एक थी तरु / भाग 23 / प्रतिभा सक्सेना
तरु के मुँह से निकला,”अरे, विपिन। तुम?”
हाँ, बुआ जी। शन्नो बुआ जी से पता चला आप यहाँ हैं, उन्हीं से पता मिल गया था। आज पूछता हुआ आ गया।”
बड़ी देर तक बैठा अपने किस्से सुनाता रहा।
तरु ने पूछा,”विवाह कर लिया या नहीं?”
कुछ झेंपते हुये विपिन ने बताया,”हाँ बुआ जी, हमारे साथ की लड़की है। नाम है लवलीन। वह ठाकुर है हमने कोर्ट में मैरिज की है। अब तो सब मान गये। बाबूजी तो हमारे पास आकर रह भी चुके हैं।”
वह संतुष्ट भाव से हँसी,”कोर्ट-मैरिज क्यों, लव-मैरिज कहो। बहू को लेकर आना अब।”
'अब आप आइये बुआजी, अपनी बहू देखने। आप और फूफाजी दोनों आइये इतवार को।”
रात में असित ने कहा था मेरी माँग तो पूरी हो गई, अब अपनी सोचो।”
"क्या मतलब है तुम्हारा?”
"मुझे बिटिया चाहिये थी। मैंने पा ली। अब तुम --।’
सकुचा गई वह, ’तुम्हें यही सूझता है। एक तो चंचल अभी छोटी है। दूसरे मुझे जरूरत भी नहीं। एक ही बहुत है।”
"क्यों, बेटा नहीं चाहिये”स्त्रियों को तो पुत्र की कामना होती है?”
'होती होगी। पर यहां एक ही ठीक है। काम करने की अपनी सामर्थ्य भी तो देख लूँ।’
"उसमें क्या कमी है?”
'नहीं अब बस, इसी को अच्छी तरह पाल लें।”
"बस, एक ही पर बस?”
"हाँ, एक ही रहने दो। अब हिम्मत नहीं और की जमाना कहाँ जा रहा है। आबादी का यह हाल है? बस, एक ही काफी। अब कुछ मदद भी हो जाए रश्मि की शादी में।”
'जैसा चाहो। यहाँ तो एक ने ही तुम में से हमारा हिस्सा बँटा लिया।”
बच्चा? बस एक -तरु सोचती है लड़की है तो क्या हुआ? रचनात्मक रूप से कुछ करने का श्रेय तो लड़की को ही अधिक है। सोती हुई चंचल को उठाकर वह ठीक से लिटा रही है, अपने लिये जगह बना रही है।
"कल तो मुझे फिर जाना है।”
असित की निगाहें तरु के चेहरे पर जमी हैं।
"तरु, तरु ओ तरु।”
कैसी है यह पुकार!
तरु रुक नहीं पाती। चंचल को थपक कर उठ आती है।
असित के साथ तरल विपिन के घर पहुँची।
दो कमरों का करीने से़ सजा फ्लैट। लकड़ी के पैकिंग केसों पर गद्दी बिछाकर सोफ़ा बना लिया गया है। खिड़की और दरवाज़ों पर पुरानी साड़ियों के झालरदार पर्दे, एक मेज़, जिसे विपिन ने सड़क के किनारे से खरीदा होगा कढ़े हुये मेजपोश से ढकी हुई, उस पर एक ट्राँजिस्टर। कहीं कोई टीम-टाम नहीं।
करीनेवाली लड़की है लवलीन। वह मुस्कराती हुई आई, बुआजी कहकर चरण-स्पर्श किये अच्छा लगा तरु को -शालीन भी है।
उसने भेंट उसके हाथ में पकड़ा दी।
"इसकी क्या जरूरत थी, बुआजी?”संकोच से कहा उसने।
"वाह, बहू का मुँह क्या फ़्री में देखा जाता है?”
विपिन ने पैकेट खोल डाला।
"हाय, कितनी सुन्दर साड़ी।”
"हमारी बुआ जी की पसन्द कोई ऐसी-वैसी है!”
"हाँ विपिन, पसन्द तुम्हारी भी अच्छी है।”
"थैंक यू, बुआजी,” वह खुश होकर बोला, लिली को भी पढ़ने-लिखने का शौक है, तभी तो --।”
"तभी तो तुम नियत लगा बैठे।” तरु हँसी।
विपिन के काम-धन्धे के बारे में बातें होने लगीं वह बताने लगा,”ये हिन्दी अखबारों वाले कहाँ अच्छा पे करते हैं? कन्वेन्स, चाय-पान वगैरा में ठुक जाता है सो अलग।”
"अलग से अलाउन्स नहीं देते?”असित ने पूछा।
"बिल्कुल नहीं। पोस्टेज का ज़रूर दे देते हैं पर बहुत कम। क्या होता है उतने से? इतनी तो चप्पलें ही घिस जाती हैं। फिर साबुन से धुले प्रेस किये कपड़े न पहने तो कोई कहीं घुसने भी न दे हमें।
"“फिर कोई और काम क्यों नहीं करते?”
