लंगड़ दुलीचंद को दुलत्ती / दराबा / जयप्रकाश चौकसे
जयप्रकाश चौकसे
बुरहानपुर के प्रथम मिठाई परिवार में घोर धन वर्षा के बावजूद एक गहरा असंतोष भी व्याप्त था, क्योंकि शादी के काफी दिनों बाद तक महेश के घर कोई बाल-बच्चा नहीं हुआ। उस जमाने का समाज किसी भी औरत को निपूती घोषित करने में बहुत जल्दबाजी दिखाता था। महेश के जीवन में भी व्यंग्य बाणों की वर्षा होने लगी थी। माताद्वय रामकन्या और यशोदा भी परेशान थीं। रामकन्या के निपूति होने के कारण महेश की समस्या को एक प्रकार की धार मिल गई थी और इसे धारदार बनाने वाले लोग ये भी भूल गए थे कि दत्तक पुत्र महेश के जीन्स में आत्माराम के तत्व कैसे आ सकते हैं ? दरअसल माली समाज के अधिकांश लोग आत्माराम के परिवार की व्यापारिक सफलता से ईर्ष्या करने लगे थे। इसी ईर्ष्या के कारण उन्होंने समय से पूर्व महेश और जानकी के निःसंतान होने की बातों को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करना शुरू कर दिया था। महेश को इस बात की जरा भी चिन्ता नहीं थी परन्तु जानकी के जीवन में विष के कॉटे बिछाए जा चुके थे। इसी मनोवैज्ञानिक दबाव के कारण उसके स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ गया था।
उसकी मनपसंद नौकरानी रमा ने उसके मन में यह बात बैठा दी थी कि उसके खिलाफ सारा प्रचार दोनों सासों ने मिलकर किया है, क्योंकि उन्हें शीघ्र ही दादी माँ बनने का शौक है। इस बात को जानने के बाद उसका चिड़चिड़ापन बहुत बढ़ गया। इसी के साथ उसका स्वाभाविक आलस्य भी चरम पर पहुँच गया। इन सब चीजों का मिला-जुला प्रभाव यह हुआ कि वक्त के पहले वह जरूरत से ज्यादा मुटा गई। उसने साज-श्रृंगार के प्रति ध्यान देना भी बंद कर दिया। रामकन्या और यशोदा ने उसे बहुत समझाने की कोशिश की पर हर बार बातचीत का ताल जमने से पहले ही किसी छोटी-सी बात पर जानकी उखड़ जाती थी।
समाज के कुछ निकम्मे बुजुर्ग मुफ्त की चाय पीने के लिए महेश की दुकान पर घंटे बैठते थे। उन लोगों ने भी महेश के कान में दूसरे विवाह का जहर भरना शुरू कर दिया। इन बुजुर्गों में कुछ का उद्देश्य तो ये था कि वे अपनी बेटी महेश जैसे अमीर दामाद को चेंपना चाहते थे और उम्रभर के लिए मुफ्त चाय-नाश्ते का बंदोबस्त करना चाहते थे। महेश व्यवसाय में जितना कुशल था, सामाजिक व्यवहार में उतना ही अनाड़ी। बहुत कम उम्र में उसने ढेरों धन कमा लिया था और इसके कारण उसको बहुत घमंड भी हो गया था। इन्हीं दिनों जब उसने जानकी की हालत देखी, तो जानकी की मदद करने के बजाय वह जानकी से विमुख होता चला गया। दाम्पत्य जीवन में ये ढंग निराला है कि सहायता के क्षणों में साथी मनोवैज्ञानिक कारणों से दूर चला जाता है। उधर यशोदा और रामकन्या जानकी की निरंतर किटकिट से व्यथित हो चुकी थीं। और उन्हें भी ऐसा लगने लगा था कि उनके पुत्र का दूसरा विवाह होना चाहिए।
महेश की दुकान पर उनकी जाति का दुलीचंद नामक एक लंगड़ा दूध बेचने के लिए आया करता था। दुलीचंद ने दुकान के नौकरों से दोस्ती कर ली थी जिसके परिणामस्वरूप ऊपर की मंजिल पर होने वाले लड़ाई-झगड़े की सारी जानकारी उसे मिलती रहती थी। दुलीचंद को लुगा कि इस अवसर का लाभ उठाकर इस समर्थ परिवार से रिश्तेदारी का नाता जोड़ लेना चाहिए। नियम-कायदों से रिश्ता लाने की उसकी औकात नहीं थी और न ही इस तरह की बात वह जबान पर ला सकता था। दुलीचंद ने महेश के सामने एक व्यावसायिक प्रस्ताव रखा। मिठाई के व्यवसाय के लिए दूध कच्चे माल की तरह है। उसने महेश के सामने एक प्रस्ताव रखा कि वह अगर भैंसें खरीदने के लिए उसे अग्रिम धनराशि दें तो वह कम भाव में उसे दूध बेचेगा और दूध के दामों में हो उसकी उधारी की रकम भी कट जाएगी। महेश को प्रस्ताव अच्छा लगा और पाँच भैंसें खरीदने के लिए उसने उसे आवश्यक धन दे दिया। दुलीचंद ने इस शुभ अवसर का लाभ उठाकर महेश को अपने भैंस के बाड़े में आने का निमंत्रण दिया। महेश ने चार कोस दूर आने की बात टालनी चाही। दुलीचंद ने कहा कि महेश द्वारा दिए गए धन से उसने सचमुच में भैंसें खरीदी हैं या नहीं कम से कम इस बात के निरीक्षण के लिए तो उसे वहाँ आना चाहिए।
