एक थी तरु / भाग 14 / प्रतिभा सक्सेना

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"यह जो बाहरी दुनिया है इसके समानान्तर एक मेरे मन की दुनिया है।” तरु ने कहा था।

"मुझे बताओ, कैसी वह दुनिया?”

पर तरु कैसे बताये?

मन में जो कुछ है उसे व्यक्त कैसे करे? वह सब क्या कहने की बात है!

फिर असित ने पूछा था,”उस दिन, मेरी बात सुनते -सुनते तुम्हें क्या याद आ गया था? तुम भी मुझे अपना साझीदार बना लो!।

साझीदार?

कैसे कहे तरु कि जहाँ वह निपट अकेली है, वहाँ कोई साझा नहीं चलता। मन में समाई वे बातें किसी तरह व्यक्त नहीं हो पातीं। वह सब मुँह से कहना संभव नहीं। नहीं असित, जिन विकृतियों को मैंने जिया है, उन्हें कैसे दोहराऊँ? भीतर से बाहर आने का उनके लिये कहीं कोई अवकाश नहीं। उनका अनुभव कोई और करे यह मैं सोच भी नहीं सकती।

असित से वह कहना चाहती है -तुम्हारे अनुभवों का क्षेत्र बहुत व्यापक है, तुमने जिन्दगी में बहुत संघर्ष किये हैं लेकिन वे अनुभव सामान्य जीवन के हैं। तुम उन्हें किसी को भी बता सकते हो। तुमसे सबको सहानुभूति होगी। पर मेरे अनुभव! मेरा विगत जीवन की विकृतियों का कटु अध्याय है, उन पृष्ठों को खोलते मुझे स्वयं घबराहट होती है। सत्य बहुत विचित्र होता है, जिसे सहज रूप से स्वीकारा नहीं जा सकता। मैं किसी से कुछ नहीं कह सकती। तुम पूछते हो तो मैं अव्यवस्थित हो जाती हूँ। अपनी बखिया आप ही कैसे उधेडूँ? मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ कि कुछ बातें ऐसी होती हैं जो कभी मुँह पर नहीं आ सकतीं। अपरिचित से कहूँ भी कैसे, अल्पपरिचित उस सबका हकदार नहीं और अति परिचित से कह कर हमेशा के लिये उसके सामने कुण्ठित हो जाऊँ? ऊँहुँक्!

तरु को बिल्कुल चुप देख कर फिर उसने कहा,” मन को इतना बाँध कर क्यों रखती हो? किसी को अपना साथी बना कर हल्का हो लेना क्या बुरा है! क्या मैं अपात्र हूँ?"

"नहीं, ऐसी बात नहीं। पर क्या कहूँ कुछ समझ में नहीं आता। बात यह है असित जी, कि मैं कुछ अलग हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि मैं सबके जैसी नहीं हूँ। शुरू से मेरी किसी से पटरी नहीं बैठती। इतना अशान्त है मेरा मन। किसी के साथ सुख -चैन से नहीं रह सकती। क्या करूँ, मैं हूँ ही ऐसी।”

"बेकार के वहम में पडी हैं। कुछ लोगों से पटरी नहीं बैठी तो आगे भी नहीं बैठेगी ऐसा कैसे सोच लिया? और मेरे साथ तो आपकी खूब पटरी बैठती है। स्वभाव तो मेरा भी विचित्र है।”

"वहम नहीं है। आप नहीं जानते मेरे पिता ने बहुत कष्ट झेले थे, उसके बाद उनकी मृत्यु हुई थी। मुझसे उनका कष्ट देखा नहीं जाता था। जिसे देख कर ही मैं विचलित हो जाती थी, उन्हें वह सब झेलते हुए कैसा लगता होगा -मैं अनुभव करना चाहती हूँ।”

तरु के गले में भीतर से उठती भाप का गोला अटक सा रहा था, जिसे गटक कर वह फिर बोलने लगी, ।”। और लोग ईश्वर से सुख -शान्ति की याचना करते हैं, और मैंने क्या माँगा था, जानते है? मैंने मन-ही मन कहा था’ओ मेरे अंतर्यामी अ्ब तक मैंने तुमसे कुछ नहीं कहा। आज कहती हूँ -तुम मुझे भी इतना ही दुख देना, जिसमें कि मैं अनुभव कर सकूँ कि उन्हें कैसा लगता होगा!”