"और करें क्या? नौकरी कहाँ रक्खी है?। फिर अब तो इसमें मज़ा आने लगा है। और हमारा कोई काम भी अटकता नहीं। घर में कोई बीमार हो आधी रात को अस्पताल का डाक्टर दौड़ा आयेगा। डरता है न कहीं ऐसी-वैसी खबर न छाप दें हम उसके खिलाफ।”
"बेकार डरते हैं।”
"कहाँ, फूफाजी, --।”एक भारी सी गाली विपिन की जुबान पर आते-आते रह गई। तरु की ओर देख कर जीभ काट ली उसने,”सॉरी बुआ जी, बड़ी गन्दी आदत पड गई है।”
फिर संयत होकर बोला,”पोल तो फूफा जी हरेक की कुछ न कुछ होती है। ये डॉक्टर साले सब हरामी हैं। पेशेन्ट को घर पर देखते हैं जिसमें फ़ीस मिले। फिर उन्हें अस्पताल की सुविधायें देकर अपनी चाँदी बनाते हैं। सरकारी दवायें ये बेंचें, हेरा-फेरी ये करें। लोगों की जान से खेलते हैं साले। सीधे-सादे साधारण आदमी की हर जगह मुश्किल। इनकी पोल-पट्टी तो हम जानते हैं।”
आश्चर्य से तरु ने कहा,”अच्छा!”
"हम लोगों की पहचानें भी बड़ी लम्बी -चौड़ी हैं। मिल के मज़दूर से लेकर मैनजमेन्ट और मंत्रियों तक, छात्रों से लेकर वी। सी। तक सप्लाई, आबकारी, पुलिस, पी। डब्लू। डी। किस विभाग में हमारी पूँछ नहीं?”
"फिर तो जिसे चाहो भड़का दो। हडताल करवा दो चाहे घेराव?”
"हाँ, हाँ, जनता को उकसा कर जो चाहें करवा दें। सब जगह पोल-पट्टी। एक सेर तो दूसरा सवा सेर। हम सबकी नस पहचानते हैं। जनता को तो बस उकसाने की देर है।”
उत्सुकता तरु की आँखों में झलक रही है।
"पोल कहाँ नहीं है।”असित बोले,”हम फिज़ीशियन्स सैम्पुल देते हैं वो ससुरे बेच लेते हैं। गाँववालों और अनपढ़ लोगों को इन्जेक्शन पर बड़ा विश्वास है, हरदम सुई लगवाने को तैयार। और ये क्या करते हैं पता है, डिस्टिल्ड वाटर दे सुई भोंकी और पैसे खरे किये।”
तरु ने टॉपिक को फिर घुमाया,”कभी-कभी अखबारें में खबरें कैसे बेतुके ढंग से छपती हैं, समझ में नहीं आता मतलब क्या है इनका। कहना कुछ है मतलब निकलता है कुछ और। शब्दों का प्रयोग और भी अजीब।”
"बुआ जी, आठवीं-दसवीं पास लोग जब संवाददाता बन जाते हैं, तभी तो भेजते हैं वे ऐसी खबरें। प्रूफ रीडर भी जैसे के तैसे। कल तीन कालम्स के ऊपर हेडिंग दिया था ईरान ने ईराक का इतना इलाका घेर लिया। और दो कॉलम्स मे भरा था इन्दिरा गान्धी का भाषण। समझते कुछ हैं, लिखते कुछ, मतलब कुछ है शब्द कुछ और।”
"। तो कहाँ क्या गड़बड़ी चल रही है, तुम लोग सब जानते हो?”
"हम लोगों का क्षेत्र बहुत व्यापक है। पता हम लोगों को राई रत्ती होता है। जहाँ इधर की दो-चार बातें उधर पहुँचाईं, हल्ला मचने लगता है। पर हम लोग इन चक्करों में पडते नहीं। तभी तो बड़े-बड़े आला लोग सेठ-साहूकार खड़े रहते हैं, और तहसीलदार साहब तपाक से कुर्सी खिसका कर आवाज़ देते हैं -आइये विपिन बाबू, कैसे कष्ट किया, कहिये?”