लगातार आमंत्रण के कारण एक दिन इतवार को महेश ने उसका आमंत्रण स्वीकार किया। चतुर दुलीचंद इसी मौके की तलाश में था। उसने बाड़ा दिखाने के बाद महेश को भोजन के लिए बुलाया। दुलीबंद की पुत्री रूपा सचमुच रूपवान थी। उसने भोजन परोसते समय अपने रूप की झलक महेश को दिखा गी। पुरुष के दिल का रास्ता उसके पेट के दरवाजे से होकर गुजरता है। सुस्वादु भोजन और परोसने वाली का रूप दोनों ने मिलकर महेश के दिमाग पर बहुत जबर्दस्त असर किया। दरअसल दुलीचंद को महेश के भोजन-प्रिय होने की बात मालूम थी और यह भाग्य की बात है कि इन्हीं दिनों जयपुर से दुलीचंद के करीबी रिश्तेदार घर आए हुए थे। इन रिश्तेदारों में से एक महिला को राजस्थानी खाना बनाना आता था। महेश के लिए ये राजस्थानी भोजन सर्वधा नवीन चीज थी। भोजन के पश्चात् चाँदी के वर्क में लिपटा हुआ पान लेकर रूपा हाजिर हुई और दुलीचंद की योजनानुसार उस समय कमरे में थोड़ी देर के लिए एकांत था। महेश ने जी भरकर रूपा को निहारा और बातचीत का सिलसिला शुरू किया। रूपा ने महेश से कहा कि वह एक भेंट उन्हें देना चाहती है। महेश का कौतुहल बढ़ गया। रूपा ने अपनी साड़ी के पल्ले से एक कागज की पुड़िया निकाली और महेश के हाथ में धर दी। महेश ने जब पुड़िया खोली तो उसमें से बालों का एक गुच्छा मिला। उसने आश्वर्य से पूछा यह सब क्या है? रूपा ने बताया कि कई साल पहले स्कूल में महेश ने उसकी चोटी काटी थी जिसके परिणामस्वरूप शायद महेश को घर पर दंड भी मिला था। महेश के लिए उस लड़की का चेहरा याद करना मुश्किल था जिसको उसने चोटी काढी थी, परंतु रूपा की बात पर अविश्वास करने का भी कोई कारण नहीं था। महेश के मन में एक प्रकार की गुदगुदी होने लगी और उसे लगा कि इस लड़की ने इतने बरस तक उन बालों को संभालकर रखा जिसका अर्थ यह है कि एक तरह से उसने मेरी याद को जिन्दा रखा है।
इस छायावादी रोमांटिक कल्पना ने महेश के सीने में तूफान खड़ा कर दिया। उसे ऐसा लगा मानो रूपा बचपन में खोई हुई उसकी प्रेमिका है। उस जमाने में इस तरह के बिछड़े प्रेमियों पर फिल्में भी बहुत बनती थीं। बचपन की मुहब्बत को दिल से न जुदा करना गाना युवा लोगों के मन में लगभग राष्ट्रगीत की तरह बजता रहता था। चूड़ी के बाजे पर महेश ने यह गाना कई बार सुना था। आज उसे लगने लगा कि वह भी किसी फिल्मी नायक से कम नहीं है। दुलीचंद के घर से लौटने के बाद उसने अपनी माँ रामकन्या के सामने सारी बातें खोलकर रख दीं। बचपन से लेकर अभी तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि उसने कोई चीज माँगी हो और रामकन्या इन्कार कर दे। उसने दूसरी पत्नी भी कुछ इसी अंदाज में माँगी जैसे कोई खिलौना माँग रहा हो। उसी दिन जानकी और रामकन्या के बीच एक वाक्युद्ध हो चुका था। रामकन्या ने महेश को दूसरे विवाह की आज्ञा दे दी। यशोदा ने जरूर यह समझाने की कोशिश की कि रूपा के परिवार को अच्छी तरह से परख लेना चाहिए। शादी का रिश्ता बच्चों का खेल नहीं होता। महेश ने सफाई दी कि दुलीचंद गरीब जरूर है, परंतु सजातीय है और बहुत परिश्रमी है। उनकी लड़की इतनी सुंदर है कि उसे देखकर उसकी माँ की आँखें जुड़ा जाएँगी।
सारा मामला अब इस बात पर निर्भर करता था कि जानकी से बात कैसे की जाए। रामकन्या नहीं चाहती थी कि इस अवसर का फायदा लेकर उनकी ननद सावित्री दोबारा उनके घर की राजनीति में प्रवेश करे। अब उनके सामने दो ही रास्ते थे। एक तो यह कि जानकी को सारी बात बता दी जाए और दूसरा यह कि महेश को कुछ दिनों के लिए जयपुर भेज दिया जाए जहाँ से वह दुलीचंद की लड़की से शादी कर घर वापस आए। एक बार शादी हो जाने के बाद जानकी को झक मारकर इस रिश्ते को स्वीकार करना होगा। कुछ दिनों के लिए उसे गहरा दुःख होगा और वह झगड़ा भी करेगी, परंतु शादी के पूर्व बात करने का अर्थ है कि उसे दो बार दुःख पहुँचाया जाए और दो बार झगड़े का अवसर दिया जाए। अतः जयपुर में विवाह की योजना गोपनीय ढंग से बनाई गई। दुलीचंद के सहयोग से इस योजना को सफलतापूर्वक निभाया गया और अनुमान के अनुसार ही जानकी कुछ दिनों के लिए बहुत नाराज हो गई। बुरहानपुर के माली समाज ने इस शादी को पसंद तो नहीं किया परंतु वे लाचार थे, क्योंकि जयपुर में उनके समाज के अध्यक्ष ने एक पत्र द्वारा इस शादी का विवरण लिख भेजा था। अमीर और गरीब के बीच के इस रिश्ते को एक क्रांतिकारी कदम के रूप में प्रस्तुत किया गया। इस शादी से ऊपरी मंजिल पर स्थित घर में चाहे तूफान-सा आया हो, परंतु नीचे दुकान पर केवल एक परिवर्तन हुआ कि दुलीचंद अब दूध देने के बहाने वहाँ घंटों बैठ जाया करता था। अपनी दूसरी पत्नी के सौंदर्य और प्रेम में डूबे हुए महेश ने अपने ससुर की घुसपैठ को कतई बुरा नहीं माना और लंगड़ दुलीचंद की इकलौती टांग महेश एंड संस में स्थायी रूप से जम गई। महेश ने उन्हें पूरे दुकान के लिए दूध की खरीदी का अधिकारी बना दिया और इस पद का भरपूर फायदा लंगड़ दुलीचंद ने उठाया।