असित स्तम्भित सा बैठा है। तरु के मुँह पर छाई गहरी उदासी उसे कुछ कहने से रोक रही है।

तरु अपने आप में ही डूबी कहे जा रही है,”मैं पैदा क्यों हो गई! यही सब देखने -सुनने को! और हुई भी थी तो ऐसा मन क्यों मिला मुझे -अड़ियल और ज़िद्दी, फिर भी संवेदनशील!”

"असित जी, किसी के दबाव में आकर मैं कुछ नहीं कर सकती। कितने भी विरोध झेलने पडें, कितनी ही अशान्ति हो, बड़े से बड़ा नुक्सान क्यों न हो जाय पर मन जिसकी गवाही नहीं देता उससे मैं समझौता नहीं कर पाती। कई बार कोशिश करके देखा, पर तब मेरा ही अंतःकरण मुझे धिक्कारने लगा। और सब सह सकती हूं पर भीतर से उठती वह धिक्कार मुझसे सहन नहीं होती।”

"ऐसा भी कहीं होता है। ?” असित के मुँह से निकला।

"हाँ, वही तो। पर मेरे साथ यही तो मुश्किल है। मुझे जो लगता है कर डालती हूँ बहुत अव्यावहारिक हूँ न मैं?”

"बड़ी मुश्किल है,”असित अपने आप ही बुदबुदाया।

"मुश्किल में डाल दिया न आपको भी। छोड़़िये यह सब।” तरु ने टॉपिक बदलते हुये कहा,”रश्मि का रिश्ता कहीं तै हुआ?”

"बात चल रही है। आशा है हो जायेगा। बात लेन-देन पर अटकी है। सब चाहते हैं पहले मेरी हो।”

"ठीक चाहते हैं।”

"और आप क्या सोचती हैं?”

"हाँ, अब आपको कर लेनी चाहिये।”

"मैं अपनी नहीं, आपकी बात कर रहा हूँ।”

तरु मुस्करा दी।

"सोचा ही नहीं कभी। मेरा स्वभाव बड़ा विचित्र है। कहीं गुजर नहीं होगी।”

"विचित्र स्वभाव वाले के साथ हो सकती है। और भी कोई ऐसा हो सकता है। ज़रा, सोचकर देखिये।”

मतलब समझ रही है वह। इसी प्रश्न से बराबर बचने की कोशिश करती रही है। अगर असित ने साफ़ पूछ लिया तो न ना करते बनेगा, न हाँ।

हाँ, कैसे करे विवाहित जीवन के अनुभव चारों ओर बिखरे पड़ हैं। असित के साथ जितनी देर रहती है, मन संयत रहता है, नहीं तो भटका-भटका फिरता है। कैसी उलझन है असित को चाहती भी है और विवाह भी नहीं!

फिर क्या प्लेटोनिक लव? हुँह। प्लेटोनिक वाली बात निरी ढोंग लगती है तरु को। वह तो सिर्फ मजबूरी का नाम है। आत्मा और शरीर एक दूसरे से अलग कर दें तो जिन्दगी कहाँ रही?

मन प्यार करता है, आँखें देखना चाहती हैं कान सुनना चाहते हैं, जिह्वा बोलना चाहती है शरीर स्पर्श चाहता है, हृदय अनुभव करना चाहता है। इनमें आत्मा कहाँ? सब शरीर की इच्छायें हैं। आत्मा तो अलग खड़ी रहती है, तटस्थ भाव से। और एक के बाद दूसरी कामनायें जागती जाती हैं। कामना-पूर्ति की अपनी -अपनी सीमाओं का निर्धारण सब अपने आप करते हैं।

तन और मन जहाँ एकाकार हो जायें वहीं है तन्मयता की स्थिति, पूर्णता की स्थिति, प्रेम की पराकाष्ठा!

पर दुनिया में ऐसा कहाँ मिलता है!

