थी। हॉकी, क्रिकेट और फुटबॉल के लिए जहीरूद्दीन सिद्दीकी तैनात किए गए थे। और कबड्डी, खो-खो, कुश्ती तथा आट्या-पाट्या के लिए तैनात किए गए थे भागचंदजी। जहीरूद्दीन सिद्दीकी अंग्रेजों की तरह कपड़े पहनते थे और उनके पास हैट का भी अच्छा-खासा संग्रह था। खेल के मैदान पर वे अपनी छड़ीनुमा कुर्सी साथ ले जाते थे जिसका नुकीला सिरा ज़मीन में गढ़ जाता था और ऊपरी हिस्से के दोनों परतें खुल जाती थीं जिस पर जहीर साहब विराजमान होते थे। उनके सारे कपड़े और नेकटाई मैचिंग कलर की होती थीं। वह बहुत नफ़ासत पसंद और करीने से जीने वाले व्यक्ति थे। उनका ख्याल था कि हमेशा सीधे बल्ले से खेला जाए और फारवर्ड डिफेंस के प्रति उनका आग्रह इतना प्रबल था कि सुभाष स्कूल के किसी भी खिलाड़ी ने कभी बैकफुट पर जाकर नहीं खेला। वे क्रिकेट के शास्त्रीय ढंग के प्रशिक्षक थे। मैटिंग ठोंकने से लेकर बल्ले को तेल पिलाकर सीजन तक करने की बात हर खिलाड़ी को सीखनी पड़ती थी। उस जमाने में उन्होंने हकीमिया स्कूल के अल्ताफ को 'चकर' घोषित कर प्रतिबंधित किया था। प्रशिक्षण के समय बल्लेबाज फारवर्ड डिफेन्स करते हुए गेंद छोड़ देता था, तो ज़हीर साहब कहते कि क्या बल्ले में सुराख हो गया है। जब ज़हीर साहब टीम लेकर चार दिन के लिए खंडवा जाते थे, तब उनके व्यक्तिगत सामान के दो बड़े ट्रंक उनके साथ जाते थे।
सुभाष हाईस्कूल में अनेक शिक्षकों का व्यक्तित्व अनूठा था। सबसे अधिक जादुई असर हकीम साहब का था जिनके पढ़ाए पाठ को उनका कोई विद्यार्थी कभी नहीं भूल पाता था। उन्होंने शिक्षा की मनोरंजक शैली विकसित की थी। उनकी लोकप्रियता का यह आलम था कि सुबह छः बजे की सैर में उनके साथ दस-बीस विद्यार्थियों का हुजूम साथ चलता था।
श्यामसुंदर ने हिसलॉप कॉलेज नागपुर से राजनीति में एम.ए. किया था और वकालत की परीक्षा भी पास की थी। वे समाजवादी रतनचंद के खास सलाहकार थे। उन्हें काला कोट पहनकर अदालत जाना पसंद नहीं था। उन्होंने हकीमिया कॉलेज में शिक्षक की नौकरी कर ली और खेल-कूद के प्रशिक्षक बन गए। अल्ताफ को 'चकर' घोषित करने पर वे जहीर साहब का ज्यादा विरोध नहीं कर पाए क्योंकि जहीर साहब उनके भी प्रशिक्षक रह चुके थे। इन तीनों स्कूलों में विद्यार्थियों की कई पीढ़ियाँ पढ़ती आई हैं।
कृष्ण ने श्यामसुंदर से प्रार्थना की कि वे उनके भाई रसिक को नागपुर ले जाकर हिसलॉप कॉलेज में दाखिला करा दें। नागपुर से लौटते समय श्यामसुंदर के मन में विचार आया कि बुरहानपुर में कॉलेज खोला जाना चाहिए क्योंकि अनेक विद्यार्थी हर वर्ष बाहर जाते हैं और शिक्षा पर खर्च मध्यम वर्ग कैसे सहन कर सकता है। उन्होंने कई विद्यार्थियों के दाखिले बाहर कराए थे और उच्च शिक्षा प्राप्त कर बुरहानपुर लौटने वाले अनेक लोगों को वे जानते थे। उन्होंने हकीमिया के प्रबंधकों से निवेदन किया कि वे सुबह सात से ग्यारह बजे कुछ कमरे उच्च शिक्षा के लिए उन्हें नाममात्र किराए पर दें। सहृदय प्रबंधकों ने उन्हें मुफ्त में सहूलियत दे दी। श्यामसुंदर ने अपनी तरह बुरहानपुर के कुछ एम.ए. पास लोगों से सहयोग लिया और समाजवादी नेता रतनचंद की अध्यक्षता में शांति सदन शिक्षा समिति का गठन किया। दस विद्यार्थियों के साथ शांति सदन कॉलेज का प्रारंभ हुआ। शहर के पढ़े-लिखे लोगों से किताब दान में ली गईं। प्राचार्य श्यामसुंदर और सहयोगियों ने मुफ्त में पढ़ाना शुरू किया। श्यामसुंदर सुबह सात से ग्यारह बी.ए. भाग एक के विद्यार्थियों को पढ़ाते थे और दोपहर में वेतन के लिए स्कूल की मास्टरी भी करते थे। उनके प्रगतिशील विचार वाले परिवार ने इस कदम का स्वागत किया परन्तु अमीर घर से आई उनकी मगरूर और जाहिल औरत ने इसका बहुत विरोध किया। यह भी संभव है कि वे अपनी कर्कशा पत्नी से बचने के लिए सारा समय व्यस्त रहना चाहते हों। महिलाएँ अजीबोगरीब तरीकों से कल्याणकारी कार्यों को जन्म देती हैं।
श्यामसुंदर ने अपने छात्रों द्वारा प्राइवेट छात्रों की हैसियत से आगरा विश्वविद्यालय की परीक्षा के फार्म भरवाए और उन्हें लेकर परीक्षा दिलाने इंदौर ले गए। शत-प्रतिशत सफलता अर्जित करने के कारण अगले वर्ष विद्यार्थियों की संख्या बढ़ गई। उस समय भारत में बहुत कम विश्वविद्यालय थे और आगरा के क्षेत्र में उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के सारे कॉलेज आते थे। सागर के डॉ. हरिसिंह गौर ने ताउम्र लंदन के प्रीव्ही कोर्ट्स में मुकदमे लड़कर बहुत धन कमाया था। उनका रहन-सहन इतना किफायती था कि उन्हें कंजूस माना जाता था। सारी उम्र की संचित कमाई लगाकर उन्होंने सागर विश्विद्यालय की स्थापना की और आगरा विश्वविद्यालय के क्षेत्र को छोटा कर दिया। अनेक लोगों का आग्रह था कि वे अपनी संस्था को गौर विश्वविद्यालय कहें परन्तुउन्होंने इन्कार कर दिया। नेहरू का विरोध करके डॉ. द्वारकाप्रसाद मिश्र ने राजनीति से संन्यास ले लिया और वे सागर विश्वविद्यालय के कुलपति बने।
