एक थी अनु दी / अवधेश श्रीवास्तव
उस दिन अचानक कुछ अजीब-सा घट गया। अनु दी की शादी की बात मास्टरजी ने कहीं चला दी थी। लड़का और उसके घरवाले देखने भी आ गए थे। ऐसा नहीं था कि अनु दी से सब बातें छिपी हों। उन्होंने बातचीत के दौरान स्पष्ट स्वर में शादी से इंकार कर दिया था। पूरा मोहल्ला हक्का-बक्का रह गया था।
लड़का और उसके घरवाले अपना-सा मुंह लेकर वापस चले गए थे। मैं वहां पहुंचा तो सन्नाटा छाया था। मास्टरजी बेजान-से आरामकुर्सी पर पड़े थे। मैंने नमस्कार किया तो उन्होंने अपनी गर्दन किसी यंत्र की तरह नीचे झुकाकर ऊपर उठा ली। मुझे लगा, जैसे मैंने किसी मुर्दे से नमस्ते की है, जिसमें निमिष- भर के लिए जान डाल दी गई हो। फिर वे अपनी खामोशी समेत ही उठकर अंदर चले गए।
ढेर सारी किताबों में उलझी अनु दी ने कमरे की खामोशी को तोड़ा- ‘‘विवेक, आओ बैठो।’’
मैं उनके करीब ही चटाई पर बैठ गया था। मेरे मन में उनके प्रति कुछ नाराजगी भरी थी।
‘‘तुम आज चुप क्यों ही?’’ अनु दी ने मोटी-सी किताब पर झुका सिर उठाया था, ‘‘क्या तुम भी मेरे इस निर्णय से नाराज हो?’’
‘‘नहीं!’’ मैंने एक पत्रिका को उलटना-पलटना शुरू कर दिया था- ‘‘पर इतनी बात तो कहूंगा कि समाज में रहकर उसकी इतनी अवहेलना उचित नहीं। आखिर बदनामी भी तो आदमी के जीवन से जुड़ी है! आपको शादी नहीं करनी थी तो ठीक है, पर लड़के से बहसबाजी करने और उसका अपमान करने की क्या जरूरत पड़ गई? क्या आप जीवन-भर बिना शादी ..’’
‘‘विवेक, अगर इस समाज में शादी एक व्यापार है तो मुझे इस व्यापार से
नफरत है! इससे अच्छा है कि बिना शादी के ही जीवन-निर्वाह करूं।’’ अनु दी ने किताब एक तरफ रख दी थी- ‘‘तुम उस समय यहां होते तो शायद सोचते कि मैंने ठीक ही किया है। इस समाज में लड़की की योग्यता का कुछ महत्त्व नहीं है। पैसा ही सर्वोपरि है। लड़के ने जब स्वयं बाबूजी पर व्यंग्य कसा कि आप पी-एचडी की बात कर रहे हैं, मेरे पास एमबीबीएस लड़की का पचास हजार कैश के साथ ऑफर है...तो ऐसे लड़के को डांटना लाजमी था। भला मैं अपने विचारों और सिद्धांतों को ताक पर रखकर चुप क्यों बैठी रहती? मेरी पढ़ाई-लिखाई का तब फायदा ही क्या?’’
‘‘प्रकृति पुरुष के साथ है। उससे कहां तक लड़ा जा सकता है!’’ मैंने तर्क किया था, ‘‘लड़का प्रोफेसर है, कुछ समय बाद विदेश जा रहा है। इतना अच्छा...’’
