एक थी तरु / भाग 32 / प्रतिभा सक्सेना
राहुल के तिलक से शादी तक के लिए भी मकान मालिक से इधऱ के दो कमरे और एक बराम्दा ले लिया गया है। इसी के पाँच-सौ रुपए माँग लिये उन्होने -सिर्फ़ पन्द्रह दिन के।
माँजी ने ना-नुकुर की पर सबकी सलाह हुई कि कहीं और जाने में परेशानी बहुत होगी और खर्च अलग से, सो यहीं ले लिया जाय। सामान उठाये-उठाये इधर-उधऱ भागना तो नहीं पड़ेगा। इस खिड़कीवाले कमरे के उस तरफ़ शुक्लाइन का चौका है, और पीछे एक कुठरिया जिसमें उनके बक्से धरे हैं।
उनकी बड़ी बेटी सुशीला जब से ससुराल से आई है उसे हिदायत दे दी गई है -गहना-गुरिया उतार के संदूक में मती धरियो। कहूँ दन्नू के हाथ परिगौ तो हम तो मुँह दिखाबे के लायक नाहीं बचिंगे।
और सुशीला हर बखत झुमकी, कंगन, हार और अँगूठियाँ पहने रहती है।
एक दिन घर के सब लोग कहीं गये थे, सुशीला चौके में खाना बना रही थी। आँगन से दन्नू कमरे में जाते दिखाई दिये। सारे घर का चक्कर लगाने के बाद सुशीला से पूछा कौन, कहाँ गया है, कब तक आयेगा।
फिर वे चुपचाप कुठरिया में जा घुसे।
थोड़ी देर बाद सुशीला का ध्यान गया -जे दन्नू इत्ती देर से कुठरिया में का कर रहा है?
तवा उतार कर वह उधर गई।
देख कर सन्न!
'जे का कर रहे हो, दन्नू? चोरी कर रहे हो, ?। हाय। हाय हमार बकसा।’वह चिल्लाई।
चीख की आवाज़ सुनकर रश्मि दौड़ी, पीछे-पीछे तरु भी चली आई।
दन्नू सुशीला के बकसे से जूझ रहे थे। बड़ी करुण दृष्टि से ताकने लगे।
ताला मज़बूत था उसे तोड़ने की कोशिश उनने नहीं की, ढक्कन के साइड की एक कील निकाल दी थी, और उसे उचका कर बकसे में हाथ घुसा दिया था। लेकिन भारी ढक्कन ऊपर उठा नहीं हाथ बीच में फँस गया। दूसरे हाथ से दन्नू दूसरा जोड़ खोलने के चक्कर में थे, उधर फँसा हुआ हाथ बाहर निकल नहीं रहा था, पीरता जकड़ा हाथ फँसाये जस के तस बैठे रह गये।
'चोट्टा कहूँ को, काहे तोड़ रहो है हमार बकसा?’
परिश्रम से लाल मुँह घुमा कर दन्नू बोले, ’जौ बकसा कैसो टूटो धरो है। हम सँभार रहे हते सो हाथ फँस गौ। हाय। हाय टूटो जात है।’
'अच्छा होय टूट जाय हाथ! बकसा अपने आप जाय के जूझ गौ तुझ से, हरामी, चोर दुस्मन कहूँ को।’
सुशीला ने भुनभुनाते हुये ढक्कन उचकाया।
हाथ खींच कर सहलाते हुये दन्नू बाहर भागे।
रश्मि और तरल हँसते-हँसते दोहरी हो गईं।
आज शुक्लाइन सफ़ाई पर तुल गई हैं।
इधरवाले कमरे में भारी-भारी धन्नियां रखी हैं और ईंटं सीमेन्ट की बोरियाँ वगैरा भी।
कोई नहीं आता इधऱ।
इधर से तरु को आवाज़ देकर उन्होंने कहा, ’दुलहिन, नेक धन्नी उचकाय देओ, नीचे मार दलिद्दर जमा है। ऊपर को खंड बनन की नौबत ही नाहीं आय रही है। मार घुनाय जाय रही है लकड़ी।’
उन्होंने झाड़ू से नीचे का कूड़ा खींचा, तरु हाथ से ज़ोर लगा कर धन्नी उचकाये है।
कूड़े के साथ फड़फड़ा कर आते नोट देख तरु चौंक कर बोली, ' अरे, अरे, यह क्या? चाची जी आपके यहाँ धन्नियों के नीचे नोट रखते हैं?’
