एक थी तरु / भाग 22 / प्रतिभा सक्सेना
जीवन की गाड़ी एक ढर्रे पर चलने लगी है। पर पहियों के लीक पर चलने से क्या अंदर का हिसाब -किताब ढर्रे पर आ जाता है! आगे नए प्रसंग जुड़ते जाते हैं पुराने सब मिल-जुल कर इकट्ठे होने लगते हैं। कुछ धुँधला जाए भले, साफ़ कुछ नहीं होता। पीछे-पीछे चलता है, ज़रा मौका मिलते ही सामने आ खड़ा होता है।
असित के दौरे अकेला छोड़़ जाते हैं, चंचल के साथ घर की जिम्मेदारियाँ व्यस्त रखती हैं और तरु निभाती जाती है सब। रश्मि और राहुल का आना-जाना चलता है राहुल की पढ़ाई चल रही है, माँजी रश्मि की शादी की चिन्ता जताती हैं।
अधेड़ अवस्था में ब्याह कर लाई पत्नी से दबे-से रहते हैं ससुर। क्या मिला होगा इन्हें और माँजी को भी? तरु सोचती है -आते ही पहली के बच्चों की माँ बना दी जाये तो किसी लड़की को कैसा लगता होगा, ऊपर से अधेड़ पति का साथ जो अपने जीवन का सबसे सुन्दर भाग दूसरी स्त्री के साथ बिता चुका है। उसकी थाती, इन बच्चों के साथ ही घर की व्यवस्था और अपनी शेष रही ज़रूरतों को पूरी करने के लिए अब उसे ब्याह लाया है -मजबूरी में!
पर हताश बूढ़े ससुर को इस सबसे जूझने को अकेले कैसे छोड़़ दे तरु?
'हम लोग हैं न’-'अभी तो मैं भी नौकरी कर रही हूँ, रश्मि के लिए तैयारी करती चलिए, ’ वह आश्वस्त कर देती है। अपनी भारी साड़ियाँ निकाल दी हैं, मैं कहाँ पहनूँगी -ये सब रश्मि के काम आएँगी।
रश्मि भाभी की तारीफ़ करते नहीं अघाती। उसने तो सोचा था अम्माँ के साथ जैसा जीवन बीता है असित दादा शादी होते ही अपनी दुनिया में मगन हो जाएँगे। अपने आप लड़की पसंद कर ली तब निराशा भी हुई थी -अब कोई क्यों पूछेगा हमें?
पर अब शिकायत नहीं है किसी को।
मेरे करने से कुछ सँभल सकता है तो करूँगी। राहुल की नौकरी लगने तक ही तो।
और दो-चार साल सही।
चंचल को संभालने के लिए अच्छी लड़की मिल गई है। ऊपर के काम भी निपटा देती है,
रंजना के साथ अच्छी तरह परच गई है चंचल। शाम को घुमा लाती है वह, फिर थोड़ी देर खेल कर सो जाती है।
आराम हो गया है अब।
तरु उठ कर बाहर आ गई। असित दौरे पर गये हैं चंचल दिन भर ऊधम मचा कर शाम से सो गई है। और तरु यहाँ आ गई है लॉन के इस एकान्त कोने में।
वह समझ नहीं पाती उसे क्या हो जाता है। क्या दुख है मुझे? वह सोचती है -नहीं, कोई दुख नहीं। सुखी जीवन के लिये जो चाहिये होता है, वह सब है मेरे पास। --फिर मन क्यों भागता है?
अकेले चुपचाप बैठे जाने क्यों आँखें बार-बार भर आती हैं।
वह अपने आप से पूछती है-संतुष्ट क्यों नहीं होती मैं? सुख के क्षण मुझे डुबो क्यों नही पाते? इतना उचाट मन लेकर कहाँ तक रहूँ?
जब कोई कमी नहीं है तो ये एकान्त क्षण, जिनका कोई साझीदार नहीं है इतने उदास क्यों हैं?
जाने किन अतल गहराइयों में डूब जाता है मन। जीवन का जल बहुत गहरा है। इन गहराइयों में क्या-क्या छिपा पडा है ऊपर से कुछ पता नहीं चलता। असित, यहाँ तुम भी मेरे साथ नहीं होते। यहाँ कोई नहीं है, कोई हो भी नहीं सकता। वहाँ सिर्फ मैं हूँ -अकेली और चुपचाप।
तरु को लगता है कि वह इतने गहरे उतर चुकी है कि अब उबरना मुश्किल है। न जाने कौन सा वह दुर्दान्त आकर्षण है जो गहरे, और गहरे खींचता जा रहा है, जिससे बचने का कोई उपाय नहीं। ऊपर से सब शान्त किन्तु अनजान गहराइयों में क्या समाया हुआ है किसी को कुछ पता नहीं।
रोशनी और कोलाहल से ऊबे हुये मन को इस अँधेरे में कितनी आश्वस्ति मिल रही है। आँखों के अनगिनती आँसुओं को, जिसने चुपचाप पी लिया है -बिना प्रश्न उठाये, बिना हँसी उड़ाये। उस अँधेरे से शरीर एकाकार हो गया है। वह केवल मन रह गई है, जिसे कोई नही देख रहा, कोई नहीं जान रहा -आत्मसीमित!