‘‘विदेश जाना क्या किसी की योग्यता का प्रमाण है?’’ अनु दी मुझे बीच में ही टोककर बिफरी थीं- ‘‘महत्त्वाकांक्षाओं में घिरे ऐसे न जाने कितने कैरियरिस्ट बुद्धिजीवी हैं जो सिर्फ अपनी आर्थिक सुख-सुविधाओं को जुटाने के लिए चिंतित रहते हैं। समाज और देश से उन्हें कोई वास्ता नहीं होता।’’
मास्टरजी ने मौन ओढ़ लिया था। उन्होंने अनु दी को गांधी और गौतम के विचारों से शिक्षित-दीक्षित किया था। लेनिन और मार्क्स के विचारों की अनु दी ने स्वयं शिक्षा ले ली थी। इनके विचारों को पढ़ने के बाद उन्होंने अच्छी तरह से समझ लिया था कि अब सामाजिक परिवर्तन बहुत जरूरी है और यह काम किसी क्रांतिकारी कदम से ही संपन्न हो सकता है।
अक्सर अनु दी से मैं भी तर्क कर जाता। वह घर छोड्घ्कर जाने की बात करतीं तो मैं प्रतिवाद करता- ‘‘गौतमबुद्ध भी तो घर छोड्घ्कर गए थे किसी स्वस्थ समाज की स्थापना करने के लिए। कहां है उनका समाज? कभी किसी दार्शनिक और चिंतक के विचारों के सहारे समाज नहीं चलता।’’
‘‘आज इस देश में कोई संस्कृति और दर्शन है भी?’’ अनु दी मेरी अबोधता पर हँस दी थीं, ‘‘भ्रष्ट संस्कृति के बीच जीने वाले बुद्धिजीवी ऐसे ही सोचते हैं। ’’ अक्सर अनु दी की तीखी बातों से अपमान-बोध रेंगने लग जाता था, पर मैं उनके विचारों से अभिभूत हो, उनकी तलाश शुरू कर देता था। वह घर पर कम ही मिलतीं। कभी किसी संस्था में, तो कभी किसी आदोलन में सक्रिय नजर आतीं। शहर की झुग्गी-झोपड़ी वाली आबादी में जातीं, उनकी समस्याएं सुनतीं और सुलझाने का प्रयास करतीं। मजदूरों की बस्तियों से उन्होंने हमदर्दी का रिश्ता कायम कर लिया था, क्योंकि उनका विश्वास था कि शोषित और पीड़ित जनता की सेवा करना ही सच्ची सेवा है और उन्हें शोषण और पीड़ा से मुक्त होने के लिए सक्रिय करना ही सबसे बड़ा धर्म है।
एक दिन मुझे अनु दी मजदूरों की सबसे बड़ी बस्ती जूही कालोनी में मिल गई थीं। मैंने सहसा साइकिल रोक ली- ‘‘इधर कहां जा रही हैं आप?’’
मुझे देखकर वह तनिक असमंजस में पड़ी, फिर हल्के-से मुस्कराकर बोलीं, ‘‘आओ मेरे साथ।’’
मैं उनके साथ हो लिया। मैं अक्सर अपने आवश्यक काम छोड्घ्कर अनु दी के कहने पर कहीं भी चल देता था। मजदूर परिवारों की महिलाएं निकलकर अनु दी से कुछ न कुछ बात करतीं। एक जगह एक महिला ने रोक लिया- ‘‘अनु बिटिया, आज नहीं जाने दूंगी। आज मुझे कमीज सिलना सिखा ही दो, नहीं तो मैं मशीन वापस कर आऊंगी।’’
‘‘भाभी, कल सुबह जरूर आऊंगी।’’ अनु दी ने हाथ जोड़े थे, ‘‘आज मुझे माफ कर दो। ‘‘
हम दोनों आगे बड़े तो उस महिला ने जोरों से आवाज दी थी- ‘‘अनु बिटिया, ठंडाई तो पीती जाओ।’’
‘‘कल सुबह पिएंगे।’’ अनु दी ने बिना पीछे देखे इतनी बात कही थी। ‘‘विवेक, यह महिला थोड़ी-सी पड़ी है।’’ अनु दी ने उसका परिचय देना शुरू कर दिया- ‘‘रंग-बिरंगे कांचों के ढेर से अलग-अलग रंगों के कांच छांटने का काम करती थी। इसकी सुंदरता पर कांच के ठेकेदार की नीयत खराब हो गई। इसने काम छोडू दिया। काम छोडूने पर इसके पति ने इसे मारा-पीटा। एक दिन मैंने यह सब सुना तो इससे पूछा कि तुम और कोई काम कर सकती हो? यह बोली कि सिलाई का थोड़ा-बहुत काम जानती हूं। इसने दो सौ रुपये अपने पति से छिपाकर जोड़ रखे थे। मैंने इसे किस्त पर सिलाई मशीन दिलवा दी। अब यह अपने पति को खुश करने के लिए कमीज बनाना चाहती है। बस्ती के और लोगों के कपड़े सिलकर अच्छी आमदनी कर लेती है।’’
‘‘अनु दी, अगर इसने किन्हें न दीं तो?’’