धन्नी के नीचे से निकले मुट्ठी भर नोट देख शुक्लाइन ने आँखें फाड़ दीं।
हँसी को तरु ने भरसक दबा लिया।
। दस-दस के, पाँच के, दो-दो के, एक-एक के नोट बिखरे पड़े थे।
'उसई हरामजादे की करतूत है, ' खिसियाई-सी चाची बोलीं, ’उहै है जान को दुसमन। मरत भी तो नाहीं अभागो। हियन छिपाय के धरे हैं।’
दन्नू के लिये मुँह से गालियों और बद्दुआओं की बौछार फूट पड़ी।
झाड़ू डाल कर फिर खींचा तो कुछ नोट और चिल्लर और निकली। गिने कुल सड़सठ रुपये सैंतालिस पैसे।
'हाय सुसीला, ’ सिर पीट लिया शुक्लाइन ने।
सुसीला के दूल्हा की जेब से उसई ने चुराय के धरे हैं। माता खायें, हरामी के कोढ़ फूटे। कौन पापन को फल है जो हियन आय के पैदा भओ है।’
सुशीला के दूल्हा जब बिदा कराने आये थे तो बाहर टँगे उनके कोट की जेब से सौ का नोट ग़ायब हो गया था। इधर-उधऱ सबसे पूछा, ढूँढा पर नोट न मिलना था न मिला।
सुशीला समझ गई पर नई-नई शादी, बिचारी क्या कहे!
उलटा उसने अपने दूल्हा से ही पूछा, 'नोट धरो थो कि कहूँ और निकरवाय आये?’
'हाँ, हाँ खूब धरो थो, सुबे दन्नू के सामने धरो थो।’
तब तो हुइ गौ कल्याण, सुशीला ने मन -ही-मन सिर पीट लिया। वह चोट्टा काहे को छोड़़ेगा। पर चुप लगा गई।
दन्नू की करतूतें सब के मनोरंजन का साधन बनी हैं।
असित कहते हैं, ’जैसी कमाई बाप की वैसे ही तो जायगी। दूसरों का ख़ून चूस-चूस कर दौलत जोड़ी। तभी तो लड़के उड़ा रहे हैं। कोई भी ढंग का न निकला। अब तो बहुयें भी आपस में खूब लड़ती-झगड़ती हैं। हमेशा कुछ-न-कुछ कोहराम मचा रहता है।
इधर बहुत दिनों से पिटे नहीं हैं दन्नू। आने दो शुक्ला जी को फिर उधेड़े जायेंगे।
मिले-मिले घर, ऊपर से इधर शुक्ला जी के पोर्शन में अबाध आवागमन -आपस में एक-दूसरे का पूरा हाल पता रहता है। मेहमान अभी कोई खास नहीं बस श्यामा का परिवार वह भी पूरा नहीं। माँजी की एक बहिन भी आई हैं। तरु की जिम्मेदारी बढ़ गई है। उसका काम अधिक तर इस कमरे में ही चलता है, जो शादी के लिये लिया गया है। उसके कमरे से लगा हुआ है और इधर सामने चतबूतरा, -सब दिखाई सुनाई देता है -बस खिड़की का परदा ज़रा-सा खींचने भर की देर है।
। मकान-मालिक शुक्ला जी ने सुबह-सुबह दन्नू की जम कर धुनाई की और गरियाते हुये बाहर चबूतरे पर निकल आये,
इतवार का दिन है नहीं तो साइडवाले मकान के बाहरी कमरे में ध्यानू मास्टर लड़कों को ट्यूशन पढ़ा रहे होते’ शुक्ला जी से’जै राम जी' के बाद दोनों बाहर चबूतरे पर पड़ी बेंच पर जम गये।
'देखा आज का पेपर? नैनीताल के एक इँग्लिश स्कूल में हिन्दी फ़िल्म देखने पर दसवीं के पाँच स्कूली छात्रों को स्कूल से निकाल दिया गया। और उनमें गूजरमल मोदी का एक पोता भी है।’
'अउर का होयेगा, ’ शुक्ला जी हथेली पर तंबाकू रगड़ते बोले, ’सुसरे अँगरेज चले गये औलाद छोड़़ गये। हिन्दी बोलने पर सजा मिलती है। चले जाओ किसी कॉन्वेंट स्कूल में हिन्दी बोला बच्चा कि पड़ी एक छड़ी। न माँ, माँ रहे न बाप, बाप। आपुन सब भुलाय जात हैंगे।’
और मास्टर साहब?