श्यामसुंदर भी नेहरू विरोधी थे और बहुत मेहनत करके उन्होंने शांति सदन को सागर से मान्यता दिला दी। 1 नवम्बर 1956 को नवनिर्धारित मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल घोषित हो गई। श्यामसुंदर ने सरकारी अनुदान के लिए भोपाल के अनेक चक्कर लगाए और महसूस किया कि समाजवादी रतनचंद के अध्यक्ष रहते सरकारी अनुदान पाने में कठिनाई होगी। संकीर्ण राजनीति का उदय हो चुका था और मतभेद का अर्थ दुश्मनी मान लिया गया था। जब रतनचंद को यह बात मालूम पड़ी तो उन्होंने सहर्ष त्यागपत्र दे दिया। वे अत्यंत सरल स्वभाव के फक्कड़ आदमी थे और राजनीति के लिए आवश्यक छल कपट से अनभिज्ञ थे। यह बात अलग है कि उनके पास कोई राजनीतिक समझ भी नहीं थी। बनारस से आकर बुरहानपुर की जड़ियावाड़ी में बसे वैद्य शास्त्रीजी प्रसिद्ध नाड़ी विशेषज्ञ थे और उनके रोग निदान की ख्याति कई कोसों तक फैली थी। शास्त्री रोगी को प्रातः बिना कुछ खाए-पिए नाड़ी निदान के लिए बुलाते थे। आयुर्वेद पर अविश्वास करने वाला एक चतुर सुजान मात्र दो चम्मच पोहे खाकर पहुँचा। शास्त्रीजी ने नाड़ी देखकर कह दिया कि वह भूखे पेट नहीं आया है और झूठे आदमी का इलाज वे नहीं करते। ऊँची कदकाठी के सुंदर व्यक्तित्व वाले शास्त्रीजी हमेशा सफेद कपड़े पहनते थे और निष्पाप जीवन व्यतीत करते थे। उन्होंने एक वाचनालय की स्थापना भी की थी। वे किसी भी राजनैतिक दल से नहीं जुड़े थे। श्यामसुंदर ने शास्त्रीजी से निवेदन किया कि वे शांति सदन शिक्षा समिति की अध्यक्षता ग्रहण करें। शास्त्री के आते ही संस्था में उच्च नैतिक मूल्यों की स्थापना हुई। शिक्षा की नब्ज पर शास्त्रीजी की पकड़ जम गई।
नागपुर के हिसलॉप कॉलेज के हॉस्टल में रसिक का कमरा पूरी होस्टल की राजधानी की तरह था। यहाँ हर आगंतुक का दिल खोलकर स्वागत किया जाता था। रसिक महफिलबाज विद्यार्थी थे। उनके कमरे में किताबों से ज्यादा इत्र और सुगंधित तेलों की बोतलें होती थीं। चेहरे पर लगने वाली कई तरह की क्रीमें होनी थीं। रसिक ने अपने खर्चे से कमरे में एक बड़ा आईना लगा रखा था। शीशम की लकड़ी की फ्रेम में बेल्जियम का शीशा लगा था। क्लास में जाने से पहले रसिक बाबू को सजने-सँवरने में एक घंटा लगता था। कॉलेज से वे मध्यांतर के पहले ही अपने कमरे में आ जाते थे और मध्यांतर के बाद पहला पीरियड समाप्त होने पर ही कक्षा में प्रवेश करते थे। मध्यांतर के बाद उनके कपड़े बदले हुए होते थे और कपड़ों से मेल खाते हुए जूते होते थे। कॉलेज में सब उन्हें रंगीला रसिक के नाम से बुलाया करते थे। उनके कपड़े की चमक-दमक से क्लास में रोशनी हुआ करती थी। रसिक अपने नाम के अनुरूप बहुत शौकीन मिजाज युवक थे। वह जमाना ऐसा था जब विद्यार्थी या तो पढ़ने-लिखने में अव्वल होता था या खेल-कूद में प्रवीण होता था। लोकप्रिय होने का तीसरा तरीका रसिक की अपनी मौलिक इजाद थी। पढ़ने-लिखने में उसकी रुचि नहीं थी और खेल-कूद को वह वहशी समझता था। उसके लिए नजाकत मजहब की तरह थी। खिलाड़ियों के शरीर से उसे पसीने की दुर्गन्ध आती थी। वह मेहनती विद्यार्थियों की कद्र किया करता था, क्योंकि ऐसे लोगों की बातचीत से वह दो-चार वाक्य उठा लिया करता था। उसका ख्याल था कि ज्ञान के सागर में गोते लगाने से बेहतर है कि दो-चार खूबसूरत वाक्यों के चप्पू अपने हाथ में हों।
रसिक बाबू का हर अंदाज निराला होता था। वे ट्यूशन पढ़ने जिस शिक्षक के घर जाते थे उस शिक्षक की पत्नी से उन्होंने दोस्ती कर ली। अपने पैसे से प्रोफेसर साहब के घर को अपनी रुचि अनुसार सँवार लिया। रसिक बाबू प्रोफेसर की पत्नी के साथ किचिन में उनके कामकाज में सहायता भी करते थे। उन्होंने अपनी परम आदरणीय भाभी को आलू काटना और प्याज काटना सिखाया। इस तरह घर घुसे हुए थे कि उन्हें परिवार का अंग ही समझा जाता था। इसी कारण प्रोफेसर साहब कक्षा में उनके प्रति कभी सख्त नहीं हो पाए। प्रोफेसर साहब यह बात भलीभांति जानते थे कि रसिक मन का बुरा नहीं है और ये सारे घरेलू कामकाज वह अपने शौक से कर रहा है और उनकी पत्नी पर डोरे डालने का उसका कोई इरादा नहीं है। प्रोफेसर साहब ने दुनिया देखी थी। उन्हें रसिक का मन पढ़ने में देर नहीं लगी। रसिक तामझाम, तौर-तरीकों और दिखावट का बहुत शौकीन था। वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में खतरनाक साबित नहीं हो सकता था। प्रोफेसर साहब को लगता था कि रसिक डालडा कान्हा है। उन दिनों भारत में डालडा घी का उदय हुआ था। पवित्रतावादी और शुद्ध के प्रति आग्रह रखने वाले लोग डालडा वनस्पति घी से बहुत चिढ़ते थे। उस समय यह कल्पना करना कठिन था कि एक दिन शुद्ध डालडा भी नहीं मिल पाएगा। निम्न मध्यम वर्ग के लिए डालडा शुद्ध का विकल्प था, परन्तु असल माल के चाहने वाले डालडा को बहुत नफरत की निगाह से देखते थे। इसलिए उस जमाने में डालडा संस्कृति, डालडा नाटक और डालडा मनुष्य जैसे विशेषण बहुत प्रयोग में आते थे। रसिक उन आदमियों में से थे जिन्हें इस बात की परवाह नहीं थी कि अच्छी-खासी नींद आए परंतु वे इस बात से चिंतित रहते थे कि बिस्तर पर लगाई गई शानदार चादर पर ज्यादा सलवटें नहीं आनी चाहिए। रसिक उन लोगों में से था जो मीठे सपने देखने से बेहतर इस बात को समझते थे कि तकिए के गिलाफ पर गुडनाइट कढ़ा हुआ होना चाहिए। रसिक को इस बात की फिक्र होती थी कि जूतों पर बढ़िया पालिश हो, भले ही वह पैरों को काटता हो। रसिक अच्छा दिखने और अच्छा व्यक्ति माने जाने के लिए कुछ भी परिश्रम करने को तैयार था। उसे सचमुच अच्छा होने की कोई चिन्ता कभी नहीं सताती थी। उसे असली दोस्तों की तलाश नहीं थी, बल्कि वह उन चाटुकारों से घिरा रहना पसंद करता था जो उसकी हर अदा पर वाह-वाह करें।
