एक थी तरु / भाग 13 / प्रतिभा सक्सेना
"अरे, बहुत दिन बाद? क्या आपने किसी दूसरी ट्रेन से जाना शुरू कर दिया?"
होल्डाल अपनी बर्थ पर रखते हुये असित ने पूछा।
"नहीं, इधर एक महीने छुट्टी पर थी।”
"माँ, का क्या हाल है।”
'उनकी तेरहवीं के बाद अब ज्वाइन करने जा रही हूँ।”
"माँ का स्वर्गवास हो गया?। बताया भी नहीं मुझे?’
कह कर असित को लगा कुछ अधिक कह गया है। उसने फिर पूछा,”क्या एकदम से हालत बिगड़ गई थी /"
"एकदम तो नहीं। ---बहुत दिनों से ऐसी ही चल रही थी। मर्ज ही ऐसा था उन्हें। फिर इस उमर में ---डॉक्टरो ने पहले ही कह दिया था जब तक चल रही हैं तभी तक हैं --।”
तरु के चेहरे पर गहरी उदासी, जैसे दुख आँसुओं में बहने के बजाय भीतर तक जड़ें जमा बैठा हो!
"उनके न होने से आपको बहुत अकेलापन लगने लगा होगा!”
अकेलापन! तरु सोच रही है पिता की मृत्यु, फिर माँ की। बीच में कितना अन्तराल। इन कुछ वर्षों में ही कितना फ़ासला तय कर लिया!
"अकेलापन? हाँ, लगता है पर अम्माँ की पीड़ा इतनी अधिक थी कि उनका जाना ही ठीक था। मुक्ति पा गईं वे!’
'कुछ देर चुप्पी के बाद असित ने पूछा, ’आप इधर ही ट्रान्सफर क्यों नहीं करा लेतीं? इधर आपके भाई जहाँ हैं, वहीं रहें तो ज्यादा आराम रहेगा।”
"ट्रान्सफर क्या आसान है असित जी? अम्माँ की बीमारी के दौरान भी कितनी कोशिश करती रही, भारी रिश्वत दिये बिना कुछ नहीं होता।”
डिब्बे में काफ़ी भीड़ जमा हो गई थी। बिना रिज़र्वेशनवाले भी बहुत से यात्री चढ़ आये थे। हमेशा ऐसा ही होता है रात दस बजे तक रिजर्वेशनवालों की बर्थ पर जमे बैठे रहते हैं। कभी-कभी तो इसी ज़िद में मार-पीट तक हो जाती है। और आज तो हद की भीड़ है।
इधर की बर्थ पर बड़े ज़ोरों से पॉलिटिक्स डिस्कस की जा रही है।
असित खिड़की से सिर टिकाये आँखें बन्द किये बैठा है। एक हाथ की अँगुलियों से बार-बार सिर दबा रहा है।
इधर की बर्थवाली ने पूछा,”वो आपके कौन हैं?”
क्या उत्तर दे? तरु सोचती है -कोई नहीं हैं मेरे। पर ऐसा भी कैसे कहे? परिचित हैं -बस? सहयात्री हैं -बस? हर संबंध को नाम दिया जा सकता है क्या? कोई खास रिश्ता नहीं। फिर लोग सोचेंगे साथ बैठने की क्या जरूरत आ पड़ी? क्या घुट-घुट कर बातें हो रही हैं?
"तरु को चुप देख सहयात्रिणी मुस्करा दी। ,
"अच्छा मैं समझ गई। आपकी चुप्पी ने सब कह दिया। आप लोगों की शादी होगी न?”उसने न हाँ कहा न ना चुपचाप सिर झुका लिया।
असित ने सुन लिया है, मन ही मन मुस्करा रहा है।
"नींद आ रही है आपको,”तरु ने असित से कहा,”जाइये, सो जाइये अपनी बर्थ पर। सोने से आराम मिलेगा।”
"नींद नहीं आ रही। बडा अजीब सा सिर दर्द है। आँखें जल रही हैं। आज सुबह से बड़ा बुरा लग रहा है।”
तरु ने फिर वही बात कही,”आँखें चढ़ी-चढ़ी-सी लग रही हैं। टेम्परेचर होगा। जाइये अपनी बर्थ पर लेट जाइये।”
"उधर जाने की इच्छा नहीं हो रही है।”
इस अपार्टमेन्ट के अनेक यात्री एक दूसरे को शकल से पहचानने लगे हैं। असित और तरु भी उनके लिये नये नहीं हैं।
पास बैठा एक व्यक्ति बोल उठा,”आप दोनों को इतनी दूर-दूर बर्थ क्यों दे दी? ऐसे ही हैं ये रेलवेवाले। मैं उधर चला जाता हूँ, आप यहाँ आ जाइये।”
उसने झट-पट अपना होल्डाल समेट लिया। असित ने तरु की ओर देखा, वहाँ कोई प्रतिक्रिया नहीं थी। वह चुपचाप अपना होल्डाल उठा लाया। असित की दृष्टि को अनदेखा करते हुये तरु बिल्कुल चुप बैठी रही। असित ने बिस्तर सीट पर खोल दिया। जूते उतार कर पाँव बिस्तर पर पसार दिये। चुप बैठी तरु को अजीब लग रहा था।
'सबको तो दवायें बाँटते हैं अपने लिये कोई दवा नहीं है क्या?”
