एक थी तरु / भाग 20 / प्रतिभा सक्सेना
तरु ने असित के कंधे पर सिर टिका दिया।
"बहुत दिनो से कहीं नहीं गये हम लोग, कहीं चलो न।”
"कहाँ चलोगी? शन्नो जिज्जी के घर?"
"नहीं”
"फिर, राहुल के पास रह आओ कुछ दिन?”
"नहीं।”
"गौतम दादा के पास, या संजू के घर?”
"नहीं, कहीं नहीं।”
"फिर?”
"जाने को कोई जगह नहीं है। यहीं रहूँगी।”
असित के कंधे पर आँसू टपकने लगे हैं। हाथ बढाकर वे थपथपाते हैं।
"क्या हो गया, तरु?"
"कुछ नहीं।”
वह रोए जा रही है।
"आखिर बात क्या है? बताओ न। मैंनें कुछ कह दिया क्या?”
"नहीं।”
फिर वह बोलने लगी,”असित मेरे माँ-बाप भाई बहिन कोई नहीं है। शुरू से मुझे लगता रहा मेरे कोई नहीं है। मैं बिल्कुल अकेली थी। मुझे कहीं नहीं जाना है।”
"अरे, तो मत जाओ। मैं तो वैसे भी नहीं चाहता कि तुम मुझे छोड़़ कर कहीं जाओ। चलो, पिक्चर देखने चलते हैं।”
"तुम नहीं होते तो मेरा क्या होता?”
आँसू फिर टपकने लगे।
"पागल हुई हो क्या?मै होता कैसे नहीं? मै तुम्हारे लिये था। --और मेरा भी अपना कौन है? तुम्हीं तो हो, बस। हम-तुम और कोई नहीं।”
"नहीं असित और भी बहुत लोग हैं।”
"होंगे, हमे उनसे क्या?”
उसका रोना अब थम गया है। मन में उठता है -हमें किसी से कुछ मतलब नहीं? है। सबसे मतलब है। नहीं तो हम दोनो कहाँ रह जायेंगे? हम बिल्कुल अकेले कहाँ हैं?
"असित, हमारे सुख, हमारे दुख अकेले हैं ही कहाँ? वे तो दूसरों पर निर्भर हैं। औरों के बिना हम लोग कहीं बचते ही नहीं।”
"ओफ़्फ़ोह, तुम तो पहेली सी बुझाती हो। क्यों फ़ालतू दिमाग खपाओ? चलो, नावेल्टी में अच्छी पिक्चर लगी है।”
यहाँ से आदमी का संसार-प्रवेश होता है।
अस्पताल का मेटरनिटी वार्ड।
कितनी दारुण वेदना के क्रोड़ से जीवन का अंकुर फूटता है। डेढ़ दिन और पूरी रात! कल दुपहर एडमिट हुई तरु और आज शाम हो गई।
क्षण-क्षण उठती दर्द की लहरों से छटपटाती देह। वेदना इतनी भीषण कि शरीर के अंग भी काट डालो तो पता न चले। तड़पाती, चीरती, बार-बार मरोड़ें खाती भीषण दर्द की लहरें, जैसे समूचे प्राणों को ले कर ही शान्त होंगी।
कितनी विषम वेदना, भयंकर अव्यवस्था और अनिश्चयभरी दारुण पृष्ठभूमि में नये जीवन की शुरुआत होती है। वहाँ आनन्द नहीं होता, सुरुचि नहीं होती-होती है चरम नग्नता और मरणान्तक यंत्रणा! जन्म देनेवाली और लेने वाला दोनों जूझते हैं -नग्न, वीभत्स और रक्त-स्नात!
फिर विकृतियों और कुरूपताओं के बीच से जीवन की कली चटकती है।
दर्द के प्रचण्ड प्रहारों से पेट की खाल झुलस कर काली पड़ गई है। वेदना के तीक्ष्ण नखों के खरोंचे भीतरी पेशियों को नोचते बाहरी सतह तक उभर आये हैं पेट के निचले भाग, जाँघ और कमर पर जगह-जगह लम्बी गहरी लाल-लाल खरोंचे जैसी धरियाँ उभर आई हैं। आँखों से कुछ दिखाई नहीं दे रहा, होंठ असह्य पीडा से नीले, टपकती हुई पसीने की बूंदों को पोंछने का होश किसे है। समस्त चेतना उन भयंकर दर्द के झटकों में निचुड़ -निचुड़ जा रही है।
तरु को लग रहा है अब नहीं बचेगी। जाने कितनी स्त्रियाँ इस तरह मर जाती हैं। नहीं सहा जा रहा अब। बिल्कुल नहीं। सूखे होंठों पर जीभ फेरना चाहती है पर जीभ सूख कर काठ हो गई है।
दाँतों से होंठ दबाये उसकी देह फिर तन जाती है, मुख पीड़ा से विकृत हो उठा है। बार-बार चीख गूँज जाती है।
"बस, बस हो गया!”
डूबती चेतना को लौटने में कुछ समय लग ही जाता है। दीर्घ यंत्रणा से श्लथ शरीर जब चैतन्य हुआ तो शिशु-रुदन की ध्वनि ने पलकों को खुलने को प्रवृत्त किया।
"क्या है?”
'बिटिया। लक्ष्मी आई है।”
असित बिटिया ही चाहते थे, बाप का बेटी पर बहुत लाड़ होता है।
कपड़े में लिपटा शिशु नर्स ने दिखाया,”देखिये, कितनी सुन्दर है आपकी बेटी!”
'आपकी बेटी”--तरु पुलक उठी। दृष्टि उठी। नन्हीं सी देह, इतनी सुकुमार कि स्पर्श करते डर लगता है। कन्या को देख मन आश्वस्त हुआ -सचमुच सुन्दर है! गोरा रंग, मुँदी हुई अर्ध वृत्त्कार सीप सी पलकें, सिर पर सुनहरे बाल और नन्हे-नन्हें गुलाबी बन्द कली जैसे होंठ!
दही केशर और फलों का रस सफल हुआ। मेरी बेटी काली नहीं है। सुन्दर है, अति-सुन्दर -कह रहे है सब लोग। वह मेरे जैसी नहीं। मैंने जो उपहास झेला मेरी बिटिया को नहीं झेलना होगा!
बुआ औऱ दादी उसे दुलरा रही हैं, शहद चटाती हैं, बार-बार पुचकारती हैं। रश्मि कह रही है,”कितनी प्यारी है।”
तरु का मन आन्तरिक सन्तोष से भर उठता है। उसने नवजात कन्या को देखा, हर्षपूर्वक बार-बार देखा और अपने पास समेट लिया।
"तुम, जो मेरे विषम क्षणों में मुझे साधते हो, मुझे बल देते हो मुझे आश्वस्त करते हो। तुम जो हमेशा मेरे साथ रहते हो। ओ, मेरे अंतर्यामी, मै तुम्हारी परम आभारी हूँ, इस सुन्दर कन्या के लिये!”
परम सन्तोष से सो गई तरु।
पता नही कितनी देर सोई, नींद खुली तो असित सामने थे।
"तुम्हारी बिटिया बड़ी प्यारी है।” स्नेह-विगलित कृतज्ञ स्वर था।
"अधमुँदी आँखों से देख गद्गगद् स्वर में उसने सिर्फ इतना कहा,
"तुम्हारी है।"