बड़ी-बड़ी शिकायतें हैं उन्हें सरकार से, समाज से, शिक्षा प्रणाली से। पर सुनता कौन है यहाँ उनकी! बस कह-सुन कर भड़ास निकाल लेते हैं। बोले, ’अरे, सब सरकार की कमज़ोरी है, किसी देश में ऐसा हो सकता है क्या?’
'सरकार-उरकार क्या होता है, ’मुँह में तंबाकू दबाये शुक्ला जी शुरू हुये, ’वोट पक्के रहें इनके, ये लोग पहले ही अलग-अलग बाँट कर कुछ को मनमानी छूट दिये रहते हैं जिसमें उनके सारे वोट इन्हई को मिलें।’
सब्ज़ी का झोला पकड़े उधरवाले वर्मा जी दिखाई दिये, उन्हें भी पुकार लिया गया।
'नहीं भई, अभी बैठेंगे नहीं, नहाया भी नहीं है कहते-कहते वे भी वहीं आ जमे, ’किसके वोट गिने जा रहे हैं मास्साब?'
जवाब दिया शुक्ला जी ने, ’ अरे वोट हम का गिनेंगे? ऊ गिनेंगें सुसरे जो सबका ठीका लिये बैठे हैं। उहै तो खरीद रहे हैं।’
'खरीद काहे उनके हितन की रच्छा कर रहे हैं।’
ध्यानू मास्टर थोड़ा तेज़ पड़े, ’सिर्फ़ उनका हित न! देश का काहे में हित है सो कोई नहीं देखता।’
'अपना तर गये तो समझो देश का उद्धार हो गया।’ वर्मा जी ने आगे बढ़ कर चबूतरे के नीचे पान की पीक थूकी। , 'कोउ नृप होय हंमे का हानी ! साले सब एक से हैं जैसे साँपनाथ उइसेइ नागनाथ।’
'सेक्यलरिज़म तो खाली नारा है, अलग-अलग वर्गों को अलग-अलग लालच देते हैं रोज़गार भी संप्रदाय के आधार पर बाँट दें इनका बस चले तो। सब को अलग-अलग के सिर पे चढ़ाये ले रहे हैं। इकतीस साल बीत गये अभी निपल लगा के दूध पिलाये रहे हैं जाने अपने पाँव पे कब खड़े हो पायेंगे।’
बोलते-बोलते मास्टर का मुँह लाल पड़ गया था।
'और खुद का हैं? अपने मतलब पूरन के लै जो बीच में आय जाये उसई को ठिकाने लगाय देते हैं। सुसरे। इन्सान की जान की कोई कीमतै नहीं।’
'वो देखो न कल के पेपर में रहे, जो इनकी पोल खोले उसे कैसे उखाड़ देते हैंगे।’
तरु कान लगा कर सुनने लगी।
'गुंडागीरी की तो हद है। ऊ केस भया था बड़े-बड़े लोगों की फँसत भयी। फिर एक अपहरण अउर हत्या!’
तरु हाथ में पैकेट पकड़े वैसे ही खड़ी, कान उधऱ ही लगे हैं
'गरीब मेहरिया की आबरू कहूँ सुरच्छित नहीं।’
मन में अजीब सी हलचल होने लगी।
दो-तीन लोग एक साथ बोल देते हैं -कुछ समझ में नहीं आ रहा। चुनिया के केस की बात है क्या?
'दुस्मनी होय आदमी से, खींची जाय मेहरिया।’
'इहै होता है दुनिया में। करै आदमी भरै बहुरिया।”
जी धक् से हो गया।
नहीं, वह नहीं हो सकती। उसकी किसी से क्या दुश्मनी!
एकदम लिली का ध्यान क्यों आ गया।
तो भी। वह नहीं हो सकती। धमकियाँ विपिन को मिल रही हैं। लवलीन की किसी को क्या दुश्मनी।
उसने आगे बढ़ कर पैकेट मेज़ पर रख दिये।
इतने में गली से आगेवाली सड़क पर कुछ हल्ला उठा। लोग खड़े होकर देखने लगे।
चबूतरे से झुक कर सड़क पर झाँकते वर्मा जी बोले, ’ अभी सब्ज़ी खरीदते सब ठीकै-ठाक था।’
वर्मा जी घर भूर-भाल कर सब्ज़ी का थैला साइड में रख कर बैठ गये। शुक्ला जी ने बनियान की जेब से चूने-तंबाकू की डिबिया निकाल ली।
'जीप, टैक्सी, स्कूटर, बैंड-बाजा सब है। अरे, लड़िकन का जलूस है!’