रजिस्टर पर हस्ताक्षर कर तरु, शिखा के पासवाली अपनी सीट पर बैठी ही थी कि मधुरिमा ने प्रवेश किया।

शिखा और तरु की निगाहें उसके हाथ के बड़े से पैकेट पर जम गईं।

शिखा ने पैकेट छीन कर खोल डाला। उसमें से निकला एक जो़ड़ा बेडकवर सामने फैला कर बोली,”वाह! क्या सुन्दर कम्बीनेशन है! कित्ते में लाईं?”

इतने में उसे पैकेट में पड़ा कैश -मेमो दिखाई दे गया। ,”तीन सौ पच्चीस रुपये! बड़ा मँहगा खरीद डाला!”

"जब से नई गृहस्थी जमाई है यार, अब तक कुछ खरीदा नहीं था। कल सेलरी मिली तो सोचा बल्देव को सरप्राइज दे दूँ। उन्हें यह कम्बीनेशन बहुत पसन्द है।”

तरु हाथ बढ़ाकर बेड-कवर छू रही है। यह छुअन उसे एक और बेड-कवर की याद दिला गई जो ट्रेन की यात्रा में उसे किसी ने उढ़ा दिया था, जिसकी सुखद गर्माहट में लिपटी वह देर तक सोई रही थी। उस रात की याद आते ही रोमाँच हो आया उसे। भीतर ही भीतर लगा जैसे कुछ उमड़ा चला आ रहा हो। दाढ़ी की नोकें मुँह पर चुभती -सी लगती हैं। एक अजीब सी मोहक गन्ध नशे की तरह उस पर छाती चली जा रही है।

मेज़ पर काम कर रही है तरल, पर मन भाग -भाग जा रहा है। रजिस्टर के जोड़ -घटाव के साथ मन में निरंतर एक जोड़-घटाव चल रहा है। असित और तरल, तरल और असित! कैसा जुड़ गया है यह संबंध जिसका कोई नाम नहीं, केवल अनुभूति!

वह बार-बार उबरने की कोशिश करती है पर कैसी है यह सर्वग्रासी अनुभूति जो समस्त चित्तवृत्तियों को छाये ले रही है! कभी किसी के लिये इतना दुर्निवार आकर्षण नहीं जागा था।

असित, तुम्हारे सम्पर्क में बीती एक रात ने, मेरी समस्त चेतना को मोहाच्छन्न कर डाला है। बहुत पहले पढ़ा हुआ विद्यापति का एक पद याद आ रहा है, तब इसका अर्थ समझ कर विभोर हो गई थी, पर आज उस अनुभूति की गहराई में पहुँच कर डूब-डूब जा रही हूँ --

"सखि कि पुछेसि अनुभव मोय,

से हो पिरित अनुराग बखानिय पल-पल नूतन होय!

जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल,

से हो मृदु बोल स्रवनहिं सूनल, स्रुति पथ परस न केल!

कत मधुजामिनि रसभ गमाओल न जने कइसन केल!

लाख-लाख जुग हिय धरि भेटल तओ हिय जुडल न गेल!”

सखी राधा से उसका प्रेमानुभव पूछती है। पर राधा नित्य नूतन होते इस अनुराग को शब्दों मे कैसे वर्णित करे! जहाँ वह स्वयं खो जाती है उसकी सुधि कहाँ से लाये! वह सब कुछ विस्मृत हुआ सा लगता है, कुछ स्पष्ट याद नहीं आता। यह कैसी तृष्णा है जो कभी तृप्त नहीं होती, बढ़ती ही जाती है। जिसे स्वयं न समझ पाई हो वह दारुण प्रेमानुभव किसी को कैसे समझाये राधा?

सचमुच असित, मुझे भी ऐसा लगने लगा है कि जन्म-जन्मान्तर तक तुम्हारा साथ पाने के बाद भी मैं तृप्त नहीं होऊँगी। तुम मेरे लिये सर्वथा नवीन ही रहोगे। पर अपनी भावना को मैं स्वयं नहीं समझ पाती तुम्हें कैसे समझाऊँ? मुझे लगता है असित, अगर किसी चीज को दो हिस्सों में काट दिया जाय तो एक तुम होओगे, दूसरी मैं!