"है न! निकाल दीजिये बैग में से।”असित ने चाबी उछाल दी।
थोड़ी देर में फिर बोला,”बड़ी बेचैनी हो रही है, गला सूख रहा है।”
तरु ने पानी पिलाया फिर वहीं एक तरफ बैठ गई। घड़ी देख कर बोली,”साढ़े दस बज चुके हैं।”
कम्पार्टमेन्ट में हल्की रोशनी फैली हुई है। अधिकाँश लोग सो गये, सर्वत्र नींद की ख़ामोशी छाई है। असित ने तरु का हाथ पकड़ अपने सिर पर दबा लिया। सिर दाबने लगी वह। असित ने उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया।
"दाबिये नहीं, बस यों ही अपना हाथ रखा रहने दीजिये आपका शीतल स्पर्श बड़ा अच्छा लग रहा है।”
गर्म मर्दानी हथेली का स्पर्श अनुभव कर रही है तरु। अन्दर से कैसा-कैसा लग रहा है! पर’ऐसे कब तक बैठी रहेगी?
असित बाँयें हाथ से दाहिने हाथ की कोहनी के ऊपर का भाग दबा रहा है।
"क्या बात है हाथ में भी दर्द है?”
"वह भारी बैग लगातार हाथ में लटकाये रहा। आपको बताया था न, एक बार रिक्शा चलाया था तब इस हाथ में बड़े झटके से चोट लगी थी। तब तो इतना पता नहीं चला। अब ज़रा सा ज़ोर पडते ही हाथ दर्द करने लगता है। आज भी ---अरे, आप आराम से बैठिये”
थोड़ा खिसक कर उसने तरु के आराम से बैठने भर को जगह बना दी। वह थोड़ा आराम से बैठ गई।
"कल से बड़ा खराब लग रहा है। बुख़ार रहा होगा।”
उसने तरु की गोद में अपना हाथ रख दिया। तरु ने धीरे से गोद से उठा कर अपने हाथ पर रख लिया। और धीमे से सहला दिया।
रिक्शे की घटना उसे याद आ गई, असित ने बताया था कैसे दो-दो मुस्टंडे उसके रिक्शे पर चढ़ कर बैठ गये थे और ढाई मील तक दौड़ा दिया था फिर। मजदूरी के नाम पर एक रुपया टिकाकर चलते बने।
मन में स्नेह उमड़ पडा। पूरी बांह की शर्ट उसका स्पर्श हाथ तक नहीं पहुँचने दे रही थी। उसने हल्के से कफ़ की बाँहें ऊपर समेट दीं और हल्के हाथों दबाने लगी।
असित बार-बार उसका हाथ अपने सिर पर दबा लेता है।
पहियों की गड़गड़ाहट और भाप की छकपकाहट। मानव ध्वनियाँ शान्त हैं। खर्राटों की आवाज रह-रह कर उठती है। तरु की आँखों में नींद भरी है। वह सो जाना चाहती है, नींद रोकने के क्रम मे बार-बार उसका सिर नीचे झोंके खाने लगता है।
"तुम भी सोओ अब जाकर। तुम कह रहा हूँ। नाराज मत होना।”
मुँह से कह दिया पर आँखें कह रही हैं -रुक जाओ, अभी मत जाओ।
"अब सिर कैसा है?”
“पहले से कुछ ठीक है पर अकेले होते ही फिर घबराहट लगेगी।”
“---तो मैं बैठी हूँ।”
"अच्छा तो पाँव ऊपर कर लो। कुछ आराम मिलेगा। यों लटकाये-लटकाये कब तक बैठी रहोगी?”