'डीएवी कालेज का इलेक्सन है, दोनउ उम्मीदवार जान की बाजी लगाय दिये हैं। पिछलीबार तो छुराबाजी भई थी।’सूचना देनेवाले शुक्लाजी हैं, ’अबके गोलियाँ तो एक बार चल चुकीं, आगे देखो का होय?'
'कालिजन का चुनाव और सहर भर में हल्ला।’, वर्मा जी ने फिर पान पीका।
'पढ़ाई-लिखाई सब भाड़ में, अभै से नेतगीरी सीख लेत हैंगे। कोई इनसे पूछे वोट देनेवाले -लेनेवाले उसी कालिज के फिर काहे दुनिया भर में फैन मचाये हो? बाप का पैसा है, लुटाय रहे हैं।’
मास्टर जी ने स्पष्टीकरण दिया, ’ कराता है नेता। वो पार्टीवाले इन्हें संरक्षण देते हैं और स्कूल कालेज में अपनी पालिटिक्स चलाते हैं। यहाँ भी वोई होता है, गुटबंदी, मारपीट और गुंडई।’
'अभै से से टिरेनिंग दे रहे हैं कि बेटा आगे येई करना है।’
मास्टर का लड़का डी। ए। वी। से बीएस। सी। कर रहा है -जुलूस की आवाज़ सुन बाहर निकल आया।
'काहे बबुआ, ई सब का करवाय रहे हो? और कऊन-कऊन हैं इन लोगन में?’
'हम लोग साइन्साइ़ के हैं हमारे पास इतना टाइम ही कहाँ? प्रतापसिंह, और सुमेर दोनो ही मैदान में हैं -बराबर की टक्कर है। सुमेर ने तो चालीस हजार लगा दिये।’
वर्मा को ताज्जुब हुआ, ’बाप ने इत्ता रुपैया दै दिया?’
'उसे कांग्रेस का सपोर्ट मिला है। अभी एक मकान बेचा था उसी का पैसै मिला सो इलेक्शन में लगा दिया’
'अरे चालीस हजार खर्च किये, ’मास्टर ने बात समझाई, 'जीत गये तो समझो आ गये राजनीति में, फिर तो पचासगुने कमा लेंगे। लग्गू-भग्गू अभी से साथ लग जायेंगे। सारे दंद-फंद अभी से सीखते चलेंगे।’
'काहे, तुम किसे वोट दे रहे हो बबुआ?'
'हम तो सुमेर को ही देंगे, कह रहा है जीत गये तो छात्रों के हित के लिये लड़ेंगे, पोस्टों में रिज़र्वेशन खतम करायेंगे। छात्र-वृत्ति योग्यता और आर्थिक स्थिति के हिसाब से मिलेगी। और भी बहुत से प्लान्स हैं’
'करा लिये भइय़े, करा लिये। सब करा लिये। , 'वर्मा जी उठकर खड़े हो गये, ’सरू-सुरू में सब ऐसे ही डकराते हैं।’
और अपना झोला उठा कर चल दिये।
बताइये चाचा जी, एक तिहाई कोटा रिज़र्व हो जायेगा तो हम लोग क्या करेंगे?
इसीलिये लड़के इतना शोर मचा रहे हैं।’
तरु का मन उधऱ ही लगा है -पर उस बारे में कोई बात नहीं हो रही। टॉपिक ही बदल गया है
क्या सुना था अभी थोड़ी देर पहले?
'दुस्मनी होय आदमी से, खींची जाय मेहरिया।’
फिर किसी लड़की को।
औरत कहा ब्याही हुई होगी, नहीं तो लड़की कहते न।
इतने दिन हो गये चुनिया के केस को चलते, वही तो नहीं। ?
स्तब्ध-सी बैठी है।
बाहर वार्तालाप चल रहा है, आवाज़ें कान तक पहुँच रही हैं कि नहीं!