ऊपर की मंजिल पर रामकन्या ने मकान का जो हिस्सा अपने पड़ोसी भागचंद से खरीदा था उस हिस्से में नई बहू का शयनकक्ष बना दिया। पुराने हिस्से में जानकी जमी हुई थी, परंतु अब ये घर दो सासों और दो बहुओं के कारण एक तरह का कुरुक्षेत्र बन चुका था। भोजन के समय जब महेश ऊपर आता तो इस कुरुक्षेत्र में अपने आपको बहुत ही हताहत और लहूलुहान पाता। इस कुरुक्षेत्र से बचने के लिए वह मन ही मन उपाय ढूँढने लगा। उनकी दुकान के पास मिठाई की एक छोटी दुकान थी, जिसके मालिक विगत दस वर्षों में कोई तरक्की नहीं कर पाए थे। उनकी आर्थिक समस्या दिन ब दिन बढ़ती जा रही थी। एक दिन उन्होंने महेश के पास ये प्रस्ताव रखा कि चौक बाज़ार में उनका एक मकान है जिसे वे बेचना चाहते हैं। उनका अपना परिवार इस मकान को बेचकर सनवारा में स्थित अपने दूसरे मकान में चला जाएगा। महेश की इच्छा तो ये थी कि वह अपनी छोटी दुकान बेच दे, परंतु पड़ोसी की जिद थी कि दुकान रहेगी तो किसी दिन लक्ष्मी का स्वागत करने का अवसर मिलेगा। उनके पास दुकान एक थी पर मकान तो दो थे। महेश ने उनके साथ जाकर उनका मकान देखा जो दुकान से बमुश्किल एक फर्लांग की दूरी पर था। महेश के घर से पत्थर की उबड़-खाबड़ सड़क बगीचे की ओर जाती है और चौक बाजार में बाएँ हाथ पर मुड़ने पर जो सड़क मकान वाली गली से मिलती है उसी सड़क पर बीचोंबीच ये मकान बना था। इस मकान से कुछ कदम के फासले पर डॉक्टर बिड़वाई का दवाखाना था और इस मकान के ठीक सामने वाली गली में एक वैद्यजी अपनी उम्र से भी ज्यादा समय की रखी हुई जड़ी बूटियों से दवाएँ बनाकर बेचा करते थे। महेश ने इस दुमंजिले मकान का सौदा कर लिया। उसकी इच्छा थी कि वह रूपा के साथ इस मकान में बस जाए। परंतु उसकी दोनों माताओं ने इस बात का घोर विरोध किया। उनका कहना था कि मौजूदा मकान बहुत भाग्यशाली है, जहाँ रहकर उसके परिवार ने इतनी प्रगति की है और वे किसी भी हालत में महेश को यहाँ से जाने नहीं देंगे। कोई भी महिला योद्धा जमे जमाए अखाड़े को छोड़ना नहीं चाहती थी। जानकी अपने आलस्य के कारण इस कुरुक्षेत्र से तंग आ चुकी थी और उसने नए मकान में जाना स्वीकार किया। महेश की ये इच्छा थी कि यशोदा, जानकी के साथ नए मकान में चली जाए, परंतु रामकन्या ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।
यह तय पाया गया कि जानकी अकेले ही उस मकान में रहेगी और उसकी प्रिय नौकरानी रमा उसका साथ देगी। मकान बीच बाज़ार में स्थित था अतः किसी प्रकार के खतरे की कोई बात नहीं थी। यशोदा ने ये जरूर स्वीकार किया कि दिन में दो तीन बार नए मकान में जाकर वह जानकी की गृहस्थी जमा देगी। महेश ने जानकी से वादा किया कि वह प्रतिदिन कम से कम एक बार उसका हालचाल जानने के लिए नए मकान में अवश्य आएगा। इस विभाजन में लंगड़ दुलीचंद की ये इच्छा थी कि नए मकान की तल मंजिल पर दूध का कारोबार किया जाए और बहू जानकी ऊपर की मंजिल पर रहे। परंतु जानकी ने इस प्रस्ताव को निर्ममता से ठुकरा दिया। उसने रमा से कहा कि बुढ़ऊ बहुत चालू है। अपनी बेटी को पुराने मकान में जमा दिया है और अपनी टूटी टांग को मेरे आँगन में जमाना चाहता है। घरेलू महाभारत की समाप्ति से महेश इतना प्रसन्न था कि उसने जानकी की सारी शर्तें मान लीं।
दूसरी शादी के बाद भी महेश संतानहीन रहा और इसका दुःख उसे सालता रहा। जिस तरह सर्दी-जुकाम, बवासीर और मधुमेह का इलाज हर आदमी जानता है उसी तरह वीर्यवर्धक दवाओं के जानकार हैं और बेचारा महेश गंडे ताबीज से लेकर उपवास इत्यादि भी आजमा चुका। उसने शुद्ध शिलाजीत से लेकर चाँदी-सोने की भस्म तक फाँकी। दुनिया में जितने लोग सोना बनाने के कीमिया से ठगे गए हैं, उससे अधिक लोग वीर्यवर्धक वस्तुओं के नाम पर ठगे गए हैं। यह बताना कठिन है कि मनुष्य-मन में धन का लोभअधिक है या सैक्स की कामना।