‘‘विवेक, तुम्हारी दृष्टि चोर की है! इसे बदलने का प्रयास करो।’’ अनु दी ने व्यंग्य कसा था, ‘‘मैं समझ लूंगी कि एक पुस्तक के अनुवाद का पैसा प्रकाशक ने कम दिया है। ‘‘
मैं शर्मिंदा हो गया था।
अब तक हमने पैदल ही काफी रास्ता तय कर लिया था। मजदूर कालोनी पीछे छूट गई थी और हम मेहतरों की बस्ती के बीच आ पहुंचे थे।
नथुनों में अजीब-सी सड़ांध भर गई। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि अनु दी में इतना धैर्य और इतनी सामाजिकता आ जाएगी। अचानक उन्होंने एक छोटी-सी कोठरी के सामने रुककर दस्तक दी। कुछ देर में हल्की बढ़ी दाढ़ी वाला एक चुस्त नौजवान सामने खड़ा था।
‘‘आइए, अनुजी।’’ व्यवस्थित कमरे के बीच बिछी चटाई पर उसने बैठने का इशारा किया और दृष्टि मेरी ओर फेंकी।
‘‘आप हैं मिस्टर विवेक शर्मा।’’ अनु दी ने मेरी ओर इशारा किया था। ‘‘अच्छा, अच्छा, आप कहानियां लिखते हैं!’’ उस युवक ने मुस्कराते हुए हाथ मिलाया- ‘‘मुझे आशुतोष कहते हैं।’’
‘‘अच्छा विवेक, तुम कहानियां किसके लिए लिखते हो?’’ अनु दी निश्चिंत होकर चटाई पर बैठ गई थीं- ‘‘तथाकथित बुद्धिजीवियों के लिए, जो कुर्सी पर बैठे ऊंघते रहें और जाम में डूबकर उनकी चर्चा करते रहें? कहां है वह साहित्य जो जनता को जनक्रांति के लिए प्रेरित करे? आजकल मजदूर-किसानों पर कहानियां लिखने का फैशन चल पड़ा है। लिखने वाले वातानुकूलित कमरों में सोफों पर बैठकर मजदूरों के पसीने की गंध और उनके उत्पीड़न का मर्म महसूसते हैं। सही मायने में यह साहित्य जनता के लिए नहीं है, जनता का साहित्य नहीं है!’ ‘‘ श्अनुजी, आप बेकार का भाषण दे रही हैं।’’ आशुतोष ने उन्हें बीच में टोका था, ‘‘किसी परिवर्तन में साहित्यकार की भूमिका का उतना ही महत्त्व है, जितना एक राजनीतिज्ञ का। अगर लेखक ही सब कुछ कर लेते तो फिर लेनिन की क्या जरूरत थी? लेनिन और गोर्की दोनों का ही अपना-अपना महत्त्व और दायित्व है और उनकी अनिवार्यता भी है। मैंने भी विवेक की कहानियां पढ़ी हैं। मजदूर आदोलन पर इनकी कुछेक अच्छी कहानियां हैं, जिनकी तुमने भी तारीफ की थी। सवाल दृष्टि का है, जो विचारों से परिपक्व होती है...धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।’’
मैंने पहली बार यह जाना था कि अनु दी मेरे पीछे मेरी प्रशंसा भी करती हैं अचानक मेरी दृष्टि कोठरी की दीवारों की तरफ गई तो देखा, तमाम सारे सर्टिफिकेट और डिग्रियां रंगी थीं।
‘‘विवेक, ये सर्टिफिकेट और डिग्रियां बताती हैं कि आशुतोष अपने स्कूल- कालेज के दिनों में मेधावी छात्र रहे हैं। पर अब इन्हें बेजान शीशों भे कैद कर ऐसे टांग दिया है जैसे कि अजायबघर की चीजें हों।’’ अनु दी ने बिना कुछ पूछे ही बताया था- ‘‘आशुतोष के जीवन में इनका कोई उपयोग नहीं रहा। यह अफसरशाही में गुलामों जैसा जीवन जीना स्वीकार नहीं कर सके।’’
सहसा मुझे याद आया कि अपनी डिवीजन सुधारने के लिए मैंने अमेरिका को खोजने वाले कोलंबस की तरह दुर्गम यातना-भरी यात्राएं की थीं...और यहां डिवीजन वगैरह अजायबघर की चीजें हैं!