'लड़कों को इसमें नहीं पड़ना चाहिये, ’ध्यानू मास्टर ने ज़ोर से कहा, ’तुम अपनी पढ़ाई लग कर करो, तुम्हें औरों से क्या?’
'हमें कुछ क्यों नहीं, बाऊ जी? हम फस्ट डिवीजन लायें, तो भी हमें कोई नहीं पूछेगा और वो चार साल में सरकारी मदद से थर्ड ले आये तो पहले नौकरी उन्हें मिलेगी, पहले प्रमोशन उनका होगा चाहे करना-धरना कुछ न आये। ज्यादा तो हमें ही मतलब है।’
मास्टर जी की पत्नी कूड़ा फेंकने निकली थीं, वहीं रुक कर सुनने लगीं।
उन्होंने लड़के की बात पर प्रतिक्रिया व्यक्त की, ’ये तो बहोत गलत बात है।’
शुक्लाजी और मास्टर जी चौंक कर उधर देखने लगे।
वे कह रहीं थीं, ’लायकियत पे देना चाहिये काम। ये क्या कि वो ऐसी जात के हैं तो वो ज्यादा सगे हो गये। और हमारे बच्चे लायक हो कर भी नालायक हो गये!’
'वजीफ़े उन्हें अलग से, उमर में छूट अलग से।’बबुआ ने जोड़ा।’
मास्टर जी को बड़ा नागवार गुज़र रहा था, पर चुप लगाये रहे। मास्टरनी को अपने होनहार पूत पर बड़ी उम्मीदें थीं। सरकार की नाइन्साफ़ी सबसे ज्यादा उन्हें खटकी, ’हमारे बच्चे पैसा लगाय के मेहनत करके पढ़ें और सब बेकार जाय, फिर ये करेंगे क्या?’
' डंडे चटखायेंगे, बेकार घूमेंगे। अऊर का?’ शुक्ला जी अपनी बीती बोले।
'वो थर्ड डिवीजन में हो के अच्छा काम कर लेंगे? मास्टरनी के मन में द्विविधा थी।
'लड़के कह रहे हैं आग लगा देंगे।’बबुआ ने सनसनीखेज़ सूचना दी।
मास्टर जी चौंक गये, ’कहाँ लगा देंगे आग?'
'ये हमें नहीं मालूम। पर कह रहे थे कुछ करेंगे ज़रूर।’
'तुम मत पड़ना इस सब में। तोड़-फोड़। आगज़नी, लूट-पाट, क्या होगा इससे?’
शुक्ला जी तंबाकू दबाये सुनते रहे।
'फिर काहे से होगा? ये लोग तो इलेक्सन के पहले ही वादे करके वोट माँगेंगे, और फिर हमारा क्या होगा?’
'तुम चुपचाप पढ़ो बैठ के, ’मास्टर जी रोष में आ गये, ’चलो अंदर, तुम इस सब में नहीं पड़ोगे।’
बबुआ को घर चलने का इशारा करते हुये वे उठ पड़े।
मास्टरनी पहले ही चल दी थीं, पीछे-पीछे जाता हुआ बबुआ कह रहा था, ’किसी को कुछ नहीं करना तो कौन आगे आयेगा? क्या फ़ायदा इस पढ़ने-लिखने से?। हमारे लिये कोई कुछ नहीं करेगा, हमें अपने आप लड़ना पड़ेगा।’
मास्टर जी अंदर जा कर आँगन में खड़े हो गये और अंदर आते लड़के को डाँटा, ’अच्छा ज्यादा ज़बान मत चलाओ, हमारी अपने बाप के आगे बोलने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। अभी किसी लायक नहीं तब ये हाल हैं।’
'अरे, तो क्या कह रहा है, ’ माँ ने बेटे का पक्ष लिया, ’भुगतना तो उसी को पड़ेगा। और अपनी सोचो सुराज के पीछे तुमने नहीं पढ़ाई छोड़़ी? नहीं तो आज मास्टरी करते न झींकते होते।’
'मास्टर जी की दुखती रग छू दी थी उ्होंने, एकदम बौखला गये, ’तुम और ओरी ले ले के बिगाड़ो। कहो जा के लगाये आग, गिरफ़्तार होये जाके, फिर मुझसे मत कहना लाओ छुड़ा के।’
'काहे गिरफ़्तार होगा शान्ति से सब समझ जायेगा।’
मन का आक्रोश दबाये लड़का चुप खड़ा रहा।