असित को अच्छी तरह उढ़ाते हुये उसने कम्बल समेट दिया और पाँव ऊपर कर लिये।
हल्की रोशनी मे असित की निगाहें उसके चेहरे पर आ टिकी हैं। रुक-रुक कर वह भी देख लेती है। बुखार की तपन कुछ कम हुई या नहीं बीच-बीच में हाथ उसके सिर पर रख अनुभव कर लेती है। असित ने उसका हाथ पकड़ कर अपने गाल पर रख लिया हथेली में सुबह की बनी दाढ़ी की हलकी सी चुभन। तरु सिहर उठी।
"तरल जी, मेरे पास से मत जाइये,” व्याकुल सा स्वर उठता है।
"नहीं, मैं कहीं नहीं जा रही।”
एक तपता हुआ हाथ उसके बालों और गालों को सहला जाता है। उँगलियाँ नाक की नोक हिला देती हैं। तरु क्या करे विवश बैठी है।
"पाँव ठीक से फैला लो, ऐसे कहाँ तक बैठी रहोगी?”
वह संकोच से भर गई,”नहीं ठीक है।”
"तो जाओ, अपनी बर्थ पर सोओ जाकर। ऐसे तो तुम भी बीमार पड़ जाओगी।” असित के स्वर के आक्रोश को तरु ने पचा लिया।
उठ कर चली जाऊँ? नहीं, बीमार है -सहारा चाह रहा है -सोचा तरु ने बोली,”नहीं, मुझे कुछ नहीं होगा।”
वह कोहनी टेक कर तिरछी होती हुई बैठ गई। उसका कंबल उसी की ओर समेटते हुये अपने को पर्याप्त अलग कर लिया।
असित की उँगलियां तरु के होंठों से आ लगीं वह एक क्षण रुकी फिर हाथ से पकड़ कर अलग कर दिया। पर बालों की एक छिटकी हुई लट उसने समेट दी।
तरु विवश-सी बैठी है।
"तुम्हें बहुत परेशानी हो रही है।” वह उसके चेहरे पर आँखें जमाये है।
क्या उत्त्तर दूँ, कुछ कहते भी नहीं बन रहा।
"कोई बात नहीं। ठीक है।”
उसने अपनी गर्म उँगलियाँ फिर उसके होंठों पर रख दीं, होंठों पर दबाव बढ़ रहा है। तरु एक क्षण झिझकी फिर उँगली की कोर हाथ से हल्के से दबा कर हटा दी।
"अब आप शान्त लेट कर सो जाइये न।”
"कोशिश कर रहा हूँ।”
एक झटके से उसे खींचकर असित अपने सीने से लगा लेता है। उसके शरीर के ताप और दिल की धड़कनों का अनुभव कर रही है, चौंकी हुई तरल। कौन सी धड़कनें उसकी हैं कौन सी असित की वह भेद नहीं कर पा रही।
सम्हल कर छूटने की कोशिश करती है तभी ठोड़ी पर उँगलियों की पकड़ और होंठों पर होंठों का गर्म दबाव, नोकीली दाढ़ी की चुभन, मूँछों की चुभती सरसराहट! विमूढ़ सी हो उठी। रोमाँच हो आया तरु को -जैसे उस स्पर्श को ग्रहण करने शरीर का रोम-रोम सजग हो उठा हो। एक अनजानी गन्ध नासापुटों में समा रही है, उन्माद में डुबाती -सी। दाढ़ी की नोकें चुभ रही हैं माथे पर नाक पर।
"यह क्या कर रहे हो।”कहते -कहते रुक गई वह। उस हल्की रोशनी में उस चेहरे को उन आँखों को, देखती रह गई। फिर अपनी दोनों हथेलियों में भींचकर उसने असित का चेहरा हल्के से उठाया सामने रख कर देखा फिर छोड़़ दिया। कैसी चुभन है? क्या हथेलियों मे भी रोमाँच होता है?
तरु ने अपने पाँव सीधे किये और सम्हल कर बैठ गई।
"जा रही हो?।”
असित ने हाथ पकड़ लिया।
"नहीं जा रही यहीं बैठी हूँ।”
उसका हाथ अपने हाथों में लेकर तरु बैठी रही। असित अपना कम्बल उसे उढ़ा देना चाहता है।
"नहीं मैं ठीक हूँ ऐसे ही।”
"क्या ठीक हो?”