महेश को संतान न होने से ज्यादा दुःख इस बात का था कि अब उसकी मर्दानगी को शक की निगाह से देखा जा रहा था। इस तरह की शंकाएँ नैराश्य को जन्म देती हैं जिसका सीधा असर पौरुष पर पड़ता है। यह कितना बड़ा विराधोभास है कि शक, संदेह और अफवाहें एक झूठ को सच में बदल देते हैं। महेश का भाग्य अच्छा था कि उसे ज्यादा दिन तक इस दुविधा में नहीं रहना पड़ा। निपूती कहे जाने वाली जानकी ने गर्भ धारण किया। शायद नए मकान में प्रवेश करते ही जानकी का भाग्य जागा, परंतु जानकी के इस मनसूबे पर पानी फिर गया कि वह महेश की दूसरी पत्नी को तबाह कर देगी, क्योंकि कुछ ही दिनों बाद दूसरी पत्नी के पैर भी भारी हो गए। खुशी के मारे महेश के पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे। उसने पूरे उत्साह के साथ अपनी दुकान को सजाया-सँवारा। पुत्र कामना ने उसे कई शहरों की धूल खिलाई थी और सब जगह से वह नए पकवान सीख कर आया था।
महेश की दोनों पत्नियों ने पुत्र को जन्म दिया। पहले पुत्र के जन्म के पश्चात् तो महेश की दोनों पत्नियों में जैसे बच्चे पैदा करने की प्रतियोगिता-सी आरंभ हो गई। ताज्जुब की बात यह है कि इस अघोषित प्रतियोगिता में निपूती कहलाए जाने वाली बड़ी माँ ने सात बच्चों को जन्म देकर छोटी माँ को चार बच्चों से हरा दिया। महेश की पहली पत्नी ने चार बेटों और तीन बेटियों को जन्म दिया, तो दूसरी पत्नी ने दो बेटों और दो बेटियों को जन्म दिया। हर बच्चे के जन्म के साथ महेश का व्यापार प्रगति करता गया और उसी अनुपात में उसका शरीर भी मुटाता गया। महेश दत्तक पुत्र होते हुए भी आत्माराम के चरण चिह्नों पर चलते हुए अपने ही वजन का शिकार हुआ। महेश की हृदय गति रुकने के बाद दोनों विधवाओं में अधिक शोक संतप्त दिखने की प्रतियोगिता प्रारंभ हुई, परंतु ये प्रतियोगिता त्रिकोणीय मुकाबले की तरह थी, क्योंकि इसमें महेश की दोनों माताएँ भी शामिल थीं। शोक प्रकट करने की इस प्रतियोगिता में दोनों बहुएँ तो चोरी-छुपे कुछ न कुछ खा लेती थीं, परंतु यशोदा और रामकन्या को ये सहूलियत उपलब्ध नहीं थी और उनका शोक ही उनको ले डूबा। धन-धान्य से संपूर्ण परिवार में यशोदा और रामकन्या बुढ़ापे और भूख के मिले-जुले प्रभाव से मृत्यु को प्राप्त हुईं। ये तीनों मौतें लगभग एक महीने की अवधि में हो गईं। इस अवसर तक आते-आते जानकी बड़ी माँ के रूप में और रूपा छोटी माँ के रूप में इतनी प्रसिद्ध हो गई हैं कि उनके असली नाम लेना लोग भूल ही गए।
दुकान के सारे सूत्र रूपा के पिता दुलीचंद लंगड़ के हाथ आ गए। दुलीचंद के हाथों में दुकान सुरक्षित नहीं थी, यह स्वाभाविक ही था कि जानकी अपनी सौत के पिता दुलीचंद पर यकीन नहीं करती, परन्तु आश्चर्य की बात तो यह है कि रूपा को भी अपने पिता की नीयत पर कोई भरोसा नहीं था। वह अपने बच्चों के भविष्य के लिए चिंतित थी। उसने अपने मन में ये तौलकर देखा कि दुकान का भविष्य दुलीचंद के हाथों में ज्यादा सुरक्षित है या जानकी के पुत्र कृष्ण के हाथों, जो उसके अपने बड़े पुत्र रसिक से केवल कुछ माह बड़ा था। उसने एक निर्मम फैसला किया कि वह अपने पिता के हाथ व्यवसाय की बागडोर नहीं देगी और अपनी सौत के बड़े बेटे के हाथ में सारी सत्ता थमा देगी। ऐसा करने से बरबस ही उसे बड़ी माँ का विश्वास प्राप्त हो जाएगा और कृष्ण के मन में भी अपनी छोटी माँ के प्रति प्रेम पैदा होगा, जिसका लाभभविष्य में मिल सकेगा। रूपा यह भी जानती थी कि रसिक और कृष्ण में भले ही उम्र का अंतर केवल कुछ महीने का हो, परंतु कृष्ण के पास अपने पिता की व्यावसायिक बुद्धि थी और युवा होने के बावजूद वह व्यवसाय बहुत अच्छी तरह से संभाल सकता था। रसिक अपने नाम के अनुसार थोड़ा चंचल स्वभाव का था। छोटी माँ के इस फैसले से उसके पिता दुलीचंद लंगड़ बहुत ही दुःखी और अचंभित भी हुए। उन्होंने रूपा से जाकर बात की और समझाने की कोशिश की कि एक पिता अपनी पुत्री का अहित कैसे कर सकता है। रूपा ने उससे स्पष्ट कहा कि दुकान की बागडोर हाथ में आने के बाद वे अपने पुत्रों का भविष्य सुरक्षित करना चाहेंगे और इस प्रक्रिया में पुत्री को नज़रअंदाज़ कर सकते हैं। उसने यह भी कहा कि महेश की संपत्ति पर उसके सातों बेटों का अधिकार है और उन सातों को एकता का परिचय देकर अपने पिता के व्यवसाय को बढ़ाना है। वह अपने घर के मामले में किसी प्रकार की बाहरी दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं करेगी।