आशुतोष ने नीबू की चाय बनाई थी। चाय पीने के बाद मैं अनु दी के साथ वहां से उठ आया था।
मेरी समझ में आने लगा था कि अनु दी का संपर्क ऐसे लोगों से हो गया है जो इस समस्या का आमूल-चूल परिवर्तन क्रांतिकारी माध्यम से चाहते हैं। अनु दी के साथ पढ़े-लिखे, जागरूक और संवेदनशील युवक-युवतियों की कतार थी। भरपूर उत्साह और लगन के साथ अनु दी उन सबके साथ सक्रिय थीं। वह मुझे भी राजनीति में दिलचस्पी लेने के लिए प्रेरित करने लगीं और धीरे-धीरे मैं भी अनु दी के साथ सक्रिय होता चला गया। अनु दी ने दहेज और बलात्कार के विरोध मेँ महिलाओं को एकत्रित कर कई बार जुलूस निकाले। उन्हें कई बार असामाजिक तत्त्वों और पुलिस व्यवस्था का जबरदस्त विरोध सहना पड़ा। पर वे निर्भय होकर अपने कार्य में पूरी लगन से लगी रहीं। उनकी गतिविधियां और दायरे बढ़ते ही गए। यहां तक कि वे बोनस के लिए धरना देने वाले भारतीय कॉटन मिल’ के मजदूरों के बीच भी सक्रिय हो गईं। उन्होंने बस्तियों में जाकर मजदूरों को समझाया। मजदूरों की पत्नियों को भी इस लड़ाई में शामिल कर लिया। धरना धीरे-धीरे एक बहुत बड़ी हड़ताल में बदल गया।
भारतीय कॉटन मिल’ बंद हुए महीना बीत गया था, इसलिए अखबारों में हड़ताल की सुर्खियां आने लगीं।
अनु दी ने आम जनता को इस हड़ताल में सक्रिय करने के लिए एक जुलूस निकालने की योजना बनाई। अब तक उनका नाम पुलिस की फेहरिस्त में चढ़ चुका था। सरकारी अनुमति मिलनी मुश्किल हो गई। अनुमति के लिए एसपी. रंजन प्रसाद से मिलने के लिए अनु दी ने आशुतोष के साथ-साथ मेरा भी नाम लिख दिया था। मैं मना न कर सका था, हालांकि यह अच्छी तरह से जानता था कि मेरे पापा से रंजन साहब का अच्छा परिचय है। बात घर तक अवश्य पहुंच जाएगी।
‘‘मिस अनुजा चौधरी, आप और आपके साथियों का उत्साह देखकर हम बहुत खुश हैं।’’ एसपी साहब ने बड़ी आत्मीयता दिखाई, ‘‘आप लोग समाज में जागरूकता पैदा कर रहे हैं। जुलूस निकालना तो प्रजातांत्रिक अधिकार है। हम और हमारी पुलिस व्यवस्था आपके साथ है। हिंसात्मक तत्त्वों से पुलिस आपकी सुरक्षा करेगी, पर आप लोग कोई हिंसात्मक पहल न करें। गांधी के आदर्श अहिंसा पर चलना हम सबका कर्त्तव्य है।’’
मैं एसपी साहब के साथ हुई भेंट से अभिभूत हो गया था। मैंने जब एसपी साहब की तारीफ अनु दी से की तो उन्होंने थोड़ी-सी नाराजगी का लहजा अपनाया, ‘‘विवेक, तुम्हें कब अकल आएगी! रंजन साहब बहुत कांइयां और चट आदमी हैं। इन्हें इस शहर में हमारी योजनाओं को निष्फल करने के लिए ट्रेंड करके भेजा गया है। पहले परमिशन इसलिए नहीं दी गई कि हम लोग उनसे मिलें और वे हम लोगों के चेहरे पहचानें। वे तो जानबूझकर हिंसा की बात कर रहे थे ताकि हम लोग कुछ बोलें। सही मायने में वे हम लोगों को चेतावनी दे रहे थे!’’