वह उसके कन्धे तक कम्बल खींच देता है। कुछ देर हाथ कंधे पर टिकता है फिर गर्दन की हड्डी पर। उसकी नज़र फिर असित के चेहरे पर अटक गई है। असित के बहकते हाथ को उसने अपने हाथ में पकड़ लिया है और खोई -सी देखे जा रही है। असित की आँखें उसे ही देख रही हैं।
"तरु!" अनुनय भरा स्वर उठता है।
उन उच्छृंखल होते हाथों को वह बार-बार बरजती है। उसके दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर बैठ गई है।
हाथों का हाथों से स्पर्श, केवल स्पर्श!
नींद पलकों से उड़ गई, शब्द होंठों में बन्द रह गये और सारी रात बीत गई।
सुबह के तीन बज चुके हैं।
"तुम्हारे पाँव अकड़ गये होंगे तरु। अब सो जाओ।”उसकी पलकों को, बालों को, गालों को असित के उतप्त हाथ सहला गये, जाने की अनुमति देते -से।
वह अपनी बर्थ पर आ लेटी।
बड़ी अजीब सी अनुभूति घेरे है तरु के मन को, न सो पा रही है, न जाग रही है। असित के हाथों का स्पर्श जहाँ -जहाँ हुआ था, बड़े मोह से अपने शरीर पर हाथ फेरती है, और रोमाँचित हो उठती है। कैसी विलक्षण अनुभूति, शब्दों से परे!
यों ही जाने कब आँख लग गई। सुबह नींद जल्दी नहीं खुली। ट्रेन में जल्दी उठ कर करना भी क्या! लेटे-लेटे बड़ा आराम मिल रहा है। आँखें बन्द किये पड़ी है। सुहावनी भरक शरीर को घेरे हुये है। तरु ओढ़ी हुई चादर को और लपेट लेती है। स्पर्श कुछ नया सा लगा। आधी आँख खोलकर देखा -उसकी चादर के ऊपर किसी ने एक और मोटी सी चादर उढ़ा दी है, खूब सम्हाल कर।
सामने निगाहें जाती हैं। रात वाला कम्बल असित के बिस्तर पर पड़ा है। असित की चादर ओढ़े वह आराम से सोती रही। पता नहीं कब उढ़ा गया -हैंडलूम की मोटी चादर के भीतर तरु का शरीर रोमाँचित हो उठा। उसने चारों ओर निगाह दौडाई -नहीं, यहाँ नहीं है!
घडी में टाइम देखा। अरे, साढ़े आठ बज चुके!
उसने बालों पर हाथ फेरा और पल्ला सम्हालती उठ खड़ी हुई। चादर तहाई और असित के होल्डाल पर डाल दी।
"चाय लेंगी?”
असित आ गया है, शेव का सामान बैग में रख रहा है।
"अभी नहीं,” वह सिर उठाकर उसकी ओर देख नहीं पा रही है। ,”आप लीजिये।’फिर कुछ रुक कर पूछा,”आपकी तबीयत कैसी है?”
"बहुत ठीक। दवा का असर होना ही था।”
इसी साड़ी को देख कर शन्नो जिज्जी ने टोका था,”कितना गहरा पीला रंग है। एक तो काली ऊपर से इतनी पीली साड़ी। कैसी अजीब लग रही है!"
"लगने दो अजीब। मैं तो पहनूंगी। पिताजी ने खरिदवाई है, मुझे अच्छी लगती है।”
पिता तब अस्वस्थ नहीं थे।
माँ अपने मैके गईँ थीं। बडी शान्ति से दिन बीत रहे थे। एक दिन शाम को आकर बोले थे,”चौक की दूकान पर एक बडी अच्छी धोती अलग रखवा आया हूँ तरु, तुम खरीद लाओ। ब्लाउज़ का कपड़ा भी लेती आना।”
वे साड़ी को धोती ही कहते थे।
तरु ने साड़ी देखी, रंग गहरा लगा। पर पिताजी ने पसन्द कर ली है। चलो एक यह भी सही, उसने खरीद ली थी।
पिता ने फिर पूछा था,”तरु, अच्छी लगी न! तुम्हारे पास ऐसी कोई नहीं है।”
तरु मन ही -मन मुस्करा दी थी। अम्माँ गोरी हैं जिज्जी गोरी हैं, मै तो काली हूँ, पिता जी यह क्यों नही सोचते!