कृष्ण के सगे छोटे भाई का नाम लक्ष्मण था। बचपन से ही वह अपने बड़े भाई का बहुत अधिक आदर करता था। उसके बड़े भाई राम भले ही न हों, परंतु वह सचमुच में लक्ष्मण था। बचपन से ही कृष्ण जो कुछ भी कहता, जवाब में लक्ष्मण हमेशा कहता 'जो हुकुम'। उसके इस आदर के कारण बचपन में कई लोग उसे जो हुकुम के नाम से पुकारने लगे। कृष्ण को अपने भाई का नाम बिगाड़ा जाना जरा भी पसंद नहीं था। यही कारण है कि बड़े होने पर उन्होंने जो हुकुम पर सख्त पाबंदी लगा दी। बड़े भाई लक्ष्मण को राबर्टसन कॉलेज जबलपुर भिजवाना चाहते थे, परंतु लक्ष्मण का मित्र जीवनलाल का दाखिला इरविन क्रिश्चियन कॉलेज इलाहाबाद में हुआ था। उसने अपने भाई कृष्ण से प्रार्थना कर अपना दाखिला भी इलाहाबाद के कॉलेज में करा लिया। कृष्ण को भी लगा कि ठेकेदार बसंतलाल के लड़के जीवनलाल की संगत में लक्ष्मण खूब पढ़-लिख लेगा।
नेहरू के जन्म स्थल इलाहाबाद में शिक्षा का बहुत अच्छा वातावरण था। शायर फिराक गोरखपुरी और हरिवंशराय बच्चन जैसे प्रसिद्ध कवि इलाहाबाद में शिक्षक थे। जीवन और लक्ष्मण ने अपने घर वालों की आज्ञा के अनुसार साइंस विभाग में दाखिला लिया, परंतु कक्षा में पढ़ाए जाने वाली सारी बातें उनकी समझ से बाहर थीं। बुरहानपुर में हिन्दी माध्यम में शिक्षा पाने वाले ये विद्यार्थी इलाहाबाद की विज्ञान कक्षाओं में अपने आपको अजनबी पाते थे जहाँ अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाया जाता था। उन दिनों इलाहाबाद में कवि सम्मेलन होते थे, नाटक होते थे और कला के नवजागरण का समय था। कक्षाओं से निराश जीवन और लक्ष्मण इन गोष्ठियों में समय व्यतीत करने लगे। सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा का नगर इलाहाबाद भारत की साहित्यिक राजधानी था। धार्मिक लोग त्रिवेणी पर स्नान करने के लिए आया करते थे और साहित्य के पुजारी महाकवियों के दर्शन के लिए इलाहाबाद आते थे। हिन्दुस्तान के सारे शहरों से लोग अस्थियों के विसर्जन के लिए गंगा के किनारे बसे इलाहाबाद नगर में प्रवेश किया करते थे। पंडों की दुकानदारी जमी-जमाई थी। इलाहाबाद के नाइयों के बारे में मशहूर था कि वे अधिक से अधिक ग्राहकों को बुक करने के लिए एक की दाढ़ी पर साबुन लगाया करते थे और दूसरे ग्राहक की आधी हजामत बनाकर तीसरे ग्राहक पर शुरू हो जाते थे। जीवनलाल और लक्ष्मण रोज शाम को हवाखोरी के लिए गंगा के किनारे आया करते थे। उनके मन में यह विश्वास घर कर गया था कि विज्ञान की पढ़ाई उनके बस की नहीं है, परंतु वे अपने घरवालों को सच बताने से डरते थे।
बुरहानपुर में श्रद्धा का जो स्थान उसने अपने बड़े भाई कृष्ण को दिया था, इलाहाबाद में श्रद्धा का वही स्थान उसने जीवन को दिया। जीवन उसे महान कवियों की कविता पढ़कर उसका अर्थ समझाया करता था। लक्ष्मण साहित्य और जिन्दगी के इस सेकंडहँड ज्ञान से बहुत खुश था। जीवन और लक्ष्मण के स्वभाव में जमीन-आसमान का अंतर था और इस अंतर के बावजूद वे एक-दूसरे के अनन्य मित्र थे। ताप्ती के किनारे से मित्रता शुरू हुई थी और गंगा के किनारे प्रगाढ़ हुई और इसका सिलसिला जीवनपर्यन्त चलता रहा। इन दोनों की मित्रता को प्रायः लोग उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत किया करते थे। इलाहाबाद में पढ़ने और न पढ़ने का ये सिलसिला तीन वर्ष तक जारी रहा और उसके बाद रिजल्ट के नाम पर पास या फेल दिखाना संभव नहीं था। इसलिए दोनों वापस बुरहानपुर आ गए। उन्होंने इलाहाबाद में ही तय कर लिया था कि दोनों मिलकर कोई व्यवसाय करेंगे। लक्ष्मण जब अपनी शिक्षा का स्वांग पूरा कर बुरहानपुर लौटे, तो लंगड़ दुलीचंद ने उनको अपनी दुर्दशा बताई। लक्ष्मण के मन में अपने इस नाना के प्रति कोई विशेष सहानुभूर्ति नहीं थी, परंतु उनकी दुर्दशा का वर्णन सुनकर उसके मन में भैंसों का धंधा करने का विचार जागृत हुआ।