मैं अनु दी की दूरदर्शिता पर चकित था। एसपी साहब से मुलाकात के दूसरे दिन मैं अपने कमरे में जुलूस के लिए बैनर तैयार कर रहा था। अचानक पापा की छाया मेरे सामने आकर खड़ी हो गई। इस कमरे में बहुत कम ही आने वाले पापा को देखकर मैं सहम-सा गया।
‘‘विवेक, तुम्हारा यह नाटक बहुत दिनों से देख रहा हूं।’’ पापाजी ने सख्त लहजा अपनाया था, ‘‘कल प्रसादजी से अचानक सड़क पर मेरी मुलाकात हुई थी। जाकर उनसे घर पर मिल लेना। गुंडा एलीमेंट का साथ तुम फौरन छोडू दो और अपने कैरियर पर ध्यान दो।’’
क्या कहते हैं आप? इन सभी पढ़े-लिखे, ईमानदार और निःस्वार्थ लोगों को, जो शहरी स्तर पर मजदूरों को, ग्रामीण स्तर पर किसानों को दमन के खिलाफ जागरूक कर रहे हैं, उन्हें आप गुंडा एलीमेंट बताते हैं। किस कैरियर की बात करते हैं आप? जहां अनु दी का एपाइंटमेंट इसलिए न हो सका कि वह कॉलेज मैनेजर की रिश्तेदार नहीं थीं? आप झूठ बोलते हैं कि रंजन साहब से आपकी मुलाकात सड़क पर हुई है। मम्मी ने मुझे सब कुछ बता दिया है, रंजन साहब कल घर पर ही आए थे। उनसे आपने वायदा किया है कि मैं मुखबिर बनकर इन साथियों की सीक्रेसी उन तक पहुंचाऊंगा। ऐसा कभी नहीं होगा...’ मैं इतनी बात कह गया था, पर मन में ही.। पापाजी कमरे से कब चले गए, मुझे पता नहीं चला था।
अनु दी से मिलने पर मैंने पूरी बात साफ-साफ बता दी।
जुलूस निकालने की तारीख ज्यों-ज्यों पास आ रही थी, त्यों-त्यों प्रशासन चुस्त और सजग होता चला जा रहा था। आदोलन ने सारे शहर में सनसनी फैला दी। फूलबाग के मैदान से अभूतपूर्व विशाल जुलूस निकला था, जिसमें मजदूरों की पत्नियां और बच्चे भी शामिल थे। बड़ा चौराहा, परेड, गुमटी, गोविंद नगर व जुड़ी कालोनी से होता हुआ जुलूस कॉटन मिल के सामने पहुंचकर रुक गया था। मिल के अंदर मिल-मालिकों ने यूनियन के नेताओं को बंद कर लिया था। आखिर अंदर बंद यूनियन नेताओं की गुंडों से पिटाई कराई थी। गेट का ताला तोड़कर मजदूर अंदर घुस गए। लहूलुहान नेताओं को कंधे पर रखकर वे बाहर निकलने लगे तो पुलिस ने उन्हें रोका। मजदूरों ने भी री स्टोर में घुसकर सरिया और पाइप अपने हाथ में ले लिए थे। मालिकों के गुंडों ने मजदूरों को पीटना शुरू कर दिया। पुलिस ने भीड़ पर गैस के गोले फेंके। भीड़ को तितर-बितर न होता देख अंत में गोलियां बरसाई थीं। सारा माहौल लहूलुहान हो गया था। लाशों को ट्रकों में भर लिया गया था। अर्द्धमूर्छित और घायल मजदूरों को भी लाशों के बीच दबा दिया गया था।