पर फिर शन्नो जिज्जी ने टोक दिया था।’ऊँह, कहने दो! उन्हें तो मेरे ऊपर कोई चीज़ अच्छी नहीं लगती।’
एक बड़ी पुरानी घटना तरु के मन में कौँध जाती है -
रिश्तेदारी में कहीं विवाह था। लड़कियाँ सज रहीं थी। खुल कर प्रसाधन सामग्री का उपयोग किया जा रहा था। शन्नो तो सुन्दर थीं ही उनका रूप सवाया हो उठा था।
तरु ने भी पाउडर क्रीम से चेहरा चमकाया लिपस्टिक पोती, आइ-ब्रो से भौंहें सँवारीं काजल लगाया और माथे पर चमकीली बिन्दी चिपकाकर शीशा देखा। फिर वह संतुष्ट होकर बाहर निकली।
"आँगन में शन्नो अपनी हमजोलियों के साथ बैठीं थी। तरु को कुछ क्षण देखती रही फिर बे-साख्ता हँस पड़ीं। उनने इशारे से अपनी साथिनों को दिखाया। वे सब भी खिलखिला पड़ीं।
"क्या चहोरा है चेहरे को!” शन्नो हँसी के मारे दुहरी हुई जा रहीं थी।
तरु भाग कर कमरे में जा घुसी। शीशे पर निगाह गई -काजल और आई-ब्रो खूब फैल गई हैं, पाउडर के धब्बे चमक रहे हैं लिपिस्टिक होंठों के ऊपर और नीचे पुत सी गई है और खिसियाया, रोया सा चेहरा! विचित्र मुखाकृति बन गई है।
उसने सब पोंछ डाला। आँसू गालों पर बहते रहे, सबके सामने आने की फिर हिम्मत नहीं पड़ी, वह उसी कमरे में बिस्तर पर पड़ गई। तरु का मन उस दिन से ऐसा खट्टा हो गया कि’सजने’ शब्द से ही उसे वितृष्णा हो गई। मैं जैसी हूँ, वैसी ही रहूँगी। सिंगार-पटार से क्या शकल बदल सकती है? ठीक है रूप नहीं है मेरे पास, रंग काला सही, मन तो उजला है, छल -कपट तो नहीं रखती हूँ अपने भीतर!
और आज फिर पिता की पसन्द की हुई गहरी पीली साड़ी पहने ट्रेन में खिड़की से लगी बैठी है तरु।
असित बार-बार उसकी ओर देख लेता है। कुछ कांशस हो रही है।
"काली हूँ न! ऐसी पीली साड़ी अच्छी नहीं लगती मेरे ऊपर। पर पिता जी की खरिदवाई यही एक साड़ी बची है मेरे पास! मुझे यह पहनना अच्छा लगता है।”
"तुम काली हो? किसने कह दिया? गेहुँआ, या उज्ज्वल साँवला रंग। मैं तो बार -बार देख रहा हूँ पीली साड़ी पर पड़ती धूप की चमक से तुम्हारा चेहरा कैसा दमक उठा है! जरा मेरी आँखों से देखो अपने को। --और बिल्कुल गोरा रंग तो मुझे ज़रा नहीं सुहाता।”
'तुम पहनोगी तो और अच्छी लगेगी।’ पिता की बात याद आ गई उसे। असित की निर्निमेष दृष्टि कहीं भीतर तक उतर गई। तरु को लगा जैसे सूरज की किरणों में सातों रंग खिल उठे हों!
अब तो असित दफ़्तर से ही पता कर लेता है कि वह कब जा रही है और उसी के अनुसार अपना प्रोग्राम बना कर रिजजर्वेशन करा लेता है। कहता है सफ़र अच्छा कट जायेगा। तरु को भी आराम है। अकेले जाने की परेशानियों से बच जाती है।
'मेरे पीछे अपना प्रोग्राम क्यों गड़बड़ करते हो, ’ वह कहना चाह कर भी कहने की हिम्मत नहीं कर पाती। कोई रागात्मक तन्तु उसे असित के साथ जोड़ गया है। शुरू -शुरू में रिजर्वेशन के लिये पूछे जाने पर तरु ने साफ़ मना कर दिया था। आग्रह करने पर भी वह नहीं मान रही थी। तब असित ने झुँझलाकर कहा था,”आप इतनी ज़िद्दी क्यों हैं?”
"जि़द्दी हूँ” --तरु ने सोचा, ’सही बात होगी। सब यही कहते हैं --पर मन जिसकी गवाही न दे वह कैसे करूँ?। लेकिन इसमें ग़लत क्या है? उसने अपने आप से पूछा। भीतर से उत्तर आया --कुछ नहीं। कुछ गलत नहीं। कोई किसी का रिजर्वेशन करा दे तो इसमें क्या गलत हो सकता है!
"अच्छा करा दीजिये।”वह मान गई थी।