दुलीचंद ने महेश को अपनी बेटी देकर बहुत-से सपने देखे थे, परन्तु निष्ठुर रूपा ने उन सपनों को भंग कर दिया। संपत्ति के इस खेल में दुलीचंद दुलत्ती झाड़कर रह गए। उन्होंने अपनी बेटी से निवेदन किया कि कम से कम उनका दूध का व्यवसाय तो दुकान से जुड़ा रहने दे, और उनकी ये बात रूपा ने स्वीकार कर ली। पिता की नीयत और चरित्र बच्चे बचपन से देखते हैं। पिता समझता है कि वह परिवार के भविष्य के लिए बेईमानी कर रहा है परन्तु बच्चे ही बड़े होकर नैतिकताविहीन पिता के खिलाफ हो जाते हैं। रूपा के प्रस्ताव से जानकी बहुत खुश हुई कि बिना किसी युद्ध के ही उसका बड़ा बेटा राजसिंहासन पर आसीन हो रहा है। वह जानती थी कि अब ये उसकी बारी है कि वह बड़ी होने का गौरव प्रदर्शित करे। उसने रूपा के लिए सोने की कमरधनी और बाजूबंध बनवाए। जानकी दोनों गहने लेकर स्वयं रूपा के घर गई और स्नेह प्रदर्शित करते हुए उसने अपने हाथों से रूपा को गहने पहनाए। रूपा ने भी बड़ी माँ का सम्मान करते हुए उनके चरण छुए और खुशी के मारे दोनों माताएँ एक-दूसरे के गले लगकर खूब रोईं। अगर उन दोनों के बीच शोक प्रकट करने की प्रतियोगिता थी तो उन दोनों ने प्यार के प्रदर्शन को भी प्रतियोगिता की तरह ग्रहण किया। सारा माली समाज यह सब देखकर आश्चर्यचकित रह गया। वेद व्यास की महाभारत से लेकर बलदेवराज चोपड़ा की महाभारत तक विघटन और गृहयुद्ध भारतीय समाज के अनिवार्य अंग रहे हैं और इन कमजोरियों के कारण ही विदेशी सत्ताएँ भारत में जमती रहीं।
यह अजीब बात है कि हमारे देश के इतिहास से हम कुछ भी नहीं सीखना चाहते। हमारे परिवारों के विघटन की कहानी ही देश के इतिहास को भी रचती है। भारतीय समाज की यह विचित्रता है कि उसकी सारी शक्ति और कमजोरी उसके पारिवारिक जीवन में ही निहित है। हमारा पारिवारिक प्रेम हमारी शक्ति है और हमारे परिवार का विघटन ही हमारी कमजोरी। दरअसल महाभारत भारतीय समाज का प्रतिनिधि ग्रंथ है। भारत में ऐसा कुछ घटित नहीं हो सकता जिसका वर्णन महाभारत में उपलब्ध न हो और महाभारत में वर्णित हर घटना भारत के इतिहास में कभी न कभी घटकर ही रहती है। रामायण हमेशा से ही हमारा आदर्श रही है और महाभारत हमारा यथार्थ। कुछ बड़े-बूढ़ों का तो ये कहना है कि जिस घर में महाभारत की प्रति रखी होती है उस घर में कलह अवश्य होती है। सच्चाई तो यह है कि महाभारत अदृश्य रूप से हमारे मन में जमी हुई है और उसकी प्रति का होना या न होना कोई खास मायने नहीं रखता। छोटी माँ और बड़ी माँ के महामिलन पर माली समाज ने प्रसन्नता प्रकट की, परन्तु अनेक लोगों को घोर दुःख हुआ कि इस परिवार में महेश की मृत्यु के बाद जूतों में दाल क्यों नहीं बँटी? ऐसे विघ्न संतोषी लोगों ने बहुत प्रयास किया कि छोटी माँ और बड़ी माँ के बीच में महेश के जीवनकाल के समय का युद्ध फिर से प्रारंभ हो जाए। लोगों को मामा दुलीचंद लंगड़ से बहुत आशा थी कि वे आत्माराम के परिवार में महाभारत रचा देंगे। दरअसल दुलीचंद लंगड़ के पास शकुनी मामा की अनेक योग्यताएँ थीं, परंतु उनकी बेटी ने उनके सारे तीरों को तरकस में ही रहने दिया। जो कार्य सब कुछ जानते हुए भी विदुषी मात गांधारी नहीं कर पाई, वह कार्य अल्पशिक्षित रूपा ने कर दिखाया। अगर गांधारी पति के प्रति समर्पण अभिव्यक्त करने के लिए अंधत्व न ग्रहण करते हुए उनकी आँखें बनने का निश्चय करती तो शायद कुरुक्षेत्र घटित नहीं होता। माता-पिता द्वारा अनदेखे रहने पर कौरवों ने गलत मार्ग पकड़ा।
जब महेश और जानकी के पुत्र कृष्ण ने दराबे की दुकान का उत्तरदायित्व संभाला तब पंडित रामप्रसाद ने संसद के चुनाव में रतनचंद को परास्त किया। शहर के मध्यमवर्ग के शिक्षित लोगों के बीच रतनचंद बहुत लोकप्रिय थे, परंतु भारत में प्रारंभ से ही चुनाव लड़ने के अप्रजातांत्रिक तौर-तरीकों का जन्म हो चुका था। पंडित रामप्रसाद के पीछे प्रताप की अपार धन शक्ति और दादागिरी लगी हुई थी। ग्रामीण क्षेत्रों में बोगस वोटिंग की परंपरा पहले ही चुनाव से विकसित हो चुकी थी। जाति के आधार पर वोट बैंक नामक मिथ की रचना हो चुकी थी। चुनाव में वोटों की ठेकेदारी प्रारंभ हो चुकी थी। भारत वह आखिरी देश होना चाहिए था जहाँ प्रजातांत्रिक प्रणाली लागू हो, क्योंकि भारत के समाज की रचना सामंतवादी है। धर्म और जाति के बंधन इतने सशक्त हैं कि काबिलियत के आधार पर चुनाव संभव नहीं है। प्रजातंत्र प्रणाली की सफलता का आधार सशक्त मतदाता होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि आम भारतीय व्यक्तिगत विचार और निर्णय में विश्वास नहीं करते। उनके मन में तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं के कारण नायक पूजा का स्थान बहुत ऊँचा है और वह चाहता है कि कोई और व्यक्ति उसके युद्ध को लड़े, उसके लिए सोचे और आवश्यकता पड़ने पर