पूरा शहर स्तब्ध और शोकाकुल हो उठा था। मजदूरों की बस्तियों में पुलिस, पीएसी तैनात कर दी गई थी। डीएम ने सारे शहर में दफा एक सौ चवालीस तथा मिल के इर्द-गिर्द कर्फ्यू लगा दिया था। अखबारों ने इस दुर्घटना को एक और जलियांवाला कांड कहा था। इस मार्मिक घटना को बीबीसी लंदन ने ब्रॉडकास्ट किया था। न्यूज सेंसर की गई थी, इसलिए मजदूर-पुलिस मुठभेड़ में मात्र पांच मजदूरों की मृत्यु दिखाई गई थी।
अनु दी गिरफ्तार हो गईं। उन्हें पांच साल के लिए शहर छोडूने का आदेश हो गया था। उनके शहर से चले जाने की सूचना को मुहल्लेवालों ने गलत ढंग से लिया था। हर व्यक्ति ने अनु दी के बाबूजी पर धू-धू किया। अपनी-अपनी टिप्पणियों की बौछारें लोगों ने फेंकी थीं- ‘बड़ा काबिल बना रहे थे अपनी बेटी को...पी-एचडी करा रहे थे, बड़ा स्वाभिमान था अपनी बेटी पा। कहते थे, एक दिन नाम रोशन करेगी। चली गई मुंह पर कालिख पोतकर...बुढ़ापे की यह बदनामी मौत के बाद भी पीछा नहीं छोड़ेगी.।’
अपने को समझदार अनुभव करने वाले लोग कुछ ज्यादा ही ऊंचा बोले थे- ‘इस उम्र में प्रेम-प्रेम हो जाना स्वाभाविक है। पढ़ी-लिखी समझदार लड़की को भगाने की क्या जरूरत पड़ गई? कोर्ट मैरिज कर समाज से संघर्ष करती।’
मोहल्ले में ही नहीं, कॉलेज में भी अनु दी स्टाफ की चर्चा का विषय बनीं। लोग यह भी सोचते थे कि हिंदी विभाग की नियुक्ति में जो उनके साथ नाइंसाफी हुई थी, इस कारण वह अपमान-बोध से शहर छोड्घ्कर चली गईं।
तमाम सारी अफवाहों-आरोपों के बीच अनु दी घिर गई थीं। मैं चाहकर भी सचाई नहीं बता सका था। समाज का चलन इतना गलत है कि इसमें जो बात, जिस तरह से एक बार लोगों के मन में बैठ जाती है, उसे निकाल पाना असंभव नहीँ तो मुश्किल अवश्य होता है।
अनु दी को मैं स्टेशन छोडूने गया था। रात के खामोश सन्नाटे में ठंडी हवाएं सायं-सायं कर रही थीं। मैंने खामोशी तोड़ी, ‘‘यहां के आदोलन को कौन गति देगा?’’ ‘‘हम अपने उद्देश्य में सफल हो रहे हैं!’’ अनु दी ने कहा, ‘‘हमें नेता नहीं बनना है, बल्कि मजदूरों को शोषण और जुल्मों का अहसास कराकर उन्हें विद्रोह के लिए खड़ा करना है। वे स्वयं ही अपने ढंग से नेतृत्व खोजेंगे। एक बार जिसमें क्रांति के लिए ज्योति जल उठती है, उसे फिर कभी, कोई आधी बुझा नहीँ पाती। फिर तुम और आशुतोष तो यहां हो ही!’’