उसी दिन शाम को ताप्ती के किनारे हवाखोरी करते समय लक्ष्मण ने भैंसों के धंधे की बात जीवन को सुझाई। उसी शाम ये तय किया गया कि लक्ष्मण पूँजी लगाएगा और जीवन डेरी फार्म पर परिश्रम करेगा। दोनों के बीच बराबर की भागीदारी तय हुई। अगले दिन सुबह लक्ष्मण ने अपने भाई कृष्ण से डेरी फार्म के लिए पैसा उधार माँगा। कृष्ण ने कहा कि उसकी यह हार्दिक इच्छा थी कि उसका भाई पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बने, परंतु उसने तय कर लिया है कि वह व्यवसाय करेगा, तो वे हर तरह से उसकी मदद करने को तैयार हो गए। उन्होंने लक्ष्मण और जीवन को एक साथ बैठाकर यह समझाया कि पैसा उधार लेकर धंधा करने से बेहतर ये है कि वे उन्हें भविष्य में प्राप्त होने वाले दूध के एवज में बिना किसी ब्याज के अग्रिम राशि प्रदान करें। जो काम मिठाई के दुकान के लिए लंगड़ दुलीचंद करते थे वही काम ये दोनों दोस्त करें। दोनों ही नौसिखिए नौजवानों को लगा कि कृष्ण ने उन्हें कर्ज से और सूद से बचा लिया है। लक्ष्मण को तो अपने राम जैसे भाई कृष्ण पर सदैव से ही विश्वास था। कृष्ण से अग्रिम पूँजी लेकर दोनों दोस्त भैंसें खरीदने के लिए इंदौर पहुँचे। जीवन ने अपनी आदत के अनुसार एक विशाल वैज्ञानिक डेरी फार्म की परिकल्पना कर डाली और आदत के अनुसार लक्ष्मण ने जो हुकुम फरमाया। कुछ दिन के लिए इंदौर रुके और उन्होंने भैंसों के बारे में ज्ञान एकत्रित करना प्रारंभ किया। दस भैंसें खरीदकर दोनों मित्र बुरहानपुर आए। म्युनिसिपल कमेटी के दफ्तर से थोड़े दूरी पर उन्होंने भैंसों के लिए किराए का एक बाड़ा लिया। शुरू के सालों में व्यवसाय अच्छा चला। सारा दूध मिठाई की दुकान पर जमा कर दिया जाता था। इसी दूध के दाम से कृष्ण की दी हुई अग्रिम राशि धीरे-धीरे चुकने लगी। शहर के बीच में बसे हुए अपने डेरी फार्म से जीवन खुश नहीं था। उसके मन में विशाल डेरी फार्म की योजना हिलोरें ले रही थी। उसने लक्ष्मण से कहा कि शहर के शोर-शराबे में भैंसों का मन नहीं लगता और इसी कारण वे अपनी क्षमता से कम दूध देती है। जीवन की यह विशेषता थी कि वह साधारण बात भी बड़ी फिलासफी के अंदाज में किया करते थे। उसने भैंसों के स्वभाव पर अच्छा-खासा भाषण दे डाला और जो हुकुम लक्ष्मण इस बात से बहुत प्रसन्न थे कि उन्हें अरस्तू जैसा दार्शनिक भागीदार मिला है।
शहर से 15 किलोमीटर दूर दहीनाला नामक जगह पर उन्होंने अपने सपनों के डेरी फार्म के लिए सरकारी जमीन लीज पर ली। जीवन का ख्याल था कि जंगल में डेरी फार्म लगने से भैंसों पर चारे का खर्च कम आएगा। उनके मैनेजर मुंशीलाल ने कहा कि दहीनाला से शहर तक दूध लाने के लिए पेट्रोल पर जो खर्च होगा उससे कम धन में भैंसों के लिए चारा खरीदा जा सकता है। जीवन और लक्ष्मण ने होश से धंधा करना सीखा ही नहीं था। वे हर काम जोश से किया करते थे। दहीनाला से शहर तक दूध लाने के लिए एक पुरानी मोटरगाड़ी खरीदी गई। इस गाड़ी के लिए एक ड्राइवर रखा गया जिसकी कदकाठी और रूप रंग कुछ ऐसा भयावह था कि जब वह कार से बाहर निकलता था तो ऐसा लगता मानो कार का इंजन ही बाहर आ गया हो। कृष्ण ने उनको समझाया कि पुरानी गाड़ी खरीदना और चुनाव लड़ना एक जैसी बेवकूफी के काम हैं। जीवन स्वप्नदर्शी और कल्पनालोक का प्राणी था और लक्ष्मण की व्यावसायिक बुद्धि अभी सुषुप्तावस्था में थी। उसके जीवन में जो हुकुम का दौर अभी अपने बसंत पर था। दहीनाला का नाम दहीनाला इसलिए नहीं पड़ा कि वहाँ इन दो नातजुर्बेकार जवानों ने दूध का धंधा शुरू किया था, बल्कि इसलिए पड़ा था कि उसमें बहने वाले पानी का रंग कुछ-कुछ दही जैसे था। यह बात कमोबेश वैसे ही है जैसे कि गंगोत्री से निकलने वाली श्वेत धारा। कुछ लोगों का ये अनुमान है कि गंगोत्री पर गंगा का जल बहुत निर्मल और स्वच्छ होता है परंतु सच्चाई तो यह है कि गंगोत्री पर गंगा मटमैली-सी रहती है। पहाड़ों पर से गुजरने के बाद जब पानी नीचे आता है तब स्वच्छ और निर्मल होता है। कथा में दहीनाला पुराण और गंगोत्री का जिक्र इसलिए किया गया कि हम पाठकों को बता सकें कि दहीनाला पर डेरी क्यों असफल रही। भैंसों ने दहीनाला का पानी पसंद नहीं किया और उन्होंने शहर की अपेक्षा यहाँ दूध देना लगभग बंद कर दिया। इस झटके से भी जीवन के दिमाग से सपनों के भव्य डेरी फार्म का सपना नहीं टूटा और उसने दहीनाला के जल में कैमिकल होने की नई थ्योरी प्रतिपादित की जो कि जो हुकुम लक्ष्मण ने स्वीकार कर ली। उतावली नदी के किनारे एक टूटी-फूटी सदियों पुरानी सराय जीवन को बहुत पसंद आई और उसे लगा कि इन्हीं खंडहरों में सपनों का डेरी फार्म रखा जा सकता है। सरकार से 33 सालों के लिए वह सराय किराए पर ली गई। इस सराय में एक नाली बनाई गई जो सभी भैंसों के कक्षों के सामने से गुजरती थी। एक इंजिन द्वारा पानी खींचकर ये अपनी नालियों में बताया करते थे ताकि हर भैंस इच्छानुसार पानी पी सके।