उसके लिए मरे भी। नायक पूजा वाले देश में सिद्ध प्रजातांत्रिक प्रणाली की सफलता संदिग्ध थी और भारत ने प्रजातंत्र की अपनी शैली का विकास किया। दिल्ली में प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति को भारतीय जनता ने दिग्विजयी राजा मान लिया और चुनाव को अश्वमेध यज्ञ में बदल दिया। कालांतर में चुनाव प्रणाली होली के रूप में परिवर्तित हो गई है। गाली-गलौच और मुँह काला करना चुनावी रस्म बन गया। ग्रामीण अंचल के लोगों ने नेहरू को हमेशा राजा के रूप में पूजा और यही कारण है कि उनकी बेटी के राजतिलक पर जनता अत्यधिक प्रसन्न थी। एक तरह से भारत में एक परिवार प्रजातंत्र लागू हुआ। इस नायक पूजा के कारण ही आजादी के बाद वाले संकटकाल में नेहरू को चक्रवर्ती राजा मान लेने के कारण देश को प्राणवायु की तरह आवश्यक स्थायित्व प्राप्त हुआ। नेहरू का सच्चा मूल्यांकन करने का समय अभी आया नहीं है, परंतु एक बात तो निश्चित है कि नेहरू भारत के जनमानस को बहुत अच्छी तरह से समझते थे। उन्होंने अंग्रेजों के जाने के बाद भी अंग्रेजी व्यवस्था को कायम रखा, क्योंकि भारतीय मिट्टी में क्रांतिकारी परिवर्तन के बीज नहीं पनपते। गर्म देश होते हुए भी यहाँ समय की बर्फ बहुत धीरे-धीरे पिघलती है। व्यक्ति-पूजा के आधार पर विकसित प्रजातंत्र की जड़ों में धार्मिक मान्यताओं की खाद पड़ी थी। कालांतर में धार्मिक मान्यताओं की जगह संकीर्ण जातिवाद ने ले ली। बुरहानपुर में प्रताप का उदय एक चक्रवर्ती राजा की तरह हुआ और पंडित रामप्रसाद उनके प्रधानमंत्री मान लिये गए।
दरअसल हर क्षेत्र में हम एक चक्रवर्ती खोजते हैं क्योंकि गुलामी हमारी नसों में रक्त की तरह प्रवाहित है। इसके मूल में स्वतंत्र विचार से हमारा पैदाइशी परहेज है। मनुष्य से ज्यादा हमें अवतार पर एतबार है। मध्यम वर्ग के पढ़े हुए लोगों को अमीरचंद की पराजय पर बहुत दुःख हुआ। यह वही वर्ग है जो सारी उम्र संपादक के नाम पत्र लिखता है। ओटलों, मोहल्लों और पान की दुकानों पर लतीफेबाजी करता है। यह कितने आश्चर्य की बात है कि स्वतंत्रता संग्राम के समय में यही पढ़ा-लिखा मध्यम वर्ग गाँधीजी का दाहिना बाजू था। सारे वकील, शिक्षक और छात्र आजादी के आंदोलन से जुड़े थे। दफ्तरों के बाबू, चपरासी और हेडक्लर्क असहयोग आंदोलन की जान थे। आजादी के बाद पढ़े-लिखे मध्यम वर्ग ने देश को बहुत धोखा दिया। भारतीय समाज में मूल्यों का पतन समाज के इसी अंग से शुरू हुआ और इस पतन पर सबसे अधिक हायतौबा भी इसी वर्ग ने की।
दरअसल गाँधीजी की मृत्यु के बाद इस वर्ग ने उन विधवाओं की तरह व्यवहार किया जो पति की मृत्यु और अवसाद का भरपूर मनोवैज्ञानिक लाभउठाकर अपनी इच्छाओं को मरे हुए की अंतिम इच्छा के नाम पर जीवित लोगों की पीठ पर लाद देता है। ये अपने शोक को आभामंडित करती है और दुर्भाग्यवश इसी आभामंडल को हकीकत के सूरज की रोशनी का पर्याय मान लेती है। उच्च वर्ग और निम्न वर्ग के बीच पैसे की बहुत बड़ी खाई है, परंतु नैतिक मूल्यों को लेकर इन वर्गों में कोई संशय नहीं है। सैक्स, सिनेमा, नाटक, साहित्य इत्यादि विषयों पर भी इन दोनों वर्गों का रवैया एकदम स्पष्ट है, क्योंकि इनके नाक पर विक्टोरियन मूल्यों का चश्मा नहीं चढ़ा है। सैक्स के मामले में भी ये दोनों वर्ग अत्यंत स्पष्ट मत रखते हैं। मध्यम वर्ग स्वप्नदोष से पीड़ित है। ताका-झाँकी करता है। भारतीय मध्यम वर्ग विक्टोरियन चश्मे से भारतीय संस्कृति को देखता है और उसे इस संस्कृति के आनंद और उदीप्तभाव दिखाई नहीं पड़ते। भारत में अंग्रेजी शिक्षा के आगमन पर इसी वर्ग ने उसका भरपूर स्वागत किया था। उसी शिक्षा के द्वारा दिए गए मूल्यों के कारण ही इस वर्ग में कुंठाएँ और वर्जनाएँ पनपी हैं। समाज का यही वर्ग दोहरे मापदंडों का शिकार है। इस वर्ग के पास हाथी की तरह दिखाने और खाने के दाँत अलग- अलग हैं। निम्न मध्यम वर्ग का जीवन जरूरत की धुरी पर घूमता है। उच्च वर्ग का जीवन ऐश्वर्य और संपदा की धुरी पर घूमता है। दुर्भाग्यवश मध्यम वर्ग को यह गलतफहमी है कि उसका जीवन नैतिकता की धुरी पर घूमता है। मध्यम वर्ग की गर्दन अंग्रेजी शिक्षा द्वारा प्रदान की गई सफेद कालर से बंधी है। उसका घरेलू जीवन धार्मिक अंधविश्वासों ने जकड़ रखा है। इस वर्ग की जीवन शक्ति दिखावे में नष्ट होती है। आजाद भारत में संस्कृति के मरुस्थल ने अपना क्षेत्र व्यापक कर लिया, क्योंकि शिक्षित मध्यम वर्ग की आवाज़ पर मीडिया बहुत ध्यान दे रही है। मीडिया का व्यवसाय अमीर वर्ग के हाथ में है और मध्यम वर्ग इसका सबसे बड़ा ग्राहक है। इसलिए इसकी आशा, आकांक्षा और कुंठा मीडिया में प्रतिबिंबित होती है। मध्यम वर्ग ढकोसलों का शिकार है।