मन ही मन कहती है’ माँ, तुम्हारा शाप सफल हुआ। सचमुच मैं रो रही हूँ, मेरे रोये नहीं चुक रहा। इतने अशान्त जीवन का क्षण-क्षण कैसे काटा है मैंने? दिन और रात एक -एक कर बीतते जा रहे हैं। कितनी लम्बी ज़िन्दगी ऐसे ही बिता दी। पलट कर देखती हूँ तो सहसा विश्वास नहीं होता। क्या मैं ही हूँ जो इतना रास्ता पार कर आई हूँ?’
कैसे बीतते हैं दिन? सुबह से शाम तक एक-एक क्षण का लेखा दे सकती हूँ पर किसे दूँ, और क्यों दूं? और अँधेरी अकेली रातें? उनका हिसाब माँगे, न किसी मे इतनी सामर्थ्य है, न मुझमें इतना धैर्य!
इस सब में असित कहाँ हैं मेरे साथ? कभी-कभी ऐसा क्यों लगता है कि जिससे विवाह किया था वह असित नहीं है यह। मैं फिर अलग रह गई हूँ -अकेली!
तुम मेरे साथ हो न? वह पूछना चाहती है, पूछ कर आश्वस्त होना चाहती है।
गहन एकान्त में वह टहलने लगी है। -बोगनविलिया का फैलाव, फिर रात की रानी, गुलदाऊदी के पौधे, उसके बाद दो-चार खाली गमले, फिर एक क्यारी जो अभी खाली पडी है, इजिप्शियन कॉटन का पेड पिर तीन-चार केलों की हिलती ऊँचाई, उसके बाद हरसिंगार, किनारों पर आम अमरूद और कटहल के भरे पूरे वृक्ष।
फिर वही लौटने का क्रम आम, कटहल, केले, की हिलती ऊँचाइयां, जुही-कुंज, इजिप्शियन कॉटन, रीती क्यारी, मिट्टी भरे गमले, तुलसी, गुलाब, रात की रानी और बोगनविलिया!
इधर से उधर तक यह क्रम कितनी बार दोहराया जा चुका। पाँवों में थकान लगती है पर बैठने की इच्छा नहीं होती।
तरु को लगता है वह तट पर खडी लहरें गिन रही है, डूब कहाँ पाई है इस कोलाहल भरे संसार में तटस्थ सी रह गई है -अनासक्त, निस्संग!
सुखों की अनुभूति मन तक पहुँच नहीं पाती। लगता है मेरा सुख-बोध कुण्ठित हो गया है। कैसा होता है वह अनुभव जिसमे डूब कर लोग सब कुछ भूल जाते हैं? मुझे क्यों नहीं होता वह? और दुखों की कचोट कैसी होती है -जिसे किसी से कहा न जा सके उन दुखों की? एक दिन वह समझना चाहती थी कि उन्हें कैसा लगता होगा जो चुपचाप झेलते हैं। आज समझ में आ रहा है। ओ पिता, तुम जो सहकर चले गये, मैं उसे क्षण-क्षण जी रही हूँ। उसे व्यक्त कर सकी होती तो संसार के दुखों को व्यक्त करने की क्षमता पा जाती!
उन्हें कैसा लगता होगा? जब भी कुछ करना चाहते होंगे, लेकिन अवश रह जाते होंगे? कैसे, जाने किस-किस से माँग कर वे उन किताबों की व्यवस्था कर पाये होंगे, जो पहले ही मना कर देने के बावजूद भी उन्होंने ला कर दीं थीं? उनकी संवेदना, उनके स्नेह का स्पर्श तरु का मन आज भी पा लेता है।
गालों पर से बहती आँसू की बूँदों को धरती की मिट्टी चुपचाप सोख लेती है, पोंछने का भान नहीं रहता। यहाँ है भी कौन जिसकी लज्जा हो? यहाँ है भी कौन जो पोंछ देगा ? तरु रोयेगी और चुप जायेगी --कोई जान भी नहीं पायेगा!
एक एल्बम सा खुल जाता है उसके सामने, जिसमे चलती-फिरती तस्वीरें हैं। कुछ भी क्रमबद्ध नहीं। कभी एक चीज दूसरी से जुड जाती है और कभी तारतम्य टूट जाता है-जीती-जागती तस्वीरें!
अचानक तरु को ध्यान आता है चंचल अकेली कब से सो रही है। वह चल पड़ी
सोते-सोते चंचल बिस्तर के किनारे पर पहुँच गई थी। तरु ने उसे बीच में किया। इतने में बाहर कुछ आहट हुई। दरवाजा खोलकर उसने पूछा,” कौन?”