कृष्ण और लक्ष्मण के उम्र के बीच सिर्फ एक साल का अंतर था, परंतु लक्ष्मण और कैलाश के बीच लगभग पाँच साल का अंतर था। कैलाश जो हुकुम लक्ष्मण के स्वभाव के विपरीत विद्रोही था। माली परिवार का ये लड़का बहुत तेज तर्रार स्वभाव का था और किसी भी मूल्य को अमान्य करने में उसे बहुत आनंद आता था। महेश के जीवनकाल में बड़ी माँ प्रायः कैलाश की उद्दंडता की बात महेश से करती थी। महेश ने बात हमेशा हँसकर टाल दी, परंतु कृष्ण के लिए यह संभव नहीं हो रहा था। कृष्ण के लाख प्रयास करने पर भी कैलाश ने नियमित रूप से कोई पढ़ाई नहीं की। सच तो यह है कि कैलाश का मन मिठाई की दुकान पर भी नहीं लगता था। बिगड़ैल कैलाश को अनुशासन में लाने के लिए उस जमाने का सटीक नुस्खा अर्थात् विवाह आजमाया गया। कृष्ण का विवाह हो चुका था, परंतु लक्ष्मण से पहले ही कैलाश का विवाह जबरन कर दिया गया। कृष्ण ने मध्यम वर्गीय परिवारों का पैतरा लगाया और अपनी पत्नी की छोटी बहन से कैलाश का विवाह करा दिया। उसका अनुमान था इस तरह के विवाह के बाद कैलाश जैसे घोड़े की लगाम उसके हाथ होगी। कृष्ण का सारा खेल इस बात पर निर्भर करता था कि उनका कोई भी सगा या सौतेला भाई जायदाद में बँटवारे की बात न करे। इस योजना के तहत वे उच्च शिक्षा का जाल फेंक चुके थे, परंतु कैलाश तो उस तेज तर्रार मछली की तरह था जो जाल को ही खींचकर ले जाती है। स्कूल में कैलाश का सबसे अच्छा मित्र था विसाल खाँ रफीक। उस जमाने में हर कक्षा में दो तरह के दल हुआ करते थे-एक पढ़ने वाले लड़कों का और दूसरा खिलाड़ियों का। सुभाष हाईस्कूल के इतिहास में कैलाश पहला लड़का था जिसने तीसरे प्रकार का दल बनाया। इस दल में वे सब लोग शामिल हुए जो न ही पढ़ने में अच्छे थे और न ही खेलने में। शरारती लड़कों का ये दल लड़कियों को छेड़ने में निपुण था। विसाल खाँ रफीक मुसलमान होते हुए भी ब्राह्मण का लड़का दिखाई देता था। उसके चेहरे पर मासूमियत का भाव टपकता रहता था। वह इस कदर शक्तिहीन और बचाव रहित दिखाई पड़ता था कि लोगों की इच्छा होती थी कि उसे उसके अदृश्य और गैरमौजूद आक्रमणकर्ता से बचाएँ। स्कूल की जो लड़कियाँ किसी भी लड़के को घास नहीं डालती थीं, वे विसाल खाँ के साथ बहुत ही प्रेम से पेश आती थीं। दरअसल विसाल खाँ एक कसाई का बेटा था, परंतु उसके मन में शायरी के लिए जबर्दस्त कशिश थी।
एक बार कैलाश, विसाल को अपने घर ले गया और उसने उसे न्ड़ी माँ से मिलाया, परंतु उसका असली नाम नहीं बताया। बड़ी माँ को विसाल बड़ा प्यारा लगा और उसकी निरीहता देखकर उनका जी चाहा कि वह बच्चे को गोद में ले लें। कोई आश्चर्य नहीं अगर विसाल खाँ के चेहरे को देखकर बड़ी माँ की छाती में दूध छलक आया हो। बहुत कम उम्र में ही विसाल खाँ अपनी निरीहता की ताकत को भाँप गया था। उसने अपनी निरीहता का भरपूर लाभ उठाया। शिक्षक के क्रोध से विसाल खाँ को बचाने के लिए लड़कियाँ आगे आ जाया करती थीं। जिस समय कैलाश की शादी हुई उस समय विसाल खाँ के पिता कल्लू कसाई ने उन्हें स्कूल से उठाकर अपनी दुकान पर बैठा दिया था और विसाल खाँ को कीमा कूटने की शिक्षा दी जा रही थी। विसाल खाँ यह बात जान गया था कि उसकी निरीहता का जादू उसके पिता कल्लू खाँ कसाई पर नहीं चल सकता। वह यह भी जानता था कि पढ़ाई-लिखाई उसके बस के बाहर की चीज है, पर कीमा कूटते हुए जीवन बिताना उसके लिए असंभव है। इस नियति से बचने के लिए उसने एक दिन बेइंतिहा हिम्मत दिखाई। उसने कीमा काटते काटते अपने बाएँ हाथ की उँगली काट दी और लोगों को लगा कि कमउम्र में मासूम से बच्चे को ऐसा काम देने के कारण ही दुर्घटना हुई है। इस दुर्घटना को देखकर कसाई कल्लू खाँ की रूह कांप गई। कल्लू खाँ ने साफ-साफ यह बात देखी थी कि यह महज दुर्घटना नहीं थी, बल्कि उनके अपने बेटे ने जान-बूझकर अपनी उँगली शहीद की है। दुर्घटना के पहले वे अपने बेटे के आलसी स्वभाव पर बहुत छींटाकशी कर चुके थे और उन्होंने यह भी कहा था कि मिठाई वालों की संगत एक कसाई वाले को शोभा नहीं देती। कल्लू खाँ ने यह भी धमकी दी थी कि उसे जीवनभर कीमा कूटना होगा और दुनिया की कोई ताकत उसे इस खानदानी पेशे से बचा नहीं सकती। विसाल खाँ के निरीह चेहरे पर एक मुस्कुराहट थी और इस मुस्कुराहट की धार के आगे कल्लू की सारी छुरियाँ बेकार थीं। कल्लू खाँ के लफ्जी हमले के जवाब में विसाल खाँ सिर्फ मुस्कुरा दिया। यह मुस्कुराहट कल्लू खाँ को ऐसी लगी जैसे हजार बिच्छुओं ने उसे डंक मार दिया हो। इस दुर्घटना के पहले विसाल खाँ के खाँस-खंखार कर अपने बाप का ध्यान अपनी ओर खींचा था ताकि वह साफ-साफ देख सके कि उँगली का कटना महज दुर्घटना नहीं थी, वरन विसाल खाँ का विद्रोह था।
दुर्घटना होते ही बाकी कसाइयों ने दौड़कर विसाल खाँ को अपनी गोदी में बैठाया और डॉक्टर सैयद शौकत अली के दवाखाने में ले गए। बरसों से बुरहानपुर में केवल डॉक्टर बिड़वई का नाम रौशन था। कुछ महीने पहले ही सैयद शौकत ने अपनी दुकान खोल ली और उनके कामयाब होने में किसी को शक नहीं था। अपने स्कूली दिनों में सैयद शौकत अली लेफ्ट इन की पोजिशन पर हॉकी खेलते थे और कलात्मक हॉकी के खिलाड़ी थे। हॉकी के खेल में एक तरह से सैयद शौकत अली हॉकी के जादूगर ध्यानसिंह के घराने के खिलाड़ी थे। अगर सैयद चाहते तो भारत में चोटी के हॉकी खिलाड़ी बनते परंतु उन्होंने डॉक्टर बनने का फैसला किया था और उसमें वे कामयाब भी रहे। उनकी डॉक्टरी में भी उनकी हॉकी वाली नफ़ासत कायम थी। डॉक्टर सैयद ने उन कसाइयों से कहा कि दौड़कर वे कटी हुई उँगली को ले आए और दर्जनों हैरान आँखों के सामने शौकत अली ने कटी हुई उँगली को जोड़कर सी दिया और मरहम-पंट्टी कर दी। उन्होंने लोगों को तसल्ली दिलाई कि कुछ ही दिनों मैं ये कटी उँगली फिर से जुड़ जाएगी। ऑपरेशन के समय विसाल खाँ को क्लोरोफार्म सुघाया गया था और नीम बेहोशी में भी उसके चेहरे पर दर्द की ऐंठन के बदले एक मासूम-सी मुस्कुराहट खिल गई।