गाँधीजी की सक्रियता का कालखंड मध्यम वर्ग के जीवन का स्वर्ण युग था। अगर भारत को एक फिल्म मान लें तो गाँधी का कालखंड उसका मनोहारी स्वप्न-दृश्य है। उसी युग में देशप्रेम की लहर ने मध्यमवर्गीय समाज को कुंठाओं और ढकोसलों से आजाद कराने का प्रयास किया था और मध्यम वर्ग ने इसी कालखंड में अपनी जीवन ऊर्जा को सही दिशा में लगाया था। उस कालखंड में मध्यम वर्ग के समुद्र पर परिवर्तन की लहरें जोर मार रही थीं। जिन विचारकों ने इन लहरों को समुद्र का पर्याय मान लिया, उन विचारकों ने मध्यमवर्ग के बारे में गलत नतीजे निकाले और दुर्भाग्यवश इन नतीजों ने कुछ राष्ट्रीय नीतियों को जन्म दिया। उसी समय परिवर्तन की सारी लहरें केवल सतह पर थीं और समुद्र के भूगर्भ में कुछ भी नहीं बदला था। गाँधीजी की मृत्यु होते ही सतह की लहरें शांत हो गईं और भूगर्भ की हकीकत उजागर हो गई। यह सच है कि भ्रष्टाचार का सबसे अधिक लाभ उच्च वर्ग के लोगों को मिला, परंतु भ्रष्टाचार के जन्म के लिए मध्यम वर्ग जिम्मेदार है क्योंकि सारे नेता और अफसर इसी वर्ग से आए हैं। मध्यम वर्ग के बच्चों ने शिक्षा के केंद्रों में जाकर भाषा और गणित सीखा, लेकिन मूल्यों का विकास तो परिवार में होता है। अंग्रेजों के जाते ही अंग्रेजी शिक्षा की कलई खुल गई। ये शिक्षा केवल क्लर्कों की फौज तैयार कर सकती है जिसका भरपूर उपयोग अंग्रेजी सरकार तो कर सकती थी, परंतु आजाद भारत में ये फौज निकम्मी सिद्ध हुई। अमीर वर्ग ने मध्यमवर्ग की कमजोरियों का लाभ उठाकर अपने लिए वैभव का संसार रच लिया। दरअसल यह खतरनाक प्रक्रिया गाँधीजी के जीवनकाल में उस समय शुरू हुई जब नेताओं ने समृद्ध वर्ग से चंदा लेना शुरू किया। चंदे की रकम से कामकाज चल सकते हैं, परंतु जीवन शक्ति का विकास नहीं हो सकता। आजाद भारत में मध्यमवर्ग की कमजोरी के कारण एक विषैले चक्र का जन्म हुआ। धन से राजनैतिक सत्ता खरीदी गई और लाइसेंस राज में राजनीतिक सत्ता से धन बनाया गया। अमीरों ने नेताओं को चुनाव लड़ने के लिए धन दिया और उनके सत्तासीन होने पर उनके और अधिक धन कमाने के लाइसेंस लिये।
इसी राष्ट्रीय तर्ज पर बुरहानपुर में पंडितजी ने प्रताप के धन और गुंडागर्दी की मदद से चुनाव जीता और प्रताप के लिए अवैध धन बनाने के अवसर जुटाए। आसा अहीर के वंशज प्रताप का राजा बनने का सपना पूरा हुआ। सरकारी कर्मचारी तबादले के डर से प्रताप को सलाम करने लगे। अवाम पर उनके गुर्गों का दबदबा पहले से अधिक बढ़ गया। देश की आजादी के बाद अनेक कस्बे इस तरह गुलाम बना लिये गए। गुलामी अब भी कायम थी, सिर्फ वे हाथ बदले थे जिनकी पकड़ में कोड़ा था। ब्राउन साहब गोरे साहब से भी अधिक जालिम थे।
कृष्ण ने दुकान संभालते ही बहुत सारे परिवर्तन किए। उसने दुकान की सारी क्राकरी बदल दी। दुकान के आगे वाले हिस्से में काँच की बड़ी अलमारी बनाई गई जिसमें मिठाइयाँ सजाकर रखी जाने लगीं। सड़क से गुजरने वाला हर आदमी खूबसूरती से सजाई हुई मिठाइयाँ देख सकता था और यह भी समझ सकता था कि इस दुकान पर धूल और मक्खियों से बचाव की पूरी व्यवस्था है। उसने नौकरों के हाथ कीमत की पर्चियाँ दीं। पहले दुकान में यह व्यवस्था थी कि जब ग्राहक गल्ले पर पैसे चुकाने आता तो दुकान के भीतर से वेटर आवाज लगाकर ग्राहक का बिल बताता था। नई व्यवस्था में इस शोर-शराबे की कोई आवश्यकता नहीं थी। ग्राहक को टेबल पर ही बिल दे दिया जाता था। दुकान बंद होते समय पर्चियों के आधार पर सारे दिन की खपत का हिसाब लगाया जाता था और भीतर कारखाने से जारी किए गए स्टॉक के साथ मेल किया जाता था। इस व्यवस्था के द्वारा नौकरों पर कड़ी निगाह रखी जाती थी। मिठाइयों के साथ ही कृष्ण ने शुद्ध घी बेचने की व्यवस्था भी की। इसका एक लाभ यह भी मिला कि ग्राहक को विश्वास हो गया कि इस दुकान में सारी मिठाइयाँ शुद्ध घी से बनती हैं। लंगड़ दुलीचंद के पर कतरने के लिए कृष्ण ने महू से नियमित रूप से मावा मँगवाना प्रारंभ किया। कृष्ण एक शादी के सिलसिले में इंदौर गया था। उसे मालवे का शुद्ध और सस्ता दूध बहुत पसंद आया। निमाड़ की गर्मी और सूखी घास भैंसों को कमजोर करती है। इसलिए दूध में वह बात