अनु दी बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में सक्रिय हो गईं।
एक दिन आशुतोष के कमरे पर गया तो देखा कि उसकी डिग्रियों की जगह अब देश-विदेश के क्रांतिकारी राजनीतिज्ञों के चित्र टँगे थे।
‘‘आपकी सारी डिग्रियां कहां गईं?’’ मैंने उत्सुकता जाहिर की।
‘‘एक दिन अंगीठी जलाने के लिए कोयले नहीं रहे तो मैंने उन्हें जलाकर चाय बना ली।’’ आशुतोष ने बड़े ही सहज होकर कहा, ‘‘इन क्रांतिकारियों के चित्र तुम देख रहे हो! इन्होंने ही मुझे सही शिक्षा दी है। कागजी डिग्रियां मुझे गुलामों जैसी जिंदगी से ज्यादा कुछ नहीं दे सकती थीं। मेरे एक मित्र ने पिछले साल आईएएस कंपलीट किया था। वह हताश हो गया है। कारण, वह मूर्ख और भ्रष्ट मंत्रियों के आदेशों का सरकारी अर्दली से ज्यादा कुछ नहीं बन सका।’’ अब मेरी शामें आशुतोष के साथ गुजरने लगीं। मेरे विचार और दृष्टिकोण बदलने लगे थे। मैंने जान लिया था कि यह लड़ाई कहां ले जाएगी, शायद इन्हें स्वयं पता न हो, पर इन्होंने लड़ना मुख्य धर्म मान लिया है। अनु दी के समाचार लगातार मिलते रहते। उन्होंने भूमिहीन किसानों के साथ मिलकर उन्हें जमींदारों के विरुद्ध संघर्ष के लिए प्रोत्साहित किया। बेगार करने वालों को उनके शोषण के खिलाफ जागरूक आदोलन के लिए तैयार किया। प्रशासन को दिखाया कि उनके कड़े क्या कहते हैं और वास्तविक स्थितियां क्या हैं? जमींदारों ने पुलिस व प्रशासन से मिलकर विद्रोह करने वालों की झुग्गी-झोपड़ी जलवा दीं। अनु दी ने उन्हें सक्रिय कर जमींदारों के विरुद्ध खड़ा कर दिया। आदोलन किए और जुलूस निकाले।
अचानक मास्टरजी के बीमार पड़ जाने से कई दिनों तक आशुतोष से न मिल सका। आशुतोष के पास गया ताकि वह अनु दी को सूचित कर दें कि वह अपने बाबूजी से मिल लें।
‘‘अनु दी को पांच पुलिसकर्मियों की नृशंस हत्या करने के अपराध में कोर्ट द्वारा फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है!’’ आशुतोष ने बताया, ‘‘उन्होंने सरकारी या अन्य किसी तरह की सहायता लेने तथा माफी मांगने से इंकार कर दिया है।’’ बीमार मास्टरजी तथा आशुतोष के साथ मैं पटना पहुंचा। वहां स्टेशन पर आशुतोष हमें छोड्घ्कर कहीं चला गया। बिहार पुलिस ने आशुतोष के नाम वारंट जारी कर रखा था।
पटना की सेंट्रल जेल के अंदर अनु दी को कठोर निगरानी में रखा था। पापा ने मास्टरजी के बुढ़ापे पर तरस खा, अपने परिचित मंत्री को पत्र लिख दिया था। पत्र देखकर मंत्री महोदय बड़े असमंजस की स्थिति में फंस गए।
‘‘इस तरह के सक्रिय लोगों से निपटने के लिए केंद्र के सख्त आदेश हो चुके हैं।’’ मंत्री महोदय ने मास्टरजी को पूरा- ‘‘पढ़ी-लिखी लड़की का गुंडा एलीमेंट के साथ कैसे संपर्क हो गया? जाइए, जेलर को मैं फोन कर दूंगा।’’ मंत्री की सिफारिश के बावजूद जेलर ने सरकारी खानापूर्ति में पूरे दो दिन गुजार दिए थे।
‘‘आप लड़की के पिता हैं? आप भाई हैं?’’ जेलर ने उपहास-भरी नजरों से मुझे व मास्टरजी को देखा, ‘‘मिलने से पहले इस शर्त को पढ़ लीजिएगा।’’ नीली स्याही की लिखावट से पुता एक सफेद कागज हम दोनों के सामने मेज पर खुल गया- ‘फांसी के बाद रात में ही लाश का दाह-संस्कार करना होगा। लाश को शांतिपूर्वक ले जाना होगा, किसी तरह के जुलूस या नारों का आयोजन नहीं होगा।’