उस रात कल्लू खाँ के घर पर हंगामा बरपा। उनकी बेजुबान गाय-सी बीवी शाहीदा ने उन्हें भला-बुरा कहा और ताकीद की कि उनका बेटा विसाल खाँ कभी भी कसाईखाना नहीं जाएगा। आसपास के घरों की औरतों को हैरानी थी कि शाहिदा इस तरह गुस्सा भी हो सकती है। वह सारा मामला कुछ ऐसा था कि शाहिदा कसाई नज़र आती थी और कल्लू खाँ कुर्बानी का बकरा। इस दुर्घटना के बाद काफी दिनों तक घर पर विसाल खाँ की हुकूमत चलती रही और यहाँ तक कि दुकान बंद करने के बाद भी कल्लू खाँ घर लौटने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। उन्होंने अपने खास दोस्तों को यह बताने की कोशिश की कि उनके बेटे ने जानकर अपनी उंगली काटी है पर किसी ने भी उनकी बात पर एतबार नहीं किया। सारे जमाने ने उनको गुनहगार साबित किया कि इतने मासूम से लड़के को उन्होंने कीमा काटने के लिए क्यों मजबूर किया। शाहिदा ने तो गुस्से में यहाँ तक कह दिया कि यदि कल्लू का बस चलता, तो अपने बेटे का कीमा बनाकर बेच देता।
इस दुर्घटना से विसाल खाँ को गोश्त की दुकान से निजात मिल गई और उसकी उँगली के जुड़ जाने के कारण सैयद शौकत अली की डॉक्टरी शोर-शराबे से चल गई। सभी लोगों ने यह मान लिया कि सैयद शौकत अली के हाथ में शिफा है। कैलाश को अपने दोस्त की दुर्घटना के बारे में मालूम पड़ा तो वह विसाल खाँ को मिलने के लिए उसके घर गया। विसाल खाँ ने बड़े फख्र से अपनी अम्मी से कैलाश को मिलाया। कैलाश ने झुककर अम्मी के कदम छूने की कोशिश की तो उन्होंने उसे बहुत प्यार से उठाया। बड़े प्यार से समझाया कि उसकी जैसे ऊँची जात के आदमी को एक कसाई की बीवी के पैर नहीं छूने चाहिए। विसाल खाँ को कैलाश से उस जवाब की ऐसी आशा नहीं थी जो उसने दिया। कैलाश ने कहा- "दुनिया में माँ से बेहतर कोई जात नहीं।" शाहिदा की आँखें छलछला गईं और घर के सभी लोग लाजवाब जवाब से आँसू-आँसू हो गए।
उसके बाद कैलाश का इस घर में आना-जाना शुरू हुआ और उधर मालीबाड़े में हायतौबा मच गई कि अब महेश के परिवार का धर्म नहीं बचेगा। मालीबाड़े में जितना शोर-शराबा बढ़ता गया इतना ही कैलाश की यात्राएँ विसाल खाँ के घर की ओर बढ़ने लगीं। दरअसल कैलाश को कसाइयों की उस गंदी बस्ती में जाने का कोई शौक नहीं था, परन्तु स्वभाव से विद्रोही होने के कारण अब उसने बार-बार वहाँ जाने की जिद कर ली थी। एक दिन जब कैलाश विसाल खाँ के घर पहुँचा तो विसाल खाँ की अम्मा अपने लड़ियाए हुए बेटे को अपने हाथों खाना खिला रही थी। अब कसाई के घर गोभी की सब्जी बनने से तो रही। कैलाश ने जिद की कि वह भी अम्मी के हाथ से खाना खाएगा। शाहिदा ने उसे लाख समझाया कि ये खाना उसके लिए मुनासिब नहीं होगा, परन्तु जन्मजात विद्रोही कैलाश अब कहाँ मानने वाला था। इस तरह माली परिवार के पहले लड़के ने गोश्त खाया। इस घटना के समय आत्माराम और महेश की रूह ने ऊपर जरूर बेचैनी महसूस की होगी। उस रात कैलाश के घर लौटने के पहले उसके गोश्तखोर होने की खबर उसके घर पहुँच चुकी थी। कृष्ण ने बाँसुरी के बजाय हाथ में लट्ठ उठा लिया और कैलाश की जमकर पिटाई कर दी। आनन-फानन में बात छोटी माँ के घर पर पहुँची और वे भी दौड़कर बड़ी माँ के घर आई और दोनों माताओं ने अपनी पूरी ताकत लगाकर भाइयों की महाभारत को रोका। उस रात जब कैलाश अपनी कमसिन बीवी के कमरे में पहुँचा तो बीवी ने उसे छूने से भी इन्कार कर दिया। उस षोडशी माली बहू को क्या मालूम था कि उसका ये इन्कार पूरे माली समाज का इतिहास बदलकर रख देगा।
दरअसल जीवन की अनेक घटनाएँ और मनुष्य का व्यवहार शयनकक्ष की घटनाओं से जन्म लेता है। शयनकक्ष में बच्चों से ज्यादा जन्म कुंठाओं और विकारों का होता है। कामसूत्र की रचना वाले देश में इस क्षेत्र में बला का अज्ञान है। इसे न जाने कब स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा। कैलाश ने जब गुर्राकर यह कहा कि वह सारी उम्र अपनी पत्नी को हाथ भी नहीं लगाएगा तो उसे ये महज एक धमकी लगी, परन्तु सारी जिन्दगी उसे इस हरकत को भोगना पड़ा। दूसरे दिन सुबह कृष्ण दुकान जाने के लिए तैयार हो रहे थे tru
और अपनी धोती के काष्ठे में गाँठ लगा रहे थे तब कैलाश वहाँ आ पहुंचा और बिय किसी भूमिका के उसने स्पष्ट कर दिया कि उसे जायदाद में अपना हिस्सा चाहिए। यह सुनते ही धोती की गाँठ खुल गई और कृष्ण हक्का-बक्का रह गए। पूरे परिवार और समाज ने कैलाश को समझाने की कोशिश की, परन्तु कैलाश टस से मस होने को तैयार नहीं।