नहीं मिलती जो मालवा के दूध में थी। कृष्ण ने महू के मावे की एक दुकान के साथ नियमित सप्लाई की व्यवस्था की। उसकी दुकान में महू के मावे के कारण मिठाइयों का स्तर और स्वाद दूसरों से बहुत बेहतर हो गया। इस तरह कृष्ण ने अपने पिता महेश की परंपरा में अच्छा-खासा विकास किया। उसने अपने सगे और सौतेले भाइयों को यह समझाया कि आने वाला युग शिक्षा का युग होगा और हमारे परिवार की प्रगति के लिए यह जरूरी है कि सभी लोग उच्च शिक्षा प्राप्त करने का प्रयास करें। उसने रसिक को पढ़ने के लिए नागपुर भेजा और इस बात का पूरा ध्यान रखा कि वह अगर सौ रुपए मँगवाता तो कृष्ण उसको डेढ़ सौ रुपए भेजा करता था। छोटी माँ यह जानकर बहुत प्रसन्न हुई कि कृष्ण उनके बेटे रसिक को सगे भाई की तरह प्यार करता है। सभी भाइयों की शिक्षा पर ढेर सारा पैसा खर्च होने लगा और जानकी को ऐसा लगा कि उसका बड़ा बेटा पागल है।
एक दिन दुकान बंद होने के पश्चात् जब सारी चाबियाँ देने के लिए कृष्ण अपनी माँ जानकी के पास आए, तब माँ ने उससे पूछा कि रसिक और दूसरे भाइयों की पढ़ाई पर तुम जरूरत से ज्यादा पैसा बर्बाद कर रहे हो। कृष्ण ने मुस्कुराकर वही दोहरा दिया जो उसने अपने भाइयों को कहा था। जानकी ने बीच में ही रोककर उसे डाँट दिया और उसकी दरियादिली का स्पष्टीकरण माँगा। कृष्ण ने उसे बताया कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद उसके सगे और सौतेले भाई मिठाई के धंधे में रुचि नहीं लेंगे और वे अपने लिए नौकरियाँ खोजेंगे। इस शिक्षा से बुद्धि का उतना विकास नहीं होता जितना एक खास जीवनशैली का। घर के काम में राजा नहीं बनकर लोग चाकरी करना पसंद करते हैं। इस दशा में दुकान पर उसका एकछत्र राज चलता रहेगा। उन्हें मैं खर्चे के लिए इतना अधिक पैसा देता हूँ कि वे मुझसे दुकान के लाभ का ब्यौरा पूछने की कभी हिम्मत नहीं करेंगे। हर युग का अपना एक नशा होता है। शिक्षा का नशा युवकों को आत्म केन्द्रित बना रहा है। बड़े परिवारों के टूटने का समय आ गया और छोटे परिवारों का उदय होने लगेगा। बड़े शहरों की चमक-दमक छोटे शहरों और कस्बों से नौजवानों को अपनी ओर खींच रही है। ये सारी बातें जानकी की समझ से बाहर र्थी परन्तु अपने बेटे की वाणी में गंभीरता और अपनी उम्र से कहीं ज्यादा बड़े होने का भाव सुनकर वह आत्मविभोर हो गई। उसे लगा कि अगर कभी छोटी माँ ने युद्ध छेड़ा तो छोटी माँ की पराजय होगी, क्योंकि लगभग पहली महाभारत वाला कृष्ण उसके साथ है।
कुछ दिन बाद ही जानकी ने इंदौर से मँगवाए स्वेटर और शाल का बंडल लेकर रूपा की घर की ओर प्रस्थान किया। परंपरानुसार रूपा ने उनके चरण छुए। दोनों माताएँ गले लगीं। महेश के नाम पर कुछ फर्जी आँसू बहाए। जानकी ने ढेर सारे गरम कपड़े रूपा को दिए और कहा कि वह कपड़ों को रसिक के पास भिजवा दे, ठंड का मौसम आने वाला है और होस्टल में रसिक को तकलीफ होती होगी। रूपा खुशी के मारे गदगद हो गई। उसे आश्चर्य हुआ कि बड़ी माँ को रसिक की इतनी चिन्ता है। माताओं के इस महामिलन के समय लंगड़ दुलीचंद घर पर पधारे। उन्हें यह देखकर बड़ा दुःख हुआ कि दोनों के बीच शत्रुता के बदले प्रेम पैदा हो रहा है। लंगड़ दुलीचंद ने कहा कि रसिक नागपुर में पढ़ते हैं जहाँ कोई ठंड नहीं पड़ती और ये कपड़े बेकार हैं। यह सुनते ही रूपा ने दुलीचंद को फटकारा और जवाबी सवाल दागा कि आप नागपुर कब गए ? आपको क्या मालूम कि नागपुर में बर्फ गिरती है या धूप बरसती है। रूपा ने अपने पिता से स्पष्ट शब्दों में कहा कि वे अपनी भैंसों और घर को संभालें और हमारी गृहस्थी में दखलअंदाजी न करें। अपमान से तिलमिलाते हुए लंगड़ दुलीचंद दुकान की ओर लौट गए। वापसी के इस सफर में उनकी अच्छी टांग में भी दर्द होने लगा। उधर जानकी, रूपा के तेवर देखकर मन ही मन खुश हुई, परंतु ऊपरी तौर पर उन्होंने रूपा को अपने पिता के साथ दुर्व्यवहार करने पर बहुत डाँटा। उन्होंने प्रेम और आँसू से सिक्त आवाज़ में कहा कि छोटी अपने पिता से ऐसी बात करती हो! दोनों माताएँ आपसी प्रेम और सौहार्द के समुद्र में डुबकियाँ लगाने लगीं। इस तरह स्वतंत्रता संग्राम के शुरुआती दौर में सभी परिवारों के बीच बड़ा अमन-चैन था। सभी लोग सपनों की दुनिया में खोए थे। भारत के जीवन में स्वप्न और आशावाद का स्वर्ण युग दक्षिण भारत की पारिवारिक फिल्मों के पहले भाग की तरह था। इन फिल्मों में मध्यांतर के बाद ही षड्यंत्र और दुःख शुरू होता था।