" बडे मज़े हैं फिर तो।”
"अभी-अभी एक क्विन्टल शक्कर का परमिट बहन की शादी के लिये अपने दोस्त को दिलवाया। किसी को सीमेन्ट मिल नहीं रहा था। हमने कहा और और पन्द्रह बोरे सीमेन्ट का इन्तजाम हो गया।”
बहुत कुछ बताता रहा विपिन। नेता, अफसर साहूकार, समाज-सेवक सबकी कलई खोलता रहा।
"ये नेता लोग, बुआ जी, चुनाव में खडे होने से पहले ही अपने क्षेत्र के गुण्डें को, क्रिमिनल्स को, बदमाशों को बटोरना शुरू कर देते हैं। साहूकार इन्हे अंधाधुन्ध पैसा देते हैं और जीतने के बाद ये उनका अंधा-धुन्ध मुनाफ़ा करवाते हैं, जनता की कीमत पर ही तो। गुण्डों को खुली छूट, व्यापारी को खुली छूट, सरकारी लोग तो खुद ही सरकार हैं, मौका देखो और लूटो। अरे गुण्डों -बदमाशों की मदद के बिना तो भाषण या सभा कुछ भी न हो पाये। करप्शन में एम। ए। किये बिना तो चुनाव लड़ ही नहीं सकते। और चुन लिये गये तो समझो हो गये पी। एचडी।”
"तो तुम पत्रकार लोग जनता को समझाते क्यों नहीं कि ऐसों को वोट न दें। जिनके अपने कुछ मारल हों, गहराई हो ---।”
वह खिलखिला कर हँसने लगा।”कैसी बात करती हैं, बुआ जी। राजनीति के मैदान में अच्छे-अच्छे टिक नहीं पाते, फिर जो मुट्ठी भर ढंग के लोग हैं उनकी सुनेगा कौन? जनता तो है कुपढ़-गँवार। जो थोड़े पढ़े लिखे हैं वो भी अपनी अकल से नहीं चलते।”
तरु लवलीन के कार्यों मे भी हाथ बँटाती जा रही है। साइड वाले कमरे में गैस पर खाना बन रहा है। चंचल विपिन के साथ खेल रही है
लवलीन की ओर इशारा करके तरु बार-बार उसे बताती है -भाभी।
'ये नेता पब्लिक का मनोविज्ञान जानते हैं उसी का फ़ायदा उठाते हैं। आप ही सोचिये बुआ जी, एक विद्वान खडा होकर बोलेगा तो कहेगा देश का चरित्र सम्हालो, -दूर करो, ये करो, वो करो ---।”
असित पान खाने निकल गये थे, लौट आये हैं। लवलीन ने साड़ी के पल्ले से सिर ढँक लिया है।
"लो, ये रख लो।”
पत्ते मे लिपटे पान तरु ने पकड़ लिये और लपकती चंचल के मुँह में ज़रा सा टुकड़ा रख दिया।
विपिन ने अपनी बात जारी रखी,”--ये आदर्शवादी लेक्चर तो जनता बहुत सुन चुकी है। अकलवालों की अकल मूर्खों के मस्तिष्क में नहीं घुसती। विद्वानों की बात को समझेगा यहाँ कौन? कौन गहराई से सोचनेवाला है? लोगों को लगता है ये तो साला हमीं को उपदेश पिला रहा है, इसके बूते का कुछ नहीं।”
"इक्ज़ैक्टली।”असित समर्थन करते हैं।
"--और नेता खड़ा होगा भाषण देने, तो हाथ फेंक-फेंक कर चिल्लायेगा’ ये सरकारी अमले, ये बी। डी। ओ। , ये थानेदार सब भ्रष्ट हैं, राशन की दूकानों का सामान ब्लैक में बिकता है, पब्लिक के हिस्से मे़ं आता है सड़ा अनाज। ही। , ’वह सीना ठोंक कर चिल्लायेगा, हाँ, नेता भी भ्रष्ट हैं, वो सिर्फ़ अपना फ़ायदा देखते हैं। जनता तरस रही है, और इस साजिंश में ऊपर का सारा तबका शामिल है ---बुआ जी, वह ज़ोर-ज़ोर से चीखे़गा, ’मैं कहता हूँ आप उनकी पोल खोलिये। खींच कर हटा दीजिये कुर्सी से, सड़क पर चित्त कर दीजिये। मैं रोकने आऊँ तो आप मुझे दस जूते लगाइये’ज़ोरदार ताली पड़ती है उसकी बात पर और वह सीना तान कर दूने जोर से चिल्लाता है’ऐसे कानून ताक पर रख दीजिये जो गरीबों का गला काटते हों। जब तक जनता जनार्दन आगे नहीं बढ़ेगी किसी के किये कुछ नहीं होगा। मैं जानता हूँ, आप जानते हैं, सारी दुनिया जानती है। हम-लोगों के किये कुछ नहीं होगा। हाँ, मेरे किये भी कुछ नहीं होगा, फिर भी मैं आया हूँ आपके सामने सच्चाई पेश करने। मैं आपके साथ हूँ, आप जो तय करेंगे उसके साथ हूँ। आप को मैं ठीक लगूँ तो बढ़ाइये आगे, नहीं तो फेंक दीजिये उठा के। आप आगे आइये मैं आपके पीछे रहूँगा’ लोग खुश हो जाते हैं कहते हैं क्या ज़ोरदार भाषण दिया है।
"और सच पूछिये बुआजी, तो उसने सिखाया क्या? मार-पीट गुण्डागर्दी और क्राइम। पर क्या किया जाय लोग उसी से खुश हैं।”
"तो विपिन, तुम ही कुछ करो न। तुम तो सब समझते हो। इनकी असलियत खोलकर सामने रख दो। जनता तभी तो समझेगी। ठोकर पर ठोकर खाकर समझे पर समझेगी जरूर।”
खाना तैयार हो चुका है।
'ये तो चलता ही रहता है बुआ जी, इस देश का ईश्वर ही मालिक है वही चला रहा है। आइये फूफा जी। हाथ धो लीजिये।’
लवलीन ने बड़े सलीके से सब व्यवस्थित किया है। बहुत ढंग की लड़की है।