मास्टरजी ने सरकारी नजर डालकर नीचे दस्तखत बना दिए।
‘‘सुनो, इन्हें अंदर ले जाओ!’’ जेलर ने एक पुलिसकर्मी को आवाज दी- ‘‘ध्यान रहे, पांच मिनट से ज्यादा समय न लगे।’’
अंधेरी कोठरी के एक कोने में अनु दी जंजीरों से लदी दिखीं।
‘‘अनु दी!’’ मेरी आवाज कांपी।
जंजीरों की तेज खनखनाहट कोठरी में गूंज गई। कोठरी के दरवाजे तक अनु दी बिजली की तरह दौड़ती हुई आईं। दरवाजे की सलाखों को उन्होंने कसकर पकड़ लिया।
‘‘मेरी वजह से आपको जो दुःख पहुंचा है, उसके लिए माफी चाहती हूं।’’ अनु दी ने मुंह फेर लिया था, ताकि उनकी आँखों में आए आँसू हम दोनों देख न लें।
बिना किसी उत्तर के मास्टरजी ने सलाखों के बीच हाथ डालकर अनु दी के बिखरे बालों वाले सिर पर प्यार से हाथ फेरा मानो मासूम-सी बच्ची को दुलार रहे हों।
‘‘विवेक, मैं जानती थी कि तुम यहां आओगे। संभव था कि सख्ती के कारण तुम मुझसे मिल नहीं पाते, इस कारण मैंने तुम्हें एक पत्र लिखा था।’’ अनु दी ने पेंसिल से लिखा छोटा-सा पत्र चुपके से दिया।
मैं और मास्टरजी अनु दी से मुलाकात कर वापस आ गए। गेट के बाहर होते ही मैंने अनु दी द्वारा दिया पत्र खोल लिया-
प्यरि विवेक, तुम्हारी अनु दी अगर उन पांच पुलिसकर्मियों की हत्या न करतीं तो उनके द्वारा बलात्कार का शिकार होतीं। कोर्ट में मैंने यह इसलिए नहीं बताया, क्योंकि यह जानकारी आदोलन की महिला साथियों में एक तरह का भय बैठा सकती है। माफी मांगकर मुझे जिंदगी मिल सकती है, पर मेरी मृत्यु क्रांति के लिए एक प्रेरणा बनेगी। संघर्ष में बलिदान स्वाभाविक है। जनता को शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ प्रेरित करने के लिए मरना एक खुशी की मौत होती है। मरना मेरे लिए गौरव ही है। लेकिन तुम मेरी फांसी को एक सहज मृत्यु के ही रूप में लेना। तुम्हें हिदायत भी देती हूं कि रोमांचकारी दृष्टिकोण से, भावुकता में फंसकर, व्यक्तिगत बलिदानों को मुद्दा बनाकर कुछ भी सृजन न करना। व्यवस्था बदलने के क्रांतिकारी दोलनों को कहानियों, किस्सों व कविताओं के अति भौतिकवादी वातावरण में तुम कैद न होने देना। क्रांतिकारी साहित्य का अध्ययन अवश्य करना, ताकि सही और सच्चे अर्थों में जनता के लिए लिख सको। अपने मास्टरजी का खयाल रखना-तुम्हारी, अनु दी।’
आखिर फांसी का दिन भी आ गया। सरकारी औपचारिकता के बाद अनु की लाश को हमें रात के करीब दो बजे सौंपा गया।
अर्थी उठते ही हमारे साथ न जाने कहां से लंबी भीड़ आकर जुट गई। भीड़ ने फूलों से अनु दी का स्वागत किया था। मुझे समझने में देर नहीं लगी कि सब अनु दी के ही साथी हैं। एक जीप लाश के पीछे-पीछे हो ली, जिसमें पुलिस मय हथियारों के थी। पूछने पर उन्होंने बताया कि प्रशासन ने उन्हें आदेश दिया है कि लाश के अंतिम संस्कार तक साथ रहें।
सभी साथी आँख में आँसू लिए चिता से उठती लपटों को देखकर प्रतिज्ञा कर रहे थे।
चिता को ठंडी होती देख मैंने मास्टरजी का हाथ पकड़ लिया।
धीरे-धीरे श्मशान घाट की सीढ़ियाँ चढ़कर हम ऊपर पहुंचे तो देखा पूरब की ओर सूरज उदय हो रहा था।