कुछ लोगों ने कृष्ण को समझाया कि कैलाश अभी कानूनी तौर पर बालिग नहीं हुआ इसलिए जायदाद में हिस्सा माँगने का उसका हक नहीं है। कृष्ण ये जानते थे कि कानूनी तौर पर कुछ समय तक कैलाश को रोका जा सकता है, परन्तु इससे कड़वाहट बढ़ेगी। हिस्से बाटे के खेल में ये इतने निर्मम होना चाहते थे कि भविष्य में कोई भाई ये गलती ही न करे। कैलाश ने उसे साफ-साफ कह दिया कि उसे पूरी संपत्ति का कोई ब्योरा नहीं चाहिए। वह सिर्फ ये जानना चाहता है कि कृष्ण उसे क्या देना चाहते हैं। कृष्ण ने उन्हें बताया कि दुकान सहित सारी संपत्ति के 13 हिस्से होते हैं, उसमें दो माताएँ भी शामिल हैं। उनकी बात बीच में ही काटकर कैलाश ने उनसे कहा-कोई ब्यौरा नहीं चाहिए और न ही उसे दुकान में कोई हिस्सा चाहिए। वह सिर्फ यह जानना चाहता है कि घर से अलग होते समय उनका बड़ा भाई उसे क्या देना चाहता है? अनपढ़, अज्ञानी, मूर्ख कैलाश की इस अशास्त्रीय चाल ने कृष्ण को चारों कोने चित पटक दिया। कहाँ तो वह हिस्से बंटवारे में निर्मम होना चाहते थे और कहाँ उन्हें दरियादिल होने के लिए बाध्य कर दिया गया। मिठाई की दुकान से लगे हुए मकान का ऊपरी माला महेश ने खरीद लिया था, क्योंकि उनका पड़ोसी परेशान था परन्तु तल मंजिल नहीं बेचना चाहता था। कृष्ण ने ये ऊपरी मंजिल कैलाश को दे दी और साथ ही बड़गाँव में खरीदा हुआ 30 एकड़ का खेत भी उसे दे दिया। बड़ी माँ ने खिन्न होने के बावजूद अपने पास से इस अभागे लड़के को दस हजार रुपए की रकम दी।
कैलाश ने चौक बाजार की इस ऊपरी मंजिल पर रहना पसंद नहीं किया और अपने घर से कुछ दूरी पर एक मकान किराए पर लिया। उसने ऊपरी मंजिल पर एक खटियाछाप लॉज खोली। ऊपरी मंजिल के हॉल को उसने चार बड़े कमरों में विभाजित कर दिया और हर कमरे में चार खटिया डाल दीं। आसपास के गाँवों से आने वालों के लिए ठहरने की व्यवस्था कर दी गई। हॉल के एक कमरे में उसने किचिन बना लिया जहाँ चाय-नाश्ते की व्यवस्था की गई। आगे के हिस्से के छोटे कमरे को उसने अपना दफ्तर बना लिया और एक टेलीफोन भी लगा लिया। दरअसल बड़ी दुकान के पहले कैलाश की दुकान में फोन लग गया और कैलाश का नंबर 4 था और बड़ी दुकान का टेलीफोन नंबर 5 था। उस जमाने में बुरहानपुर में एक छोटा-सा टेलीफोन एक्सचेंज था और हर उपभोक्ता को लोकल नंबर टेलीफोन एक्सचेंज से लेना पड़ता था।
कैलाश की लॉज अच्छी चलने का कारण यह था कि वह जगह बहुत मौके की थी और एक रुपया खाट की दर महँगी नहीं थी। दरअसल कैलाश की दुकान पर कुछ सटोरिए आकर बैठने लगे। उस जमाने में रतनखत्री का मटका नहीं चलता था, वरन् अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कॉटन के जो भाव खुलते थे उन्हीं अंकों पर सट्टा खेलने की प्रथा चल पड़ी थी। मसलन कॉटन के भाव में अगर आखिरी अंक 4, 5, 6 है तो सट्टे का अंक पंजा माना जाता था, क्योंकि 4, 5, 6 का टोटल 15 होता है और सट्टे की दुनिया में 15 का अर्थ पंजा होता है। बुरहानपुर के समय के अनुसार कॉटन के अंतर्राष्ट्रीय भाव दो बार खोले जाते थे। शाम सात बजे और रात साढ़े बारह बजे। शाम सात बजे के भाव में जो अंक आता था उसे ओपन का अंक कहते थे और रात साढ़े बारह बजे वाले को क्लोज का अंक कहते थे। ओपन और क्लोज के मिलने से जोड़ी बनती थी जिसे खेलने पर एक रुपए के बदले 90 रुपए मिलते थे और खाली एक आंकड़ा आने पर एक रुपए के 9 रुपए मिलते थे। जो खिलाड़ी तीनों आंकड़े सही बता दे उसे एक रुपए के बदले 140 रुपए मिलते थे।
यह अजीबोगरीब बात है कि सट्टे के ये भाव दशकों तक वैसे के वैसे कायम रहे। फर्क सिर्फ इतना हुआ कि कॉटन के बदले रतन खत्री साढ़े आठ बजे अपने सहयोगियों के सामने ताश की गड्डी में से तीन पत्ते निकालता था और इसी तरह रात बारह बजे भी तीन पत्ते निकाले जाते थे। कैलाश की किस्मत अच्छी थी कि सट्टा खेलने से बेहतर वह सट्टे का खाई वाला बन गया। नतीजा यह था कि शहर के दो-तीन सौ लोग उसकी दुकान पर सट्टे की पर्ची कटवाकर जाते थे और दूसरे दिन जीतने वाले को उनका पैसा मिल जाता था तथा बची हुई रकम कैलाश का मुनाफा था। उन दिनों कैलाश की दुकान पर सट्टे में प्रतिदिन 4-5 हज़ार रुपए आते थे और दूसरे दिन लगभग तीन हज्जार रुपए जीतने वालों में बँट जाते थे। सट्टे की दुनिया में जीतने वाली रकम को बलन कहते हैं। इस तरह से उस जमाने में कैलाश को लगभग हज़ार रुपए रोज की बचत होने लगी। ये रकम बड़ी दुकान की तुलना में तो कुछ भी नहीं थी, परन्तु फिर भी ये अच्छी-खासी कमाई थी। कैलाश नियमित रूप से इस अवैध धंधे के एवज में पुलिस को रिश्वत खिलाया करता था। इसी रिश्वत के एवज में पुलिस की इजाजत से कैलाश की लॉज में तीन पत्ती का खेल भी शुरू हो गया। राजनीति में आने के बाद प्रताप के परकोटे के बाहर अपने जुएखाने को लगभग समाप्त-सा कर दिया था। इन परिस्थितियों में कैलाश का अड्डा ही एकमात्र अड्डा था। जुआरियों को अफसोस इस बात का था कि उन्हें भरे-पूरे चौक बाजार के रास्ते से ही कैलाश के अड्डे पर जाना पड़ता था। प्रताप के यहाँ अभी भी कभी-कभार महफिल लगती थी, परन्तु वहाँ बहुत ऊँचे पैमाने का खेल होता था जिसमें हर डील पर हजारों के वारे-न्यारे होते थे। उसके मुकाबले कैलाश का अड्डा एक मिनी अड्डा था जहाँ 40-50 रुपए लेकर भी खेलने जाया जा सकता था। हर खेली हुई डील में से कैलाश एक रुपया बतौर अड्डे की फीस के निकाल लिया करता था। जुआरियों की दुनिया में इसे नाल काटना कहते हैं। दिनभर में कैलाश के अड्डे पर कम से कम पाँच सौ डील का खेल तो होता ही था अर्थात् सट्टे और तीन पत्ते से कैलाश की कमाई डेढ़ या दो हजार रुपए रोज होने लगी।
माली समाज ने कैलाश के अवैध धंधे की जी खोलकर भर्त्सना की। छोटी माँ और बड़ी माँ ने एक साथ बैठकर समस्या पर विचार किया और इस हाईकमान के सामने कैलाश को बहुत अनिच्छा के साथ प्रस्तुत होना पड़ा। दोनों माताओं के विलाप का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उसकी खामोशी को लेकर जब माताओं का विलाप सप्तम पर पहुँचा तब कैलाश के लिए यह जरूरी हो गया कि वह अपना बचाव पेश करे। कैलाश ने कहा-बड़े भाई साहब ने यह चाहा कि हम लोग ऊँची तालिम हासिल करें। लक्ष्मण भाई ने भरपूर प्रयास किया, परन्तु इलाहाबाद से एक लोटा गंगा जल के अलावा वे कुछ नहीं ला पाए। आज यह बताना मुश्किल है कि वे कॉलेज में दाखिल भी हुए या नहीं। रसिक भाई कॉलेज में पढ़ने के बजाय जी खोलकर अय्याशी कर रहे हैं। परिवार के बाकी लोग भी डिग्री प्राप्त करने की कोशिश में हैं। मैं शिक्षा-विक्षा में भरोसा नहीं करता। पढ़-लिखकर क्या हो जाएगा। कृष्ण भैया पढ़ाई में बड़े होशियार थे, परन्तु वे बैठे तो गल्ले पर। अगर जीवन में पैसा ही कमाना है तो ये सारी पढ़ाई-लिखाई बेकार है। मुझे ढेर सारा रुपया चाहिए और मैं वह खुद कमाने वाला हूँ।
कैलाश की दिल हिला देने वाली बातें सुनकर दोनों माताएँ आश्चर्य-चकित रह गईं। छोटी माँ कैलाश की बात को समझ गई। वे जान गईं कि यह विद्रोही लड़का बहुत आत्म स्वाभिमानी है। उन्होंने मन में सोचा कि ये मेरा दिया पैसा लेगा तो नहीं, परन्तु दरियादिली का दिखावा करने का यह अवसर हाथ से जाना नहीं चाहिए। छोटी माँ ने कमर से सोने की करधनी निकाली। हाथ से महँगे जड़ऊ कड़े निकाले और कैलाश को देने का उपक्रम किया। छोटी माँ बोली, बेटे कैलाश तुम्हें जितना धन चाहिए मुझसे ले लो, परन्तु जुआ, सट्टा करके अपने पूर्वजों का नाम न डुबोओ। बड़ी माँ यह देखकर अवाक् रह गई। छोटी की दरियादिली के कारण उनकी आँखें छलछला आईं। कैलाश ने मुस्कुराकर गहने हाथ में लिये और अंदाज ये था कि मानो वह उनका वजन भाँप रहा हो। एक क्षण के लिए छोटी माँ का कलेजा धक-से रह गया। कैलाश के बारे में उनका अनुमान गलत निकल रहा है। कैलाश ने नाटकीय ढंग से करधनी अपनी कमर में बाँधने का प्रयास किया, परन्तु वह सटककर नीचे गिर गई। उसने कड़े पहनने का उपक्रम किया, वह भी उसकी कलाइयों में ढीले आए। वह मुस्कुराते हुए आगे बढ़ा और उसने छोटी माँ को गहने लौटा दिए। कैलाश ने कहा-छोटी माँ, ये गहने अपने पास रखो। जब मेरा नाप इनके बराबर हो जाएगा तब मैं आपसे आकर ले लूँगा। एक जोरदार ठहाका लगाकर कैलाश पारिवारिक हाईकमान के दफ्तर से बाहर चला गया। कैलाश जब अपने लॉज के दफ्तर में पहुँचा तो उसे अनपेक्षित कोने से अचंभित करने वाला विरोध सहना पड़ा। जब से उसने अपना कारोबार शुरू किया था तब से उसने विसाल खाँ को अपनी सहायता के लिए लॉज पर बुला लिया था। इस सेवा के एवज में वह विसाल खाँ को पैसे भी दे देता था। उसका यह खयाल था कि कुछ दिनों बाद वह विसाल खाँ को चार आने का भागीदार भी बना लेगा।
विसाल खाँ ने गल्ले की चाबियाँ उसे दीं और कहा कि वह पैसे ले लो। कैलाश ने पूछा-घर में सब खैरियत है, आज बड़े जल्दी जा रहे हो ? विसाल
खाँ ने खड़े होकर कैलाश के कंधे पर हाथ रखा और बोला- यार कैलाश, ये सट्टा-जुआ मुझे ठीक नहीं लगता। ये बेकार जाहिल निकम्मों का काम है। कैलाश ने पूछा-क्या तू छोटी माँ, बड़ी माँ से मिलकर आया है? विसाल खाँ ने गर्दन हिलाकर इन्कार किया। कैलाश ने कहा- अगर हमें पुलिस का खौफ है, तो मैं बता दूँ कि मैंने हफ्ता बाँध रखा है और उसके बावजूद अगर कभी पुलिस पकड़ने आई, तो वह खुद गिरफ्तारी देगा और अपने दोस्त को बचाएगा। विसाल खाँ बोले-यार, तुम्हारी ईमानदारी और दरियादिली पर मुझे पूरा यकीन है, लेकिन यह गैर-कानूनी धंधा मेरी शायराना तबियत को रास नहीं आता। तुझे राज की बात बताता हूँ कि उस दिन मेरी उँगली दुर्घटना में नहीं कटी थी। कीमा काटने से निजात पाने के लिए मैंने खुद काटी थी। यह सुनकर कैलाश सन्न पड़ गया और धम्म-से कुर्सी पर जा बैठा। विसाल खाँ ने मुस्कुराकर उसे एक गिलास पानी दिया और बोला- यार जैसे तुझे किसी काम के करने के लिए या न करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता वैसे ही मर्जी के खिलाफ मुझसे भी कोई काम नहीं कराया जा सकता। कैलाश ने कहा- शहंशाहे आलम विसाल खाँ वल्द कल्लू खाँ क्या आप खेती करना पसंद करेंगे? बड़गाँव में मेरा खेत है। पाँच-दस कोस का फासला है। मैं तुम्हें फटफटी दिला देता हूँ। विसाल खाँ ने मुस्कुराकर कहा- ख्याल बुरा नहीं है। सोचकर बताऊँगा। ऐसा कहकर विसाल खाँ चल पड़े।